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| == वैश्विकता == | | == वैश्विकता == |
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| + | वैश्विकता वर्तमान समय की लोकप्रिय संकल्पना है । | सबको सबकुछ वैश्विक स्तर का चाहिये । वैश्विक मापदण्ड |
| + | श्रेष्ठ मापदण्ड माने जाते हैं। लोग कहते हैं कि संचार माध्यमों के प्रताप से हम विश्व के किसी भी कोने में क्या | हो रहा है यह देख सकते हैं, सुन सकते हैं और उसकी |
| + | जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । यातायात के दृतगति साधनों के कारण से विश्व में कहीं भी जाना हो तो चौबीस घण्टे के अन्दर अन्दर पहुंच सकते हैं। कोई भी वस्तु कहीं भी भेजना चाहते हैं या कहीं से भी मँगवाना चाहते हैं तो वह सम्भव है। विश्व अपने टीवी के पर्दे में और टीवी अपने बैठक कक्ष में या शयनकक्ष में समा गया है। यह केवल जानकारी का ही प्रश्न नहीं है। देश एकदूसरे के इतने नजदीक आ गये हैं कि वे एकदसरे से प्रभावित हुए बिना | नहीं रह सकते । विश्व अब एक ग्राम बन गया है। इसलिए | अब एक ही विश्वसंस्कृति की बात करनी चाहिये । अब | राष्ट्रों की नहीं विश्वनागरिकता की बात करनी चाहिये ।। |
| + | अब राष्ट्र की बात करना संकुचितता मानी जाती है । शिक्षा में पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक वैश्विक | स्तर के संस्थान खुल गये हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ व्यापार |
| + | कर रही हैं । भौतिक पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा | तक के लिए वैश्विक स्तर के मानक स्थापित हो गये हैं। | लोग नौकरी और व्यवसाय के लिए एक देश से दूसरे देश | में आबनजावन सरलता से करते हैं। |
| + | |अब विश्वभाषा, विश्वसंस्कृति, विश्वनागरिकता की । बात हो रही है। |
| + | भारत में वैश्विकता का आकर्षण कुछ अधिक हीं दिखाई देता है । भाषा से लेकर सम्पूर्ण जीवनशैली में |
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| + | अभारतीयता की छाप दिखाई देती है। इसलिए इस विषय में जरा स्पष्टता करने की आवश्यकता है। | इस वैश्विकता का मूल कहाँ है यह जानना बहुत उपयोगी रहेगा। |
| + | पांचसौं वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वयात्रा शुरू की । विश्व के पूर्वी देशों की समृद्धि का उन्हें आकर्षण था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति हुई । यन्त्रों का आविष्कार हुआ, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा । इन उत्पादनों के लिये उन देशों को बाजार चाहिये था। उससे भी पूर्व यूरोप के देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये ।। अठारहवीं शताब्दी में अमेरीका स्वतन्त्र देश हो गया । इसके बाद आफ्रिका और एशिया के देशों में बाजार स्थापित करने का कार्य और तेज गति से शुरू हुआ । सत्रहवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित होने लगा। ब्रिटीशों का मुख्य उद्देश्य भारत की समृद्धि को लूटना ही था । इस कारण से भारत में लूट और अत्याचार का दौर चला ।। |
| + | पश्चिम का चिन्तन अर्थनिष्ठ था । आज भी है। इसलिए पश्चिम को अब विश्वभर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करना है इस उद्देश्य से यह वैश्वीकरण कि योजना हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, आंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक आदि उसके साधन हैं । विज्ञापन, करार, विश्वव्यापार संगठन आदि उसके माध्यम हैं ।। |
| + | भारत को वैश्विकता का बहुत आकर्षण है। परन्तु आज जिस वैश्विकता का प्रचार चल रहा है वह आर्थिक है। |
| + | जबकि भारत की वैश्विकता सांस्कृतिक है । यह अन्तर हमें |
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| समझ लेना चाहिये । भारत ने भी | | समझ लेना चाहिये । भारत ने भी |
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| आस्ट्रेलिया महाद्वीप है जबकि भारत देश है । यह उसकी | | आस्ट्रेलिया महाद्वीप है जबकि भारत देश है । यह उसकी |
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− | -ocr page 39- | + | भौगोलिक पहचान है । भारत एक सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश है । यह उसकी राजकीय, सांस्कृतिक पहचान है । यह पहचान उसे राष्ट्र बनाती है । राष्ट्र के रूप में वह एक भूसांस्कृतिक इकाई है । इसका अर्थ है भारत का भूभाग, भारत की प्रजा और उस प्रजा का जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है । इसमें भूभाग कमअधिक होता है । भारत का |
| + | भू-भाग एक समय में वर्तमान इरान और इराक तक था । | आज वह जम्मूकश्मीर और पंजाब तक है । भारत में एक समय था जब मुसलमान और इसाई नहीं थे, आज हैं । इससे भारत की राष्ट्रीयता में अन्तर नहीं आता । जब तक जीवनदर्शन लुप्त नहीं हो जाता तब तक वह बना रहता है । जब जीवनदर्शन और उसके अनुसरण में बनी संस्कृति बदल जाती है तब भूभाग रहने पर भी राष्ट्र नहीं रहता । उदाहरण के लिये वर्तमान इसरायल सन १९४८ में जगत के मानचित्र पर भूभाग के रूप में उभरा । उससे पूर्व दो सहस्रकों तक |
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| + | प्रजा और जीवनदर्शन थे परन्तु भूभाग नहीं था । अतः राष्ट्र था, देश नहीं था । आज ग्रीस और रोम भूभाग के रूप में हैं । परन्तु प्राचीन समय में जो राष्ट्र थे वे नहीं रहे ।। |
| + | हर राष्ट्र का अपना एक स्वभाव होता है जो उसे जन्म से ही प्राप्त होता है । यह स्वभाव ही उसकी पहचान होती है । हमारी कठिनाई यह है कि हम राजकीय इकाई और सांस्कृतिक इकाई को एक ही मानते हैं, किंबहुना हमें राजकीय इकाई ही ज्ञात है सांस्कृतिक नहीं । परन्तु युगों में ज्ञों बनी रहती है वह सांस्कृतिक इकाई ही होती है, राजकीय या भौगोलिक नहीं । भारत का एक राष्ट्र के रूप में रक्षण करना प्रजा के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है ।। |
| + | | राष्ट्र एक ऐसा भूभाग है जहाँ प्रजा का उसके लिये मातृवत स्नेह होता है । वह प्रजा की मातृभूमि होती है । यह भी सांस्कृतिक पहचान ही है । |
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| == वैज्ञानिकता == | | == वैज्ञानिकता == |
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− | है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है | + | वैश्विकता के समान ही आज बौद्धिकों के लिये लुभावनी संकल्पना वैज्ञानिकता की है। सब कुछ वैज्ञानिक होना चाहिये । जो भी प्रक्रिया, पद्धति, पदार्थ, अर्थघटन वैज्ञानिक नहीं है वह त्याज्य है । बौद्धिकों का अनुसरण कर सामान्यजन भी वैज्ञानिकता की दुहाई देते हैं । |
| + | परन्तु यह वैज्ञानिकता क्या है ? आज जिसे विज्ञान कहा जाता है वह भौतिक विज्ञान है । भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में जो परखा जाता है वहीं वैज्ञानिक है । इस निकष पर यदि हमारे उत्सव, विधिविधान, रीतिरिवाज, अनुष्ठान खरे नहीं उतरते तो वे अवैज्ञानिक हैं इसलिए त्याज्य हैं, अंधश्रद्धा से युक्त हैं ऐसा करार दिया जाता है। उदाहरण के लिये हमारे पारम्परिक यज्ञों में होमा जाने वाला घी बरबाद हो रहा है। किसी गरीब को खिलाया जाना यज्ञ में होमने से बेहतर है ऐसा कहा जाता है । शिखा रखना | मूर्खता है अथवा अप्रासंगिक है ऐसा कहा जाता है। ऐसे तो सेंकड़ों उदाहरण हैं। |
| + | इसमें बहुत अधूरापन है यह बात समझ लेनी |
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| + | चाहिये । विश्व में केवल भौतिक पदार्थ ही नहीं हैं। भौतिकता से परे बहुत बड़ा विश्व है । यह मन और बुद्धि की दुनिया है जो भौतिक विश्व से सूक्ष्म है । सूक्ष्म का अर्थ लघु नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी । मन और बुद्धि का विश्व भौतिक विश्व से अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है ।। | कठिनाई यह है कि आज का विज्ञान मन और बुद्धि के विश्व को भी भौतिक विश्व के ही नियम लागू करता है। मनोविज्ञान के परीक्षण भौतिक विज्ञान के निकष पर बनाते हमने देखे ही हैं । यह तो उल्टी बात है। भावनाओं, इच्छाओं, विचारों, कल्पनाओं, सृजन आदि की दुनिया भौतिक विज्ञान के मापदंडों से कहीं ऊपर है। |
| + | | इसलिए आज के बौद्धिक विश्व के विज्ञान और वैज्ञानिकता बहुत अधूरे हैं । वे केवल अन्नमय और प्राणमय कोश में व्यवहार कर सकते हैं। मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश के लिये ये निकष बहुत कम पड़ते हैं । |
| + | भारत में भी विज्ञान संज्ञा है । वह बहुत प्रतिष्ठित भी है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है |
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| + | है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है। शास्त्रीयता । शास्त्रों को अनुभूति का आधार होता है । शास्त्र आत्मनिष्ठ बुद्धि का आविष्कार हैं। इसलिए शास्त्रप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं... |
| + | यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।। १६.२३ |
| + | अर्थात |
| + | जो शास्त्र के निर्देश की उपेक्षा कर स्वैर आचरण करता है उसे सुख, सिद्धि या परम गति प्राप्त नहीं होती। |
| + | वे और भी कहते हैं ... तस्माच्छास्त्रम प्रमाणम् ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । १६.२४ |
| + | अर्थात क्या करना और क्या नहीं करना ऐसा प्रश्न |
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| + | उठने पर तेरे लिये शास्त्र ही प्रमाण है। |
| + | शास्त्र अर्थात विज्ञान । तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिकता की तो भारत में भी प्रतिष्ठा है । वह केवल भौतिक विज्ञान नहीं है अपितु आत्मविज्ञान के आधार पर रचे गये मन और बुद्धि के विश्व को भी समाहित करने वाले विज्ञान की वैज्ञानिकता है। |
| + | यूरोप में भी सहीं में साइंस का अर्थ शास्त्रीयता ही है । केवल आज हमने उसे भी संकुचित कर दिया है । |
| + | भारत के बौद्धिक जगत का यह दायित्व है कि ‘वैज्ञानिक अंधश्रद्धा को दूर कर विज्ञान और वैज्ञानिकता को सही अर्थ में प्रतिष्ठित करें। |
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| == अध्यात्म == | | == अध्यात्म == |
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| + | अध्यात्म भारत की खास संकल्पना है। सृष्टिरचना के मूल में आत्मतत्त्व है। आत्मतत्त्व अव्यक्त, अपरिवर्तनीय, अमूर्त संकल्पना है जिसमें से यह व्यक्त सृष्टि निर्माण हुई है। अव्यक्त आत्मतत्त्व ही व्यक्त सृष्टि में रूपान्तरित हुआ है । आत्मतत्त्व और सृष्टि में कोई अन्तर नहीं है। अव्यक्त आत्मतत्त्व से व्यक्त सृष्टि क्यों बनी इसका कारण केवल आत्मतत्त्व का संकल्प है। |
| + | | इस सृष्टि में सर्वत्र आत्मतत्त्व अनुस्युत है इसलिए | सृष्टि के सारे सम्बन्धों का, सर्व व्यवहारों का, सर्व व्यवस्थाओं का मूल अधिष्ठान आत्मतत्त्व है। |
| + | आत्मतत्त्व के अधिष्ठान पर जो भी स्थित है वह आध्यात्मिक है। यह उसकी भावात्मक नहीं अपितु बौद्धिक व्याख्या है। |
| + | | इसलिए आध्यात्मिकता भगवे वस्त्र, संन्यास, मठ, मन्दिर या संसारत्याग से जुड़ी हुई संकल्पना नहीं है अपितु संसार के सारे व्यवहारों से जुड़ा हुआ तत्व है। आज इसी बात का घालमेल हुआ है। |
| + | इस संकल्पना के कारण सृष्टि की सारी रचनाओं तथा व्यवस्थाओं में एकात्मता की कल्पना की गई है। जहां जहां भी एकात्मता है वहाँ आध्यात्मिक अधिष्ठान है ऐसा हम कह सकते हैं। |
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− | नहीं हैं। भौतिक का अधिष्ठान आध्यात्मिक होता है। | + | भारत में गृहव्यवस्था, समाजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था का मूल अधिष्ठान अध्यात्म ही है। अत: आध्यात्मिक अर्थशास्त्र कहने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है। |
| + | | भारत का युगों का इतिहास प्रमाण है कि इस संकल्पना ने भारत की व्यवस्थाओं को इतना उत्तम बनाया है और व्यवहारों को इतना अर्थपूर्ण और मानवीय बनाया है। कि वह विश्व में सबसे अधिक आयुवाला तथा समृद्ध राष्ट्र बना है। |
| + | इस संकल्पना के कारण भारत की हर व्यवस्था में समरसता दिखाई देती है क्योंकि सर्वत्र आत्मतत्त्व व्याप्त होने के कारण सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे से जुड़ा हुआ है। |
| + | और दूसरे से प्रभावित होता है ऐसी समझ बनती है । समग्रता में विचार करने के कारण से और उसके आधार पर व्यवस्थायें बनाने से कम से कम संकट निर्माण होते हैं यह व्यवहार का नियम है ।। |
| + | वर्तमान बौद्धिक संभ्रम के परिणामस्वरूप हम भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग करते हैं और हर स्थिति को दो भागों में बांटकर ही देखते हैं। हमारी बौद्धिक कठिनाई यह है कि हम मानते हैं कि जो भौतिक नहीं है वह आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक है वह भौतिक नहीं है । वास्तव में भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग ही नहीं हैं। भौतिक का अधिष्ठान आध्यात्मिक होता है। |
| इयलिए विचार या तो. आध्यात्मिक होता है या | | इयलिए विचार या तो. आध्यात्मिक होता है या |
| अनाध्यात्मिक, आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होता । कारण | | अनाध्यात्मिक, आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होता । कारण |
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| आचार्य देवो भव, यह भारतीय संस्कृति का आचार है । | | आचार्य देवो भव, यह भारतीय संस्कृति का आचार है । |
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| + | युद्ध करते समय भी धर्म को नहीं छोड़ना यह भारतीय संस्कृति की रीत है । भूतमात्र का हित | चाहना यह भारतीय संस्कृति की रीत है। भोजन को ब्रह्म मानना और उसे जठराग्नि को आहुती देने के रूप में ग्रहण करना भारतीय संस्कृति की रीत है। |
| + | धर्म और संस्कृति साथ साथ प्रयुक्त होने वाली संज्ञायें हैं । इसका अर्थ यही है कि संस्कृति धर्म का अनुसरण करती है। |
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| + | संस्कृति में आनन्द का भाव भी जुड़ा हुआ है। जीवन में जब आनन्द का अनुभव होता है तो वह नृत्य, गीत, काव्य आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। सौन्दर्य की अनुभूति वस्त्रालंकार, शिल्पस्थापत्य में अभिव्यक्त होती है । इसलिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में रस है, आनन्द है, सौन्दर्य है । जीवन में सत्य और धर्म की अभिव्यक्ति को भी सुन्दर बना देना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। |
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| == संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध == | | == संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध == |
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| + | नेपोलियन १५३ से.मी. का नाटा नर था। अपनी | पहुँच से ऊँचे स्थान पर स्थित किसी चीज को उन्होंने देखा; उन्होंने उस ओर नजर डाल दी । इरादा समझकर पीछे खड़े तगड़े चौड़े सेनानी सहायक ने तुरन्त उस चीज |
| + | को लाकर उनको दिया और मजाक में कहा आपसे तो | ऊँचा हैं । झट से बन्दूक की गोली जैसा उत्तर निकल पड़ा, ‘लम्बा कहो, ऊँचा मत कहो ।' संस्कृति और सभ्यता दोनों का विवेचन करते समय इस छोटे से प्रसंग की याद आती है। तात्पर्य यही है कि संस्कृति ऊँची है और सभ्यता लम्बी है। | आद्य शंकराचार्य के निर्वाणाष्टक में विरोधाभास का एक शब्द है 'निराकार रूपः' । निराकार का आकार कैसे हो सकता है ? किन्तु निराकारिता ही जिसका आकार है उसको दूसरे शब्द में कैसे कहें ? संस्कृति इस श्रेणी में | आती है। वह निराकार रूपी है। अतः स्थूल दृष्टि से देखना परखना सम्भव नहीं हो पाता । किन्तु सभ्यता उसके |
| + | परिचायक छोटी बड़ी वस्तुओं के रूप में दृष्टिगत होती है । | यह भी मानव की प्रकृति है । सामान्य मानव को सूक्ष्मदृक् | होना कठिन है और स्थूलदृक् होना सरल है। इसीलिए | मापदण्ड संस्कृति पर कम लगता है। इसके विपरीत सभ्यता पर अधिक लगता है। |
| + | रामेश्वरं, चिदंबरं, श्रीरंग, मदुरै जैसे प्राचीन मन्दिरों की | बात सोचें । सर्वत्र वहाँ के गगनचुंबी गोपुर, स्वर्ण मंडित शिखर, सहस्र स्तम्भ मण्डप आदि का चकाचौंध वर्णन होता |
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| + | है । किन्तु मन्दिर की मूर्ति का वर्णन थोड़ा ही मिलता है। उस छोटी सी मूर्ति के बिना मन्दिर की कल्पना सम्भव नहीं । किन्तु इसका विस्मरण होता है और बर्णन शिखर का रहता है । वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है । संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा । वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी। |
| + | | सभ्यता का विकास कैसे होता है ? सभ्यता का बीज संस्कृति है । साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता । ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है । स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा । उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है । पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी (प) लगाता है । इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है । उससे सभ्यता जन्म लेती है। |
| + | संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति |
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| को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों | | को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों |
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| उच्च कोटि की थी । | | उच्च कोटि की थी । |
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| + | इसी प्रकार का है विद्यादान का | गुण । उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर । |
| + | क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ। बड़े बड़े विद्यालय निर्मित हुए। आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से शताधिक आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, काशीपुरम् जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ। उनका उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है। कि तत्कालीन भारतीय सभ्यता अप्रतिम थी। |
| + | दृष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का विचार किया । इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का सभ्यता की ओर विकास होता रहा है। |
| + | सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित | करता है । जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र |
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| + | वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से पुण्य कमाने का रहता है। दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है। तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है । तब उद्धार समष्टि का होता है। |
| + | वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध । संस्कृति के कारण वृद्धिंगत ज्ञान के भरोसे सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सर्वसमावेशी हो जाती है। |
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| == आधुनिकता == | | == आधुनिकता == |
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| + | ‘आधुनिक' मात्र एक कालवाचक पद नहीं है, यह गुणवाचक पद भी है। ‘आधुनिक' एक काल खंड है और ‘आधुनिकता' जीवन और जगत के प्रति एक विचार दृष्टि । सोलहवीं सदी के इटली के लोरेंस आदि नगर राज्यों के | ‘पुनर्जागरण' (Renaissance) से आधुनिकता का प्रारम्भ माना जाता है। यह ईसाई धर्म एवं परम्परा के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी जिसने लगभग बारह सौ वर्षों तक यूरोपीय देशों पर अपना धार्मिक, वैचारिक एवं राजनीतिक वर्चस्व |
| + | बनाए रखा। वैसे आधुनिक विचार दृष्टि का बीजारोपण | चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दियों में ही हो गया था। विलियम ऑफ ओकम, मार्सिलियो ऑफ पेडुया, बाइक्लिफ आदि दार्शनिकों ने चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार का सुधार करने का जो मार्ग बताया उसने व्यक्तिवादी, बुद्धिवादी और इहलोकवादी मान्यताओं को पुष्ट किया। यहीं मान्यताएं आधुनिकता का आधार स्तम्भ बनीं। इन दार्शनिकों ने लौकिक एवं पारलौकिक के मध्य भेद करते। हुए लौकिक मामलों में चर्च के हस्तक्षेप तथा धार्मिक एवं नैतिक सिद्धांतों के अनुशासन को अनुचित बताया और इस प्रकार धर्मसत्ता की सर्वोच्चता एवं व्यापकता को चुनौती दी। |
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| + | सोलहवीं सदी के पुनर्जागरण ने यूनानी एवं रोमन सभ्यता की दुहाई देते हुए जिस “मानववाद' (Humanism) को पुनर्प्रतिष्ठित किया वह एक स्वयंभू मनुष्य (Masterless Man), एक स्वत्वसंपन्न मनुष्य (Possessive Individual) की प्रतिष्ठा थी। इस मानववाद की अन्य |
| + | अभिव्यक्तियाँ नामवाद (Nominalism), व्यक्तिवाद (Individualism), इहलोकवाद (Secularism) एवं वैज्ञानिक बुद्धिवाद (Scientieic Rationalism) हैं जिन्होंने |
| + | आधुनिक विचार दृष्टि को बौद्धिक पोषण दिया है। प्रोटेस्टेन्ट सुधार आन्दोलन के जनक मार्टिन लूथर ने प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयत के जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया वे ईसाई धर्म परम्परा की साकल्यवादी (Holistic) दृष्टि को नकार कर धर्म के क्षेत्र में भी व्यक्तिवाद' की स्थापना करते हैं। यूं तो मार्टिन लूथर तथा अन्यान्य धर्म सुधारकों का उद्देश्य चर्च में व्याप्त नैतिक अध:पतन को दूर कर ईसाईयत को परिशुद्ध करना था, परन्तु वास्तव में इस धर्म सुधार आन्दोलन ने ईसाई धर्म परम्परा पर ही कुठाराघात किया और धर्म तत्त्व का ही तिरस्कार किया। धर्मसुधार |
| + | आन्दोलन ने पहले संशय और कालान्तर में अनास्था को |
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| बल प्रदान किया। अत: जिस मानववाद का प्रतिपादन | | बल प्रदान किया। अत: जिस मानववाद का प्रतिपादन |
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| प्रस्तुत है) | | प्रस्तुत है) |
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− | शिक्षा | + | == शिक्षा == |
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| शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही | | शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही |
| जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का | | जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का |
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| है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता | | है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता |
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| + | है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ |
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| + | करता ही रहता है । उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण |
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| + | से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं । उनसे वह सीखे बिना |
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| + | रह नहीं सकता । आसपास की दुनिया का हर तरह का |
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| + | व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है । विकास करने की, बड़ा |
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| + | बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ |
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| + | करने के लिए प्रेरित करती रहती है । अंदर की प्रेरणा और |
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| + | बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक पिण्ड बनाते ही रहते हैं। वह न केवल अनुभव करता है, वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है। यह उसके विकास का सहज क्रम है। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति है। |
| + | परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्त:करण भी दिया है । जिज्ञासा उसके स्वभाव का लक्षण है । संस्कार ग्रहण करना उसका |
| + | सहज कार्य है। विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति | है । यह सब मैं कर रहा है, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए है, ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है। ये सब | उसके सीखने के ही तो साधन हैं। ये सब हैं इसका अर्थ ही यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है। |
| + | मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का ही मनीषियों ने शास्त्र बनाकर उसे व्यवस्थित किया। उसकी सहज प्रवृत्ति को समझा, उसके लक्ष्य को अवगत किया, उस लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में जो बाधायें आती हैं उनका आकलन | किया और शिक्षा का शास्त्र बनाया । शिक्षा के मूर्त स्वरूप |
| + | के रूप में उसने शिक्षकत्व की कल्पना की और उस तत्त्व को विभिन्न भूमिकाओं में स्थापित किया। माता व्यक्ति की प्रथम गुरु बनी, पिता ने उसे साथ दिया, आचार्य ने उसे शास्त्र सिखाया, शास्त्र के अनुसार आचार सिखाए, धर्माचार्य लोकशिक्षक बन उसे आजीवन सिखाते रहे । शिक्षा को मनीषियों ने प्रेरणा, मार्गदर्शन, उपदेश, संस्कार आदि अनेक नाम दिये और उनके स्वरूप निश्चित किए। उसने शिक्षा के कुछ प्रमुख आयाम निश्चित किए । ये आयाम इस प्रकार बने ... |
| + | शिक्षा मनुष्य की विशेषता है ।। |
| + | शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है। |
| + | शिक्षा का मूल जिज्ञासा है। |
| + | शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है । |
| + | शिक्षा सर्वत्र होती है । |
| + | शिक्षा सबके लिए है। शिक्षा धर्म सिखाती है । |
| + | शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है। |
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| + | शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है । |
| + | यह शिक्षा का भारतीय दर्शन है। भारत में इसीके अनुसार शिक्षा चलती रही है । हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है । तत्त्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अभारतीय कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अभारतीयकरण दो शतकों से चल रहा है। शुरू हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अभारतीयकरण भारत की मुख्य धारा |
| + | की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है । यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अभारतीय है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है । इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के भारतीयकरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है । |
| + | मुख्य प्रवाह की शिक्षा अभारतीय होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी भारतीय और अभारतीय की चर्चा शुरू हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में भारतीयकरण के विषय में मन्थन चल रहा है । इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्त्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है । इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है। |
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