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→‎विज्ञानमय आत्मा: लेख सम्पादित किया
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मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है।
 
मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है।
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शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा। सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है । जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है। अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है।
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शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा। सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है। जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है। अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है।
    
== विज्ञानमय आत्मा ==
 
== विज्ञानमय आत्मा ==
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== आनन्दमय आत्मा ==
 
== आनन्दमय आत्मा ==
यह चित्त है । चित्त बड़ी अद्भुत चीज है । वह एक
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यह चित्त है । चित्त बड़ी अद्भुत चीज है । वह एक अत्यन्त पारदर्शक पर्दे जैसा है । चित्त बुद्धि से भी सूक्ष्म है । वह संस्कारों का अधिष्ठान है । संस्कार वह नहीं है जो हम मन के स्तर पर सद्गुण और सदभाव के रूप में जानते हैं ।
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अत्यन्त पारदर्शक पर्दे जैसा है । चित्त बुद्धि से भी सूक्ष्म है ।
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संस्कार चित्त पर पड़ने वाली छाप है । क्रिया, संवेदन, विचार, इच्छा, विवेक, निर्णय आदि सब संस्कार में रूपांतरित होकर चित्त में जमा होते हैं । संस्कार से स्मृति बनती है । संस्कार से हमारे कर्मफल बनते हैं । कर्मों के फल भुगतने ही होते हैं । जब तक कर्म के फल भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में चित्त में रहते हैं। एक के बाद एक संस्कारों की परतें बनती रहती है । जो सबसे ऊपर रहती है वह हमें शीघ्र स्मरण में रहती है । नई परत बनने से पुरानी परत दब जाती है और हम उसे भूल जाते हैं । जिस अनुभव की परत जितनी गहरी या तीव्र होती है उतनी ही उसकी स्मृति अधिक तेज और अधिक दीर्घकाल तक रहती है। दबी हुई स्मृति अनुकूल निमित्त मिलते ही ऊपर आ जाती है और हम कहते हैं कि भूली हुई बात याद आ गई
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वह संस्कारों का अधिष्ठान है । संस्कार वह नहीं है जो हम
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कोई भी घटना, कोई भी व्यक्ति, कोई भी पदार्थ निमित्त का काम कर सकता है। आनन्द, सौन्दर्य,स्वतंत्रता, सहजता, सृजन, अभय चित्त के विषय हैं । ये बुद्धि से परे हैं यह तो हम सहज समझ सकते हैं। उदाहरण के लिये काव्य या चित्र जैसी कलाकृति का सृजन बुद्धि का क्षेत्र नहीं है, वह चित्त का क्षेत्र है । यह अनुभूति के लगभग निकट जाता है यद्यपि यह अनुभूति नहीं है। चित्त के संस्कारों पर जब आत्मा का प्रकाश पड़ता है तब ज्ञान प्रकट होता है। यह ब्रह्मज्ञान है। जब तक यह ज्ञान नहीं होता तबतक व्यवहार के जगत का बुद्धिनिष्ठ ज्ञान ही व्यवहार का चालक रहता है।
 
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मन के स्तर पर सदुण और सद्धाव के रूप में जानते हैं ।
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संस्कार चित्त पर पड़ने वाली छाप है । क्रिया, संवेदन,
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विचार, इच्छा, विवेक, निर्णय आदि सब संस्कार में
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रूपांतरित होकर चित्त में जमा होते हैं । संस्कार से स्मृति
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बनती है । संस्कार से हमारे कर्मफल बनते हैं । कर्मों के फल
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भुगतने ही होते हैं । जब तक कर्म के फल भुगत नहीं लेते
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तब तक वे संस्कारों के रूप में चित्त में रहते हैं । एक के
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बाद एक संस्कारों की परतें बनती रहती है । जो सबसे ऊपर
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रहती है वह हमें शीघ्र स्मरण में रहती है । नई परत बनने से
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पुरानी परत दब जाती है और हम उसे भूल जाते हैं । जिस
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है। दबी हुई स्मृति अनुकूल निमित्त मिलते ही ऊपर आ
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जाती है और हम कहते हैं कि भूली हुई बात याद आ गई ।
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कोई भी घटना, कोई भी व्यक्ति, कोई भी पदार्थ निमित्त का
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काम कर सकता है ।
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चित्त के विषय हैं । ये बुद्धि से परे हैं यह तो हम सहज समझ
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सकते हैं । उदाहरण के लिये काव्य या चित्र जैसी कलाकृति
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का सृजन बुद्धि का क्षेत्र नहीं है, वह चित्त का क्षेत्र है । यह
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अनुभूति के लगभग निकट जाता है यद्यपि यह अनुभूति नहीं
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है। चित्त के संस्कारों पर जब आत्मा
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का प्रकाश पड़ता है तब ज्ञान प्रकट होता है । यह ब्रह्मज्ञान
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है । जब तक यह ज्ञान नहीं होता तबतक व्यवहार के जगत
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का बुद्धिनिष्ठ ज्ञान ही व्यवहार का चालक रहता है ।
      
== संस्कार विचार ==
 
== संस्कार विचार ==

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