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| तीसरा और सब से बड़ा अवरोध मन के स्तर का है। छात्रों का मन एकाग्र नहीं होना यह आम बात है । कक्षा में पढ़ने के लिये बैठें तो हैं, अध्यापक कुछ बोल रहा है अथवा छात्रों को पढ़ने के लिये दिया है, सामने पुस्तक भी खुली पड़ी है, चर्म चक्षु तो पुस्तक में लिखा हुआ देख रहे हैं, शारीरिक कान अध्यापक क्या कह रहे हैं वह सुन रहे हैं परन्तु मन के कान कहीं और हैं और कोई दूसरी बात न रहे हैं । दूसरी सुनी हुई बात का स्मरण हो रहा हैं । मन की आँखें और ही कुछ देख रही हैं और उस देखे हुए दृश्य का आनन्द ले रही हैं । इसका ध्यान ही कक्षा कक्ष में क्या हो रहा है इसकी ओर नहीं है । ऐसे छात्र अध्ययन का पहला चरण भी पार नहीं कर पाते हैं । वे ग्रहणशील नहीं होते हैं अर्थात् जो भी अध्ययन हो रहा है वह उनके अन्दर जाता ही नहीं है । ज्ञानेन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण ही नहीं करती है तो ज्ञान के स्तर तक पहुँचने की कोई सम्भावना ही नहीं है । इसलिये जो हो रहा है वहीं पर मन को एकाग्र करना आवश्यक होता है। छात्र कभी एकाध शब्द सुनते हैं और फिर शेष ध्यान उनका और कहीं चला जाता है। ऐसा बार बार एकाग्रता का भंग होना वर्तमान कक्षा कक्ष में बहुत ही प्रचलन में है, बहुत ही सामान्य बात है । दूसरा मन के स्तर का अवरोध है, समझ में नहीं आना । यह वैसे बुद्धि, तेजस्वी नहीं होने का लक्षण है परन्तु अवरोध तो मन के स्तर का है । क्योंकि मन कहीं और लगा हुआ है । मन की रूचि अध्ययन में नहीं बन रही है । मन तनाव ग्रस्त है । मन उत्तेजना ग्रस्त है, शान्त नहीं है इसलिये वह ग्रहण नहीं कर पाता है । और जो ग्रहण किया है उसकी धारणा नहीं कर पाता है । ग्रहण नहीं करने के कारण से जो कुछ भी अध्ययन करता है वह आधा अधूरा होता है । उत्तेजना के कारण से जो भी ग्रहण करता है वह खण्ड खण्ड में करता है और उसकी समझ आधी अधूरी और बहुत ही मिश्रित स्वरूप की बनती है । इसलिये मन का शान्त होना बहुत ही आवश्यक है । उदाहरण के लिये एक पात्र में यदि २०० ग्राम दूध समाता है तो फिर उसमें कितना भी अधिक दूध डालो, वह तो केवल २०० ग्राम ही ग्रहण करेगा बाकी सारा दूध बह जायेगा । कक्षा कक्षों की भी यही स्थिति होती है। अध्यापक पढ़ाते ही जाते हैं पढ़ाते ही जाते हैं परन्तु छात्रों की ग्रहणशीलता कम होने के कारण से वह सब निर्रर्थक हो जाता है । छात्रों का पात्र तो छोटा का छोटा ही रह जाता है । इसलिये इस अवरोध को पार करने के लिये मन को शान्त रखना बहुत आवश्यक है । मन को शान्त रखने के उपाय की ओर हम बाद में ध्यान देंगे परन्तु मन के स्तर के जो अवरोध हैं उनको पार किये बिना ज्ञान सम्पादन होना तो असम्भव है । | | तीसरा और सब से बड़ा अवरोध मन के स्तर का है। छात्रों का मन एकाग्र नहीं होना यह आम बात है । कक्षा में पढ़ने के लिये बैठें तो हैं, अध्यापक कुछ बोल रहा है अथवा छात्रों को पढ़ने के लिये दिया है, सामने पुस्तक भी खुली पड़ी है, चर्म चक्षु तो पुस्तक में लिखा हुआ देख रहे हैं, शारीरिक कान अध्यापक क्या कह रहे हैं वह सुन रहे हैं परन्तु मन के कान कहीं और हैं और कोई दूसरी बात न रहे हैं । दूसरी सुनी हुई बात का स्मरण हो रहा हैं । मन की आँखें और ही कुछ देख रही हैं और उस देखे हुए दृश्य का आनन्द ले रही हैं । इसका ध्यान ही कक्षा कक्ष में क्या हो रहा है इसकी ओर नहीं है । ऐसे छात्र अध्ययन का पहला चरण भी पार नहीं कर पाते हैं । वे ग्रहणशील नहीं होते हैं अर्थात् जो भी अध्ययन हो रहा है वह उनके अन्दर जाता ही नहीं है । ज्ञानेन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण ही नहीं करती है तो ज्ञान के स्तर तक पहुँचने की कोई सम्भावना ही नहीं है । इसलिये जो हो रहा है वहीं पर मन को एकाग्र करना आवश्यक होता है। छात्र कभी एकाध शब्द सुनते हैं और फिर शेष ध्यान उनका और कहीं चला जाता है। ऐसा बार बार एकाग्रता का भंग होना वर्तमान कक्षा कक्ष में बहुत ही प्रचलन में है, बहुत ही सामान्य बात है । दूसरा मन के स्तर का अवरोध है, समझ में नहीं आना । यह वैसे बुद्धि, तेजस्वी नहीं होने का लक्षण है परन्तु अवरोध तो मन के स्तर का है । क्योंकि मन कहीं और लगा हुआ है । मन की रूचि अध्ययन में नहीं बन रही है । मन तनाव ग्रस्त है । मन उत्तेजना ग्रस्त है, शान्त नहीं है इसलिये वह ग्रहण नहीं कर पाता है । और जो ग्रहण किया है उसकी धारणा नहीं कर पाता है । ग्रहण नहीं करने के कारण से जो कुछ भी अध्ययन करता है वह आधा अधूरा होता है । उत्तेजना के कारण से जो भी ग्रहण करता है वह खण्ड खण्ड में करता है और उसकी समझ आधी अधूरी और बहुत ही मिश्रित स्वरूप की बनती है । इसलिये मन का शान्त होना बहुत ही आवश्यक है । उदाहरण के लिये एक पात्र में यदि २०० ग्राम दूध समाता है तो फिर उसमें कितना भी अधिक दूध डालो, वह तो केवल २०० ग्राम ही ग्रहण करेगा बाकी सारा दूध बह जायेगा । कक्षा कक्षों की भी यही स्थिति होती है। अध्यापक पढ़ाते ही जाते हैं पढ़ाते ही जाते हैं परन्तु छात्रों की ग्रहणशीलता कम होने के कारण से वह सब निर्रर्थक हो जाता है । छात्रों का पात्र तो छोटा का छोटा ही रह जाता है । इसलिये इस अवरोध को पार करने के लिये मन को शान्त रखना बहुत आवश्यक है । मन को शान्त रखने के उपाय की ओर हम बाद में ध्यान देंगे परन्तु मन के स्तर के जो अवरोध हैं उनको पार किये बिना ज्ञान सम्पादन होना तो असम्भव है । |
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− | मन के साथ साथ ही बुद्धि भी जुड़ी हुई है । बुद्धि तेजस्वी नहीं होने का कारण भी मन की चंचलता ही है और मन के विकार ही हैं । बुद्धि को अभ्यास नहीं होने के कारण से वह ठीक से ग्रहण नहीं कर पाती, ठीक से समझ नहीं पाती । हम यह तो बहुत सुनते हैं कि अध्यापक तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं परन्तु छात्रों को समझ में ही नहीं आता । इसका बहुत बड़ा कारण कहीं अध्ययन और अध्यापन की अनुचित पद्धति भी है । उदाहरण के लिये भाषा तो सुन कर, बोलकर पढ़ कर, लिख कर, सीखा जाने वाला विषय है परन्तु ये चार तो भाषा के केवल कौशल हैं । आगे रस ग्रहण करना, मर्म समझना, सार ग्रहण करना आदि बुद्धि के स्तर की बातें हैं। अब हम यदि सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना इतने में ही भाषा को सीमित रखेंगे तो आगे व्याकरण, साहित्य, काव्य आदि बातें तो समझ में नहीं आयेंगी । तत्त्व चिन्तन भी समझ में नहीं आयेगा, इसलिये बुद्धि से सीखी जाने वाली बातें बुद्धि से ही सीखी जाती हैं। अभ्यास से सीखी जाने वाली बातें अभ्यास से सीखी जाती हैं । ऐसा एक सूत्र अध्ययन अध्यापन करते समय हमें ध्यान में रखने की बहुत आवश्यकता है । इसी प्रकार से बुद्धि के क्षेत्र के अवरोधों का एक कारण विभिन्न विषय सिखाने की एक समान पद्धति है । उदाहरण के लिये भूगोल कभी भी पुस्तकों से पढ़ाया नहीं जा सकता । विज्ञान कभी भी पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जाता । गणित भाषा के कौशलों से सीखा नहीं जाता । इतिहास तत्त्व चिन्तन से सीखा नहीं जाता । विज्ञान प्रयोगशाला में सीखा जाता है । गणित कृति से ही सिखा जाता है । इतिहास कहानी सुनकर सीखा जाता है । भूगोल मैदान में जा कर सीखा जाता है । वाणिज्य बाजार में जाकर, दुकान में जाकर सीखा जाता है । इस प्रकार विभिन्न विषय सीखने की अलग अलग पद्धतियाँ होती हैं । यदि हम सभी विषयों को पुस्तकों के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, अध्यापक के भाषण के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, कक्षाकक्ष में बैठकर एक निश्चित समय की अवधि के दौरान ही सीखने का आग्रह रखते हैं तो ये कभी भी सीखे नहीं जाते । | + | मन के साथ साथ ही बुद्धि भी जुड़ी हुई है । बुद्धि तेजस्वी नहीं होने का कारण भी मन की चंचलता ही है और मन के विकार ही हैं । बुद्धि को अभ्यास नहीं होने के कारण से वह ठीक से ग्रहण नहीं कर पाती, ठीक से समझ नहीं पाती । हम यह तो बहुत सुनते हैं कि अध्यापक तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं परन्तु छात्रों को समझ में ही नहीं आता । इसका बहुत बड़ा कारण कहीं अध्ययन और अध्यापन की अनुचित पद्धति भी है । उदाहरण के लिये भाषा तो सुन कर, बोलकर पढ़ कर, लिख कर, सीखा जाने वाला विषय है परन्तु ये चार तो भाषा के केवल कौशल हैं । आगे रस ग्रहण करना, मर्म समझना, सार ग्रहण करना आदि बुद्धि के स्तर की बातें हैं। अब हम यदि सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना इतने में ही भाषा को सीमित रखेंगे तो आगे व्याकरण, साहित्य, काव्य आदि बातें तो समझ में नहीं आयेंगी । तत्त्व चिन्तन भी समझ में नहीं आयेगा, इसलिये बुद्धि से सीखी जाने वाली बातें बुद्धि से ही सीखी जाती हैं। अभ्यास से सीखी जाने वाली बातें अभ्यास से सीखी जाती हैं । ऐसा एक सूत्र अध्ययन अध्यापन करते समय हमें ध्यान में रखने की बहुत आवश्यकता है । इसी प्रकार से बुद्धि के क्षेत्र के अवरोधों का एक कारण विभिन्न विषय सिखाने की एक समान पद्धति है । उदाहरण के लिये भूगोल कभी भी पुस्तकों से पढ़ाया नहीं जा सकता । विज्ञान कभी भी पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जाता । गणित भाषा के कौशलों से सीखा नहीं जाता । इतिहास तत्त्व चिन्तन से सीखा नहीं जाता । विज्ञान प्रयोगशाला में सीखा जाता है । गणित कृति से ही सिखा जाता है । इतिहास कहानी सुनकर सीखा जाता है । भूगोल मैदान में जा कर सीखा जाता है । वाणिज्य बाजार में जाकर, दुकान में जाकर सीखा जाता है । इस प्रकार विभिन्न विषय सीखने की अलग अलग पद्धतियाँ होती हैं । यदि हम सभी विषयों को पुस्तकों के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, अध्यापक के भाषण के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, कक्षाकक्ष में बैठकर एक निश्चित समय की अवधि के दौरान ही सीखने का आग्रह रखते हैं तो ये कभी भी सीखे नहीं जाते । सीखने का केवल आभास ही निर्माण होता है। विभिन्न विषयों के लिये विभिन्न पद्धतियाँ अपनाने से ही अध्ययन अच्छा होता है। ऐसी पद्धतियाँ नहीं अपनाई जायेगी तो बुद्धि का विकास भी नहीं होता और बुद्धि के जितने भी साधन हैं उन साधनों का उपयोग भी करना नहीं आता । बुद्धि के साधन हैं तर्क और अनुमान । बुद्धि के साधन हैं निरिक्षण और परीक्षण । बुद्धि के साधन हैं संश्लेषण और विश्लेषण । बुद्धि के साधन हैं कार्यकारण भाव समझना । इन सारे साधनों का प्रयोग करके उनका ठीक से अभ्यास किया जाय तो बुद्धि का विकास होता है और बुद्धि के विकास से ही सारी बातें सीखी जाती हैं । अध्ययन अच्छा होता है। अध्ययन वैसे खास बुद्धि का ही क्षेत्र है परन्तु शरीर और मन उसमें या तो साधक या तो बाधक हो सकते हैं। शरीर और मन को ठीक किये बिना बुद्धि अध्ययन करने का काम कर ही नहीं सकती। |
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− | ''... के अनुकूल होता है । मनस्थिति पर,''
| + | == बुद्धि को साधना == |
| + | बुद्धि को साधने के साथ ही उसके सारे साधन तराशे बिना, उनको सक्षम किये बिना अध्ययन हो नहीं सकता । इसलिये शरीर, मन और बुद्धि तीनों को पहले ठीक करने चाहिये । ये ठीक करने के उपाय कौन से हैं ? और एक बात, मन एकाग्र भी हो जाये, मन में रुचि भी निर्माण हो जाये, मन शान्त भी हो जाये, तो भी मन यदि सद्गुणी नहीं है और शरीर के माध्यम से सदाचारी नहीं हैं तो भी बुद्धि अच्छी नहीं होती। फिर लिखी हुई बातों का विनियोग गलत ढंग से होता है । इसलिये मन को शान्त बनाने के साथ साथ सद्गुणी बनाना बहुत आवश्यक है। यह सब कैसे किया जाये ? तो यह सब करने के लिये पहले ही बताया है कि आहार विहार तो ठीक होना ही चाहिये । दिनचर्या ठीक होनी चाहिये । दिनचर्या का विज्ञान कहता है कि शरीर, मन और बुद्धि के विभिन्न कार्य करने के लिये दिन के चौबीस घन्टे के विभिन्न प्रहर निश्चित किये हुये हैं। उस समय वातावरण भी ठीक होता हैं और मानस भी उसी के अनुकूल होता है। मनस्थिति पर, ( 1 ) शरीर स्थिति पर उसका प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये, ब्राह्ममुहूर्त के दो प्रहर अथवा चार घटिका, चिन्तन, मनन, कण्ठस्थिकरण आदि के लिये सर्वाधिक उपयुक्त समय है । प्रातः काल ६ बजे से दस बजे तक का समय अध्ययन के लिये सर्वाधिक अनुकूल है । सायं काल के ६ बजे से दस बजे का समय भी अध्ययन करने के लिये सर्वाधिक अनुकूल है । उस समय इस अध्ययन में मनन, चिन्तन, कण्ठस्थिकरण, ध्यान, साधना, जप, नामस्मरण आदि सभी का समावेश होता है। उसी प्रकार सायं काल में इन सभी के साथ साथ कथा श्रवण का भी समावेश होता है । इसलिये हम नियोजन करते समय इस समय का भी ध्यान रखें । उदाहरण के लिये भोजन के बाद का दो प्रहर का समय अर्थात् चार घटिका का समय शरीर, मन और बुद्धि के परिश्रम के लिये सर्वथा प्रतिकूल समय है। इसलिये भोजन के बाद शारीरिक और बौद्धिक श्रम बिल्कुल ही नहीं करना चाहिये । करने से दोनों और से नुकसान होता है । पहला पाचन भी ठीक नहीं होता दूसरा शरीर भी थक जाता है और तीसरा विषय ग्रहण भी नहीं हो सकता माने बुद्धि ग्रहणशील भी नहीं रहती। अतः पाचन भी ठीक नहीं होता और अध्ययन भी ठीक नहीं होता । ऐसे दोनों और से नुकसान होता है। |
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− | ''सीखने का केवल आभास ही निर्माण होता है । विभिन्न... शरीर स्थिति पर उसका प्रभाव पड़ता है । उदाहरण के लिये''
| + | जिस प्रकार अध्ययन का समय निश्चित है उसी प्रकार भोजन और निद्रा का भी समय निश्चित होता है। भोजन पचाने के लिये जठराग्नि प्रदिप्त होने की आवश्यकता होती है। जैसे जैसे सूर्य प्रखर होता जाता है वैसे वैसे जठराग्नि भी प्रदीप्त होती जाती है, क्योंकि ब्रह्माण्ड और पीण्ड दोनों का एक दूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है, सम सम्बन्ध है। इसलिये दोपहर का भोजन मध्याहन के पूर्व ही ले लेना चाहिये । सायंकाल का भोजन सूर्यास्त से पहले हो जाना चाहिये । यह शरीर स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये भोजन की योजना भी अध्ययन का समय और भोजन का समय ध्यान में रखते हुए विचार पूर्वक होनी चाहिये । आजकल हम देखते हैं कि भोजन के समय में मध्याह्न और सायंकाल अत्यन्त प्रतिकूल हैं इसलिये शरीर स्वास्थ्य और मन स्वास्थ्य भी बहुत ही बिगड़ा रहता है और अध्ययन ठीक से होना असम्भव हो जाता है । नींद का विज्ञान यह कहता है कि रात को बारह बजे से पहले की एक घन्टे की निद्रा बारह बजे के बाद दो घन्टे की निद्रा के बराबर होती है । इसलिये रात्रि में जल्दी सोने की आदत बनानी ही चाहिये | रात को जल्दी सोने से नींद भी अच्छी आती है नींद की गुणवत्ता अच्छी रहती है और कम निद्रा से अधिक आराम मिलता है। इसके साथ ही आहार और निद्रा का तालमेल अत्यन्त आवश्यक हैं । छात्रों को चाहे वे छोटी आयु के हों या बड़ी आयु के हों व्यायामशाला में जाकर अथवा मैदान में जाकर पूर्ण मनोयोग से, आनन्द से खेलना चाहिये । ये खेल बुद्धि के खेल नहीं है । ये खेल कैरम या बुद्धि बल अथवा शतरंज अथवा विडयोगेम्स आदि नहीं है । ये खेल शारीरिक हैं अर्थात् जिसमें दौड़ना, भागना, खींचना, पकड़ना, चिल्लाना मिट्टी में लोटपोट होना यह सब होता है । ऐसे खेलों की छोटे बड़े सभी को बहुत आवश्यकता है । बड़े छात्रों को तो व्यायामशाला में जाकर प्रातःकाल और सायंकाल सूर्यनमस्कार, दण्डबैठक, मलखम्भ, कुश्ती आदि सारे खेल अनिवार्य रूप से खेलना ही चाहिये । खेल में समय व्यतीत करना यह बर्बाद करना नहीं है । खेल शरीर और प्राण को तो पुष्टि देने वाले होते हैं साथ में मन को साफ करने वाले और बुद्धि को तेजस्वी बनाने वाले भी होते हैं । इसलिये जो लोग खेलने का समय काट कर अध्ययन का समय बढ़ाते हैं वे भी सर्वतोमुखी हानि ही करते हैं । छात्र की भी हानि करते हैं अध्यापक की भी हानि करते हैं और शिक्षा की भी हानि करते हैं क्योंकि ज्ञान तब अनाश्रित हो जाता है । कहाँ जाकर वह आश्रय करे, न अध्ययन करनेवाला उसके लिये ठीक आश्रय है, न अध्यापन करनेवाला भी उसका ठीक आश्रय है । इसलिये ज्ञान को अनाश्रित बना देने से समाज का ही बहुत भारी नुकसान होता है । इसलिये आज आवश्यक है कि समाज में व्यायामशालाओं की प्रतिष्ठा हो, मैदानों की प्रतिष्ठा हो, खेलों की प्रतिष्ठा हो । और उससे जो बड़ा सुडौल और सौष्ठतवपूर्ण स्वस्थ और बलवान शरीर बनता है, स्वच्छ मन बनता है, उत्साहपूर्ण प्राण बनते हैं और तेजस्वी और कुशाग्र बुद्धि बनती है उसकी प्रतिष्ठा हो । |
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− | ''विषयों के लिये विभिन्न पद्धतियाँ अपनाने से ही अध्ययन... - seed के दो प्रहर अथवा चार घटिका, चिन्तन,''
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− | ''अच्छा होता है । ऐसी पद्धतियाँ नहीं अपनाई जायेगी तो... मनन, कण्ठस्थिकरण आदि के लिये सर्वाधिक उपयुक्त''
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− | ''बुद्धि का विकास भी नहीं होता और बुद्धि के जितने भी. समय है । प्रातः काल ६ बजे से दस बजे तक का समय''
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− | ''साधन हैं उन साधनों का उपयोग भी करना नहीं आता ।.... अध्ययन के लिये सर्वाधिक अनुकूल है । साय॑ काल के ६''
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− | ''बुद्धि के साधन हैं तर्क और अनुमान । बुद्धि के साधन हैं... बजे से दस बजे का समय भी अध्ययन करने के लिये''
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− | ''निरिक्षण और परीक्षण । बुद्धि के साधन हैं संश्लेषण और. सर्वाधिक अनुकूल है । उस समय इस अध्ययन में मनन,''
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− | ''विश्लेषण । बुद्धि के साधन हैं कार्यकारण भाव समझना । .... चिन्तन, कण्ठस्थिकरण, ध्यान, साधना, जप, नामस्मरण''
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− | ''इन सारे साधनों का प्रयोग करके उनका ठीक से अभ्यास... आदि सभी का समावेश होता है । उसी प्रकार साय॑ काल''
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− | ''किया जाय तो बुद्धि का विकास होता है और बुद्धि के. में इन सभी के साथ साथ कथा श्रवण का भी समावेश''
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− | ''विकास से ही सारी बातें सीखी जाती हैं । अध्ययन अच्छा... होता है । इसलिये हम नियोजन करते समय इस समय का''
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− | ''होता है । अध्ययन वैसे खास बुद्धि का ही क्षेत्र है परन्तु . भी ध्यान रखें । उदाहरण के लिये भोजन के बाद का दो''
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− | ''शरीर और मन उसमें या तो साधक या तो बाधक हो सकते... प्रहर का समय अर्थात् चार घटिका का समय शरीर, मन''
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− | ''हैं। शरीर और मन को ठीक किये बिना बुद्धि अध्ययन... और बुद्धि के परिश्रम के लिये सर्वथा प्रतिकूल समय है ।''
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− | ''करने का काम कर ही नहीं सकती । इसलिये भोजन के बाद शारीरिक और बौद्धिक श्रम''
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− | ''बिल्कुल ही नहीं करना चाहिये । करने से दोनों और से''
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− | == ''बुद्धि को साधना'' ==
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− | ''नुकसान होता है । पहला पाचन भी ठीक नहीं होता दूसरा''
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− | ''बुद्धि को साधने के साथ ही उसके सारे साधन तराशे ... शरीर भी थक जाता है और तीसरा विषय ग्रहण भी नहीं हो''
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− | ''बिना, उनको सक्षम किये बिना अध्ययन हो नहीं सकता |. सकता माने बुद्धि ग्रहणशील भी नहीं रहती । अतः पाचन''
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− | ''इसलिये शरीर, मन और बुद्धि तीनों को पहले ठीक करने. भी ठीक नहीं होता और अध्ययन भी ठीक नहीं होता ।''
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− | ''चाहिये । ये ठीक करने के उपाय कौन से हैं ? और एक... ऐसे दोनों और से नुकसान होता है । जिस प्रकार अध्ययन''
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− | ''बात, मन एकाग्र भी हो जाये, मन में रुचि भी निर्माण हो... का समय निश्चित है उसी प्रकार भोजन और निद्रा का भी''
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− | ''जाये, मन शान्त भी हो जाये, तो भी मन यदि सदूगुणी नहीं. समय निश्चित होता है। भोजन पचाने के लिये जठराग्रि''
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− | ''है और शरीर के माध्यम से सदाचारी नहीं हैं तो भी बुद्धि _ प्रदिप्त होने की आवश्यकता होती है । जैसे जैसे सूर्य प्रखर''
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− | ''अच्छी नहीं होती । फिर लिखी हुई बातों का विनियोग... होता जाता है वैसे वैसे जठराप्नि भी प्रदीप्त होती जाती है,''
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− | ''गलत ढंग से होता है । इसलिये मन को शान्त बनाने के . क्योंकि ब्रह्माण्ड और पीण्ड दोनों का एक दूसरे के साथ''
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− | ''साथ साथ सदूगुणी बनाना बहुत आवश्यक है । यह सब . सीधा सम्बन्ध है, सम सम्बन्ध है । इसलिये दोपहर का''
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− | ''कैसे किया जाये ? तो यह सब करने के लिये पहले ही... भोजन मध्याहन के पूर्व ही ले लेना चाहिये । सायंकाल का''
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− | ''बताया है कि आहार विहार तो ठीक होना ही चाहिये ।.. भोजन सूर्यास्त से पहले हो जाना चाहिये । यह शरीर''
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− | ''दिनचर्या ठीक होनी चाहिये । दिनचर्या का विज्ञान कहता है... स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है । इसलिये भोजन''
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− | ''कि शरीर, मन और बुद्धि के विभिन्न कार्य करने के लिये. की योजना भी अध्ययन का समय और भोजन का समय''
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− | ''दिन के चौबीस घन्टे के विभिन्न प्रहर निश्चित किये हुये हैं । _ ध्यान में रखते हुए विचार पूर्वक होनी चाहिये । आजकल''
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− | ''उस समय वातावरण भी ठीक होता हैं और मानस भी उसी... हम देखते हैं कि भोजन के समय में मध्याह्म और सायंकाल''
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− | अत्यन्त प्रतिकूल हैं इसलिये शरीर स्वास्थ्य और मन स्वास्थ्य भी बहुत ही बिगड़ा रहता है और अध्ययन ठीक से होना असम्भव हो जाता है । नींद का विज्ञान यह कहता है कि रात को बारह बजे से पहले की एक घन्टे की निद्रा बारह बजे के बाद दो घन्टे की निद्रा के बराबर होती है । इसलिये रात्रि में जल्दी सोने की आदत बनानी ही चाहिये | रात को जल्दी सोने से नींद भी अच्छी आती है नींद की गुणवत्ता अच्छी रहती है और कम निद्रा से अधिक आराम मिलता है । इसके साथ ही आहार और निद्रा का तालमेल अत्यन्त आवश्यक हैं । छात्रों को चाहे वे छोटी आयु के हों या बड़ी आयु के हों व्यायामशाला में जाकर अथवा मैदान में जाकर पूर्ण मनोयोग से, आनन्द से खेलना चाहिये । ये खेल बुद्धि के खेल नहीं है । ये खेल कैरम या बुद्धि बल अथवा शतरंज अथवा विडयोगेम्स आदि नहीं है । ये खेल शारीरिक हैं अर्थात् जिसमें दौड़ना, भागना, खींचना, पकड़ना, चिल्लाना मिट्टी में लोटपोट होना यह सब होता है । ऐसे खेलों की छोटे बड़े सभी को बहुत आवश्यकता है । बड़े छात्रों को तो व्यायामशाला में जाकर प्रातःकाल और सायंकाल सूर्यनमस्कार, दण्डबैठक, मलखम्भ, कुश्ती आदि सारे खेल अनिवार्य रूप से खेलना ही चाहिये । खेल में समय व्यतीत करना यह बर्बाद करना नहीं है । खेल शरीर और प्राण को तो पुष्टि देने वाले होते हैं साथ में मन को साफ करने वाले और बुद्धि को तेजस्वी बनाने वाले भी होते हैं । इसलिये जो लोग खेलने का समय काट कर अध्ययन का समय बढ़ाते हैं वे भी सर्वतोमुखी हानि ही करते हैं । छात्र की भी हानि करते हैं अध्यापक की भी हानि करते हैं और शिक्षा की भी हानि करते हैं क्योंकि ज्ञान तब अनाश्रित हो जाता है । कहाँ जाकर वह आश्रय करे, न अध्ययन करनेवाला उसके लिये ठीक आश्रय है, न अध्यापन करनेवाला भी उसका ठीक आश्रय है । इसलिये ज्ञान को अनाश्रित बना देने से समाज का ही बहुत भारी नुकसान होता है । इसलिये आज आवश्यक है कि समाज में व्यायामशालाओं की प्रतिष्ठा हो, मैदानों की प्रतिष्ठा हो, खेलों की प्रतिष्ठा हो । और उससे जो बड़ा सुडौल और सौष्ठतवपूर्ण स्वस्थ और बलवान शरीर बनता है, स्वच्छ मन बनता है, उत्साहपूर्ण प्राण बनते हैं और तेजस्वी और कुशाग्र बुद्धि बनती है उसकी प्रतिष्ठा हो । | |
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| == मन को शान्त व एकाग्र बनाना == | | == मन को शान्त व एकाग्र बनाना == |