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उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति की लम्बाई यदि पाँच फीट दस इंच है तो वह किसी भी प्रकार कम या अधिक नहीं हो सकती है। किसी व्यक्ति की वात प्रकृति है तो वह आजन्म बदल नहीं सकती है। देशों के भूखण्डों की जलवायु सहस्राब्दियों में नहीं बदलती है। पंचमहाभूतों का व्यवहार कभी भी बदलता नहीं है क्योंकि वे अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं। पानी कभी भी नीचे से ऊपर की ओर बहने नहीं लगता है। कभी भी बहना बन्द नहीं करता है।
 
उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति की लम्बाई यदि पाँच फीट दस इंच है तो वह किसी भी प्रकार कम या अधिक नहीं हो सकती है। किसी व्यक्ति की वात प्रकृति है तो वह आजन्म बदल नहीं सकती है। देशों के भूखण्डों की जलवायु सहस्राब्दियों में नहीं बदलती है। पंचमहाभूतों का व्यवहार कभी भी बदलता नहीं है क्योंकि वे अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं। पानी कभी भी नीचे से ऊपर की ओर बहने नहीं लगता है। कभी भी बहना बन्द नहीं करता है।
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यही बात सभी पंचमहाभूतों को लागू है। सृष्टि का गुरुत्वाकर्षण का नियम कभी भी बदलता नहीं है। उसी प्रकार से मन का विचार करने का, बुद्धि का आकलन करने का स्वभाव कभी बदलता नहीं है। इसी प्रकार जीवन को देखने की और समझने की, अनुभूति की प्रवृत्ति भी बदलती नहीं है। अल्प मात्रा में तो हरेक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है परन्तु मूल बातों में वह प्रजाओं का स्वभाव बन जाता है और अपरिवर्तनीय हो जाता है। और भी उदाहरण देखें। हमारा अनुभव है कि प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होता है। परन्तु एक देश के अन्तर्गत भी गुजरात, केरल, बंगाल, पंजाब और असम के लोग अपने रूप रंग के कारण ही अलग दिखते हैं। देशों के आगे राज्यों के भेद मिट जाते हैं। जैसे चीन, भारत, आफ्रिका और यूरोप के लोग रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होते हैं। उसी प्रकार खानपान से लेकर विचारों, अनुभूतियों, बौद्धिक क्षमताओं और दृष्टिकोण में प्रजाओं प्रजाओं में भिन्नता रहती है। मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते हैं। प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है। इससे संस्कृति विकसित होती है। इसीसे आज जिन्हें जीवनमूल्य कहते हैं वे विकसित होते हैं। संस्कृति फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उस प्रजा को सहज प्राप्त होती है। यही उस राष्ट्र का स्वभाव होता है। इसमें ऊपरी परिवर्तन भले ही होते हों, या होते दिखाई देते हों तो भी मूलगत परिवर्तन नहीं होते हैं। बाहरी प्रभावों से जो परिवर्तन होता है वह बाहरी ही होता है। वह कभी क्षणिक सुख का और कभी व्यापक दुःख का भी कारण बनता है। इन दुःखदायक प्रभावों से बचना ही प्रजा का पुरुषार्थ होता है। संक्षेप में कहें तो स्वभाव में मूलतः परिवर्तन होता नहीं है।
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यही बात सभी पंचमहाभूतों को लागू है। सृष्टि का गुरुत्वाकर्षण का नियम कभी भी बदलता नहीं है। उसी प्रकार से मन का विचार करने का, बुद्धि का आकलन करने का स्वभाव कभी बदलता नहीं है। इसी प्रकार जीवन को देखने की और समझने की, अनुभूति की प्रवृत्ति भी बदलती नहीं है। अल्प मात्रा में तो हरेक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है परन्तु मूल बातों में वह प्रजाओं का स्वभाव बन जाता है और अपरिवर्तनीय हो जाता है। और भी उदाहरण देखें। हमारा अनुभव है कि प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होता है। परन्तु एक देश के अन्तर्गत भी गुजरात, केरल, बंगाल, पंजाब और असम के लोग अपने रूप रंग के कारण ही अलग दिखते हैं। देशों के आगे राज्यों के भेद मिट जाते हैं। जैसे चीन, भारत, अफ्रीका और यूरोप के लोग रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होते हैं। उसी प्रकार खानपान से लेकर विचारों, अनुभूतियों, बौद्धिक क्षमताओं और दृष्टिकोण में प्रजाओं प्रजाओं में भिन्नता रहती है। मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते हैं। प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है। इससे संस्कृति विकसित होती है। इसीसे आज जिन्हें जीवनमूल्य कहते हैं वे विकसित होते हैं। संस्कृति फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उस प्रजा को सहज प्राप्त होती है। यही उस राष्ट्र का स्वभाव होता है। इसमें ऊपरी परिवर्तन भले ही होते हों, या होते दिखाई देते हों तो भी मूलगत परिवर्तन नहीं होते हैं। बाहरी प्रभावों से जो परिवर्तन होता है वह बाहरी ही होता है। वह कभी क्षणिक सुख का और कभी व्यापक दुःख का भी कारण बनता है। इन दुःखदायक प्रभावों से बचना ही प्रजा का पुरुषार्थ होता है। संक्षेप में कहें तो स्वभाव में मूलतः परिवर्तन होता नहीं है।
    
== अभारतीय दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी) ==
 
== अभारतीय दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी) ==
परन्तु भारतीय और अभारतीय का मुद्दा एक अन्य प्रकार से विचारणीय अवश्य है। भारतीयतावादी लोग जब अभारतीय जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब
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परन्तु भारतीय और अभारतीय का मुद्दा एक अन्य प्रकार से विचारणीय अवश्य है। भारतीयतावादी लोग जब अभारतीय जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति, व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान आदि की चर्चा करते हैं। आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अभारतीय जीवनदृष्टि कहा जाता है। जो लोग भारतीय हैं परन्तु इस विचारधारा को मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अभारतीय विचारधारा से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है। परन्तु भारत में भी ऐसे लोगों का होना स्वाभाविक माना गया है। श्रीमद भगवदगीता में दैवी और आसुरी सम्पद्‌ की चर्चा की गई है<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.4</ref>। वहाँ आसुरी सम्पद्‌ वाले लोगों का वर्णन ठीक वही है जिसे अभारतीय या पाश्चात्य कहा जाता है। वे भी भौतिकतावादी हैं, वे भी व्यक्ति केंद्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं।<blockquote>दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।</blockquote><blockquote>अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।</blockquote>ऐसी आसुरी सम्पद्‌ बन्धन और विनाश का कारण बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.9</ref>।<blockquote>एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।</blockquote><blockquote>प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।</blockquote>हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है। इस दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया
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अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति, व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान आदि की चर्चा करते हैं। आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अभारतीय जीवनदृष्टि कहा जाता है। जो लोग भारतीय हैं परन्तु इस विचारधारा को मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अभारतीय विचारधारा से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है। परन्तु भारत में भी ऐसे लोगों का होना स्वाभाविक माना गया है। श्रीमद भगवद गीता में दैवी और आसुरी सम्पद्‌ की चर्चा की गई है। वहाँ arg aie वाले लोगों का वर्णन ठीक वही है जिसे अभारतीय या पाश्चात्य कहा जाता है। वे भी भौतिकतावादी हैं, वे भी व्यक्तिकेन्ट्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं।
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है।<blockquote>यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।</blockquote><blockquote>भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।</blockquote>चार्वाक भारतीय ही है, असुर भारतीय ही हैं, खण्ड खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले भी भारतीय ही हैं। केवल उन्हें मान्यता नहीं है। हम जब इसे अभारतीय की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है।
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दम्भोदर्पोडभिमानश्र क्रोध: पारुष्यमेव च।
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परन्तु कभी ऐसा भी विचार कर सकते हैं कि इस द्वंद्व का स्वरूप भारतीय और अभारतीय का न होकर दैवी और आसुरी विचारधारा के विरोध का ही है। अभारतीय को हम पाश्चात्य केवल इसलिये कहते हैं क्योकि पाश्चात्य देशों में इसे मान्यता है और वे इस मान्यता को पूरे विश्व पर थोपना चाहते हैं।
 
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अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्प्रदमासुरीमू।। १६.४
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ऐसी आसुरी सम्पद्‌ बन्धन और विनाश का कारण बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं।
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एतां दृष्टिमव्टभ्य नष्टात्सानोइल्पबुद्धय:।
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WHAM: AAT SATA SHAT:।। १६.९
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हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है। इस दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया
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है।
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यावज्ीवेत्‌ सुखंजीवेत्‌ ऋणं कृत्वा धृतम्‌ पीबेत।
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भस्मीभूतस्य देहस्य GRIT He: I
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चार्वाक भारतीय ही है, असुर भारतीय ही हैं, खण्ड
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खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले भी भारतीय ही हैं। केवल उन्हें मान्यता नहीं है। हम जब इसे अभारतीय की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है।
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परन्तु कभी ऐसा भी विचार कर सकते हैं कि sa gg aT स्वरूप भारतीय और अभारतीय का न होकर दैवी और आसुरी विचारधारा के विरोध का ही है। अभारतीय को हम पाश्चात्य केवल इसलिये कहते हैं क्योकि पाश्चात्य देशों में इसे मान्यता है और वे इस मान्यता को पूरे विश्व पर थोपना चाहते हैं।
      
जो लोग इसे आधुनिक कहते हैं या वैश्विक कहते हैं वे केवल अज्ञान के कारण ही ऐसा करते हैं। इस अज्ञान को कैसे दूर करना इसका विचार हम अलग से करेंगे।
 
जो लोग इसे आधुनिक कहते हैं या वैश्विक कहते हैं वे केवल अज्ञान के कारण ही ऐसा करते हैं। इस अज्ञान को कैसे दूर करना इसका विचार हम अलग से करेंगे।
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इस सन्दर्भ में एक और मुद्दा विचारणीय है। भारत में या विश्व में जीवनविषयक जो चर्चा चलती है उसमें किसी एक देश के साथ उसे नहीं जोड़ा जाता है। वह ठीक है कि नहीं इसका ही विचार किया जाता है। आज अमेरिका और यूरोप जिस विचारधारा की बात करते हैं वे भी उसे अमरीकी या यूरोपीय नहीं कहते हैं। वे उसे मानवीय ही कहते हैं। भारतीय दर्शनों में भी भारतीय या हिन्दू के नाम से चर्चा नहीं की गई है। मानवीय दृष्टि से ही की गई है। दोनों ही स्थानों पर एक अर्थ में तो वैश्विकता की ही बात की गई है। भारत भी जब विचार करता है तब केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं करता है। वह सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। पाश्चत्य जगत विचार करता है तब भी सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। केवल दोनों विचारधाराओं में अन्तर है। भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े का अन्तर कहता है। वास्तव में हम जिसे अभारतीय कहते हैं वह सही अर्थों में आसुरी विचारधारा है। इस प्रकार समझन से हम उसके सन्दर्भ में कैसा रुख अपनाना इस विषय में भी अधिक स्पष्ट हो सकते हैं।
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इस सन्दर्भ में एक और मुद्दा विचारणीय है। भारत में या विश्व में जीवनविषयक जो चर्चा चलती है उसमें किसी एक देश के साथ उसे नहीं जोड़ा जाता है। वह ठीक है कि नहीं इसका ही विचार किया जाता है। आज अमेरिका और यूरोप जिस विचारधारा की बात करते हैं वे भी उसे अमरीकी या यूरोपीय नहीं कहते हैं। वे उसे मानवीय ही कहते हैं। भारतीय दर्शनों में भी भारतीय या हिन्दू के नाम से चर्चा नहीं की गई है। मानवीय दृष्टि से ही की गई है। दोनों ही स्थानों पर एक अर्थ में तो वैश्विकता की ही बात की गई है। भारत भी जब विचार करता है तब केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं करता है। वह सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। पाश्चत्य जगत विचार करता है तब भी सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता है। केवल दोनों विचारधाराओं में अन्तर है। भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े का अन्तर कहता है। वास्तव में हम जिसे अभारतीय कहते हैं वह सही अर्थों में आसुरी विचारधारा है। इस प्रकार समझने से हम उसके सन्दर्भ में कैसा रुख अपनाना इस विषय में भी अधिक स्पष्ट हो सकते हैं।
    
== भारतीय दृष्टि आत्मवादी (दैवी ) ==
 
== भारतीय दृष्टि आत्मवादी (दैवी ) ==
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उदाहरण के लिये भारतीय मानस ऐसा एक शब्द है। भारत के लोग किसी भी घटना या पदार्थ को जिस प्रकार देखते हैं उसे भारतीय मानस कहा जाता है। हम छोटे बच्चों को चन्दामामा, बिछिमौसी, चिडियारानी कहकर पशुपक्षियों का परिचय करवाते हैं और सबके प्रति आत्मीयता और प्रेम के संस्कार देते हैं यह भारतीय मानस का लक्षण है। आचार्य और छात्र का सम्बन्ध पिता पुत्र जैसा है ऐसा कहते हैं तब वह भारतीयता का लक्षण है। अर्थात भारत जिस विशिष्ट पद्धति से पेश आता है वह भारतीय पद्धति है। इस दृष्टि से भारतीय शिक्षा का अर्थ क्या है इसे भी हम स्पष्ट कर लें।
 
उदाहरण के लिये भारतीय मानस ऐसा एक शब्द है। भारत के लोग किसी भी घटना या पदार्थ को जिस प्रकार देखते हैं उसे भारतीय मानस कहा जाता है। हम छोटे बच्चों को चन्दामामा, बिछिमौसी, चिडियारानी कहकर पशुपक्षियों का परिचय करवाते हैं और सबके प्रति आत्मीयता और प्रेम के संस्कार देते हैं यह भारतीय मानस का लक्षण है। आचार्य और छात्र का सम्बन्ध पिता पुत्र जैसा है ऐसा कहते हैं तब वह भारतीयता का लक्षण है। अर्थात भारत जिस विशिष्ट पद्धति से पेश आता है वह भारतीय पद्धति है। इस दृष्टि से भारतीय शिक्षा का अर्थ क्या है इसे भी हम स्पष्ट कर लें।
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भारतीय शिक्षा के विषय में जानना अर्थात ....
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भारतीय शिक्षा के विषय में जानना अर्थात:
 
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* भारत में शिक्षा की क्या परम्परा रही है यह जानना।
भारत में शिक्षा की क्या परम्परा रही है यह जानना।
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* भारत में शिक्षा का अर्थ क्या है यह जानना।
 
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* भारत में शिक्षा के प्रति किस दृष्टि से देखा जाता है यह समझना।
भारत में शिक्षा का अर्थ कया है यह जानना।
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* भारत में शिक्षा की क्या व्यवस्था रही है यह जानना।
 
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* भारत में शिक्षा व्यवस्था का इतिहास जानना।
भारत में शिक्षा के प्रति किस दृष्टि से देखा जाता है यह समझना।
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* भारत में शिक्षा के क्षेत्र में क्या चिन्तन विकसित हुआ है यह जानना।
 
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* भारत के महान शिक्षकों के विषय में जानना।
भारत में शिक्षा की क्या व्यवस्था रही है यह जानना।
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* भारतीय शिक्षा का सैद्धान्तिक अधिष्ठान क्या है यह समझना।
 
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* भारतीय शिक्षा की श्रेष्ठता किसमें है यह जानना।
भारत में शिक्षा व्यवस्था का इतिहास जानना।
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* भारत की शिक्षा के मूल तत्वों और व्यवहार के विषय में जानना।
 
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इनके सम्बन्ध में जानने के साथ साथ आज भारत में शिक्षा की क्या अवस्था है, उसके कारण और परिणाम कौन से हैं, आज यदि शिक्षा की दुरवस्था है तो उसे ठीक करने के क्या उपाय हैं यह भी हमें समझना होगा। इसके बाद योजना का भी विचार करना होगा। अर्थात यह एक व्यापक प्रयास है जो हमें धैर्यपूर्वक करना है।  
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में क्या चिन्तन विकसित हुआ है यह जानना।
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भारत के महान शिक्षकों के विषय में जानना।
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भारतीय शिक्षा का सैद्धान्तिक अधिष्ठान क्या है यह समझना।
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भारतीय शिक्षा की श्रेष्ठता किसमें है यह जानना।
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भारत की शिक्षा के मूल तत्वों और व्यवहार के विषय में जानना।
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इनके सम्बन्ध में जानने के साथ साथ आज भारत में शिक्षा की क्या अवस्था है, उसके कारण और परिणाम कौनसे हैं, आज यदि शिक्षा की दुरवस्था है तो उसे ठीक करने के क्या उपाय हैं यह भी हमें समझना होगा। इसके बाद योजना का भी विचार करना होगा। अर्थात यह एक व्यापक प्रयास है जो हमें धैर्यपूर्वक करना है। चिन्तन से शुरु कर कार्ययोजना तक का हमारा व्याप है।
      
== शिक्षा का व्यक्ति जीवन में स्थान ==
 
== शिक्षा का व्यक्ति जीवन में स्थान ==

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