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| == सृष्टि == | | == सृष्टि == |
− | सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है यह पूर्व में ही कहा गया | + | सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है यह पूर्व में ही कहा गया है । इस सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं वे सारे पंचमहाभूत और त्रिगुण के बने हुए हैं । पृथ्वी, जल, तेज अथवा असि, वायु और आकाश ये पंचमहाभूत हैं । सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण हैं । इन आठों के संयोजन से ही सृष्टि के असंख्य पदार्थ बने हैं । |
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− | है । इस सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं वे सारे पंचमहाभूत और त्रिगुण के बने हुए हैं । पृथ्वी, जल, तेज
| + | == मनुष्य == |
| + | इस सृष्टि के सारे पदार्थों के मोटे तौर पर जो विभाग होते हैं वे हैं |
| + | # पंचमहाभूत |
| + | # वनस्पति |
| + | # प्राणी और |
| + | # मनुष्य |
| + | पंचमहाभूत अनेक प्रकार के हैं, वनस्पति अनेक प्रकार की है, प्राणी अनेक प्रकार के हैं परन्तु मनुष्य अपने वर्ग में एक ही है। अन्य सभी वर्गों से वह विशिष्ट है। सृष्टि के चार वर्गों के भी यदि दो वर्ग बनाये जाए तो एक वर्ग में मनुष्य है और दूसरे में शेष तीनों हैं। यही मनुष्य की विशेषता है। |
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− | अथवा असि, वायु और आकाश ये पंचमहाभूत हैं । सत्त्व,
| + | अब हम मनुष्य का विचार कुछ विस्तार से करेंगे। पाँच महाभूत और तीन गुण के आधार पर उसके व्यक्तित्व के पाँच आयाम होते हैं । ये पाँच आयाम, जैसे पूर्व में बताया शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त हैं । अर्थात् मनुष्य में आत्मतत्व इन पाँच आयामों में व्यक्त हुआ है। उपनिषद् की शास्त्रीय परिभाषा में इसे निम्नानुसार बताया है: |
− | | + | # अन्नरसमय आत्मा अर्थात् शरीर |
− | रज और तम ये तीन गुण हैं । इन आठों के संयोजन से ही
| + | # प्राणमय आत्मा अर्थात् प्राण |
− | | + | # मनोमय आत्मा अर्थात् मन |
− | सृष्टि के असंख्य पदार्थ बने हैं ।
| + | # विज्ञानमय आत्मा अर्थात् बुद्धि और |
− | | + | # आनन्दमय आत्मा अर्थात् चित्त |
− | मनुष्य
| + | यह पंचविध आत्मा अथवा पंचात्मा है । इसके लिये अधिक प्रचलित संज्ञा पंचकोश है। उपनिषद पंचबिध आत्मा कहती है परन्तु भगवान शंकराचार्य इसे पंचकोश कहते हैं । यह भारत में प्राचीन काल से प्रचलित प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्तिमार्ग की धारा का अन्तर है । दोनों में तत्वत: कोई अन्तर नहीं है परन्तु इस ग्रंथ में हमने पंचात्मा संज्ञा को स्वीकार किया है । |
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− | इस सृष्टि के सारे पदार्थों के मोटे तौर पर जो विभाग
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− | होते हैं वे हैं १. पंचमहाभूत, २. वनस्पति, ३. प्राणी और
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− | ४... मनुष्य । पंचमहाभूत अनेक प्रकार के हैं, वनस्पति
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− | अनेक प्रकार की है, प्राणी अनेक प्रकार के हैं परन्तु मनुष्य
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− | अपने वर्ग में एक ही है । अन्य सभी वर्गों से वह विशिष्ट है ।
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− | सृष्टि के चार वर्गों के भी यदि दो वर्ग बनाये जाए तो एक
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− | वर्ग में मनुष्य है और दूसरे में शेष तीनों हैं । यही मनुष्य की
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− | विशेषता है ।
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− | अब हम मनुष्य का विचार कुछ विस्तार से करेंगे । | |
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− | पाँच महाभूत और तीन गुण के आधार पर उसके व्यक्तित्व | |
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− | के पाँच आयाम होते हैं । ये पाँच आयाम, जैसे पूर्व में | |
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− | बताया शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त हैं । अर्थात् मनुष्य | |
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− | में आत्मतत्व इन पाँच आयामों में व्यक्त हुआ है । उपनिषद् | |
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− | की शास्त्रीय परिभाषा में इसे निम्नानुसार बताया है ... | |
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− | १, अन्नरसमय आत्मा अर्थात् शरीर
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− | २... प्राणमय आत्मा अर्थात् प्राण
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− | ३... मनोमय आत्मा अर्थात् मन
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− | ४. विज्ञानमय आत्मा अर्थात् बुद्धि और
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− | ५... आनन्दमय आत्मा अर्थात् चित्त
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− | यह पंचविध आत्मा अथवा पंचात्मा है । इसके लिये | |
− | | |
− | अधिक प्रचलित संज्ञा पंचकोश है। उपनिषद पंचबिध | |
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− | आत्मा कहती है परन्तु भगवान शंकराचार्य इसे पंचकोश | |
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− | कहते हैं । यह भारत में प्राचीन काल से प्रचलित प्रवृत्ति मार्ग | |
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− | और निवृत्तिमार्ग की धारा का अन्तर है । दोनों में तत्वत: | |
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− | कोई अन्तर नहीं है परन्तु इस ग्रंथ में हमने पंचात्मा संज्ञा को | |
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− | स्वीकार किया है । | |
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| == अन्नरसमय आत्मा अर्थात् शरीर == | | == अन्नरसमय आत्मा अर्थात् शरीर == |
− | मनुष्य का दिखाई देने वाला हिस्सा शरीर ही है । | + | मनुष्य का दिखाई देने वाला हिस्सा शरीर ही है। विभिन्न प्रकार के रूपरंग से ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से अलग होता है । यह शरीर अन्न से बना है इसलिये उसे अन्नरसमय आत्मा कहते हैं । अन्न से रस बनता है इसलिये अन्न और रस एक साथ बोला जाता है । |
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− | विभिन्न प्रकार के रूपरंग से ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से अलग होता है । यह शरीर अन्न से बना है इसलिये उसे | |
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− | अन्नरसमय आत्मा कहते हैं । अन्न से रस बनता है इसलिये | |
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− | अन्न और रस एक साथ बोला जाता है । | |
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− | यह शरीर आंतरिक और बाह्य दो भागों में बँटा है ।
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− | हम शरीर को जानते हैं इसलिये उसका अधिक वर्णन करने
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− | की आवश्यकता नहीं है । जो जानने की आवश्यकता है वह
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− | यह है कि शरीर यंत्रशक्ति है । वह कार्य करने के लिये बना
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− | है । जिस प्रकार यंत्र काम करने में कुशल होना चाहिए,
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− | काम करने में उसकी गति होनी चाहिए, काम करने में वह
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− | निपुण होना चाहिए उसी प्रकार शरीर भी काम करने में
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− | निपुण, कुशल और तेज गति वाला बनाना चाहिए । जिस
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− | प्रकार यंत्र की मरम्मत की जाती है, उसे साफ रखा जाता है,
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− | उसे आराम भी दिया जाता है, उसे आवश्यक रूप में पोषण
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− | | |
− | दिया जाता है, आवश्यक रूप में उसका रक्षण किया जाता है
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− | उसी प्रकार शरीर का भी रक्षण, पोषण, स्वच्छता, मरम्मत,
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− | आराम आदि का प्रबन्ध किया जाना चाहिए । इस दृष्टि से
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− | शरीर बलवान, कुशल, स्वस्थ, सहनशील और सुयोग्य
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− | आकार प्रकार वाला होना चाहिए । उसे ऐसा बनाना यह
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− | शिक्षा का लक्ष्य है।
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− | मनुष्य के व्यक्तित्व के जितने भी अन्य आयाम हैं वे
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− | सारे मनुष्य के शरीर का ही आश्रय लेकर रहते हैं । इसलिये
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− | शरीर की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य है ।
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− | उचित आहार विहार से शरीर स्वस्थ रहता है । उचित
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− | व्यायाम और आराम से शरीर बलवान बनता है । काम करने
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− | के उचित अभ्यास से शरीर कुशल बनता है और निरंतर
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− | अभ्यास करने से शरीर सभी काम करने में निपुण बनता
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− | है। यंत्र के साथ करते हैं ऐसा व्यवहार शरीर के साथ | + | यह शरीर आंतरिक और बाह्य दो भागों में बँटा है। हम शरीर को जानते हैं इसलिये उसका अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है । जो जानने की आवश्यकता है वह यह है कि शरीर यंत्रशक्ति है । वह कार्य करने के लिये बना है। जिस प्रकार यंत्र काम करने में कुशल होना चाहिए, काम करने में उसकी गति होनी चाहिए, काम करने में वह निपुण होना चाहिए उसी प्रकार शरीर भी काम करने में निपुण, कुशल और तेज गति वाला बनाना चाहिए । जिस प्रकार यंत्र की मरम्मत की जाती है, उसे साफ रखा जाता है, उसे आराम भी दिया जाता है, उसे आवश्यक रूप में पोषण दिया जाता है, आवश्यक रूप में उसका रक्षण किया जाता है उसी प्रकार शरीर का भी रक्षण, पोषण, स्वच्छता, मरम्मत, आराम आदि का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से शरीर बलवान, कुशल, स्वस्थ, सहनशील और सुयोग्य आकार प्रकार वाला होना चाहिए । उसे ऐसा बनाना यह शिक्षा का लक्ष्य है। |
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− | करना चाहिए | | + | मनुष्य के व्यक्तित्व के जितने भी अन्य आयाम हैं वे सारे मनुष्य के शरीर का ही आश्रय लेकर रहते हैं। इसलिये शरीर की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य है । उचित आहार विहार से शरीर स्वस्थ रहता है। उचित व्यायाम और आराम से शरीर बलवान बनता है। काम करने के उचित अभ्यास से शरीर कुशल बनता है और निरंतर अभ्यास करने से शरीर सभी काम करने में निपुण बनता है। यंत्र के साथ करते हैं ऐसा व्यवहार शरीर के साथ करना चाहिए | |
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| == प्राणमय आत्मा == | | == प्राणमय आत्मा == |
− | मनुष्य को जीवित कहा जाता है प्राण के कारण । प्राण | + | मनुष्य को जीवित कहा जाता है, प्राण के कारण । प्राण ही आयु है । शरीर यंत्र है तो प्राण ऊर्जा है । सृष्टि की सारी ऊर्जा का स्रोत प्राण है । वह अन्नरसमय पुरुष का आश्रय करके ही रहता है और उसके आकार का ही होता है । शरीर में सर्वत्र प्राण का संचार रहता है । श्वास के माध्यम से वह विश्वप्राण से जुड़ता है । जब तक प्राण शरीर में रहता है तब तक मनुष्य जीवित रहता है, जब प्राण शरीर को छोड़कर चला जाता है तब मनुष्य मृत होता है । |
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− | ही आयु है । शरीर यंत्र है तो प्राण ऊर्जा है । सृष्टि की सारी | |
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− | ऊर्जा का स्रोत प्राण है । वह अन्नरसमय पुरुष का आश्रय | |
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− | करके ही रहता है और उसके आकार का ही होता है । शरीर | |
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− | में सर्वत्र प्राण का संचार रहता है । श्वास के माध्यम से वह विश्वप्राण से जुड़ता है । जब तक प्राण शरीर में रहता है | |
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− | तबतक मनुष्य जीवित रहता है, जब प्राण शरीर को छोड़कर
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− | चला जाता है तब मनुष्य मृत होता है । | |
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− | प्राण का पोषण होने से वह बलवान होता है । शरीर
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− | का बल प्राण पर निर्भर करता है । प्राण का आहार से पोषण
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− | होता है और उसका बल शरीर में दिखता है । प्राण क्षीण
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− | होने से व्यक्ति बीमार होता है, प्राण बलवान होने से शरीर
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− | निरामय होता है। प्राण बलवान होने से उत्साह,
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− | महत्त्वाकांक्षा, विजिगिषु मनोवृत्ति आदि प्राप्त होते हैं ।
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− | आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राण की वृत्तियाँ हैं ।
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− | इनमें से आहार और निद्रा शरीर से और भय तथा मैथुन मन
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− | से संबंध जोड़ती हैं ।
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− | शरीर यंत्रशक्ति है तो प्राण कार्यशाक्ति है । उसे जीवनी
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− | शक्ति भी कहा जाता है ।
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− | प्राण के कारण शरीर अपने में से अपने जैसा ही दूसरा
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− | | |
− | शरीर बनाता है और एक शरीर जीर्ण हो जाने के बाद
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− | | |
− | नया शरीर धारण करता है । मनुष्य प्राणमय है इसलिये वह
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− | प्राणी है ।
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− | उचित श्वासप्रश्चास, प्राणायाम, उचित आहार और
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− | निद्रा प्राण को बलवान, एकाग्र और संतुलित बनाते हैं ।
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− | प्राण जितना बलवान और संतुलित है उतनी ही मनुष्य की
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− | कार्यशक्ति अच्छी होती है, जितना क्षीण है उतना ही वह
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− | | |
− | उदास, थकामांदा, निर्त्साही होता है, वह हमेशा
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− | | |
− | नकारात्मक बातें करता है ।
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− | शरीर में प्राण नाड़ियों के माध्यम से संचार करता है | + | प्राण का पोषण होने से वह बलवान होता है । शरीर का बल प्राण पर निर्भर करता है । प्राण का आहार से पोषण होता है और उसका बल शरीर में दिखता है । प्राण क्षीण होने से व्यक्ति बीमार होता है, प्राण बलवान होने से शरीर निरामय होता है। प्राण बलवान होने से उत्साह, महत्त्वाकांक्षा, विजिगिषु मनोवृत्ति आदि प्राप्त होते हैं । |
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− | इसलिये नाड़ीशुद्धि होना अत्यन्त आवश्यक है ।
| + | आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राण की वृत्तियाँ हैं। इनमें से आहार और निद्रा शरीर से और भय तथा मैथुन मन से संबंध जोड़ती हैं। शरीर यंत्रशक्ति है तो प्राण कार्यशाक्ति है। उसे जीवनी शक्ति भी कहा जाता है । |
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− | प्राणयुक्त शरीर ही मनुष्य का कोई भी प्रयोजन सिद्ध
| + | प्राण के कारण शरीर अपने में से अपने जैसा ही दूसरा शरीर बनाता है और एक शरीर जीर्ण हो जाने के बाद नया शरीर धारण करता है। मनुष्य प्राणमय है इसलिये वह प्राणी है। |
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− | कर सकता है । इस दृष्टि से प्राणमय आत्मा के विकास हेतु
| + | उचित श्वासप्रश्चास, प्राणायाम, उचित आहार और निद्रा प्राण को बलवान, एकाग्र और संतुलित बनाते हैं। प्राण जितना बलवान और संतुलित है उतनी ही मनुष्य की कार्यशक्ति अच्छी होती है, जितना क्षीण है उतना ही वह उदास, थकामांदा, निर्त्साही होता है, वह हमेशा नकारात्मक बातें करता है। |
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− | शिक्षा में समुचित प्रयास होने चाहिए | | + | शरीर में प्राण नाड़ियों के माध्यम से संचार करता है इसलिये नाड़ीशुद्धि होना अत्यन्त आवश्यक है। प्राणयुक्त शरीर ही मनुष्य का कोई भी प्रयोजन सिद्ध कर सकता है । इस दृष्टि से प्राणमय आत्मा के विकास हेतु शिक्षा में समुचित प्रयास होने चाहिए | |
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| == मनोमय आत्मा == | | == मनोमय आत्मा == |
− | यह मनुष्य का मन है । मन के कारण ही मनुष्य सृष्टि | + | यह मनुष्य का मन है । मन के कारण ही मनुष्य सृष्टि के अन्य सारे पदार्थों से अलग पहचान बनाता है । सृष्टि के सारे निर्जीव पदार्थ अन्नमय हैं, मनुष्य का शरीर भी अन्नसरसमय है । यह उसका निर्जीव पदार्थों से साम्य है । वनस्पति और प्राणीसृष्टि अन्नमय के साथ साथ प्राणमय भी है । मनुष्य भी प्राणमय है । यह उसका वनस्पति और प्राणीसृष्टि से साम्य है। परन्तु मनोमय से आगे केवल मनुष्य ही है। अत: अब वह अन्य सभी पदार्थों से अलग और विशिष्ट है। |
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− | के अन्य सारे पदार्थों से अलग पहचान बनाता है । सृष्टि के | |
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− | सारे निर्जीव पदार्थ अन्नमय हैं, मनुष्य का शरीर भी | |
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− | अन्नसरसमय है । यह उसका निर्जीव पदार्थों से साम्य है । | |
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− | वनस्पति और प्राणीसृष्टि अन्नमय के | |
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− | साथ साथ प्राणमय भी है । मनुष्य भी प्राणमय है । यह | |
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− | उसका वनस्पति और प्राणीसृष्टि से साम्य है । परन्तु मनोमय | |
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− | से आगे केवल मनुष्य ही है । अत: अब वह अन्य सभी | |
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− | पदार्थों से अलग और विशिष्ट है । | |
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− | मन के कारण से ही मनुष्य को मनुष्य संज्ञा प्राप्त हुई
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− | है । अर्थात् मन सक्रिय है इसलिये वह मनुष्य है ।
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− | मनुष्य के मन के कारण ही संसार की सारी
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− | विचित्रतायें निर्माण हुई हैं । मन ट्रन्द्रात्मक है । वह हमेशा
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− | संकल्प विकल्प करता रहता है । वह रजोगुणी है इसलिये
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− | नित्य क्रियाशील रहता है । काम, फ्रोध, लोभ, मोह, मद,
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− | | |
− | मत्सर आदि मनुष्य के षडरिपु मन का आश्रय लेकर रहते
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− | हैं । मन उत्तेजनाग्रस्त रहता है । उसकी उतेजना ट्रन्ट्रों में ही
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− | | |
− | प्रकट होती है अर्थात् वह हर्ष और शोक से, राग और ट्रेष
| |
− | | |
− | से, मान और अपमान से, आशा और निराशा से उत्तेजित
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− | | |
− | होता है और अशान्त रहता है । वह रजोगुणी होने के कारण
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− | | |
− | से सदा चंचल रहता है और निरन्तर निर्बाध रूप से,
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− | | |
− | अकल्प्य गति से भागता रहता है । हमारा सबका अनुभव है
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− | | |
− | कि मन को चाहे जहाँ जाने में एक क्षण का भी समय नहीं
| |
− | | |
− | लगता। मन अत्यन्त जिद्दी है, बलवान है, दृढ़ है, उसे वश
| |
− | | |
− | में रखना बहुत कठिन है ।
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− | | |
− | मन इच्छाओं का पुंज है । उसे हमेशा कुछ न कुछ
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− | | |
− | चाहिए होता है । उसे कितना चाहिए उसका कोई हिसाब
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− | | |
− | नहीं होता है । उसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता
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− | | |
− | है । उसे क्या चाहिए और क्या नहीं इसका कोई कारण नहीं
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− | होता । उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या नहीं इसका भी
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− | कोई कारण नहीं होता । मन संकल्प विकल्प करता रहता
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− | | |
− | है । वह विचार करता रहता है । उसके विचारों का कोई
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− | | |
− | निश्चित स्वरूप नहीं होता है ।
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− | | |
− | मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है । वह
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− | | |
− | अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता
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− | | |
− | रहता है ।
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− | | |
− | मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है । वह शरीर
| |
− | | |
− | का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता
| |
− | | |
− | है । वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है । अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह
| |
− | | |
− | शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता । उदाहरण के
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− | | |
− | लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे
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− | | |
− | अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और
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− | | |
− | पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी
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− | | |
− | नहीं होता है ।
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− | | |
− | मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है ।
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− | | |
− | सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे
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− | | |
− | वियोग होने पर दुःखी होता है ।
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− | मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर
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− | | |
− | सकता है।
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− | ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की
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− | | |
− | शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी
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− | शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए ।
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− | ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और
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− | | |
− | अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का
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− | महत कार्य है ।
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− | शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन
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− | विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन
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− | | |
− | में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ
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− | मन है ।
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− | मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा ।
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− | | |
− | सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की
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− | | |
− | शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो
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− | जाता है । जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार
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− | का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता | + | मन के कारण से ही मनुष्य को मनुष्य संज्ञा प्राप्त हुई है । अर्थात् मन सक्रिय है इसलिये वह मनुष्य है । मनुष्य के मन के कारण ही संसार की सारी विचित्रतायें निर्माण हुई हैं । मन द्वंद्वात्मक है। वह हमेशा संकल्प विकल्प करता रहता है। वह रजोगुणी है इसलिये नित्य क्रियाशील रहता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि मनुष्य के षडरिपु मन का आश्रय लेकर रहते हैं। मन उत्तेजनाग्रस्त रहता है। उसकी उत्तेजना द्वंद्वों में ही प्रकट होती है अर्थात् वह हर्ष और शोक से, राग और द्वेष से, मान और अपमान से, आशा और निराशा से उत्तेजित होता है और अशान्त रहता है। वह रजोगुणी होने के कारण से सदा चंचल रहता है और निरन्तर निर्बाध रूप से, अकल्प्य गति से भागता रहता है। हमारा सबका अनुभव है कि मन को चाहे जहाँ जाने में एक क्षण का भी समय नहीं लगता। मन अत्यन्त जिद्दी है, बलवान है, दृढ़ है, उसे वश में रखना बहुत कठिन है। |
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− | किसी भी प्रकार का आध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक
| + | मन इच्छाओं का पुंज है। उसे हमेशा कुछ न कुछ चाहिए होता है। उसे कितना चाहिए उसका कोई हिसाब नहीं होता है । उसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है ।उसे क्या चाहिए और क्या नहीं इसका कोई कारण नहीं होता। उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या नहीं इसका भी कोई कारण नहीं होता । मन संकल्प विकल्प करता रहता है। वह विचार करता रहता है। उसके विचारों का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है। |
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− | मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है । | + | मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है । |
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− | अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य
| + | मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है । |
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− | है। | + | शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा । सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है । जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है । अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है। |
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− | == 'विज्ञानमय आत्मा == | + | == विज्ञानमय आत्मा == |
| विज्ञानमय आत्मा मनोमय से भी अधिक सूक्ष्म अर्थात् | | विज्ञानमय आत्मा मनोमय से भी अधिक सूक्ष्म अर्थात् |
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