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→‎धर्म विश्वनियम है: लेख सम्पादित किया
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इसलिये शिक्षा भी आजीवन चलती है।
 
इसलिये शिक्षा भी आजीवन चलती है।
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== धर्म विश्वनियम है ==
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== धर्म विश्व नियम है ==
मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्व है वह धर्म है। आश्चर्य मत करें। वर्तमान के अनेक सन्दर्भों के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है। बहुत संक्षेप में हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है।
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मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्व है वह धर्म है। वर्तमान के अनेक सन्दर्भों के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है। बहुत संक्षेप में हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है।
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धर्म विश्वनियम है। इस नियम के कारण सृष्टि में असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी आपस में टकराते नहीं हैं। पंचमहाभूतों और प्राणियों के स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस विश्वनियम के कारण होता है। इस विश्वनियम को वेदों में ऋत कहा है। यह ma at धर्म है। सुरक्षापूर्वक, waa, Aaa बने रहने को धारणा कहते हैं।
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धर्म विश्व नियम है। इस नियम के कारण सृष्टि में असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी आपस में टकराते नहीं हैं। पंचमहाभूतों और प्राणियों के स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस विश्वनियम के कारण होता है। इस विश्वनियम को वेदों में ऋत कहा है। यह ऋत ही धर्म है। सुरक्षापूर्वक, संतोष पूर्वक और आनंदपूर्वक बने रहने को धारणा कहते हैं।जिस विश्वनियम से सृष्टि की धारणा होती है वह विश्वनियम धर्म है। धारणा करता ही वही धर्म है ऐसी ही “धर्म' संज्ञा की व्युत्पत्ति है।
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जिस विश्वनियम से सृष्टि की धारणा होती है वह विश्वनियम धर्म है। धारणा करता ही वही धर्म है ऐसी ही “धर्म' संज्ञा की व्युत्पत्ति है।
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सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है। पानी का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है। शक्कर पानी में घुलती है। मोम गर्मी से पिघलता है। साँप रेंगकर ही गति करता है। गाय कभी माँस नहीं खाती है। सिंह कभी घास नहीं खाता है। प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना स्वभाव छोड़ते नहीं हैं। कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं। गाय का गायपन, सिंह का सिंहपन, पानी का पानीपन, अग्नि  का अग्निपन ही स्वभाव है। यह धर्म है। इसे गुणधर्म भी कहते हैं।
 
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सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है। पानी का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है। शक्कर पानी में घुलती है। मोम गर्मी से पिघलता है। साँप रेंगकर ही गति करता है। गाय कभी माँस नहीं खाती है। सिंह कभी घास नहीं खाता है। प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना स्वभाव छोड़ते नहीं हैं। कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं। गाय का गायपन, सिंह का सिंहपन, पानी का पानीपन, अगि का अगिपन ही स्वभाव है। यह धर्म है। इसे गुणधर्म भी कहते हैं।
      
विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म कहते हैं। यह धर्म कर्तव्य है। इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं। उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है। पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक उसे कर्तव्य धर्म सिखाना चाहिये, यह उसका कर्तव्य है, उसका पितृधर्म है। राजा का प्रजा के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका राजधर्म है। गृहस्थ का समाज के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका समाजधर्म है, नागरिक का देश के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका देशधर्म है। हरेक व्यक्ति को अपनी संस्कृति का आदर और श्रद्धपूर्वक, कृतिशील होकर अनुसरण करना चाहिये यह उसका राष्ट्रधर्म है। मनुष्य को विश्वनियमरूप धर्म, स्वभावधर्म और 'कर्तव्यधर्म ऐसे तीनों का पालन करना होता है। इस धर्म का पालन नहीं किया तो सृष्टि का सामंजस्य बिगड़ता है, जीवनसंकट में पड़ जाता है| सृष्टि का सामंजस्य बिगाड़ना अधर्म है, अपराध है। धर्म से ही जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष के प्रति गति होती है और उसकी प्राप्ति होती है। इस धर्म को सिखाने के लिये शिक्षा होती है। शिक्षा का यह परम लक्ष्य है | विश्वनियम के आधार पर मनुष्य के कर्तव्य और कर्तव्य के पालनपूर्वक अपना जीवन सुखमय बनाना यह मनुष्य के लिये जीवनसाधना है । मनुष्य को स्वतन्त्रता प्राप्त है, स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ है, साथ ही सृष्टि का सामंजस्य न बिगाड़ने का कर्तव्य और दायित्व भी प्राप्त हुआ है। इसका पालन करना अनेक कारणों से उसके लिये सरल नहीं है। इसे सरल और सहज बनाना ही उसके लिये साधना है । शिक्षा जीवनसाधना के लिये मनुष्य को समर्थ बनाती है ।
 
विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म कहते हैं। यह धर्म कर्तव्य है। इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं। उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है। पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक उसे कर्तव्य धर्म सिखाना चाहिये, यह उसका कर्तव्य है, उसका पितृधर्म है। राजा का प्रजा के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका राजधर्म है। गृहस्थ का समाज के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका समाजधर्म है, नागरिक का देश के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका देशधर्म है। हरेक व्यक्ति को अपनी संस्कृति का आदर और श्रद्धपूर्वक, कृतिशील होकर अनुसरण करना चाहिये यह उसका राष्ट्रधर्म है। मनुष्य को विश्वनियमरूप धर्म, स्वभावधर्म और 'कर्तव्यधर्म ऐसे तीनों का पालन करना होता है। इस धर्म का पालन नहीं किया तो सृष्टि का सामंजस्य बिगड़ता है, जीवनसंकट में पड़ जाता है| सृष्टि का सामंजस्य बिगाड़ना अधर्म है, अपराध है। धर्म से ही जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष के प्रति गति होती है और उसकी प्राप्ति होती है। इस धर्म को सिखाने के लिये शिक्षा होती है। शिक्षा का यह परम लक्ष्य है | विश्वनियम के आधार पर मनुष्य के कर्तव्य और कर्तव्य के पालनपूर्वक अपना जीवन सुखमय बनाना यह मनुष्य के लिये जीवनसाधना है । मनुष्य को स्वतन्त्रता प्राप्त है, स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ है, साथ ही सृष्टि का सामंजस्य न बिगाड़ने का कर्तव्य और दायित्व भी प्राप्त हुआ है। इसका पालन करना अनेक कारणों से उसके लिये सरल नहीं है। इसे सरल और सहज बनाना ही उसके लिये साधना है । शिक्षा जीवनसाधना के लिये मनुष्य को समर्थ बनाती है ।
    
== शिक्षा धर्म सिखाती है ==
 
== शिक्षा धर्म सिखाती है ==
इसलिए मनुष्य के लिये शिक्षा अनिवार्य है। मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले धर्म को सिखाने वाली शिक्षा के अनेक गौण आयाम हैं जो व्यवहारजीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। गौण होने का अर्थ वे कम महत्वपूर्ण हैं ऐसा नहीं है। उसका अर्थ यह है कि वे सब मुख्य बात के अविरोधी होने चाहिये अर्थात धर्म के अविरोधी होने चाहिये। उदाहरण के लिये मनुष्य को अन्न वस्त्र की अनिवार्य आवश्यकता है | मनुष्य को अन्न वस्त्र अन्य प्राणियों के तरह बिना प्रयास किये प्राप्त नहीं होते हैं। पशुओं को भी अपना अन्न प्राप्त करने के लिये कहीं जाना पड़ता है, कभी संघर्ष करना पड़ता है, कभी संकटों का सामना करना पड़ता है यह बात सत्य है, परन्तु एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उसे 'काटना, छीलना या पकाना नहीं पड़ता है। प्राणियों को वस्त्र पहनने नहीं पड़ते हैं क्योंकि शीलरक्षा या शरीररक्षा का प्रश्न उनके लिये नहीं है। निवास के लिये केवल पक्षी को घोंसला बनाना पड़ता है। शेष सारे प्राणी या तो प्रकृति निर्मित स्थानों में अथवा मनुष्य निर्मित स्थानों में रहते हैं। गुफा और गोशाला इसके क्रमश: उदाहरण हैं। मनुष्य को अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयास करने होते हैं। ऐसे प्रयासों के लिये बहुत कुछ सीखना होता है। जैसे कि कपड़ा बुनना, अनाज उगाना, भोजन पकाना, घर बांधना, घर बनाने के सामान का उत्पादन करना आदि। यह उसकी औपचारिक अनौपचारिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मनुष्य समाज बनाकर रहता है। साथ रहना है तो अनेक व्यवस्थायें करनी होती हैं, नियम बनाने होते हैं। इन व्यवस्थाओं को बनाना भी सीखना ही होता है। यथा कानून और न्याय, व्यापार और यात्रा आदि। मनुष्य में जिज्ञासा होती है। वह बहुत कुछ जानना चाहता है। जिज्ञासा समाधान के लिये वह निरीक्षण करता है, प्रयोग करता है, प्रयोग के लिये आवश्यक उपकरण बनाता है । इसके लिये उसे बहुत कुछ सीखना होता है। मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानना चाहता है, अपने आपको जानना चाहता है। जानने के लिये वह विचार करता है, ध्यान करता है, अनुभव करता है। यह सब भी उसे सीखना ही पड़ता है। अर्थात धर्माचरण सीखने के साथ साथ उसे असंख्य बातें अपना जीवन चलाने के लिये सीखनी होती हैं। सीखना उसके जीवन का अविभाज्य अंग ही बन जाता है। इसलिये शिक्षा का बहुत बड़ा शास्र निर्माण हुआ है। धर्मशास्त्र के समान ही शिक्षाशास्र अत्यन्त व्यापक और आधारभूत शास्त्र है। मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, सृष्टित और
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इसलिए मनुष्य के लिये शिक्षा अनिवार्य है। मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले धर्म को सिखाने वाली शिक्षा के अनेक गौण आयाम हैं जो व्यवहारजीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। गौण होने का अर्थ वे कम महत्वपूर्ण हैं ऐसा नहीं है। उसका अर्थ यह है कि वे सब मुख्य बात के अविरोधी होने चाहिये अर्थात धर्म के अविरोधी होने चाहिये। उदाहरण के लिये मनुष्य को अन्न वस्त्र की अनिवार्य आवश्यकता है | मनुष्य को अन्न वस्त्र अन्य प्राणियों के तरह बिना प्रयास किये प्राप्त नहीं होते हैं। पशुओं को भी अपना अन्न प्राप्त करने के लिये कहीं जाना पड़ता है, कभी संघर्ष करना पड़ता है, कभी संकटों का सामना करना पड़ता है यह बात सत्य है, परन्तु एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उसे काटना, छीलना या पकाना नहीं पड़ता है। प्राणियों को वस्त्र पहनने नहीं पड़ते हैं क्योंकि शीलरक्षा या शरीररक्षा का प्रश्न उनके लिये नहीं है। निवास के लिये केवल पक्षी को घोंसला बनाना पड़ता है। शेष सारे प्राणी या तो प्रकृति निर्मित स्थानों में अथवा मनुष्य निर्मित स्थानों में रहते हैं। गुफा और गोशाला इसके क्रमश: उदाहरण हैं। मनुष्य को अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयास करने होते हैं। ऐसे प्रयासों के लिये बहुत कुछ सीखना होता है। जैसे कि कपड़ा बुनना, अनाज उगाना, भोजन पकाना, घर बांधना, घर बनाने के सामान का उत्पादन करना आदि। यह उसकी औपचारिक अनौपचारिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मनुष्य समाज बनाकर रहता है। साथ रहना है तो अनेक व्यवस्थायें करनी होती हैं, नियम बनाने होते हैं। इन व्यवस्थाओं को बनाना भी सीखना ही होता है। यथा कानून और न्याय, व्यापार और यात्रा आदि। मनुष्य में जिज्ञासा होती है। वह बहुत कुछ जानना चाहता है। जिज्ञासा समाधान के लिये वह निरीक्षण करता है, प्रयोग करता है, प्रयोग के लिये आवश्यक उपकरण बनाता है । इसके लिये उसे बहुत कुछ सीखना होता है। मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानना चाहता है, अपने आपको जानना चाहता है। जानने के लिये वह विचार करता है, ध्यान करता है, अनुभव करता है। यह सब भी उसे सीखना ही पड़ता है। अर्थात धर्माचरण सीखने के साथ साथ उसे असंख्य बातें अपना जीवन चलाने के लिये सीखनी होती हैं। सीखना उसके जीवन का अविभाज्य अंग ही बन जाता है। इसलिये शिक्षा का बहुत बड़ा शास्र निर्माण हुआ है। धर्मशास्त्र के समान ही शिक्षाशास्र अत्यन्त व्यापक और आधारभूत शास्त्र है। मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, सृष्टित और पारमार्थिक व्यवहारों को चलाने के लिये वह अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना करता है, अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनाता है। इसके लिये उसे काम करना होता है, विचार करना होता है, अनुभव करना होता है । ये सब उसकी शिक्षा का बहुत बड़ा हिस्सा है। संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है। हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है।
पारमार्थिक व्यवहारों को चलाने के लिये वह अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना करता है, अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनाता है। इसके लिये उसे काम करना होता है, विचार करना होता है, अनुभव करना होता है । ये सब उसकी शिक्षा का बहुत बड़ा हिस्सा है। संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है। हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है।
      
== शिक्षा का समाज जीवन में स्थान ==
 
== शिक्षा का समाज जीवन में स्थान ==
शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं है। सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है। कोई कह सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग
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शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं है। सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है। कोई कह सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग से शिक्षा की क्या आवश्यकता है। व्यक्ति व्यक्ति मिलकर ही तो समाज बनता है। व्यक्तियों को यदि उचित शिक्षा प्राप्त हुई तो समाज तो शिक्षित हो ही जायेगा। परन्तु इस सम्बन्ध में जरा और विचार करने की आवश्यकता है। समाज केवल व्यक्तियों का जोड़ नहीं है। समाज व्यक्तियों का सम्बन्ध है।
 
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से शिक्षा की क्या आवश्यकता है। व्यक्ति व्यक्ति मिलकर ही तो समाज बनता है। व्यक्तियों को यदि उचित शिक्षा प्राप्त हुई तो समाज तो शिक्षित हो ही जायेगा। परन्तु इस सम्बन्ध में जरा और विचार करने की आवश्यकता है। समाज केवल व्यक्तियों का जोड़ नहीं है। समाज व्यक्तियों का सम्बन्ध है।
      
दो व्यक्ति केवल साथ साथ बैठने से, चलने से या रहने से इकट्ठे दिखाई देते हैं, वे एकदूसरे से संबन्धित नहीं होते। सम्बन्ध आन्तरिक होता है। सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की लेनदेन का नहीं होता है, या किसी स्वार्थ के लिये एक दूसरे का काम कर देने के लिये नहीं होता है। सम्बन्ध केवल भौतिक स्तर पर नहीं होता है, भावना के स्तर पर होता है।
 
दो व्यक्ति केवल साथ साथ बैठने से, चलने से या रहने से इकट्ठे दिखाई देते हैं, वे एकदूसरे से संबन्धित नहीं होते। सम्बन्ध आन्तरिक होता है। सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की लेनदेन का नहीं होता है, या किसी स्वार्थ के लिये एक दूसरे का काम कर देने के लिये नहीं होता है। सम्बन्ध केवल भौतिक स्तर पर नहीं होता है, भावना के स्तर पर होता है।
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दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं बनते हैं। वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता है। दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं। तब वह समाज होता है। दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं बनते। वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और यह परिवार ही समाज की इकाई है। समाज व्यक्तियों की इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है।
 
दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं बनते हैं। वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता है। दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं। तब वह समाज होता है। दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं बनते। वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और यह परिवार ही समाज की इकाई है। समाज व्यक्तियों की इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है।
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आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं। वे at ak yes a कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं। यह विवाह नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी नहीं बनते हैं।
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आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं। वे स्त्री और पुरुष का कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं। यह विवाह नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी नहीं बनते हैं।
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विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल कानून पर आधारित होती है। वह एकात्म सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं तब परिवार बनता है। परिवार की इकाइयाँ जब साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही लागू है। इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का आधार है। समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह समाज की आवश्यकता है। समाज को जब यह शिक्षा मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं। यह तत्व गूढ़ लगता है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता 2।
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विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल कानून पर आधारित होती है। वह एकात्म सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं तब परिवार बनता है। परिवार की इकाइयाँ जब साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही लागू है। इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का आधार है। समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह समाज की आवश्यकता है। समाज को जब यह शिक्षा मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं। यह तत्व गूढ़ लगता है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता।
    
दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता भी नहीं है। एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये। यह समाज की आवश्यकता है।
 
दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता भी नहीं है। एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये। यह समाज की आवश्यकता है।
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समाज के लिये आवश्यक इस शिक्षा का क्रियान्वयन तो व्यक्ति के स्तर पर ही होता है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति व्यक्ति को दी जाती है। शिक्षा देने वाला और लेने वाला एक समय में एक व्यक्ति ही होता है। परन्तु शिक्षा की व्यवस्था करना, शिक्षा तन्त्र विकसित करना और निभाना समाज का दायित्व होता है, केवल व्यक्ति का नहीं। शिक्षा तन्त्र का रक्षण और पोषण करना भी समाज का ही दायित्व है। जब हमारे देश में राजाओं का राज्य था तब यह दायित्व राजा का होता at। समाज की ओर से राजा शिक्षा के तन्त्र का योगक्षेम ठीक चले इसकी चिन्ता करता था। आज लोकतन्त्र है। लोकतन्त्र में समाज की ओर से लोकतान्त्रिक सरकार शासन करती है। तब शिक्षा का योगक्षेम वहन करने की चिन्ता सरकार को होनी चाहिये। परन्तु आज इस बात में विपर्यास हुआ दिखाई देता है। इस विपर्यास और उससे जनित समस्याओं की चर्चा हम स्वतन्त्र रूप से करेंगे। लोकतन्त्र और लोकतान्त्रिक सरकार का स्वरूप क्या हो इसकी चर्चा किये बिना शिक्षा के योगक्षेम का दायित्व सरकार का है, समाज के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का है यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा।
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समाज के लिये आवश्यक इस शिक्षा का क्रियान्वयन तो व्यक्ति के स्तर पर ही होता है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति व्यक्ति को दी जाती है। शिक्षा देने वाला और लेने वाला एक समय में एक व्यक्ति ही होता है। परन्तु शिक्षा की व्यवस्था करना, शिक्षा तन्त्र विकसित करना और निभाना समाज का दायित्व होता है, केवल व्यक्ति का नहीं। शिक्षा तन्त्र का रक्षण और पोषण करना भी समाज का ही दायित्व है। जब हमारे देश में राजाओं का राज्य था तब यह दायित्व राजा का होता था। समाज की ओर से राजा शिक्षा के तन्त्र का योगक्षेम ठीक चले इसकी चिन्ता करता था। आज लोकतन्त्र है। लोकतन्त्र में समाज की ओर से लोकतान्त्रिक सरकार शासन करती है। तब शिक्षा का योगक्षेम वहन करने की चिन्ता सरकार को होनी चाहिये। परन्तु आज इस बात में विपर्यास हुआ दिखाई देता है। इस विपर्यास और उससे जनित समस्याओं की चर्चा हम स्वतन्त्र रूप से करेंगे। लोकतन्त्र और लोकतान्त्रिक सरकार का स्वरूप क्या हो इसकी चर्चा किये बिना शिक्षा के योगक्षेम का दायित्व सरकार का है, समाज के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का है यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा।
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समाज में शिक्षा का स्थान क्या है इस विषय में एक और बात विचारणीय है। शिक्षा धर्म सिखाने वाली
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समाज में शिक्षा का स्थान क्या है इस विषय में एक और बात विचारणीय है। शिक्षा धर्म सिखाने वाली है अतः समाज में जो स्थान धर्म का है वही स्थान शिक्षा का भी है।
    
[[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]]
 
[[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]]
 
==References==
 
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