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→‎अभारतीय दृष्टि: लेख सम्पादित किया
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== अभारतीय दृष्टि ==
 
== अभारतीय दृष्टि ==
अंग्रेजों का स्वभाव भिन्न था। इसलिये उनके शास्त्र उनका मानस, उनका व्यवहार, उनकी व्यवस्थायें, उनकी सम्पूर्ण जीवनशैली भिन्न थी। वह भारत की नहीं थी इसलिये उसे अभारतीय कहते हैं। अंग्रेजों ने इन सभी बातों को भारतीय प्रजा पर थोपना प्रारम्भ किया। राज्य उनके अधीन होने के कारण उन्हें ऐसा करने में सफलता भी fat। शिक्षाव्यवस्था भी इनमें एक थी।
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अंग्रेजों का स्वभाव भिन्न था। इसलिये उनके शास्त्र उनका मानस, उनका व्यवहार, उनकी व्यवस्थायें, उनकी सम्पूर्ण जीवनशैली भिन्न थी। वह भारत की नहीं थी इसलिये उसे अभारतीय कहते हैं। अंग्रेजों ने इन सभी बातों को भारतीय प्रजा पर थोपना प्रारम्भ किया। राज्य उनके अधीन होने के कारण उन्हें ऐसा करने में सफलता भी मिली।
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शिक्षाव्यवस्था का अंग्रेजीकरण या अभारतीयकरण सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हुआ। इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है। शिक्षा ही शेष सारी बातों को समझने और गढ़ने के लिये उपयोगी होती है। जैसी शिक्षा मिलती है वैसा ही तो व्यक्ति करता है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति बन जाता है।
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शिक्षाव्यवस्था भी इनमें एक थी। शिक्षाव्यवस्था का अंग्रेजीकरण या अभारतीयकरण सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हुआ। इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है। शिक्षा ही शेष सारी बातों को समझने और गढ़ने के लिये उपयोगी होती है। जैसी शिक्षा मिलती है वैसा ही तो व्यक्ति करता है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति बन जाता है।
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अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। भारतीय व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अभारतीय व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से भारतीय और अभारतीय ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाईसौ से तीनसौ वर्ष रहा।
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अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। भारतीय व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अभारतीय व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से भारतीय और अभारतीय ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष रहा। इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दो सौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, भारतीय शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और भारतीय ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, भारतीय शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। तंत्र अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं।
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इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दोसौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, भारतीय शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और भारतीय ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, भारतीय शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। deat अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं।
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फिर भी सुदैव से अनेक लोगों के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “भारतीय' और “अभारतीय' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग भारतीयता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को भारतीय बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को भारतीय बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें भारतीय बनाने में सरलता होगी।
 
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फिर भी सुदैव से अनेक लोगों के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “भारतीय' और “अभारतीय' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग भारतीयता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। हम
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भी भारतीयता के पुरस्कर्ता हैं। इसीलिये हमने “भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला' की स्चना करने का उपक्रम हाथ में लियाहै। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को भारतीय बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को भारतीय बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें भारतीय बनाने में सरलता होगी।
      
आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अभारतीय होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ?
 
आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अभारतीय होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ?
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एक अन्य तर्क भी लोग देते हैं जिसमें कुछ दम लगता है। वे कहते हैं कि आज संचार माध्यम बहुत प्रभावी हो गये हैं। सम्पर्क के सूत्र भी बहुत सुलभ हो गये हैं। विश्व के किसी भी कोने से कहीं पर भी हम चौबीस घण्टों के भीतर जा सकते हैं। किसीसे भी बात कर सकते हैं। कोई भी वस्तु पहुँचा सकते हैं। कहाँ कया हो रहा है वह देख सकते हैं।
 
एक अन्य तर्क भी लोग देते हैं जिसमें कुछ दम लगता है। वे कहते हैं कि आज संचार माध्यम बहुत प्रभावी हो गये हैं। सम्पर्क के सूत्र भी बहुत सुलभ हो गये हैं। विश्व के किसी भी कोने से कहीं पर भी हम चौबीस घण्टों के भीतर जा सकते हैं। किसीसे भी बात कर सकते हैं। कोई भी वस्तु पहुँचा सकते हैं। कहाँ कया हो रहा है वह देख सकते हैं।
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विश्व इतना छोटा हो गया है कि सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं और एकदूसरे से प्रभावित होते हैं। इस स्थिति में जीवनशैलियों का और विचारों का मिश्रण होना स्वाभाविक है। ऐसा होते होते एक विश्वसंस्कृति यदि हो जाती है तो इसमें कया हानि है ? हम भी तो वसुधैव कुट्म्बकम कहते हैं।
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विश्व इतना छोटा हो गया है कि सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं और एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। इस स्थिति में जीवनशैलियों का और विचारों का मिश्रण होना स्वाभाविक है। ऐसा होते होते एक विश्वसंस्कृति यदि हो जाती है तो इसमें क्या हानि है ? हम भी तो वसुधैव कुट्म्बकम कहते हैं।
    
== स्वभाव अपरिवर्तनीय ==
 
== स्वभाव अपरिवर्तनीय ==
अपनी उत्पत्ति के साथ राष्ट्रीं को जो स्वभाव प्राप्त हुआ होता है उसमें सम्पूर्ण परिवर्तन होना सम्भव नहीं है। वह सृष्टि के प्रलय के समय ही होता है। हाँ, ऊपरी परिवर्तन अवश्य होते हैं। उदाहरण के लिये हम ठण्ड के दिनों में गरम और गर्मी के दिनों में महीन कपड़े पहनते हैं। तापमान के अनुसार कपड़ों के प्रकार में परिवर्तन होता है। उसी प्रकार क्रतु के अनुसार हमारा खानपान बदलता है। यह बाह्म परिवर्तन होना प्रकृति का स्वभाव है। प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है क्योंकि वह गतिमान है। प्रकृति में कुछ न कुछ होता ही रहता है। प्रकृति में एक भी पदार्थ स्थिर नहीं है। अत: परिवर्तन होना स्वाभाविक है। परन्तु सभी प्रकार के परिवर्तनों के पीछे भी कई बातें ऐसी हैं जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती हैं।
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अपनी उत्पत्ति के साथ राष्ट्रीं को जो स्वभाव प्राप्त हुआ होता है उसमें सम्पूर्ण परिवर्तन होना सम्भव नहीं है। वह सृष्टि के प्रलय के समय ही होता है। हाँ, ऊपरी परिवर्तन अवश्य होते हैं। उदाहरण के लिये हम ठण्ड के दिनों में गरम और गर्मी के दिनों में महीन कपड़े पहनते हैं। तापमान के अनुसार कपड़ों के प्रकार में परिवर्तन होता है। उसी प्रकार ऋतू के अनुसार हमारा खानपान बदलता है। यह बाह्म परिवर्तन होना प्रकृति का स्वभाव है। प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है क्योंकि वह गतिमान है। प्रकृति में कुछ न कुछ होता ही रहता है। प्रकृति में एक भी पदार्थ स्थिर नहीं है। अत: परिवर्तन होना स्वाभाविक है। परन्तु सभी प्रकार के परिवर्तनों के पीछे भी कई बातें ऐसी हैं जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती हैं।
    
उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति की लम्बाई यदि पाँच फीट दस इंच है तो वह किसी भी प्रकार कम या अधिक नहीं हो सकती है। किसी व्यक्ति की वात प्रकृति है तो वह आजन्म बदल नहीं सकती है। देशों के भूखण्डों की जलवायु सहस्राब्दियों में नहीं बदलती है। पंचमहाभूतों का व्यवहार कभी भी बदलता नहीं है क्योंकि वे अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं। पानी कभी भी नीचे से ऊपर की ओर बहने नहीं लगता है। कभी भी बहना बन्द नहीं करता है।
 
उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति की लम्बाई यदि पाँच फीट दस इंच है तो वह किसी भी प्रकार कम या अधिक नहीं हो सकती है। किसी व्यक्ति की वात प्रकृति है तो वह आजन्म बदल नहीं सकती है। देशों के भूखण्डों की जलवायु सहस्राब्दियों में नहीं बदलती है। पंचमहाभूतों का व्यवहार कभी भी बदलता नहीं है क्योंकि वे अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं। पानी कभी भी नीचे से ऊपर की ओर बहने नहीं लगता है। कभी भी बहना बन्द नहीं करता है।

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