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| == ज्ञान == | | == ज्ञान == |
− | ज्ञान का अर्थ है, जानना । परन्तु इतने मात्र से | + | ज्ञान का अर्थ है, जानना<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। परन्तु इतने मात्र से अर्थबोध नहीं होता। वास्तव में ज्ञान को अध्यात्म के प्रकाश में ही समझना होता है। ज्ञान ब्रह्म का स्वरूप है। |
− | अर्थबोध नहीं होता । वास्तव में ज्ञान को अध्यात्म के | |
− | प्रकाश में ही समझना होता है । ज्ञान ब्रह्म का स्वरूप है । | |
− | “सत्य ज्ञानमनन्तम ब्रह्म ।" ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप
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− | और अनन्त है । इसका अर्थ है ज्ञान अर्थात् ब्रह्म का ज्ञान ।
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− | | |
− | ब्रह्म क्या है ? ब्रह्म तत्त्व है जो इस सृष्टि का निमित्त
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− | कारण और उपादान कारण है । निमित्त कारण वह है जो
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− | सृष्टि की उत्पत्ति में कर्ता या स्रष्टा की भूमिका निभाता है ।
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− | ब्रह्म सृष्टि का सृजन करता है। उपादान कारण वह है
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− | जिससे सृष्टि का सूजन होता है । ब्रह्म से ही सृष्टि का सृजन
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− | होता है । अर्थात् सृष्टि ब्रह्मस्वरूप है । ब्रह्म को ही आत्मा
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− | या आत्मतत्त्व कहा जाता है । एक अर्थ में इसे पख्रह्म या
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− | परमात्मा भी कहा जाता है । सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप
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− | है । अतःपरमात्मा का और सृष्टि का स्वरूप जानना ही ज्ञान
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− | है।
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− | | |
− | ब्रह्म के स्वरूप को जानने का अर्थ है, अपने स्वरूप
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− | को जानना क्योंकि हम भी ब्रह्म ही हैं । ब्रह्म ने स्वयं में से
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− | जिस सृष्टि का सृजन किया उसी सृष्टि के हम भी अंग हैं
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− | इसलिए हमारा भी सही स्वरूप ब्रह्म है । इस तथ्य का ज्ञान
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− | TAWA है और यही ज्ञान का परम अर्थ है ।
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− | | |
− | जिस प्रकार परमात्मा का व्यक्त रूप सृष्टि है उसी
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− | प्रकार ब्रह्मज्ञान का व्यक्त रूप सृष्टि का ज्ञान है ।
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− | | |
− | इस प्रकार ज्ञान के दो आयाम हुए । एक है ब्रह्मज्ञान
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− | और दूसरा है सृष्टिज्ञान । वही लौकिक ज्ञान है ।
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− | | |
− | प्रचलित अर्थ में शिक्षा का क्षेत्र लौकिक ज्ञान का
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− | क्षेत्र हि ।
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− | परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तब
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− | विविध रूप धारण करता है । उसी प्रकार ज्ञान भी विभिन्न
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− | स्तरों पर विभिन्न रूप धारण करता है ।
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− | कर्मन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कुशलता है ।
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− | इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप कुशलता है ।
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− | ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह संवेदन है।
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− | इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप संबेदन है। संबेदन को
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− | अनुभव भी कहते हैं ।
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− | मन विचार करता है । चिंतन, मनन, कल्पना विचार
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− | का क्षेत्र है । इसलिए मन के स्तर पर ज्ञान विचार है ।
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− | बुद्धि विवेक करती है। विवेक का अर्थ है
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− | यथार्थज्ञान । यथार्थज्ञान का अर्थ है जो जैसा है उसी स्वरूप
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− | का ज्ञान । व्यवहार के क्षेत्र में सही गलत या उचित
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− | अनुचित का ज्ञान विवेक कहलाता है । पदार्थ के क्षेत्र में
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− | उनके गुणधर्म का ज्ञान विवेक कहलाता है । इसे विज्ञान भी
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− | कहते हैं । यह पदार्थ विज्ञान है अथवा भौतिक विज्ञान है ।
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− | विज्ञान का यह क्षेत्र बहुत बड़ा है ।
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− | | |
− | विज्ञान प्रमुख रूप से fag के सारे पदार्थों की
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− | प्रक्रियाओं का ज्ञान है । नमक पानी में घुलता है परन्तु रेत
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− | नहीं घुलती, इस घुलने न घुलने की प्रक्रिया का ज्ञान
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− | विज्ञान है। पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है इस
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− | गुणधर्म का ज्ञान विज्ञान है । पंचमहाभूतात्मक पदार्थों के
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− | व्यवहार करने की प्रक्रियाओं का ज्ञान भौतिक विज्ञान है ।
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− | उसी प्रकार मन के व्यवहार के बारे में जानना मनोविज्ञान
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− | है । आत्मा के व्यवहार को जानना आत्मविज्ञान है ।
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− | विज्ञान बुद्धि का क्षेत्र है । अहंकार के स्तर पर ज्ञान
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− | का स्वरूप कर्ताभाव है । अत: अहंभाव भी ज्ञान का ही
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− | स्वरूप है ।
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− | | |
− | चित्त पर होने वाले संस्कार भी ज्ञान का एक स्वरूप
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− | है। | |
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| + | "सत्य ज्ञानमनन्तम ब्रह्म।" |
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| + | ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है। इसका अर्थ है ज्ञान अर्थात् ब्रह्म का ज्ञान। |
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− | ये सारे ज्ञान के विभिन्न लौकिक
| + | ब्रह्म क्या है? ब्रह्म तत्व है जो इस सृष्टि का निमित्त कारण और उपादान कारण है। निमित्त कारण वह है जो सृष्टि की उत्पत्ति में कर्ता या स्रष्टा की भूमिका निभाता है। ब्रह्म सृष्टि का सृजन करता है। उपादान कारण वह है जिससे सृष्टि का सूजन होता है। ब्रह्म से ही सृष्टि का सृजन होता है। अर्थात् सृष्टि ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म को ही आत्मा या आत्मतत्व कहा जाता है। एक अर्थ में इसे परब्रह्म या परमात्मा भी कहा जाता है। सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है। अतः परमात्मा का और सृष्टि का स्वरूप जानना ही ज्ञान है। |
− | स्वरूप होने पर भी ज्ञान मूलरूप से ब्रह्मज्ञान है। वह
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− | इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि से होने वाले ज्ञान से परे है । वह
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− | अनुभूति का क्षेत्र है ।
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− | अनुभूति के स्तर पर ज्ञान शुद्ध ज्ञान है । शेष सारे
| + | ब्रह्म के स्वरूप को जानने का अर्थ है, अपने स्वरूप को जानना क्योंकि हम भी ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म ने स्वयं में से जिस सृष्टि का सृजन किया उसी सृष्टि के हम भी अंग हैं, इसलिए हमारा भी सही स्वरूप ब्रह्म है। इस तथ्य का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है और यही ज्ञान का परम अर्थ है। |
− | ज्ञान के विभिन्न भौतिक स्वरूप है ।
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− | भौतिक जगत में बुद्धि के स्तर पर होने वाला ज्ञान
| + | जिस प्रकार परमात्मा का व्यक्त रूप सृष्टि है उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान का व्यक्त रूप सृष्टि का ज्ञान है। इस प्रकार ज्ञान के दो आयाम हुए। एक है ब्रह्मज्ञान और दूसरा है सृष्टिज्ञान। सृष्टिज्ञान ही लौकिक ज्ञान है। प्रचलित अर्थ में शिक्षा का क्षेत्र लौकिक ज्ञान का क्षेत्र है। |
− | श्रेष्ठ स्वरूप का ज्ञान है ।
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− | विभिन्न स्तरों पर विभिन्न स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने | + | परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तब विविध रूप धारण करता है। उसी प्रकार ज्ञान भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूप धारण करता है। कर्मन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कुशलता है। इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप कुशलता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह संवेदन है। इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप संवेदन है। संवेदन को अनुभव भी कहते हैं। मन विचार करता है। चिंतन, मनन, कल्पना, विचार का क्षेत्र है। इसलिए मन के स्तर पर ज्ञान विचार है। बुद्धि विवेक करती है। विवेक का अर्थ है यथार्थज्ञान। यथार्थज्ञान का अर्थ है जो जैसा है उसी स्वरूप का ज्ञान। व्यवहार के क्षेत्र में सही गलत या उचित अनुचित का ज्ञान, विवेक कहलाता है। पदार्थ के क्षेत्र में उनके गुणधर्म का ज्ञान विवेक कहलाता है। इसे विज्ञान भी कहते हैं। यह पदार्थ विज्ञान है अथवा भौतिक विज्ञान है। विज्ञान का यह क्षेत्र बहुत बड़ा है। |
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| + | विज्ञान प्रमुख रूप से विश्व के सारे पदार्थों की प्रक्रियाओं का ज्ञान है। नमक पानी में घुलता है परन्तु रेत नहीं घुलती, इस घुलने न घुलने की प्रक्रिया का ज्ञान विज्ञान है। पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है इस गुणधर्म का ज्ञान विज्ञान है। पंचमहाभूतात्मक पदार्थों के व्यवहार करने की प्रक्रियाओं का ज्ञान भौतिक विज्ञान है। उसी प्रकार मन के व्यवहार के बारे में जानना मनोविज्ञान है। आत्मा के व्यवहार को जानना आत्मविज्ञान है। |
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− | हेतु उन-उन करणों का अभ्यास करना होता है और
| + | विज्ञान बुद्धि का क्षेत्र है। अहंकार के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप कर्ताभाव है। अत: अहंभाव भी ज्ञान का ही स्वरूप है। |
− | अभ्यास से अपने आपको सक्षम बनाना होता है । ज्ञान का
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− | सही स्वरूप जानने के बाद ज्ञानार्जन कैसे होता है, इसका
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− | पता चलता है ।
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− | लौकिक ज्ञान प्राप्त करने की सारी यात्रा की दिशा | + | चित्त पर होने वाले संस्कार भी ज्ञान का एक स्वरूप है। ये सारे ज्ञान के विभिन्न लौकिक स्वरूप होने पर भी ज्ञान मूलरूप से ब्रह्मज्ञान है। वह इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि से होने वाले ज्ञान से परे है। वह अनुभूति का क्षेत्र है। अनुभूति के स्तर पर ज्ञान शुद्ध ज्ञान है। शेष सारे ज्ञान के विभिन्न भौतिक स्वरूप है। भौतिक जगत में बुद्धि के स्तर पर होने वाला ज्ञान श्रेष्ठ स्वरूप का ज्ञान है। विभिन्न स्तरों पर विभिन्न स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उन करणों का अभ्यास करना होता है और अभ्यास से अपने आपको सक्षम बनाना होता है। ज्ञान का सही स्वरूप जानने के बाद ज्ञानार्जन कैसे होता है, इसका पता चलता है। |
− | ब्रह्जज्ञान प्राप्त करने की ओर उन्मुख होने से ही सही होती
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− | है । ब्रह्मजज्ञान तक पहुँचना ही सारे लौकिक ज्ञान का परम | |
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− | उद्देश्य है। | + | लौकिक ज्ञान प्राप्त करने की सारी यात्रा की दिशा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की ओर उन्मुख होने से ही सही होती है। ब्रह्मजज्ञान तक पहुँचना ही सारे लौकिक ज्ञान का परम उद्देश्य है। |
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| == धर्म == | | == धर्म == |
| इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ | | इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ |
− | गतिमान हैं । सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न | + | गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न |
− | दिशा भी होती है । पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं । वे | + | दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे |
− | व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं । फिर भी वे एक | + | व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। फिर भी वे एक |
− | दूसरे से टकराते नहीं हैं । परस्पर विरोधी स्वभाव वाले | + | दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले |
− | पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है । हम देखते ही हैं | + | पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं |
− | कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है । इसका अर्थ | + | कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ |
| है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे | | है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे |
− | पदार्थों का नियमन करती है । सृष्टि का नियमन करने वाली | + | पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली |
− | यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है । इस व्यवस्था | + | यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था |
− | का नाम धर्म है । इसे नियम भी कहते हैं । ये विश्वनियम | + | का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम |
− | @ | धर्म का यह मूल स्वरूप है । इस व्यवस्था से सृष्टि की | + | @ | धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की |
| धारणा होती है। इसलिए धर्म कि परिभाषा हुई, | | धारणा होती है। इसलिए धर्म कि परिभाषा हुई, |
− | *धारणार्द्धर्ममित्याहु: । धारण करता है इसलिए उसे धर्म | + | *धारणार्द्धर्ममित्याहु:। धारण करता है इसलिए उसे धर्म |
− | कहते हैं । | + | कहते हैं। |
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| इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक | | इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक |
− | आयाम बनते हैं । | + | आयाम बनते हैं। |
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− | पढ़ार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं । अग्नि उष्ण | + | पढ़ार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण |
− | होती है । उष्णता अग्नि का गुणधर्म है । शीतलता पानी का | + | होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का |
− | गुणधर्म है । | + | गुणधर्म है। |
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− | प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं । सिंह घास | + | प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास |
− | नहीं खाता । यह सिंह का धर्म है । गाय घास खाती है और | + | नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और |
− | मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है । | + | मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है। |
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− | यह धर्म विश्वनियम का ही एक आयाम है । | + | यह धर्म विश्वनियम का ही एक आयाम है। |
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| इस प्रकृतिधर्म का अनुसरण कर मनुष्य ने भी अपने | | इस प्रकृतिधर्म का अनुसरण कर मनुष्य ने भी अपने |
− | जीवन के लिए व्यवस्था बनाई है । इस व्यवस्था को भी | + | जीवन के लिए व्यवस्था बनाई है। इस व्यवस्था को भी |
− | धर्म कहते हैं । अर्थात् समाज को धारण करने हेतु जो भी | + | धर्म कहते हैं। अर्थात् समाज को धारण करने हेतु जो भी |
| अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि होती हैं वे व्यवस्थाधर्म | | अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि होती हैं वे व्यवस्थाधर्म |
− | है । इस धर्म का पालन करना नीति है । यह नीति भी धर्म
| + | है। इस धर्म का पालन करना नीति है। यह नीति भी धर्म |
− | कहलाती है । | + | कहलाती है। |
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| व्यक्ति की समाजजीवन में विभिन्न भूमिकायें होती | | व्यक्ति की समाजजीवन में विभिन्न भूमिकायें होती |
| हैं। एक व्यक्ति जब अध्यापन करता है तो वह शिक्षक | | हैं। एक व्यक्ति जब अध्यापन करता है तो वह शिक्षक |
− | होता है । घर में होता है तो वह पिता होता है, पुत्र होता | + | होता है। घर में होता है तो वह पिता होता है, पुत्र होता |
− | है, भाई होता है । बाजार में होता है तब वह ग्राहक होता | + | है, भाई होता है। बाजार में होता है तब वह ग्राहक होता |
| है या व्यापारी होता है। इन सभी भूमिकाओं में उसके | | है या व्यापारी होता है। इन सभी भूमिकाओं में उसके |
− | विभिन्न स्वरूप के कर्तव्य होते हैं । इन कर्तव्यों को भी धर्म | + | विभिन्न स्वरूप के कर्तव्य होते हैं। इन कर्तव्यों को भी धर्म |
− | कहते हैं । उदाहरण के लिए पुत्रधर्म, पितृधर्म, शिक्षकधर्म | + | कहते हैं। उदाहरण के लिए पुत्रधर्म, पितृधर्म, शिक्षकधर्म |
− | इत्यादि ।
| + | इत्यादि। |
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| मनुष्य का पंचमहाभूतात्मक जगत के प्रति, प्राणियों | | मनुष्य का पंचमहाभूतात्मक जगत के प्रति, प्राणियों |
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| मनुष्य के इष्टदेवता, ग्रामदेवता, कुलदेवता, राष्ट्रदेवता | | मनुष्य के इष्टदेवता, ग्रामदेवता, कुलदेवता, राष्ट्रदेवता |
− | होते हैं । इन धर्मों के अनेक प्रकार के आचार होते हैं । इन | + | होते हैं। इन धर्मों के अनेक प्रकार के आचार होते हैं। इन |
− | आचारों के आधार पर अनेक प्रकार के सम्प्रदाय होते हैं । | + | आचारों के आधार पर अनेक प्रकार के सम्प्रदाय होते हैं। |
− | इन संप्रदायों को भी धर्म कहते हैं । | + | इन संप्रदायों को भी धर्म कहते हैं। |
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− | सृष्टि की धारणा हेतु मनुष्य को अपने में अनेक गुण विकसित करने होते हैं । ये सदुण कहे जाते हैं । ये सदुण भी धर्म के आयाम हैं । इसीलिए कहा गया है . | + | सृष्टि की धारणा हेतु मनुष्य को अपने में अनेक गुण विकसित करने होते हैं। ये सदुण कहे जाते हैं। ये सदुण भी धर्म के आयाम हैं। इसीलिए कहा गया है . |
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− | धृतिक्षमा दमोस्तेयम् शौचमिन्दट्रिय निग्रह: । | + | धृतिक्षमा दमोस्तेयम् शौचमिन्दट्रिय निग्रह:। |
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− | धीर्विद्या सत्यमक्रो धो दशकं धर्म लक्षणम् ।। | + | धीर्विद्या सत्यमक्रो धो दशकं धर्म लक्षणम्।। |
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− | इन सभी आयामों में धर्म धारण करने का ही कार्य करता है । इन सभी धर्मों के पालन से व्यक्ति को और समष्टि को अभ्युद्य और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है । अभ्युद्य | + | इन सभी आयामों में धर्म धारण करने का ही कार्य करता है। इन सभी धर्मों के पालन से व्यक्ति को और समष्टि को अभ्युद्य और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। अभ्युद्य |
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| का अर्थ है सर्व प्रकार की भौतिक समृद्धि और निःश्रेयस का अर्थ है आत्यन्तिक कल्याण | | | का अर्थ है सर्व प्रकार की भौतिक समृद्धि और निःश्रेयस का अर्थ है आत्यन्तिक कल्याण | |
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| == वैश्विकता == | | == वैश्विकता == |
− | वैश्विकता वर्तमान समय की लोकप्रिय संकल्पना है । | सबको सबकुछ वैश्विक स्तर का चाहिये । वैश्विक मापदण्ड | + | वैश्विकता वर्तमान समय की लोकप्रिय संकल्पना है। | सबको सबकुछ वैश्विक स्तर का चाहिये। वैश्विक मापदण्ड |
| श्रेष्ठ मापदण्ड माने जाते हैं। लोग कहते हैं कि संचार माध्यमों के प्रताप से हम विश्व के किसी भी कोने में क्या | हो रहा है यह देख सकते हैं, सुन सकते हैं और उसकी | | श्रेष्ठ मापदण्ड माने जाते हैं। लोग कहते हैं कि संचार माध्यमों के प्रताप से हम विश्व के किसी भी कोने में क्या | हो रहा है यह देख सकते हैं, सुन सकते हैं और उसकी |
− | जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । यातायात के दृतगति साधनों के कारण से विश्व में कहीं भी जाना हो तो चौबीस घण्टे के अन्दर अन्दर पहुंच सकते हैं। कोई भी वस्तु कहीं भी भेजना चाहते हैं या कहीं से भी मँगवाना चाहते हैं तो वह सम्भव है। विश्व अपने टीवी के पर्दे में और टीवी अपने बैठक कक्ष में या शयनकक्ष में समा गया है। यह केवल जानकारी का ही प्रश्न नहीं है। देश एकदूसरे के इतने नजदीक आ गये हैं कि वे एकदसरे से प्रभावित हुए बिना | नहीं रह सकते । विश्व अब एक ग्राम बन गया है। इसलिए | अब एक ही विश्वसंस्कृति की बात करनी चाहिये । अब | राष्ट्रों की नहीं विश्वनागरिकता की बात करनी चाहिये ।। | + | जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यातायात के दृतगति साधनों के कारण से विश्व में कहीं भी जाना हो तो चौबीस घण्टे के अन्दर अन्दर पहुंच सकते हैं। कोई भी वस्तु कहीं भी भेजना चाहते हैं या कहीं से भी मँगवाना चाहते हैं तो वह सम्भव है। विश्व अपने टीवी के पर्दे में और टीवी अपने बैठक कक्ष में या शयनकक्ष में समा गया है। यह केवल जानकारी का ही प्रश्न नहीं है। देश एकदूसरे के इतने नजदीक आ गये हैं कि वे एकदसरे से प्रभावित हुए बिना | नहीं रह सकते। विश्व अब एक ग्राम बन गया है। इसलिए | अब एक ही विश्वसंस्कृति की बात करनी चाहिये। अब | राष्ट्रों की नहीं विश्वनागरिकता की बात करनी चाहिये।। |
− | अब राष्ट्र की बात करना संकुचितता मानी जाती है । शिक्षा में पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक वैश्विक | स्तर के संस्थान खुल गये हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ व्यापार | + | अब राष्ट्र की बात करना संकुचितता मानी जाती है। शिक्षा में पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक वैश्विक | स्तर के संस्थान खुल गये हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ व्यापार |
− | कर रही हैं । भौतिक पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा | तक के लिए वैश्विक स्तर के मानक स्थापित हो गये हैं। | लोग नौकरी और व्यवसाय के लिए एक देश से दूसरे देश | में आबनजावन सरलता से करते हैं। | + | कर रही हैं। भौतिक पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा | तक के लिए वैश्विक स्तर के मानक स्थापित हो गये हैं। | लोग नौकरी और व्यवसाय के लिए एक देश से दूसरे देश | में आबनजावन सरलता से करते हैं। |
− | |अब विश्वभाषा, विश्वसंस्कृति, विश्वनागरिकता की । बात हो रही है। | + | |अब विश्वभाषा, विश्वसंस्कृति, विश्वनागरिकता की। बात हो रही है। |
− | भारत में वैश्विकता का आकर्षण कुछ अधिक हीं दिखाई देता है । भाषा से लेकर सम्पूर्ण जीवनशैली में | + | भारत में वैश्विकता का आकर्षण कुछ अधिक हीं दिखाई देता है। भाषा से लेकर सम्पूर्ण जीवनशैली में |
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| अभारतीयता की छाप दिखाई देती है। इसलिए इस विषय में जरा स्पष्टता करने की आवश्यकता है। | इस वैश्विकता का मूल कहाँ है यह जानना बहुत उपयोगी रहेगा। | | अभारतीयता की छाप दिखाई देती है। इसलिए इस विषय में जरा स्पष्टता करने की आवश्यकता है। | इस वैश्विकता का मूल कहाँ है यह जानना बहुत उपयोगी रहेगा। |
− | पांचसौं वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वयात्रा शुरू की । विश्व के पूर्वी देशों की समृद्धि का उन्हें आकर्षण था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति हुई । यन्त्रों का आविष्कार हुआ, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा । इन उत्पादनों के लिये उन देशों को बाजार चाहिये था। उससे भी पूर्व यूरोप के देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये ।। अठारहवीं शताब्दी में अमेरीका स्वतन्त्र देश हो गया । इसके बाद आफ्रिका और एशिया के देशों में बाजार स्थापित करने का कार्य और तेज गति से शुरू हुआ । सत्रहवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित होने लगा। ब्रिटीशों का मुख्य उद्देश्य भारत की समृद्धि को लूटना ही था । इस कारण से भारत में लूट और अत्याचार का दौर चला ।। | + | पांचसौं वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वयात्रा शुरू की। विश्व के पूर्वी देशों की समृद्धि का उन्हें आकर्षण था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति हुई। यन्त्रों का आविष्कार हुआ, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा। इन उत्पादनों के लिये उन देशों को बाजार चाहिये था। उससे भी पूर्व यूरोप के देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये।। अठारहवीं शताब्दी में अमेरीका स्वतन्त्र देश हो गया। इसके बाद आफ्रिका और एशिया के देशों में बाजार स्थापित करने का कार्य और तेज गति से शुरू हुआ। सत्रहवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित होने लगा। ब्रिटीशों का मुख्य उद्देश्य भारत की समृद्धि को लूटना ही था। इस कारण से भारत में लूट और अत्याचार का दौर चला।। |
− | पश्चिम का चिन्तन अर्थनिष्ठ था । आज भी है। इसलिए पश्चिम को अब विश्वभर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करना है इस उद्देश्य से यह वैश्वीकरण कि योजना हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, आंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक आदि उसके साधन हैं । विज्ञापन, करार, विश्वव्यापार संगठन आदि उसके माध्यम हैं ।। | + | पश्चिम का चिन्तन अर्थनिष्ठ था। आज भी है। इसलिए पश्चिम को अब विश्वभर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करना है इस उद्देश्य से यह वैश्वीकरण कि योजना हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, आंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक आदि उसके साधन हैं। विज्ञापन, करार, विश्वव्यापार संगठन आदि उसके माध्यम हैं।। |
| भारत को वैश्विकता का बहुत आकर्षण है। परन्तु आज जिस वैश्विकता का प्रचार चल रहा है वह आर्थिक है। | | भारत को वैश्विकता का बहुत आकर्षण है। परन्तु आज जिस वैश्विकता का प्रचार चल रहा है वह आर्थिक है। |
− | जबकि भारत की वैश्विकता सांस्कृतिक है । यह अन्तर हमें | + | जबकि भारत की वैश्विकता सांस्कृतिक है। यह अन्तर हमें |
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− | समझ लेना चाहिये । भारत ने भी | + | समझ लेना चाहिये। भारत ने भी |
− | प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की । भारत के लोग | + | प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की। भारत के लोग |
− | अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं । विश्व के | + | अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं। विश्व के |
− | देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं । विश्व के | + | देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं। विश्व के |
| हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते | | हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते |
| हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, | | हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, |
− | अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया । भारत जहां | + | अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया। भारत जहां |
− | भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया । | + | भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया। |
| भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं ... | | भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं ... |
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− | कृण्वन्तो विश्वमार्यमू । अर्थात विश्व को आर्य | + | कृण्वन्तो विश्वमार्यमू। अर्थात विश्व को आर्य |
− | बनायें । आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें
| + | बनायें। आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें |
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| उदास्वरितानाम तु वसुधैव peavey | frat | | उदास्वरितानाम तु वसुधैव peavey | frat |
− | हृदय उदार होता है उनके लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है । | + | हृदय उदार होता है उनके लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है। |
| वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का | | वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का |
− | समावेश होता है । | + | समावेश होता है। |
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− | सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया: । अर्थात | + | सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। अर्थात |
− | सब सुखी हों, सब निरामय हों । सब में केवल भारतीय | + | सब सुखी हों, सब निरामय हों। सब में केवल भारतीय |
| नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है। | | नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है। |
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| तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक | | तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक |
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− | ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है इसलिए भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है । | + | ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है इसलिए भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है। |
| आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में | | आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में |
− | उलझ गया है । पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को | + | उलझ गया है। पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को |
− | अपना बाजार बनाना चाहती है । परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ | + | अपना बाजार बनाना चाहती है। परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ |
− | बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है । भारत के सुज्ञ | + | बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है। भारत के सुज्ञ |
| सुभाषितकार ने कहा है, अर्थातुराणाम न गुरुर्न बंधु:' अर्थात | | सुभाषितकार ने कहा है, अर्थातुराणाम न गुरुर्न बंधु:' अर्थात |
| जो अर्थ के पीछे पड़ता है उसे न कोई गुरु होता है न | | जो अर्थ के पीछे पड़ता है उसे न कोई गुरु होता है न |
− | स्वजन । ऐसे अनात्मीय सम्बन्ध से स्पर्धा, हिंसा, संघर्ष,
| + | स्वजन। ऐसे अनात्मीय सम्बन्ध से स्पर्धा, हिंसा, संघर्ष, |
− | विनाश ही फैलते हैं । पश्चिमी देशों की अर्थनिष्ठा उन्हें भी | + | विनाश ही फैलते हैं। पश्चिमी देशों की अर्थनिष्ठा उन्हें भी |
− | विनाश की ओर ही ले जा रही है । हम यदि उसका ही | + | विनाश की ओर ही ले जा रही है। हम यदि उसका ही |
− | अनुसरण करेंगे तो हमारी दिशा भी विनाश की होगी । | + | अनुसरण करेंगे तो हमारी दिशा भी विनाश की होगी। |
| पश्चिमी वैश्विकताने भारत की शिक्षा को भी ग्रसित कर | | पश्चिमी वैश्विकताने भारत की शिक्षा को भी ग्रसित कर |
− | रखा है । पश्चिम ने शिक्षा का एक उद्योग बनाकर उसका | + | रखा है। पश्चिम ने शिक्षा का एक उद्योग बनाकर उसका |
− | बाजार निर्माण कर दिया है । यूनिवर्सिटी भी एक उद्योग है । | + | बाजार निर्माण कर दिया है। यूनिवर्सिटी भी एक उद्योग है। |
− | हम शिक्षा के बाजार में शामिल हो गये हैं । वैश्विकता के | + | हम शिक्षा के बाजार में शामिल हो गये हैं। वैश्विकता के |
− | भुलावे में आ गये हैं । शिक्षा ही हमें अस्वाभाविक संकल्पना | + | भुलावे में आ गये हैं। शिक्षा ही हमें अस्वाभाविक संकल्पना |
− | के चंगुल से उबार सकती है । इसका विचार कर वैश्विकता | + | के चंगुल से उबार सकती है। इसका विचार कर वैश्विकता |
| और शिक्षा दोनों के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की | | और शिक्षा दोनों के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की |
− | आवश्यकता है । विश्व को भी बचना है तो भारत की | + | आवश्यकता है। विश्व को भी बचना है तो भारत की |
| सांस्कृतिक वैश्विकता की ही आवश्यकता रहेगी | | | सांस्कृतिक वैश्विकता की ही आवश्यकता रहेगी | |
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| == राष्ट्र == | | == राष्ट्र == |
− | राष्ट्र सांस्कृतिक है । हम पश्चिम की | + | राष्ट्र सांस्कृतिक है। हम पश्चिम की |
| विचारप्रणाली के प्रभाव में आकर राष्ट्र को देश कहते हैं | | विचारप्रणाली के प्रभाव में आकर राष्ट्र को देश कहते हैं |
| और उसे राजकीय और भौगोलिक इकाई के रूप में ही | | और उसे राजकीय और भौगोलिक इकाई के रूप में ही |
− | देखते हैं । राष्ट्र मूलतः जीवनदर्शन को ही कहते हैं । | + | देखते हैं। राष्ट्र मूलतः जीवनदर्शन को ही कहते हैं। |
− | जीवनदूर्शन एक प्रजा का होता है । जगत में भिन्न भिन्न | + | जीवनदूर्शन एक प्रजा का होता है। जगत में भिन्न भिन्न |
− | प्रजाओं का जीवनदर्शन भिन्न भिन्न होता है । जीवन और | + | प्रजाओं का जीवनदर्शन भिन्न भिन्न होता है। जीवन और |
| जगत को समझने के प्रजा के वैशिष्ठटय को उस प्रजा का | | जगत को समझने के प्रजा के वैशिष्ठटय को उस प्रजा का |
− | जीवनदर्शन कहते हैं । कभी कभी लोग कहते हैं कि सृष्टि | + | जीवनदर्शन कहते हैं। कभी कभी लोग कहते हैं कि सृष्टि |
| तो एक ही है, जैसी है वैसी, उसे समझने की पद्धति भिन्न | | तो एक ही है, जैसी है वैसी, उसे समझने की पद्धति भिन्न |
| भिन्न कैसे हो सकती है ? उसी प्रकार जीवन भी जैसा है | | भिन्न कैसे हो सकती है ? उसी प्रकार जीवन भी जैसा है |
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| की दृष्टि से प्रजाओं का दर्शन भिन्न भिन्न होता है यह सत्य | | की दृष्टि से प्रजाओं का दर्शन भिन्न भिन्न होता है यह सत्य |
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− | है । उदाहरण के लिये भारत की प्रजा जन्मजन्मान्तर को
| + | है। उदाहरण के लिये भारत की प्रजा जन्मजन्मान्तर को |
| मानती है और अनेक जन्मों में जीवन एक ही होता है इस | | मानती है और अनेक जन्मों में जीवन एक ही होता है इस |
− | तथ्य में विश्वास करती है । जब कि यूरोप की इसाई प्रजा | + | तथ्य में विश्वास करती है। जब कि यूरोप की इसाई प्रजा |
− | जन्मजन्मान्तर में विश्वास नहीं करती । भारतीय प्रजा | + | जन्मजन्मान्तर में विश्वास नहीं करती। भारतीय प्रजा |
| सचराचर सृष्टि में मूल एकत्व है, ऐसा मानती है जबकि | | सचराचर सृष्टि में मूल एकत्व है, ऐसा मानती है जबकि |
− | यूरोपीय प्रजा भिन्नत्व में विश्वास करती है । अर्थात् प्रजाओं | + | यूरोपीय प्रजा भिन्नत्व में विश्वास करती है। अर्थात् प्रजाओं |
| की जीवन और जगत को समझने की दृष्टि भिन्न भिन्न होती | | की जीवन और जगत को समझने की दृष्टि भिन्न भिन्न होती |
− | है । इस भिन्नत्व के कारण ही राष्ट्र एक दूसरे से भिन्न होते
| + | है। इस भिन्नत्व के कारण ही राष्ट्र एक दूसरे से भिन्न होते |
− | हैं । भौगोलिक दृष्टि से जो एकदूसरे से भिन्न होते हैं वे
| + | हैं। भौगोलिक दृष्टि से जो एकदूसरे से भिन्न होते हैं वे |
− | महादट्रीप और देश कहे जाते हैं । समुद्रों के कारण जो भूभाग | + | महादट्रीप और देश कहे जाते हैं। समुद्रों के कारण जो भूभाग |
| एकदूसरे से अलग होते हैं वे महाद्वीप और पर्वतों से जो | | एकदूसरे से अलग होते हैं वे महाद्वीप और पर्वतों से जो |
− | अगल होते हैं वे देश कहे जाते हैं । उदाहरण के लिये | + | अगल होते हैं वे देश कहे जाते हैं। उदाहरण के लिये |
− | आस्ट्रेलिया महाद्वीप है जबकि भारत देश है । यह उसकी | + | आस्ट्रेलिया महाद्वीप है जबकि भारत देश है। यह उसकी |
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− | भौगोलिक पहचान है । भारत एक सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश है । यह उसकी राजकीय, सांस्कृतिक पहचान है । यह पहचान उसे राष्ट्र बनाती है । राष्ट्र के रूप में वह एक भूसांस्कृतिक इकाई है । इसका अर्थ है भारत का भूभाग, भारत की प्रजा और उस प्रजा का जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है । इसमें भूभाग कमअधिक होता है । भारत का | + | भौगोलिक पहचान है। भारत एक सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश है। यह उसकी राजकीय, सांस्कृतिक पहचान है। यह पहचान उसे राष्ट्र बनाती है। राष्ट्र के रूप में वह एक भूसांस्कृतिक इकाई है। इसका अर्थ है भारत का भूभाग, भारत की प्रजा और उस प्रजा का जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है। इसमें भूभाग कमअधिक होता है। भारत का |
− | भू-भाग एक समय में वर्तमान इरान और इराक तक था । | आज वह जम्मूकश्मीर और पंजाब तक है । भारत में एक समय था जब मुसलमान और इसाई नहीं थे, आज हैं । इससे भारत की राष्ट्रीयता में अन्तर नहीं आता । जब तक जीवनदर्शन लुप्त नहीं हो जाता तब तक वह बना रहता है । जब जीवनदर्शन और उसके अनुसरण में बनी संस्कृति बदल जाती है तब भूभाग रहने पर भी राष्ट्र नहीं रहता । उदाहरण के लिये वर्तमान इसरायल सन १९४८ में जगत के मानचित्र पर भूभाग के रूप में उभरा । उससे पूर्व दो सहस्रकों तक | + | भू-भाग एक समय में वर्तमान इरान और इराक तक था। | आज वह जम्मूकश्मीर और पंजाब तक है। भारत में एक समय था जब मुसलमान और इसाई नहीं थे, आज हैं। इससे भारत की राष्ट्रीयता में अन्तर नहीं आता। जब तक जीवनदर्शन लुप्त नहीं हो जाता तब तक वह बना रहता है। जब जीवनदर्शन और उसके अनुसरण में बनी संस्कृति बदल जाती है तब भूभाग रहने पर भी राष्ट्र नहीं रहता। उदाहरण के लिये वर्तमान इसरायल सन १९४८ में जगत के मानचित्र पर भूभाग के रूप में उभरा। उससे पूर्व दो सहस्रकों तक |
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− | प्रजा और जीवनदर्शन थे परन्तु भूभाग नहीं था । अतः राष्ट्र था, देश नहीं था । आज ग्रीस और रोम भूभाग के रूप में हैं । परन्तु प्राचीन समय में जो राष्ट्र थे वे नहीं रहे ।। | + | प्रजा और जीवनदर्शन थे परन्तु भूभाग नहीं था। अतः राष्ट्र था, देश नहीं था। आज ग्रीस और रोम भूभाग के रूप में हैं। परन्तु प्राचीन समय में जो राष्ट्र थे वे नहीं रहे।। |
− | हर राष्ट्र का अपना एक स्वभाव होता है जो उसे जन्म से ही प्राप्त होता है । यह स्वभाव ही उसकी पहचान होती है । हमारी कठिनाई यह है कि हम राजकीय इकाई और सांस्कृतिक इकाई को एक ही मानते हैं, किंबहुना हमें राजकीय इकाई ही ज्ञात है सांस्कृतिक नहीं । परन्तु युगों में ज्ञों बनी रहती है वह सांस्कृतिक इकाई ही होती है, राजकीय या भौगोलिक नहीं । भारत का एक राष्ट्र के रूप में रक्षण करना प्रजा के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है ।। | + | हर राष्ट्र का अपना एक स्वभाव होता है जो उसे जन्म से ही प्राप्त होता है। यह स्वभाव ही उसकी पहचान होती है। हमारी कठिनाई यह है कि हम राजकीय इकाई और सांस्कृतिक इकाई को एक ही मानते हैं, किंबहुना हमें राजकीय इकाई ही ज्ञात है सांस्कृतिक नहीं। परन्तु युगों में ज्ञों बनी रहती है वह सांस्कृतिक इकाई ही होती है, राजकीय या भौगोलिक नहीं। भारत का एक राष्ट्र के रूप में रक्षण करना प्रजा के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है।। |
− | | राष्ट्र एक ऐसा भूभाग है जहाँ प्रजा का उसके लिये मातृवत स्नेह होता है । वह प्रजा की मातृभूमि होती है । यह भी सांस्कृतिक पहचान ही है । | + | | राष्ट्र एक ऐसा भूभाग है जहाँ प्रजा का उसके लिये मातृवत स्नेह होता है। वह प्रजा की मातृभूमि होती है। यह भी सांस्कृतिक पहचान ही है। |
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| == वैज्ञानिकता == | | == वैज्ञानिकता == |
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− | वैश्विकता के समान ही आज बौद्धिकों के लिये लुभावनी संकल्पना वैज्ञानिकता की है। सब कुछ वैज्ञानिक होना चाहिये । जो भी प्रक्रिया, पद्धति, पदार्थ, अर्थघटन वैज्ञानिक नहीं है वह त्याज्य है । बौद्धिकों का अनुसरण कर सामान्यजन भी वैज्ञानिकता की दुहाई देते हैं । | + | वैश्विकता के समान ही आज बौद्धिकों के लिये लुभावनी संकल्पना वैज्ञानिकता की है। सब कुछ वैज्ञानिक होना चाहिये। जो भी प्रक्रिया, पद्धति, पदार्थ, अर्थघटन वैज्ञानिक नहीं है वह त्याज्य है। बौद्धिकों का अनुसरण कर सामान्यजन भी वैज्ञानिकता की दुहाई देते हैं। |
− | परन्तु यह वैज्ञानिकता क्या है ? आज जिसे विज्ञान कहा जाता है वह भौतिक विज्ञान है । भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में जो परखा जाता है वहीं वैज्ञानिक है । इस निकष पर यदि हमारे उत्सव, विधिविधान, रीतिरिवाज, अनुष्ठान खरे नहीं उतरते तो वे अवैज्ञानिक हैं इसलिए त्याज्य हैं, अंधश्रद्धा से युक्त हैं ऐसा करार दिया जाता है। उदाहरण के लिये हमारे पारम्परिक यज्ञों में होमा जाने वाला घी बरबाद हो रहा है। किसी गरीब को खिलाया जाना यज्ञ में होमने से बेहतर है ऐसा कहा जाता है । शिखा रखना | मूर्खता है अथवा अप्रासंगिक है ऐसा कहा जाता है। ऐसे तो सेंकड़ों उदाहरण हैं। | + | परन्तु यह वैज्ञानिकता क्या है ? आज जिसे विज्ञान कहा जाता है वह भौतिक विज्ञान है। भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में जो परखा जाता है वहीं वैज्ञानिक है। इस निकष पर यदि हमारे उत्सव, विधिविधान, रीतिरिवाज, अनुष्ठान खरे नहीं उतरते तो वे अवैज्ञानिक हैं इसलिए त्याज्य हैं, अंधश्रद्धा से युक्त हैं ऐसा करार दिया जाता है। उदाहरण के लिये हमारे पारम्परिक यज्ञों में होमा जाने वाला घी बरबाद हो रहा है। किसी गरीब को खिलाया जाना यज्ञ में होमने से बेहतर है ऐसा कहा जाता है। शिखा रखना | मूर्खता है अथवा अप्रासंगिक है ऐसा कहा जाता है। ऐसे तो सेंकड़ों उदाहरण हैं। |
| इसमें बहुत अधूरापन है यह बात समझ लेनी | | इसमें बहुत अधूरापन है यह बात समझ लेनी |
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− | चाहिये । विश्व में केवल भौतिक पदार्थ ही नहीं हैं। भौतिकता से परे बहुत बड़ा विश्व है । यह मन और बुद्धि की दुनिया है जो भौतिक विश्व से सूक्ष्म है । सूक्ष्म का अर्थ लघु नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी । मन और बुद्धि का विश्व भौतिक विश्व से अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है ।। | कठिनाई यह है कि आज का विज्ञान मन और बुद्धि के विश्व को भी भौतिक विश्व के ही नियम लागू करता है। मनोविज्ञान के परीक्षण भौतिक विज्ञान के निकष पर बनाते हमने देखे ही हैं । यह तो उल्टी बात है। भावनाओं, इच्छाओं, विचारों, कल्पनाओं, सृजन आदि की दुनिया भौतिक विज्ञान के मापदंडों से कहीं ऊपर है।
| + | चाहिये। विश्व में केवल भौतिक पदार्थ ही नहीं हैं। भौतिकता से परे बहुत बड़ा विश्व है। यह मन और बुद्धि की दुनिया है जो भौतिक विश्व से सूक्ष्म है। सूक्ष्म का अर्थ लघु नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। मन और बुद्धि का विश्व भौतिक विश्व से अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है।। | कठिनाई यह है कि आज का विज्ञान मन और बुद्धि के विश्व को भी भौतिक विश्व के ही नियम लागू करता है। मनोविज्ञान के परीक्षण भौतिक विज्ञान के निकष पर बनाते हमने देखे ही हैं। यह तो उल्टी बात है। भावनाओं, इच्छाओं, विचारों, कल्पनाओं, सृजन आदि की दुनिया भौतिक विज्ञान के मापदंडों से कहीं ऊपर है। |
− | | इसलिए आज के बौद्धिक विश्व के विज्ञान और वैज्ञानिकता बहुत अधूरे हैं । वे केवल अन्नमय और प्राणमय कोश में व्यवहार कर सकते हैं। मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश के लिये ये निकष बहुत कम पड़ते हैं । | + | | इसलिए आज के बौद्धिक विश्व के विज्ञान और वैज्ञानिकता बहुत अधूरे हैं। वे केवल अन्नमय और प्राणमय कोश में व्यवहार कर सकते हैं। मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश के लिये ये निकष बहुत कम पड़ते हैं। |
− | भारत में भी विज्ञान संज्ञा है । वह बहुत प्रतिष्ठित भी है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है | + | भारत में भी विज्ञान संज्ञा है। वह बहुत प्रतिष्ठित भी है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है |
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− | है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है। शास्त्रीयता । शास्त्रों को अनुभूति का आधार होता है । शास्त्र आत्मनिष्ठ बुद्धि का आविष्कार हैं। इसलिए शास्त्रप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं... | + | है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है। शास्त्रीयता। शास्त्रों को अनुभूति का आधार होता है। शास्त्र आत्मनिष्ठ बुद्धि का आविष्कार हैं। इसलिए शास्त्रप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं... |
− | यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।। १६.२३ | + | यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।। १६.२३ |
| अर्थात | | अर्थात |
| जो शास्त्र के निर्देश की उपेक्षा कर स्वैर आचरण करता है उसे सुख, सिद्धि या परम गति प्राप्त नहीं होती। | | जो शास्त्र के निर्देश की उपेक्षा कर स्वैर आचरण करता है उसे सुख, सिद्धि या परम गति प्राप्त नहीं होती। |
− | वे और भी कहते हैं ... तस्माच्छास्त्रम प्रमाणम् ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । १६.२४ | + | वे और भी कहते हैं ... तस्माच्छास्त्रम प्रमाणम् ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। १६.२४ |
| अर्थात क्या करना और क्या नहीं करना ऐसा प्रश्न | | अर्थात क्या करना और क्या नहीं करना ऐसा प्रश्न |
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| उठने पर तेरे लिये शास्त्र ही प्रमाण है। | | उठने पर तेरे लिये शास्त्र ही प्रमाण है। |
− | शास्त्र अर्थात विज्ञान । तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिकता की तो भारत में भी प्रतिष्ठा है । वह केवल भौतिक विज्ञान नहीं है अपितु आत्मविज्ञान के आधार पर रचे गये मन और बुद्धि के विश्व को भी समाहित करने वाले विज्ञान की वैज्ञानिकता है। | + | शास्त्र अर्थात विज्ञान। तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिकता की तो भारत में भी प्रतिष्ठा है। वह केवल भौतिक विज्ञान नहीं है अपितु आत्मविज्ञान के आधार पर रचे गये मन और बुद्धि के विश्व को भी समाहित करने वाले विज्ञान की वैज्ञानिकता है। |
− | यूरोप में भी सहीं में साइंस का अर्थ शास्त्रीयता ही है । केवल आज हमने उसे भी संकुचित कर दिया है । | + | यूरोप में भी सहीं में साइंस का अर्थ शास्त्रीयता ही है। केवल आज हमने उसे भी संकुचित कर दिया है। |
| भारत के बौद्धिक जगत का यह दायित्व है कि ‘वैज्ञानिक अंधश्रद्धा को दूर कर विज्ञान और वैज्ञानिकता को सही अर्थ में प्रतिष्ठित करें। | | भारत के बौद्धिक जगत का यह दायित्व है कि ‘वैज्ञानिक अंधश्रद्धा को दूर कर विज्ञान और वैज्ञानिकता को सही अर्थ में प्रतिष्ठित करें। |
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| == अध्यात्म == | | == अध्यात्म == |
− | अध्यात्म भारत की खास संकल्पना है। सृष्टिरचना के मूल में आत्मतत्त्व है। आत्मतत्त्व अव्यक्त, अपरिवर्तनीय, अमूर्त संकल्पना है जिसमें से यह व्यक्त सृष्टि निर्माण हुई है। अव्यक्त आत्मतत्त्व ही व्यक्त सृष्टि में रूपान्तरित हुआ है । आत्मतत्त्व और सृष्टि में कोई अन्तर नहीं है। अव्यक्त आत्मतत्त्व से व्यक्त सृष्टि क्यों बनी इसका कारण केवल आत्मतत्त्व का संकल्प है। | + | अध्यात्म भारत की खास संकल्पना है। सृष्टिरचना के मूल में आत्मतत्व है। आत्मतत्व अव्यक्त, अपरिवर्तनीय, अमूर्त संकल्पना है जिसमें से यह व्यक्त सृष्टि निर्माण हुई है। अव्यक्त आत्मतत्व ही व्यक्त सृष्टि में रूपान्तरित हुआ है। आत्मतत्व और सृष्टि में कोई अन्तर नहीं है। अव्यक्त आत्मतत्व से व्यक्त सृष्टि क्यों बनी इसका कारण केवल आत्मतत्व का संकल्प है। |
− | | इस सृष्टि में सर्वत्र आत्मतत्त्व अनुस्युत है इसलिए | सृष्टि के सारे सम्बन्धों का, सर्व व्यवहारों का, सर्व व्यवस्थाओं का मूल अधिष्ठान आत्मतत्त्व है। | + | | इस सृष्टि में सर्वत्र आत्मतत्व अनुस्युत है इसलिए | सृष्टि के सारे सम्बन्धों का, सर्व व्यवहारों का, सर्व व्यवस्थाओं का मूल अधिष्ठान आत्मतत्व है। |
− | आत्मतत्त्व के अधिष्ठान पर जो भी स्थित है वह आध्यात्मिक है। यह उसकी भावात्मक नहीं अपितु बौद्धिक व्याख्या है।
| + | आत्मतत्व के अधिष्ठान पर जो भी स्थित है वह आध्यात्मिक है। यह उसकी भावात्मक नहीं अपितु बौद्धिक व्याख्या है। |
| | इसलिए आध्यात्मिकता भगवे वस्त्र, संन्यास, मठ, मन्दिर या संसारत्याग से जुड़ी हुई संकल्पना नहीं है अपितु संसार के सारे व्यवहारों से जुड़ा हुआ तत्व है। आज इसी बात का घालमेल हुआ है। | | | इसलिए आध्यात्मिकता भगवे वस्त्र, संन्यास, मठ, मन्दिर या संसारत्याग से जुड़ी हुई संकल्पना नहीं है अपितु संसार के सारे व्यवहारों से जुड़ा हुआ तत्व है। आज इसी बात का घालमेल हुआ है। |
| इस संकल्पना के कारण सृष्टि की सारी रचनाओं तथा व्यवस्थाओं में एकात्मता की कल्पना की गई है। जहां जहां भी एकात्मता है वहाँ आध्यात्मिक अधिष्ठान है ऐसा हम कह सकते हैं। | | इस संकल्पना के कारण सृष्टि की सारी रचनाओं तथा व्यवस्थाओं में एकात्मता की कल्पना की गई है। जहां जहां भी एकात्मता है वहाँ आध्यात्मिक अधिष्ठान है ऐसा हम कह सकते हैं। |
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| भारत में गृहव्यवस्था, समाजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था का मूल अधिष्ठान अध्यात्म ही है। अत: आध्यात्मिक अर्थशास्त्र कहने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है। | | भारत में गृहव्यवस्था, समाजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था का मूल अधिष्ठान अध्यात्म ही है। अत: आध्यात्मिक अर्थशास्त्र कहने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है। |
| | भारत का युगों का इतिहास प्रमाण है कि इस संकल्पना ने भारत की व्यवस्थाओं को इतना उत्तम बनाया है और व्यवहारों को इतना अर्थपूर्ण और मानवीय बनाया है। कि वह विश्व में सबसे अधिक आयुवाला तथा समृद्ध राष्ट्र बना है। | | | भारत का युगों का इतिहास प्रमाण है कि इस संकल्पना ने भारत की व्यवस्थाओं को इतना उत्तम बनाया है और व्यवहारों को इतना अर्थपूर्ण और मानवीय बनाया है। कि वह विश्व में सबसे अधिक आयुवाला तथा समृद्ध राष्ट्र बना है। |
− | इस संकल्पना के कारण भारत की हर व्यवस्था में समरसता दिखाई देती है क्योंकि सर्वत्र आत्मतत्त्व व्याप्त होने के कारण सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे से जुड़ा हुआ है। | + | इस संकल्पना के कारण भारत की हर व्यवस्था में समरसता दिखाई देती है क्योंकि सर्वत्र आत्मतत्व व्याप्त होने के कारण सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे से जुड़ा हुआ है। |
− | और दूसरे से प्रभावित होता है ऐसी समझ बनती है । समग्रता में विचार करने के कारण से और उसके आधार पर व्यवस्थायें बनाने से कम से कम संकट निर्माण होते हैं यह व्यवहार का नियम है ।। | + | और दूसरे से प्रभावित होता है ऐसी समझ बनती है। समग्रता में विचार करने के कारण से और उसके आधार पर व्यवस्थायें बनाने से कम से कम संकट निर्माण होते हैं यह व्यवहार का नियम है।। |
− | वर्तमान बौद्धिक संभ्रम के परिणामस्वरूप हम भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग करते हैं और हर स्थिति को दो भागों में बांटकर ही देखते हैं। हमारी बौद्धिक कठिनाई यह है कि हम मानते हैं कि जो भौतिक नहीं है वह आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक है वह भौतिक नहीं है । वास्तव में भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग ही नहीं हैं। भौतिक का अधिष्ठान आध्यात्मिक होता है। | + | वर्तमान बौद्धिक संभ्रम के परिणामस्वरूप हम भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग करते हैं और हर स्थिति को दो भागों में बांटकर ही देखते हैं। हमारी बौद्धिक कठिनाई यह है कि हम मानते हैं कि जो भौतिक नहीं है वह आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक है वह भौतिक नहीं है। वास्तव में भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग ही नहीं हैं। भौतिक का अधिष्ठान आध्यात्मिक होता है। |
| इयलिए विचार या तो. आध्यात्मिक होता है या | | इयलिए विचार या तो. आध्यात्मिक होता है या |
− | अनाध्यात्मिक, आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होता । कारण | + | अनाध्यात्मिक, आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होता। कारण |
− | स्पष्ट है। आध्यात्मिक का व्यक्त रूप ही भौतिक है । | + | स्पष्ट है। आध्यात्मिक का व्यक्त रूप ही भौतिक है। |
| इसलिए जिस प्रकार आध्यात्मिक अर्थशास्त्र संभव है उसी | | इसलिए जिस प्रकार आध्यात्मिक अर्थशास्त्र संभव है उसी |
− | प्रकार आध्यात्मिक भौतिक विज्ञान भी सम्भव है । | + | प्रकार आध्यात्मिक भौतिक विज्ञान भी सम्भव है। |
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| भारत में और पश्चिम में अन्तर यह है कि पश्चिम | | भारत में और पश्चिम में अन्तर यह है कि पश्चिम |
| अनाध्यात्मिक भौतिक है और भारत आध्यात्मिक भौतिक | | अनाध्यात्मिक भौतिक है और भारत आध्यात्मिक भौतिक |
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− | है । आध्यात्मिक भौतिक होने के कारण भारत में समृद्धि के
| + | है। आध्यात्मिक भौतिक होने के कारण भारत में समृद्धि के |
| साथ साथ संस्कृति भी विकसित होती है जबकि पश्चिम में | | साथ साथ संस्कृति भी विकसित होती है जबकि पश्चिम में |
| संस्कृति को छोड़कर ही समृद्धि सम्भव | | संस्कृति को छोड़कर ही समृद्धि सम्भव |
− | है । समृद्धि और संस्कृति को एकसाथ प्राप्त करने के लिये
| + | है। समृद्धि और संस्कृति को एकसाथ प्राप्त करने के लिये |
| आध्यात्मिकता की बराबरी कर सके ऐसी कोई संकल्पना | | आध्यात्मिकता की बराबरी कर सके ऐसी कोई संकल्पना |
− | नहीं है । | + | नहीं है। |
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| भारत के बौद्धिक जगत के लिये यह आध्यात्मिक | | भारत के बौद्धिक जगत के लिये यह आध्यात्मिक |
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| शिक्षाक्षेत्र उल्टी दिशा में चला है इसलिए वह कठिन तो है | | शिक्षाक्षेत्र उल्टी दिशा में चला है इसलिए वह कठिन तो है |
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− | ... परन्तु अनिवार्य रूप से करणीय है । | + | ... परन्तु अनिवार्य रूप से करणीय है। |
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| == संस्कृति == | | == संस्कृति == |
− | संस्कृति का अर्थ है जीवनशैली । संस्कृति संज्ञा का | + | संस्कृति का अर्थ है जीवनशैली। संस्कृति संज्ञा का |
− | संबन्ध धर्म के साथ है । धर्म विश्वनियम है । धर्म एक | + | संबन्ध धर्म के साथ है। धर्म विश्वनियम है। धर्म एक |
− | सार्वभौम व्यवस्था है । संस्कृति उसके अनुसरण में की हुई | + | सार्वभौम व्यवस्था है। संस्कृति उसके अनुसरण में की हुई |
− | कृति है। संस्कृति धर्म की प्रणाली है । पीढ़ी दर पीढ़ी | + | कृति है। संस्कृति धर्म की प्रणाली है। पीढ़ी दर पीढ़ी |
| आचरण करते करते सम्पूर्ण प्रजा की जो रीति बन जाती है | | आचरण करते करते सम्पूर्ण प्रजा की जो रीति बन जाती है |
− | वही संस्कृति है । भारत की प्रजा की जो जीवनरीति है वह | + | वही संस्कृति है। भारत की प्रजा की जो जीवनरीति है वह |
− | भारतीय संस्कृति है । | + | भारतीय संस्कृति है। |
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| आज संस्कृति का धर्म का पक्ष ध्यान में नहीं रहा है | | आज संस्कृति का धर्म का पक्ष ध्यान में नहीं रहा है |
| और केवल रीतियों को संस्कृति कहा जाने लगा है। | | और केवल रीतियों को संस्कृति कहा जाने लगा है। |
| उदाहरण के लिये रंगमंच कार्यक्रम में जो नाटक, नृत्य, | | उदाहरण के लिये रंगमंच कार्यक्रम में जो नाटक, नृत्य, |
− | गीतसंगीत होते हैं उन्हें सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाता है । | + | गीतसंगीत होते हैं उन्हें सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाता है। |
| विदेशों में देश का सांस्कृतिक दल जाता है तब उसमें | | विदेशों में देश का सांस्कृतिक दल जाता है तब उसमें |
− | गायक और नर्तक होते हैं । वेषभूषा, खानपान के पदार्थ, | + | गायक और नर्तक होते हैं। वेषभूषा, खानपान के पदार्थ, |
− | अलंकार आदि के प्रदर्शन सांस्कृतिक प्रदर्शन कहे जाते हैं । | + | अलंकार आदि के प्रदर्शन सांस्कृतिक प्रदर्शन कहे जाते हैं। |
| ये सब संस्कृति के अंग तो हैं परन्तु ये ही केवल संस्कृति | | ये सब संस्कृति के अंग तो हैं परन्तु ये ही केवल संस्कृति |
− | नहीं हैं । | + | नहीं हैं। |
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| अन्न को, गाय को, तुलसी को, पानी को पवित्र | | अन्न को, गाय को, तुलसी को, पानी को पवित्र |
− | मानकर जो व्यवहार की रीति बनाती है वह संस्कृति है । | + | मानकर जो व्यवहार की रीति बनाती है वह संस्कृति है। |
| हम भोजन करने बैठे हैं तब जो भी कोई आता है उसे | | हम भोजन करने बैठे हैं तब जो भी कोई आता है उसे |
| भोजन के लिये साथ बिठाना हमारी संस्कृति है, जबकि | | भोजन के लिये साथ बिठाना हमारी संस्कृति है, जबकि |
| पूर्वसूचना देकर नहीं आए तो भोजन के लिये पुछने की | | पूर्वसूचना देकर नहीं आए तो भोजन के लिये पुछने की |
| आवश्यकता नहीं, आने वाला भी ऐसी अपेक्षा नहीं करेगा | | आवश्यकता नहीं, आने वाला भी ऐसी अपेक्षा नहीं करेगा |
− | यह पश्चिम की संस्कृति है । | + | यह पश्चिम की संस्कृति है। |
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| केवल कलाकृतियाँ संस्कृति नहीं है अपितु प्रजा की | | केवल कलाकृतियाँ संस्कृति नहीं है अपितु प्रजा की |
| जीवनदृष्टि जिस पद्धति से जिस रूप में कलाकृतियों में | | जीवनदृष्टि जिस पद्धति से जिस रूप में कलाकृतियों में |
− | अभिव्यक्त होती है वह संस्कृति है । उदाहरण के लिये | + | अभिव्यक्त होती है वह संस्कृति है। उदाहरण के लिये |
| संस्कृत के महाकाव्य और महानाटक कभी दुःखान्त नहीं | | संस्कृत के महाकाव्य और महानाटक कभी दुःखान्त नहीं |
| होते क्योंकि जीवन का विधायक दृष्टिकोण काव्य में व्यक्त | | होते क्योंकि जीवन का विधायक दृष्टिकोण काव्य में व्यक्त |
− | होना चाहिये ऐसी प्रजा की मान्यता है । यतों धर्मस्ततो | + | होना चाहिये ऐसी प्रजा की मान्यता है। यतों धर्मस्ततो |
| जय: का सूत्र सभी कलाकृतियों में व्यक्त होना चाहिये ऐसी | | जय: का सूत्र सभी कलाकृतियों में व्यक्त होना चाहिये ऐसी |
| दृष्टि है। “कला के लिये कला' का सूत्र भारतीय साहित्य | | दृष्टि है। “कला के लिये कला' का सूत्र भारतीय साहित्य |
− | में मान्य नहीं है । साहित्य का प्रयोजन भी जीवनलक्षी होना | + | में मान्य नहीं है। साहित्य का प्रयोजन भी जीवनलक्षी होना |
− | चाहिये ।
| + | चाहिये। |
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| इतिहास क्यों पढ़ना चाहिये ?आज की तरह केवल | | इतिहास क्यों पढ़ना चाहिये ?आज की तरह केवल |
| राजकीय इतिहास पढ़ना भारत में कभी आवश्यक नहीं माना | | राजकीय इतिहास पढ़ना भारत में कभी आवश्यक नहीं माना |
− | गया । सांस्कृतिक इतिहास पढ़ना ही आवश्यक माना गया
| + | गया। सांस्कृतिक इतिहास पढ़ना ही आवश्यक माना गया |
| क्योंकि इतिहास से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हेतु कैसा | | क्योंकि इतिहास से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हेतु कैसा |
| व्यवहार करना चाहिये और कैसा नहीं इसकी प्रेरणा और | | व्यवहार करना चाहिये और कैसा नहीं इसकी प्रेरणा और |
− | उपदेश मिलता है । सांस्कृतिक भूगोल उसे कहते हैं जहां | + | उपदेश मिलता है। सांस्कृतिक भूगोल उसे कहते हैं जहां |
− | भूमि के साथ भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ता है । सांस्कृतिक | + | भूमि के साथ भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ता है। सांस्कृतिक |
| समाजशास्त्र उसे कहते हैं जहां धर्म की रक्षा के लिये उसका | | समाजशास्त्र उसे कहते हैं जहां धर्म की रक्षा के लिये उसका |
− | अनुसरण होता है । सांस्कृतिक अर्थशास्त्र उसे कहते हैं जहां | + | अनुसरण होता है। सांस्कृतिक अर्थशास्त्र उसे कहते हैं जहां |
− | धर्म के अविरोधी अथर्जिन होता है । तात्पर्य यह है कि | + | धर्म के अविरोधी अथर्जिन होता है। तात्पर्य यह है कि |
− | संस्कृति केवल कला नहीं अपितु जीवनशैली है । | + | संस्कृति केवल कला नहीं अपितु जीवनशैली है। |
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| मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव, | | मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव, |
− | आचार्य देवो भव, यह भारतीय संस्कृति का आचार है । | + | आचार्य देवो भव, यह भारतीय संस्कृति का आचार है। |
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− | युद्ध करते समय भी धर्म को नहीं छोड़ना यह भारतीय संस्कृति की रीत है । भूतमात्र का हित | चाहना यह भारतीय संस्कृति की रीत है। भोजन को ब्रह्म मानना और उसे जठराग्नि को आहुती देने के रूप में ग्रहण करना भारतीय संस्कृति की रीत है। | + | युद्ध करते समय भी धर्म को नहीं छोड़ना यह भारतीय संस्कृति की रीत है। भूतमात्र का हित | चाहना यह भारतीय संस्कृति की रीत है। भोजन को ब्रह्म मानना और उसे जठराग्नि को आहुती देने के रूप में ग्रहण करना भारतीय संस्कृति की रीत है। |
− | धर्म और संस्कृति साथ साथ प्रयुक्त होने वाली संज्ञायें हैं । इसका अर्थ यही है कि संस्कृति धर्म का अनुसरण करती है। | + | धर्म और संस्कृति साथ साथ प्रयुक्त होने वाली संज्ञायें हैं। इसका अर्थ यही है कि संस्कृति धर्म का अनुसरण करती है। |
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− | संस्कृति में आनन्द का भाव भी जुड़ा हुआ है। जीवन में जब आनन्द का अनुभव होता है तो वह नृत्य, गीत, काव्य आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। सौन्दर्य की अनुभूति वस्त्रालंकार, शिल्पस्थापत्य में अभिव्यक्त होती है । इसलिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में रस है, आनन्द है, सौन्दर्य है । जीवन में सत्य और धर्म की अभिव्यक्ति को भी सुन्दर बना देना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। | + | संस्कृति में आनन्द का भाव भी जुड़ा हुआ है। जीवन में जब आनन्द का अनुभव होता है तो वह नृत्य, गीत, काव्य आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। सौन्दर्य की अनुभूति वस्त्रालंकार, शिल्पस्थापत्य में अभिव्यक्त होती है। इसलिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में रस है, आनन्द है, सौन्दर्य है। जीवन में सत्य और धर्म की अभिव्यक्ति को भी सुन्दर बना देना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। |
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| == संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध == | | == संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध == |
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− | नेपोलियन १५३ से.मी. का नाटा नर था। अपनी | पहुँच से ऊँचे स्थान पर स्थित किसी चीज को उन्होंने देखा; उन्होंने उस ओर नजर डाल दी । इरादा समझकर पीछे खड़े तगड़े चौड़े सेनानी सहायक ने तुरन्त उस चीज | + | नेपोलियन १५३ से.मी. का नाटा नर था। अपनी | पहुँच से ऊँचे स्थान पर स्थित किसी चीज को उन्होंने देखा; उन्होंने उस ओर नजर डाल दी। इरादा समझकर पीछे खड़े तगड़े चौड़े सेनानी सहायक ने तुरन्त उस चीज |
− | को लाकर उनको दिया और मजाक में कहा आपसे तो | ऊँचा हैं । झट से बन्दूक की गोली जैसा उत्तर निकल पड़ा, ‘लम्बा कहो, ऊँचा मत कहो ।' संस्कृति और सभ्यता दोनों का विवेचन करते समय इस छोटे से प्रसंग की याद आती है। तात्पर्य यही है कि संस्कृति ऊँची है और सभ्यता लम्बी है। | आद्य शंकराचार्य के निर्वाणाष्टक में विरोधाभास का एक शब्द है 'निराकार रूपः' । निराकार का आकार कैसे हो सकता है ? किन्तु निराकारिता ही जिसका आकार है उसको दूसरे शब्द में कैसे कहें ? संस्कृति इस श्रेणी में | आती है। वह निराकार रूपी है। अतः स्थूल दृष्टि से देखना परखना सम्भव नहीं हो पाता । किन्तु सभ्यता उसके | + | को लाकर उनको दिया और मजाक में कहा आपसे तो | ऊँचा हैं। झट से बन्दूक की गोली जैसा उत्तर निकल पड़ा, ‘लम्बा कहो, ऊँचा मत कहो।' संस्कृति और सभ्यता दोनों का विवेचन करते समय इस छोटे से प्रसंग की याद आती है। तात्पर्य यही है कि संस्कृति ऊँची है और सभ्यता लम्बी है। | आद्य शंकराचार्य के निर्वाणाष्टक में विरोधाभास का एक शब्द है 'निराकार रूपः'। निराकार का आकार कैसे हो सकता है ? किन्तु निराकारिता ही जिसका आकार है उसको दूसरे शब्द में कैसे कहें ? संस्कृति इस श्रेणी में | आती है। वह निराकार रूपी है। अतः स्थूल दृष्टि से देखना परखना सम्भव नहीं हो पाता। किन्तु सभ्यता उसके |
− | परिचायक छोटी बड़ी वस्तुओं के रूप में दृष्टिगत होती है । | यह भी मानव की प्रकृति है । सामान्य मानव को सूक्ष्मदृक् | होना कठिन है और स्थूलदृक् होना सरल है। इसीलिए | मापदण्ड संस्कृति पर कम लगता है। इसके विपरीत सभ्यता पर अधिक लगता है। | + | परिचायक छोटी बड़ी वस्तुओं के रूप में दृष्टिगत होती है। | यह भी मानव की प्रकृति है। सामान्य मानव को सूक्ष्मदृक् | होना कठिन है और स्थूलदृक् होना सरल है। इसीलिए | मापदण्ड संस्कृति पर कम लगता है। इसके विपरीत सभ्यता पर अधिक लगता है। |
− | रामेश्वरं, चिदंबरं, श्रीरंग, मदुरै जैसे प्राचीन मन्दिरों की | बात सोचें । सर्वत्र वहाँ के गगनचुंबी गोपुर, स्वर्ण मंडित शिखर, सहस्र स्तम्भ मण्डप आदि का चकाचौंध वर्णन होता | + | रामेश्वरं, चिदंबरं, श्रीरंग, मदुरै जैसे प्राचीन मन्दिरों की | बात सोचें। सर्वत्र वहाँ के गगनचुंबी गोपुर, स्वर्ण मंडित शिखर, सहस्र स्तम्भ मण्डप आदि का चकाचौंध वर्णन होता |
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− | है । किन्तु मन्दिर की मूर्ति का वर्णन थोड़ा ही मिलता है। उस छोटी सी मूर्ति के बिना मन्दिर की कल्पना सम्भव नहीं । किन्तु इसका विस्मरण होता है और बर्णन शिखर का रहता है । वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है । संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा । वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी।
| + | है। किन्तु मन्दिर की मूर्ति का वर्णन थोड़ा ही मिलता है। उस छोटी सी मूर्ति के बिना मन्दिर की कल्पना सम्भव नहीं। किन्तु इसका विस्मरण होता है और बर्णन शिखर का रहता है। वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है। संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा। वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी। |
− | | सभ्यता का विकास कैसे होता है ? सभ्यता का बीज संस्कृति है । साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता । ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है । स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा । उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है । पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी (प) लगाता है । इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है । उससे सभ्यता जन्म लेती है। | + | | सभ्यता का विकास कैसे होता है ? सभ्यता का बीज संस्कृति है। साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता। ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है। स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा। उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है। पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी (प) लगाता है। इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है। उससे सभ्यता जन्म लेती है। |
| संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति | | संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति |
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| को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों | | को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों |
| की जरूरत पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - | | की जरूरत पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - |
− | गुणात्मक और रूपात्मक । आचार, अनुष्ठान, धरोहर, | + | गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, |
− | परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं । | + | परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। |
| उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी | | उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी |
− | माध्यम हैं । उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन | + | माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन |
| हैं आचार्य, दार्शनिक, veges, नेतागण, चरित्रवान् | | हैं आचार्य, दार्शनिक, veges, नेतागण, चरित्रवान् |
| सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे | | सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे |
| प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, | | प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, |
− | शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि । | + | शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि। |
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| उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के | | उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के |
| सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, | | सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, |
− | तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं । शुचिता | + | तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता |
− | सांस्कृतिक मूल्यों में एक है । वह मानव का अनिवार्य गुण | + | सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण |
| है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना | | है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना |
− | आवश्यक है । उसके लिए मानव के आय दिनों में घोड़े | + | आवश्यक है। उसके लिए मानव के आय दिनों में घोड़े |
− | जैसे जानवरों Al ds से जमीन are दी होगी । अथवा | + | जैसे जानवरों Al ds से जमीन are दी होगी। अथवा |
| जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन | | जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन |
− | पोंछ दी होगी । शनैः शनै:ः उसने केवल उस काम के लिए | + | पोंछ दी होगी। शनैः शनै:ः उसने केवल उस काम के लिए |
| एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ | | एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ |
− | करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ । जंगल में | + | करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में |
| या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू | | या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू |
− | बनाना शुरू किया । शुचिता को बनाए रखने के लिए एक | + | बनाना शुरू किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक |
− | विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ । | + | विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ। |
| बिजली आयी, विज्ञान आगे बढ़ा, और झाड़ू के बदले | | बिजली आयी, विज्ञान आगे बढ़ा, और झाड़ू के बदले |
− | आया “डस्टर' । घोड़े की पूँढ से “डस्टर'ं तक की यात्रा | + | आया “डस्टर'। घोड़े की पूँढ से “डस्टर'ं तक की यात्रा |
− | सभ्यता की है । इस सभ्यता का प्राणरूपी सांस्कृतिक मूल्य | + | सभ्यता की है। इस सभ्यता का प्राणरूपी सांस्कृतिक मूल्य |
− | शुचिता है जो कभी नहीं बदला, स्थिर रहा । | + | शुचिता है जो कभी नहीं बदला, स्थिर रहा। |
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− | शुचिता को ही आगे बढ़ाएँ । व्यक्तिगत जीवन में | + | शुचिता को ही आगे बढ़ाएँ। व्यक्तिगत जीवन में |
− | शुचिता की माँग है स्नान । पशु पक्षी भी स्नान करते हैं । | + | शुचिता की माँग है स्नान। पशु पक्षी भी स्नान करते हैं। |
| किन्तु मानव ने स्नान को विशेष स्थान दिया और नियमित | | किन्तु मानव ने स्नान को विशेष स्थान दिया और नियमित |
− | स्नान उसके जीवन की चर्या बन गयी । प्रारम्भ के दिनों में | + | स्नान उसके जीवन की चर्या बन गयी। प्रारम्भ के दिनों में |
| उसने भी जानवर जैसा, जहाँ जहाँ पहुँचा वहाँ स्नान किया | | उसने भी जानवर जैसा, जहाँ जहाँ पहुँचा वहाँ स्नान किया |
− | होगा । जब जब सूझा उस समय किया होगा । स्नान के
| + | होगा। जब जब सूझा उस समय किया होगा। स्नान के |
− | समय की नियमितता नहीं रही होगी । जीवन सुल्यवस्थित | + | समय की नियमितता नहीं रही होगी। जीवन सुल्यवस्थित |
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| करने AL Sea A OMA: BA: | | करने AL Sea A OMA: BA: |
− | उसने उसकी व्यवस्था की । वह नदी के किनारे जाने लगा | | + | उसने उसकी व्यवस्था की। वह नदी के किनारे जाने लगा | |
| धीरे धीरे व्यवस्था में सुधार लाते उसने घाट बनाये, घाट | | धीरे धीरे व्यवस्था में सुधार लाते उसने घाट बनाये, घाट |
− | पर सीढ़ियाँ बनायीं । इसकी नितांत आवश्यकता को | + | पर सीढ़ियाँ बनायीं। इसकी नितांत आवश्यकता को |
| मानकर लोकोपकार के नाते लोकप्रिय उदारमतियों ने अपने | | मानकर लोकोपकार के नाते लोकप्रिय उदारमतियों ने अपने |
− | महल के बहुत दूर क्यों न हो लम्बे लम्बे घाट बनवाये । | + | महल के बहुत दूर क्यों न हो लम्बे लम्बे घाट बनवाये। |
| वास्तुकला का विकास होते होते उसने स्नान करने की | | वास्तुकला का विकास होते होते उसने स्नान करने की |
− | अलग व्यवस्था घर के पास बनवायी । तालाब अस्तित्व में | + | अलग व्यवस्था घर के पास बनवायी। तालाब अस्तित्व में |
− | आया । कुँआ अस्तित्व में आया । विज्ञान आगे बढ़ते बंद
| + | आया। कुँआ अस्तित्व में आया। विज्ञान आगे बढ़ते बंद |
| कमरे में स्नान करने के लिए मकान के अन्दर नल का पानी | | कमरे में स्नान करने के लिए मकान के अन्दर नल का पानी |
− | आने लगा । अब गंगाजी से सौ मील दूर के नगर में | + | आने लगा। अब गंगाजी से सौ मील दूर के नगर में |
| आदमी अपने शयन कमरे से सटे हुए स्नानघर में गंगाजल | | आदमी अपने शयन कमरे से सटे हुए स्नानघर में गंगाजल |
| से स्नान करता है ! | | से स्नान करता है ! |
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− | यहाँ अपरिवर्तित मूल्य है शुचिता । उसके लिए जो | + | यहाँ अपरिवर्तित मूल्य है शुचिता। उसके लिए जो |
− | व्यवस्थाएँ समय समय पर बनायी गयीं, वे बदलती गयीं । | + | व्यवस्थाएँ समय समय पर बनायी गयीं, वे बदलती गयीं। |
| इस बदलाव का हेतु अनुसंधान व आविष्कार और मूलतः | | इस बदलाव का हेतु अनुसंधान व आविष्कार और मूलतः |
− | मानव की कल्पकता है । उसके कारण नया नया निर्माण | + | मानव की कल्पकता है। उसके कारण नया नया निर्माण |
| होता गया, नयी नयी व्यवस्था आती रहीं। वह | | होता गया, नयी नयी व्यवस्था आती रहीं। वह |
− | समाजव्यापी होती गयीं । आम जनता उसमें अधिक सुविधा | + | समाजव्यापी होती गयीं। आम जनता उसमें अधिक सुविधा |
− | महसूस करने लगी । उस मानवी प्रयास की परिणति दृष्टिगत | + | महसूस करने लगी। उस मानवी प्रयास की परिणति दृष्टिगत |
− | हुई । इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं ।
| + | हुई। इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं। |
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− | शुचिता के समान और दो गुण हैं दया और दान । | + | शुचिता के समान और दो गुण हैं दया और दान। |
| भिखारी को भीख देना, भूखे को खाना देना, मरीज की सेवा | | भिखारी को भीख देना, भूखे को खाना देना, मरीज की सेवा |
| करना आदि मानवीयता से सम्पन्न सुसंस्कृत मानव के कर्तव्य | | करना आदि मानवीयता से सम्पन्न सुसंस्कृत मानव के कर्तव्य |
− | हैं । भारत का हर गृहस्थ उन कर्तव्यों को वैयक्तिक तौर पर
| + | हैं। भारत का हर गृहस्थ उन कर्तव्यों को वैयक्तिक तौर पर |
− | निभाता गया । धीरे धीरे वह समविचारी साथियों के सहयोग | + | निभाता गया। धीरे धीरे वह समविचारी साथियों के सहयोग |
| से अधिक लोगों को उनकी सेवा का लाभ मिले इस दृष्टि से | | से अधिक लोगों को उनकी सेवा का लाभ मिले इस दृष्टि से |
− | योग्य व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ बनाता गया । उससे सार्वजनिक | + | योग्य व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ बनाता गया। उससे सार्वजनिक |
| कुँआ, प्याऊ, लंगरखाना, चिकित्सालय, अनाथालय, | | कुँआ, प्याऊ, लंगरखाना, चिकित्सालय, अनाथालय, |
− | धर्मशाला आदि का निर्माण हुआ । भारत के इस पुरातन देश | + | धर्मशाला आदि का निर्माण हुआ। भारत के इस पुरातन देश |
− | में प्राचीन काल से ही यह चलता आया । आचार्य चाणक्य | + | में प्राचीन काल से ही यह चलता आया। आचार्य चाणक्य |
− | के ग्रंथ में इसका स्पष्ट उद्लेख है । उसी प्रकार यहाँ आये | + | के ग्रंथ में इसका स्पष्ट उद्लेख है। उसी प्रकार यहाँ आये |
| विदेशी यात्रियों के अनुभव कथनों में भी इसका विवरण पर्याप्त | | विदेशी यात्रियों के अनुभव कथनों में भी इसका विवरण पर्याप्त |
− | मात्रा में है । उससे उनका निष्कर्ष था कि भारत की सभ्यता | + | मात्रा में है। उससे उनका निष्कर्ष था कि भारत की सभ्यता |
− | उच्च कोटि की थी । | + | उच्च कोटि की थी। |
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− | इसी प्रकार का है विद्यादान का | गुण । उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर । | + | इसी प्रकार का है विद्यादान का | गुण। उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर। |
| क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ। बड़े बड़े विद्यालय निर्मित हुए। आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से शताधिक आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, काशीपुरम् जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ। उनका उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है। कि तत्कालीन भारतीय सभ्यता अप्रतिम थी। | | क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ। बड़े बड़े विद्यालय निर्मित हुए। आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से शताधिक आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, काशीपुरम् जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ। उनका उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है। कि तत्कालीन भारतीय सभ्यता अप्रतिम थी। |
− | दृष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का विचार किया । इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का सभ्यता की ओर विकास होता रहा है। | + | दृष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का विचार किया। इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का सभ्यता की ओर विकास होता रहा है। |
− | सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित | करता है । जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र | + | सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित | करता है। जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र |
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− | वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से पुण्य कमाने का रहता है। दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है। तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है । तब उद्धार समष्टि का होता है। | + | वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से पुण्य कमाने का रहता है। दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है। तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है। तब उद्धार समष्टि का होता है। |
− | वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध । संस्कृति के कारण वृद्धिंगत ज्ञान के भरोसे सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सर्वसमावेशी हो जाती है। | + | वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध। संस्कृति के कारण वृद्धिंगत ज्ञान के भरोसे सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सर्वसमावेशी हो जाती है। |
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| == आधुनिकता == | | == आधुनिकता == |
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− | ‘आधुनिक' मात्र एक कालवाचक पद नहीं है, यह गुणवाचक पद भी है। ‘आधुनिक' एक काल खंड है और ‘आधुनिकता' जीवन और जगत के प्रति एक विचार दृष्टि । सोलहवीं सदी के इटली के लोरेंस आदि नगर राज्यों के | ‘पुनर्जागरण' (Renaissance) से आधुनिकता का प्रारम्भ माना जाता है। यह ईसाई धर्म एवं परम्परा के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी जिसने लगभग बारह सौ वर्षों तक यूरोपीय देशों पर अपना धार्मिक, वैचारिक एवं राजनीतिक वर्चस्व | + | ‘आधुनिक' मात्र एक कालवाचक पद नहीं है, यह गुणवाचक पद भी है। ‘आधुनिक' एक काल खंड है और ‘आधुनिकता' जीवन और जगत के प्रति एक विचार दृष्टि। सोलहवीं सदी के इटली के लोरेंस आदि नगर राज्यों के | ‘पुनर्जागरण' (Renaissance) से आधुनिकता का प्रारम्भ माना जाता है। यह ईसाई धर्म एवं परम्परा के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी जिसने लगभग बारह सौ वर्षों तक यूरोपीय देशों पर अपना धार्मिक, वैचारिक एवं राजनीतिक वर्चस्व |
| बनाए रखा। वैसे आधुनिक विचार दृष्टि का बीजारोपण | चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दियों में ही हो गया था। विलियम ऑफ ओकम, मार्सिलियो ऑफ पेडुया, बाइक्लिफ आदि दार्शनिकों ने चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार का सुधार करने का जो मार्ग बताया उसने व्यक्तिवादी, बुद्धिवादी और इहलोकवादी मान्यताओं को पुष्ट किया। यहीं मान्यताएं आधुनिकता का आधार स्तम्भ बनीं। इन दार्शनिकों ने लौकिक एवं पारलौकिक के मध्य भेद करते। हुए लौकिक मामलों में चर्च के हस्तक्षेप तथा धार्मिक एवं नैतिक सिद्धांतों के अनुशासन को अनुचित बताया और इस प्रकार धर्मसत्ता की सर्वोच्चता एवं व्यापकता को चुनौती दी। | | बनाए रखा। वैसे आधुनिक विचार दृष्टि का बीजारोपण | चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दियों में ही हो गया था। विलियम ऑफ ओकम, मार्सिलियो ऑफ पेडुया, बाइक्लिफ आदि दार्शनिकों ने चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार का सुधार करने का जो मार्ग बताया उसने व्यक्तिवादी, बुद्धिवादी और इहलोकवादी मान्यताओं को पुष्ट किया। यहीं मान्यताएं आधुनिकता का आधार स्तम्भ बनीं। इन दार्शनिकों ने लौकिक एवं पारलौकिक के मध्य भेद करते। हुए लौकिक मामलों में चर्च के हस्तक्षेप तथा धार्मिक एवं नैतिक सिद्धांतों के अनुशासन को अनुचित बताया और इस प्रकार धर्मसत्ता की सर्वोच्चता एवं व्यापकता को चुनौती दी। |
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| सोलहवीं सदी के पुनर्जागरण ने यूनानी एवं रोमन सभ्यता की दुहाई देते हुए जिस “मानववाद' (Humanism) को पुनर्प्रतिष्ठित किया वह एक स्वयंभू मनुष्य (Masterless Man), एक स्वत्वसंपन्न मनुष्य (Possessive Individual) की प्रतिष्ठा थी। इस मानववाद की अन्य | | सोलहवीं सदी के पुनर्जागरण ने यूनानी एवं रोमन सभ्यता की दुहाई देते हुए जिस “मानववाद' (Humanism) को पुनर्प्रतिष्ठित किया वह एक स्वयंभू मनुष्य (Masterless Man), एक स्वत्वसंपन्न मनुष्य (Possessive Individual) की प्रतिष्ठा थी। इस मानववाद की अन्य |
| अभिव्यक्तियाँ नामवाद (Nominalism), व्यक्तिवाद (Individualism), इहलोकवाद (Secularism) एवं वैज्ञानिक बुद्धिवाद (Scientieic Rationalism) हैं जिन्होंने | | अभिव्यक्तियाँ नामवाद (Nominalism), व्यक्तिवाद (Individualism), इहलोकवाद (Secularism) एवं वैज्ञानिक बुद्धिवाद (Scientieic Rationalism) हैं जिन्होंने |
− | आधुनिक विचार दृष्टि को बौद्धिक पोषण दिया है। प्रोटेस्टेन्ट सुधार आन्दोलन के जनक मार्टिन लूथर ने प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयत के जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया वे ईसाई धर्म परम्परा की साकल्यवादी (Holistic) दृष्टि को नकार कर धर्म के क्षेत्र में भी व्यक्तिवाद' की स्थापना करते हैं। यूं तो मार्टिन लूथर तथा अन्यान्य धर्म सुधारकों का उद्देश्य चर्च में व्याप्त नैतिक अध:पतन को दूर कर ईसाईयत को परिशुद्ध करना था, परन्तु वास्तव में इस धर्म सुधार आन्दोलन ने ईसाई धर्म परम्परा पर ही कुठाराघात किया और धर्म तत्त्व का ही तिरस्कार किया। धर्मसुधार | + | आधुनिक विचार दृष्टि को बौद्धिक पोषण दिया है। प्रोटेस्टेन्ट सुधार आन्दोलन के जनक मार्टिन लूथर ने प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयत के जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया वे ईसाई धर्म परम्परा की साकल्यवादी (Holistic) दृष्टि को नकार कर धर्म के क्षेत्र में भी व्यक्तिवाद' की स्थापना करते हैं। यूं तो मार्टिन लूथर तथा अन्यान्य धर्म सुधारकों का उद्देश्य चर्च में व्याप्त नैतिक अध:पतन को दूर कर ईसाईयत को परिशुद्ध करना था, परन्तु वास्तव में इस धर्म सुधार आन्दोलन ने ईसाई धर्म परम्परा पर ही कुठाराघात किया और धर्म तत्व का ही तिरस्कार किया। धर्मसुधार |
| आन्दोलन ने पहले संशय और कालान्तर में अनास्था को | | आन्दोलन ने पहले संशय और कालान्तर में अनास्था को |
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| न्याय, स्वतंत्रता, समता की अवधारणाओं पर | | न्याय, स्वतंत्रता, समता की अवधारणाओं पर |
− | तत्त्वशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वरन् स्थूल दृष्टि से विचार
| + | तत्वशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वरन् स्थूल दृष्टि से विचार |
| करना। | | करना। |
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| शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही | | शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही |
| जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का | | जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का |
− | अस्तित्व ही नहीं है । वह चाहे या न चाहे शिक्षा ग्रहण | + | अस्तित्व ही नहीं है। वह चाहे या न चाहे शिक्षा ग्रहण |
− | किये बिना वह रह ही नहीं सकता । इस जन्म के जीवन के | + | किये बिना वह रह ही नहीं सकता। इस जन्म के जीवन के |
| लिये वह माता की कोख में पदार्पण करता है और उसका | | लिये वह माता की कोख में पदार्पण करता है और उसका |
− | सीखना शुरू हो जाता है । संस्कारों के रूप में वह सीखता | + | सीखना शुरू हो जाता है। संस्कारों के रूप में वह सीखता |
| है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता | | है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता |
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| है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ | | है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ |
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− | करता ही रहता है । उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण | + | करता ही रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण |
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− | से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं । उनसे वह सीखे बिना | + | से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं। उनसे वह सीखे बिना |
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− | रह नहीं सकता । आसपास की दुनिया का हर तरह का | + | रह नहीं सकता। आसपास की दुनिया का हर तरह का |
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− | व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है । विकास करने की, बड़ा | + | व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है। विकास करने की, बड़ा |
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| बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ | | बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ |
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− | करने के लिए प्रेरित करती रहती है । अंदर की प्रेरणा और | + | करने के लिए प्रेरित करती रहती है। अंदर की प्रेरणा और |
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| बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक पिण्ड बनाते ही रहते हैं। वह न केवल अनुभव करता है, वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है। यह उसके विकास का सहज क्रम है। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति है। | | बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक पिण्ड बनाते ही रहते हैं। वह न केवल अनुभव करता है, वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है। यह उसके विकास का सहज क्रम है। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति है। |
− | परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्त:करण भी दिया है । जिज्ञासा उसके स्वभाव का लक्षण है । संस्कार ग्रहण करना उसका | + | परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्त:करण भी दिया है। जिज्ञासा उसके स्वभाव का लक्षण है। संस्कार ग्रहण करना उसका |
− | सहज कार्य है। विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति | है । यह सब मैं कर रहा है, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए है, ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है। ये सब | उसके सीखने के ही तो साधन हैं। ये सब हैं इसका अर्थ ही यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है। | + | सहज कार्य है। विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति | है। यह सब मैं कर रहा है, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए है, ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है। ये सब | उसके सीखने के ही तो साधन हैं। ये सब हैं इसका अर्थ ही यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है। |
− | मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का ही मनीषियों ने शास्त्र बनाकर उसे व्यवस्थित किया। उसकी सहज प्रवृत्ति को समझा, उसके लक्ष्य को अवगत किया, उस लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में जो बाधायें आती हैं उनका आकलन | किया और शिक्षा का शास्त्र बनाया । शिक्षा के मूर्त स्वरूप | + | मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का ही मनीषियों ने शास्त्र बनाकर उसे व्यवस्थित किया। उसकी सहज प्रवृत्ति को समझा, उसके लक्ष्य को अवगत किया, उस लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में जो बाधायें आती हैं उनका आकलन | किया और शिक्षा का शास्त्र बनाया। शिक्षा के मूर्त स्वरूप |
− | के रूप में उसने शिक्षकत्व की कल्पना की और उस तत्त्व को विभिन्न भूमिकाओं में स्थापित किया। माता व्यक्ति की प्रथम गुरु बनी, पिता ने उसे साथ दिया, आचार्य ने उसे शास्त्र सिखाया, शास्त्र के अनुसार आचार सिखाए, धर्माचार्य लोकशिक्षक बन उसे आजीवन सिखाते रहे । शिक्षा को मनीषियों ने प्रेरणा, मार्गदर्शन, उपदेश, संस्कार आदि अनेक नाम दिये और उनके स्वरूप निश्चित किए। उसने शिक्षा के कुछ प्रमुख आयाम निश्चित किए । ये आयाम इस प्रकार बने ... | + | के रूप में उसने शिक्षकत्व की कल्पना की और उस तत्व को विभिन्न भूमिकाओं में स्थापित किया। माता व्यक्ति की प्रथम गुरु बनी, पिता ने उसे साथ दिया, आचार्य ने उसे शास्त्र सिखाया, शास्त्र के अनुसार आचार सिखाए, धर्माचार्य लोकशिक्षक बन उसे आजीवन सिखाते रहे। शिक्षा को मनीषियों ने प्रेरणा, मार्गदर्शन, उपदेश, संस्कार आदि अनेक नाम दिये और उनके स्वरूप निश्चित किए। उसने शिक्षा के कुछ प्रमुख आयाम निश्चित किए। ये आयाम इस प्रकार बने ... |
− | शिक्षा मनुष्य की विशेषता है ।। | + | शिक्षा मनुष्य की विशेषता है।। |
| शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है। | | शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है। |
| शिक्षा का मूल जिज्ञासा है। | | शिक्षा का मूल जिज्ञासा है। |
− | शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है । | + | शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। |
− | शिक्षा सर्वत्र होती है । | + | शिक्षा सर्वत्र होती है। |
− | शिक्षा सबके लिए है। शिक्षा धर्म सिखाती है । | + | शिक्षा सबके लिए है। शिक्षा धर्म सिखाती है। |
| शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है। | | शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है। |
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− | शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है । | + | शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है। |
− | यह शिक्षा का भारतीय दर्शन है। भारत में इसीके अनुसार शिक्षा चलती रही है । हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है । तत्त्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अभारतीय कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अभारतीयकरण दो शतकों से चल रहा है। शुरू हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अभारतीयकरण भारत की मुख्य धारा | + | यह शिक्षा का भारतीय दर्शन है। भारत में इसीके अनुसार शिक्षा चलती रही है। हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है। तत्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अभारतीय कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अभारतीयकरण दो शतकों से चल रहा है। शुरू हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अभारतीयकरण भारत की मुख्य धारा |
− | की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है । यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अभारतीय है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है । इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के भारतीयकरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है । | + | की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है। यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अभारतीय है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है। इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के भारतीयकरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है। |
− | मुख्य प्रवाह की शिक्षा अभारतीय होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी भारतीय और अभारतीय की चर्चा शुरू हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में भारतीयकरण के विषय में मन्थन चल रहा है । इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्त्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है । इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है। | + | मुख्य प्रवाह की शिक्षा अभारतीय होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी भारतीय और अभारतीय की चर्चा शुरू हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में भारतीयकरण के विषय में मन्थन चल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है। इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है। |
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