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| मन इच्छाओं का पुंज है। उसे हमेशा कुछ न कुछ चाहिए होता है। उसे कितना चाहिए उसका कोई हिसाब नहीं होता है । उसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है ।उसे क्या चाहिए और क्या नहीं इसका कोई कारण नहीं होता। उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या नहीं इसका भी कोई कारण नहीं होता । मन संकल्प विकल्प करता रहता है। वह विचार करता रहता है। उसके विचारों का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है। | | मन इच्छाओं का पुंज है। उसे हमेशा कुछ न कुछ चाहिए होता है। उसे कितना चाहिए उसका कोई हिसाब नहीं होता है । उसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है ।उसे क्या चाहिए और क्या नहीं इसका कोई कारण नहीं होता। उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या नहीं इसका भी कोई कारण नहीं होता । मन संकल्प विकल्प करता रहता है। वह विचार करता रहता है। उसके विचारों का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है। |
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− | मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है । | + | मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है। |
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− | मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है । | + | मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है। |
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− | शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा । सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है । जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है । अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है। | + | शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा। सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है । जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है। अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है। |
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| == विज्ञानमय आत्मा == | | == विज्ञानमय आत्मा == |
− | विज्ञानमय आत्मा मनोमय से भी अधिक सूक्ष्म अर्थात् | + | विज्ञानमय आत्मा, मनोमय से भी अधिक सूक्ष्म अर्थात् प्रभावी है। वह भी शरीर का आश्रय लेकर रहता है और शरीर के आकार का ही है । प्राण, मन, बुद्धि आदि शरीर के समान ठोस नहीं हैं, अदृश्य हैं और अलग से जगह नहीं घेरते। |
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− | प्रभावी है। वह भी शरीर का आश्रय लेकर रहता है
| + | बुद्धि मन से सर्वथा विपरीत स्वभाव वाली है। मन संकल्प विकल्पात्मक है तो बुद्धि संकल्पात्मक है। मन इच्छा करता है और बिना तर्क का होता है। बुद्धि विवेक करती है और पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करती है। वह साम्यभेद परख कर, तुलना कर, संश्लेषण विश्लेषण कर, निरीक्षण परीक्षण कर सही स्वरूप को जानने का प्रयास करती है। इसलिये बुद्धि जानती है, समझती है, धारण करती है। वह निश्चित होती है। |
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− | और शरीर के आकार का ही है । प्राण, मन, बुद्धि आदि शरीर के समान ठोस नहीं हैं, अदृश्य हैं और अलग से जगह | + | तेजस्वी बुद्धि, कुशाग्र बुद्धि, विशाल बुद्धि होना यह उसका विकास है। ऐसी बुद्धि के कारण मनुष्य ज्ञान ग्रहण कर सकता है। बुद्धि को ज्ञान ग्रहण करने में ज्ञानेंद्रियाँ कर्मेन्द्रियाँ और मन सहायक होते हैं। इंद्रियों से बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण करती है। मन उसका सहायक भी है और बड़ा अवरोधक भी है। एकाग्र, शान्त और अनासक्त मन उसका बहुत बड़ा सहायक है जबकि चंचल, आसक्त और उत्तेजित मन बहुत बड़ा अवरोधक। इसलिये मन को ठीक करने के बाद ही बुद्धि अपना काम कर सकती है। |
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− | नहीं घेरते। | + | बुद्धि का ही एक हिस्सा अहंकार है। वैसे कहीं कहीं इसे चित्त का हिस्सा भी बताया जाता है परन्तु उसका व्यवहार देखते हुए वह बुद्धि का जोड़ीदार लगता है । अहंकार किसी भी क्रिया का कर्ता है और उसके फल का भोक्ता है। कर्ता के बिना कोई क्रिया कभी भी होती ही नहीं है यह तो हम जानते ही हैं। इसलिये बुद्धि विवेक करती है और अहंकार निर्णय करता है। अपने सारे साधनों का प्रयोग कर बुद्धि कोई भी बात करणीय है कि अकरणीय, सही है कि गलत, उचित है कि अनुचित इसका विवेक करती है और अहंकार सही या गलत, उचित या अनुचित करने का या नहीं करने का निर्णय करता है। |
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− | बुद्धि मन से सर्वथा विपरीत स्वभाव वाली है । मन | + | बुद्धि जानती है, समझती है, ज्ञान को धारण करती है और विवेक करती है। जो भी सामने आता है वह जल्दी और सही समझ जाना तेजस्वी बुद्धि है । जटिल से जटिल बातें भी स्पष्टतापूर्वक समझ जाना कुशाग्र बुद्धि है। बहुत व्यापक और अमूर्त बातों का भी एकसाथ आकलन होना विशाल बुद्धि है । ऐसे तीनों गुणों वाली बुद्धि तात्विक विवेक भी करती है और व्यावहारिक भी। जगत में व्यवहार करने के लिए तात्विक और व्यावहारिक दोनों प्रकार का विवेक आवश्यक होता है। |
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− | संकल्प विकल्पात्मक है तो बुद्धि संकल्पात्मक है । मन
| + | जब तक ऐसी बुद्धि नहीं है तब तक अध्ययन संभव ही नहीं है। व्यावहारिक जगत में बुद्धि अध्ययन का सर्वश्रेष्ठ करण है। परन्तु तात्विक दृष्टि से बुद्धि से भी आगे चित्त और स्वयं आत्मा हैं। इन दोनों का विचार अब करेंगे। |
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− | इच्छा करता है और बिना तर्क का होता है । बुद्धि विवेक
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− | करती है और पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करती है ।
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− | ae ara We कर, तुलना कर, संश्लेषण विश्लेषण
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− | कर, निरीक्षण परीक्षण कर सही स्वरूप को जानने का प्रयास
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− | करती है । इसलिये बुद्धि जानती है, समझती है, धारण
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− | तेजस्वी बुद्धि, कुशाग्र बुद्धि, विशाल बुद्धि होना यह
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− | उसका विकास है । ऐसी बुद्धि के कारण मनुष्य ज्ञान ग्रहण
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− | कर सकता है । बुद्धि को ज्ञान ग्रहण करने में ज्ञानेंद्रियाँ
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− | कर्मेन्द्रियाँ और मन सहायक होते हैं। इंद्रियों से बुद्धि
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− | निरीक्षण और परीक्षण करती है । मन उसका सहायक भी है
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− | और बड़ा अवरोधक भी है । एकाग्र, शान्त और अनासक्त
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− | मन उसका बहुत बड़ा सहायक है जबकि चंचल, आसक्त
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− | और उत्तेजित मन बहुत बड़ा अवरोधक । इसलिये मन को
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− | ठीक करने के बाद ही बुद्धि अपना काम कर सकती है ।
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− | बुद्धि का ही एक हिस्सा अहंकार है । वैसे कहीं कहीं
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− | इसे चित्त का हिस्सा भी बताया जाता है परन्तु उसका
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− | व्यवहार देखते हुए वह बुद्धि का जोड़ीदार लगता है ।
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− | अहंकार किसी भी क्रिया का कर्ता है और उसके फल का
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− | भोक्ता है । कर्ता के बिना कोई क्रिया कभी भी होती ही नहीं
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− | है यह तो हम जानते ही हैं । इसलिये बुद्धि विवेक करती है
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− | और अहंकार निर्णय करता है । अपने सारे साधनों का प्रयोग
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− | कर बुद्धि कोई भी बात करणीय है कि अकरणीय, सही है
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− | कि गलत, उचित है कि अनुचित इसका विवेक करती है
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− | और अहंकार सही या गलत, उचित या अनुचित करने का
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− | या नहीं करने का निर्णय करता है ।
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− | बुद्धि जानती है, समझती है, ज्ञान को धारण करती है
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− | और विवेक करती है ।
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− | सामने आता है वह जल्दी और सही समझ जाना
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− | तेजस्वी बुद्धि है । जटिल से जटिल बातें भी स्पष्टतापूर्वक
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− | समझ जाना कुशाग्र बुद्धि है । बहुत व्यापक और अमूर्त बातों का भी एकसाथ आकलन होना विशाल बुद्धि है । ऐसे तीनों
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− | गुर्णों वाली बुद्धि तात्तिक विवेक भी करती है और
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− | व्यावहारिक भी । जगत में व्यवहार करने के fea akan
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− | और व्यावहारिक दोनों प्रकार का विवेक आवश्यक होता
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− | है।
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− | जबतक ऐसी बुद्धि नहीं है तबतक अध्ययन संभव ही
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− | नहीं है । व्यावहारिक जगत में बुद्धि अध्ययन का सर्वश्रेष्ठ | |
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− | करण है । परन्तु तात्विक दृष्टि से बुद्धि से भी आगे चित्त | |
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− | और स्वयं आत्मा हैं । इन दोनों का विचार अब करेंगे। | |
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| == आनन्दमय आत्मा == | | == आनन्दमय आत्मा == |