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| # व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है| | | # व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है| |
| # अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है । | | # अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है । |
− | # आहार, निद्रा, श्रम, काम और | + | # आहार, निद्रा, श्रम, काम और मनःशान्ति से उसका विकास होता है । |
− | # . ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
| + | # प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन उसके विकास का स्वरूप है । |
− | मनःशान्ति से उसका विकास होता है । ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे | + | # आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं । |
− | | + | # प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक तत्व हैं। |
− | | + | # मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा उसके स्वरूप हैं । |
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| + | # चंचलता, उत्तेजितता, ट्रंद्रात्मकता और आसक्ति उसके स्वभाव है । |
− | | + | # एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके विकास का स्वरूप है । |
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| + | # योगाभ्यास, सेवा, संयम, स्वाध्याय, जप, सत्संग, सात्विक आहार मन के विकास के कारक तत्व हैं। |
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| + | # विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है। |
− | | + | # तेजस्विता, कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के विशेषण हैं । |
− | १9७,
| + | # विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है । |
− | | + | # निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संस्लेषण, बुद्धि के साधन हैं । |
− | ck.
| + | # अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । |
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| + | # कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । |
− | | + | # आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सद्बुद्धि और दायित्वबोध में परिणत होते हैं । |
− | ८८.
| + | # आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका कार्य है । |
− | ८९.
| + | # जन्मजान्मांतर, अनुवंश, संस्कृति और सन्निवेश के संस्कार होते हैं । |
− | .. आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सदुद्धि और दायित्वबोध
| + | # चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । |
− | | + | # सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । |
− | 88.
| + | # आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । |
− | ९२.
| + | # शुद्ध चित्त में आत्मतत्व प्रतिबिम्बित होता है । |
− | | + | # शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, आनंद का निवास है । |
− | ९३.
| + | # चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं । |
− | ९४,
| + | # अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे आत्मतत्व है । |
− | ९५,
| + | # उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय है। |
− | ९६,
| + | # आत्मतत्व को आत्मतत्व की अनुभूति आत्मतत्वरूपी हृदय में होती है । |
− | ९७,
| + | # शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है । |
− | | + | # एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति होती है । |
− |
| + | # एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की सर्वं खल्विदम ब्रह्म । |
− | | + | # प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है । |
− | ७६. आहार, निद्रा, श्रम, काम और
| + | # सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण, व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं । |
− | मनःशान्ति से उसका विकास होता है ।
| + | # ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । |
− | | + | # शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को श्रेष्ठ बनाती है । |
− | प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन | + | # समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है । |
− | उसके विकास का स्वरूप है । | + | # संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है । |
− | | + | # श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव, सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है । |
− | .. आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं ।
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− | .. प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक
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− | तत्त्व हैं।
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− | . मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा
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− | उसके स्वरूप हैं । | |
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− | .. चंचलता, उत्तेजितता, ट्रंद्रात्मकता और आसक्ति उसके
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− | स्वभाव है । | |
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− | .. एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके
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− | विकास का स्वरूप है । | |
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− | .. योगाभ्यास, सेवा, संयम, स्वाध्याय, जप, सत्संग,
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− | aft en मन के विकास के कारक तत्त्व = |
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− | विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है । | |
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− | . तेजस्विता, कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के
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− | विशेषण हैं । | |
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− | विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है । | |
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− | निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संस्लेषण | |
− | बुद्धि के साधन हैं । | |
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− | अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । | |
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− | कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । | |
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− | में परिणत होते हैं । | |
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− | आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका | |
− | कार्य है । | |
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− | जन्मजान्मांतर, अनुवंश, संस्कृति और सन्निवेश के | |
− | संस्कार होते हैं । | |
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− | चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । | |
− | | |
− | सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । | |
− | आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । | |
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− | शुद्ध चित्त में आत्मतत्त्व प्रतिर्बिबित होता है । | |
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− | शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, | |
− | आनंद का निवास है । | |
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
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− | ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे
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− | आत्मतत्त्व है ।
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− | १००, उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय
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− | है। | |
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− | १०१, आत्मतत्त्त को... आत्मतत्त्व की... अनुभूति
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− | आत्मतत्त्वरूपी हृदय में होती है ।
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− | १०२.शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है ।
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− | १०३. एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति
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− | होती है । | |
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− | १०४. एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की
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− | aa खल्विदम ब्रह्म ।
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− | १०५, प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है ।
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− | १०६, सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण
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− | व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं । | |
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− | ५०७. ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ।
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− | १०८, शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को
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− | श्रेष्ठ बनाती है । | |
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− | १०९, समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है ।
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− | ११०, संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि
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− | के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है । | |
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− | १११, श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव,
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− | सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है । | |
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| ११२, शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है । | | ११२, शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है । |
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