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− | प्रस्तावना | + | == प्रस्तावना == |
| वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के भारतीय साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता| भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है| कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है| इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र यह सही प्रतिशब्द नहीं है| अर्थशास्त्र यह समूचे जीवन को व्यापनेवाला विषय है| धर्म यह मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापनेवाला नियामक तत्त्व है| जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है| इसलिए यदि हम मानते हैं कि धर्म यह मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापनेवाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापनेवाले विषय हैं ऐसा मानना होगा| इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है| उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है| अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है| वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा| लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था| सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है| व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है| समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र| धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है| वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं| हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा| | | वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के भारतीय साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता| भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है| कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है| इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र यह सही प्रतिशब्द नहीं है| अर्थशास्त्र यह समूचे जीवन को व्यापनेवाला विषय है| धर्म यह मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापनेवाला नियामक तत्त्व है| जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है| इसलिए यदि हम मानते हैं कि धर्म यह मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापनेवाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापनेवाले विषय हैं ऐसा मानना होगा| इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है| उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है| अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है| वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा| लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था| सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है| व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है| समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र| धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है| वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं| हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा| |
| [[File:Part 2 Chapter 3 Table.jpg|center|thumb|720x720px]] | | [[File:Part 2 Chapter 3 Table.jpg|center|thumb|720x720px]] |
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| किसी भी सुखी समाज के रथ के संस्कृति और समृद्धि ये दो पहियें होते हैं| बिना संस्कृति के समृद्धि आसुरी मानसिकता निर्माण करती है| और बिना समृद्धि के संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती| उपर्युक्त तालिका से भी यही बात समझ में आती है| संस्कृति और समृद्धि दोनों को मिलाकर मानव जीवन श्रेष्ठ बनता है| इस विस्तृत दायरे का शास्त्र मानव धर्म शास्त्र या समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र है| यह मानव धर्मशास्त्र व्यापक धर्मशास्त्र का अंग है| सामान्यत: सांस्कृतिक शास्त्र का और समृद्धि शास्त्र का अंगांगी सम्बन्ध प्राकृतिक शास्त्र के तीनों पहलुओं से होता है| वनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र और भौतिक शास्त्र ये तीनों समृद्धि शास्त्र के लिए अनिवार्य हिस्से हैं| इनके बिना समृद्धि संभव नहीं है| वास्तव में इन तीनों शास्त्रों के ज्ञान के बिना तो मनुष्य का जीना ही कठिन है| इसलिए समृद्धि शास्त्र का विचार करते समय मानव के सांस्कृतिक पक्ष का और तीनों प्राकृतिक शास्त्रों का विचार आवश्यक है| प्राकृतिक शास्त्रों के विचार में मानव के प्राणी (प्राणिक आवेग) पक्ष का भी विचार विशेष रूप से करना जरूरी है| समृद्धि शास्त्र के नियामक धर्मशास्त्र के हिस्से को ही सांस्कृतिक शास्त्र कहते हैं| | | किसी भी सुखी समाज के रथ के संस्कृति और समृद्धि ये दो पहियें होते हैं| बिना संस्कृति के समृद्धि आसुरी मानसिकता निर्माण करती है| और बिना समृद्धि के संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती| उपर्युक्त तालिका से भी यही बात समझ में आती है| संस्कृति और समृद्धि दोनों को मिलाकर मानव जीवन श्रेष्ठ बनता है| इस विस्तृत दायरे का शास्त्र मानव धर्म शास्त्र या समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र है| यह मानव धर्मशास्त्र व्यापक धर्मशास्त्र का अंग है| सामान्यत: सांस्कृतिक शास्त्र का और समृद्धि शास्त्र का अंगांगी सम्बन्ध प्राकृतिक शास्त्र के तीनों पहलुओं से होता है| वनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र और भौतिक शास्त्र ये तीनों समृद्धि शास्त्र के लिए अनिवार्य हिस्से हैं| इनके बिना समृद्धि संभव नहीं है| वास्तव में इन तीनों शास्त्रों के ज्ञान के बिना तो मनुष्य का जीना ही कठिन है| इसलिए समृद्धि शास्त्र का विचार करते समय मानव के सांस्कृतिक पक्ष का और तीनों प्राकृतिक शास्त्रों का विचार आवश्यक है| प्राकृतिक शास्त्रों के विचार में मानव के प्राणी (प्राणिक आवेग) पक्ष का भी विचार विशेष रूप से करना जरूरी है| समृद्धि शास्त्र के नियामक धर्मशास्त्र के हिस्से को ही सांस्कृतिक शास्त्र कहते हैं| |
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− | वर्तमान विश्व की इकोनोमिक स्थिती | + | == वर्तमान विश्व की इकोनोमिक स्थिती == |
| वर्तमान में विश्वभर में जीवन का प्रतिमान यूरो अमरीकी है| यूरो अमरीकी जीवन के प्रतिमान में धन या शासन सर्वोपरि होते हैं| वर्तमान में यही स्थिति है| सता का केन्द्रिकरणऔर धन का केन्द्रिकरणहोने से दोनों शक्तियां एक दूसरे के साथ मिलकर दुर्बलों के शोषण की व्यवस्था बनातीं हैं| यही आज दिखाई देता है| बड़े बड़े उद्योजक राजनयिकों को पैसे का लालच देकर अपने हित को साधते हैं| राजनयिक भी चुनावों के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता के कारण बड़े उद्योगपतियों को नाराज नहीं कर सकते| उद्योगपति तो उद्योगपति ही होते हैं| एक रुपया लगाकर दस निकालने के तरीके जानते हैं| इस तरह पूरी शासन व्यवस्था में दीमक लग जाती है| यही वर्तमान में विश्व के सभी देशों में होता दिखाई दे रहा है| | | वर्तमान में विश्वभर में जीवन का प्रतिमान यूरो अमरीकी है| यूरो अमरीकी जीवन के प्रतिमान में धन या शासन सर्वोपरि होते हैं| वर्तमान में यही स्थिति है| सता का केन्द्रिकरणऔर धन का केन्द्रिकरणहोने से दोनों शक्तियां एक दूसरे के साथ मिलकर दुर्बलों के शोषण की व्यवस्था बनातीं हैं| यही आज दिखाई देता है| बड़े बड़े उद्योजक राजनयिकों को पैसे का लालच देकर अपने हित को साधते हैं| राजनयिक भी चुनावों के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता के कारण बड़े उद्योगपतियों को नाराज नहीं कर सकते| उद्योगपति तो उद्योगपति ही होते हैं| एक रुपया लगाकर दस निकालने के तरीके जानते हैं| इस तरह पूरी शासन व्यवस्था में दीमक लग जाती है| यही वर्तमान में विश्व के सभी देशों में होता दिखाई दे रहा है| |
| इस प्रक्रिया में बहुजन समाज अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठता है| स्वतन्त्रता तो मानव जीवन का सामाजिक स्तर का अन्तिम लक्ष्य है| समाज अपने इस लक्ष्य से दूर हो जाता है| स्वतन्त्रता का क्षरण धीरे धीरे होता है| सामान्य मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी स्वतन्त्रता कम होती जा रही है| | | इस प्रक्रिया में बहुजन समाज अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठता है| स्वतन्त्रता तो मानव जीवन का सामाजिक स्तर का अन्तिम लक्ष्य है| समाज अपने इस लक्ष्य से दूर हो जाता है| स्वतन्त्रता का क्षरण धीरे धीरे होता है| सामान्य मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी स्वतन्त्रता कम होती जा रही है| |
| वर्तमान इकोनोमिक्स की आर्थिक मानव, निरंतर आर्थिक विकास, इकोनोमी ऑफ़ वोन्ट्स, प्रकृतीपर विजय पाने की राक्षसी महत्वाकांक्षा, ग्लोबलायझेशन आदि संकल्पनाओं के कारण विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं हैं| भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी और उस दृष्टी के आधार से निर्माण की गयी समृद्धि व्यवस्था इस विकटता से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखती है| भारतीय समृद्धि शास्त्रीय व्यवस्था में भी धर्म ही सर्वोपरि होता है| धर्म के विषय में हमने पूर्व में ही जाना है| चर और अचर सृष्टी के सभी घटकों के हित में काम करने की दृष्टी से किये गए व्यवहार को ही धर्म कहते हैं| धर्म विश्व व्यवस्था के नियम हैं| इसलिए भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी का अध्ययन, अनुसंधान एवं पुनर्प्रतिष्ठा आज और भी प्रासंगिक बन गए हैं| | | वर्तमान इकोनोमिक्स की आर्थिक मानव, निरंतर आर्थिक विकास, इकोनोमी ऑफ़ वोन्ट्स, प्रकृतीपर विजय पाने की राक्षसी महत्वाकांक्षा, ग्लोबलायझेशन आदि संकल्पनाओं के कारण विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं हैं| भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी और उस दृष्टी के आधार से निर्माण की गयी समृद्धि व्यवस्था इस विकटता से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखती है| भारतीय समृद्धि शास्त्रीय व्यवस्था में भी धर्म ही सर्वोपरि होता है| धर्म के विषय में हमने पूर्व में ही जाना है| चर और अचर सृष्टी के सभी घटकों के हित में काम करने की दृष्टी से किये गए व्यवहार को ही धर्म कहते हैं| धर्म विश्व व्यवस्था के नियम हैं| इसलिए भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी का अध्ययन, अनुसंधान एवं पुनर्प्रतिष्ठा आज और भी प्रासंगिक बन गए हैं| |
− | उपभोग नीति | + | |
| + | == उपभोग नीति == |
| वर्तमान इकोनोमिक्स की सबसे बड़ी समस्या है इसके उपभोग दृष्टी की| यह दृष्टी व्यक्तिकेंद्री(स्वार्थपर आधारित), इहवादी और जड़वादी होनेसे इसमें ढेरसारी विकृतियाँ आ जातीं हैं| भारतीय उपभोग नीति या सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत उपभोग नीति का विचार अब हम करेंगे| | | वर्तमान इकोनोमिक्स की सबसे बड़ी समस्या है इसके उपभोग दृष्टी की| यह दृष्टी व्यक्तिकेंद्री(स्वार्थपर आधारित), इहवादी और जड़वादी होनेसे इसमें ढेरसारी विकृतियाँ आ जातीं हैं| भारतीय उपभोग नीति या सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत उपभोग नीति का विचार अब हम करेंगे| |
| संसाधनों का वास्तविक मूल्य | | संसाधनों का वास्तविक मूल्य |
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| ४. इन यातायात के वाहनों में उपयोग किये जानेवाले इंधन का तथा वाहनों के लिए उपयोग में लाये गए खनिज का वास्तविक मूल्य नहीं आंशिक मूल्य ही (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) लोगों से लिया जाता है । | | ४. इन यातायात के वाहनों में उपयोग किये जानेवाले इंधन का तथा वाहनों के लिए उपयोग में लाये गए खनिज का वास्तविक मूल्य नहीं आंशिक मूल्य ही (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) लोगों से लिया जाता है । |
| उपर्युक्त सभी रियायतों में २, ३, ४ इन मदों के कारण जो मूल्य बढता है वह तो मद क्र. १ की मूल्य वृद्धि में जुड़ता जाता है| | | उपर्युक्त सभी रियायतों में २, ३, ४ इन मदों के कारण जो मूल्य बढता है वह तो मद क्र. १ की मूल्य वृद्धि में जुड़ता जाता है| |
− | प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के व्यावहारिक सूत्र | + | |
− | भारतीय उपभोग दृष्टि को ध्यान में रखकर जो निष्कर्ष निकाले जा सकते है वे निम्न है।
| + | == प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के व्यावहारिक सूत्र == |
| + | भारतीय उपभोग दृष्टि को ध्यान में रखकर जो निष्कर्ष निकाले जा सकते है वे निम्न है। |
| १. प्रकृति सीमित है| प्रकृति में संसाधनों की मात्रा सीमित है| मनुष्य की इच्छाएं असीम हैं| उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखने से उपभोग की इच्छा बढ़ती जाती है| यह अग्नि में घी डालकर उसे बुझाने जैसा है| इससे आग कभी नहीं बुझती| इसलिए स्थल और काल की अखण्डता को ध्यान में रखकर उपभोग को सीमित रखने की आवश्यकता है| संयमित अनिवार्य उपभोग की आदत बचपन से ही डालने की आवश्यकता है| यह काम कुटुम्ब शिक्षा से शुरू होना चाहिए| | | १. प्रकृति सीमित है| प्रकृति में संसाधनों की मात्रा सीमित है| मनुष्य की इच्छाएं असीम हैं| उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखने से उपभोग की इच्छा बढ़ती जाती है| यह अग्नि में घी डालकर उसे बुझाने जैसा है| इससे आग कभी नहीं बुझती| इसलिए स्थल और काल की अखण्डता को ध्यान में रखकर उपभोग को सीमित रखने की आवश्यकता है| संयमित अनिवार्य उपभोग की आदत बचपन से ही डालने की आवश्यकता है| यह काम कुटुम्ब शिक्षा से शुरू होना चाहिए| |
| २. अनविकरणीय संसाधनों का उपयोग अत्यंत अनिवार्य होनेपर ही करना ठीक होगा। जहॉतक संभव है नविकरणीय संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिये । | | २. अनविकरणीय संसाधनों का उपयोग अत्यंत अनिवार्य होनेपर ही करना ठीक होगा। जहॉतक संभव है नविकरणीय संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिये । |
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| अंग्रेजी में एक कहावत है,' थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली '। विचार वैश्विक रखो और व्यवहार स्थानिक स्तरपर करो। इस का अर्थ और स्पष्ट करने की आवश्यकता है । क्यों की कई बार लोग कहते हैं कि, 'वैश्विकता तो विचार करने की ही बात है। व्यवहार की नहीं। व्यवहार के लिये तो स्थानिक समस्याओं का ही संदर्भ सामने रखना होगा । किन्तु यह विचार ठीक नहीं है। इस कहावत का वास्तविक अर्थ तो यह है की कोई भी स्थानिक स्तर की कृति करने से पहले उस कृति का वैश्विक स्तरपर कोई विपरीत परिणाम ना होवे ऐसा व्यवहार ही स्थानिक स्तरपर करना । | | अंग्रेजी में एक कहावत है,' थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली '। विचार वैश्विक रखो और व्यवहार स्थानिक स्तरपर करो। इस का अर्थ और स्पष्ट करने की आवश्यकता है । क्यों की कई बार लोग कहते हैं कि, 'वैश्विकता तो विचार करने की ही बात है। व्यवहार की नहीं। व्यवहार के लिये तो स्थानिक समस्याओं का ही संदर्भ सामने रखना होगा । किन्तु यह विचार ठीक नहीं है। इस कहावत का वास्तविक अर्थ तो यह है की कोई भी स्थानिक स्तर की कृति करने से पहले उस कृति का वैश्विक स्तरपर कोई विपरीत परिणाम ना होवे ऐसा व्यवहार ही स्थानिक स्तरपर करना । |
| प्रसिध्द विद्वान अर्नोल्ड टॉयन्बी कहता है 'यदि मानव जाति को आत्मनाश से बचाना हो तो जिस अध्याय का प्रारंभ पश्चिम ने किया है, उस का अंत अनिवार्य रूप से भारतीय ढंग से ही करना होगा ‘। | | प्रसिध्द विद्वान अर्नोल्ड टॉयन्बी कहता है 'यदि मानव जाति को आत्मनाश से बचाना हो तो जिस अध्याय का प्रारंभ पश्चिम ने किया है, उस का अंत अनिवार्य रूप से भारतीय ढंग से ही करना होगा ‘। |
− | समृद्धि शास्त्र के स्तंभ | + | |
| + | == समृद्धि शास्त्र के स्तंभ == |
| भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं| पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, त्तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र| इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है| लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्त्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है| प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है| थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टी वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं| इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं| यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है| | | भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं| पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, त्तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र| इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है| लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्त्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है| प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है| थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टी वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं| इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं| यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है| |
| मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है| स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी मदाद के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना| सामाजिक दृष्टी से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है| व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता| कुटुम्ब की मदद के बिना अपने बलबूतेपर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता| आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है| कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है| कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है| इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है| लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन बनाया जाता है| यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है| कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है| कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है| | | मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है| स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी मदाद के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना| सामाजिक दृष्टी से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है| व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता| कुटुम्ब की मदद के बिना अपने बलबूतेपर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता| आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है| कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है| कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है| इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है| लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन बनाया जाता है| यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है| कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है| कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है| |
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| ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है| जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना| खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगों को होती है| इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है| कुशल लोगों की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है| कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती| अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है| इसलिए यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगों की संख्या का अनुपात बना रहे| इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है| इसलिए परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है| वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है| इस दृष्टी से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है| | | ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है| जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना| खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगों को होती है| इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है| कुशल लोगों की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है| कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती| अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है| इसलिए यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगों की संख्या का अनुपात बना रहे| इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है| इसलिए परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है| वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है| इस दृष्टी से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है| |
| अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे| | | अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे| |
− | समृद्धि व्यवस्था के स्तंभश: धर्म | + | |
| + | == समृद्धि व्यवस्था के स्तंभश: धर्म == |
| यह हमने पूर्व में जाना है कि मानवेतर प्राणी अपने धर्म के अनुसार ही व्यवहार करता है| जैसे बिच्छू का काम है अपरिचित वस्तू का संपर्क होते ही डंख मारना| छुईमुई का धर्म है किसी के भी स्पर्श से मुरझा जाना| इसी प्रकार से मनुष्य और मनुष्य समाज की भिन्न भिन्न ईकाईयाँ अपने अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करें यह प्राकृतिक बात है| लेकिन मानव की योनि कर्म योनि होने से उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्राप्त है| वह अपनी प्रकृति के अनुसार, प्रकृति से घटिया(विकृति) और प्रकृति से उन्नत (संस्कृति) व्यवहार कर सकता है| | | यह हमने पूर्व में जाना है कि मानवेतर प्राणी अपने धर्म के अनुसार ही व्यवहार करता है| जैसे बिच्छू का काम है अपरिचित वस्तू का संपर्क होते ही डंख मारना| छुईमुई का धर्म है किसी के भी स्पर्श से मुरझा जाना| इसी प्रकार से मनुष्य और मनुष्य समाज की भिन्न भिन्न ईकाईयाँ अपने अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करें यह प्राकृतिक बात है| लेकिन मानव की योनि कर्म योनि होने से उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्राप्त है| वह अपनी प्रकृति के अनुसार, प्रकृति से घटिया(विकृति) और प्रकृति से उन्नत (संस्कृति) व्यवहार कर सकता है| |
| हमने सामाजिक संगठन विषय में यह जाना है कि स्त्री पुरुष सहजीवन और आयु की अवस्था के अनुसार बढ़ने और घटनेवाली क्षमताओं के कारण एक स्वाभाविक सामाजिक रचना बनती है| जब इस प्राकृतिक रचना को मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से व्यवस्थित करता है तब वह कुटुम्ब व्यवस्था बनती है| अपनी स्वतन्त्रता और जीने के लिए विविध आवश्यकताओं की परस्परावलंबन से पूर्ति करने के लिए जब परस्पर संबंधों को मानव व्यवस्थित करता है तो उसे ग्राम कहते हैं| अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव जब जन्मजात विभिन्न व्यावसायिक कौशलों को व्यवस्थित कर सातत्य से आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता है तब कौशल विधा व्यवस्था ( पूर्व में जाति) बनती है| इसी प्रकार समान जीवन दृष्टीवाला समाज जब अपने सुख-शान्तिपूर्ण सुरक्षित सहजीवन को व्यवस्थित करता है तो उसे राष्ट्र कहते हैं| इन व्यवस्थाओं के दो उद्देश्य होते हैं| पहला होता है इससे जीवन की अनिश्चितताएँ दूर हों| और दूसरा होता है इन व्यवस्थाओं के कारण सुख और शान्ति से जीवन चले| इस प्रकार यह चार प्राकृतिक ईकाईयाँ मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने हित के लिए व्यवस्थित करता है| | | हमने सामाजिक संगठन विषय में यह जाना है कि स्त्री पुरुष सहजीवन और आयु की अवस्था के अनुसार बढ़ने और घटनेवाली क्षमताओं के कारण एक स्वाभाविक सामाजिक रचना बनती है| जब इस प्राकृतिक रचना को मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से व्यवस्थित करता है तब वह कुटुम्ब व्यवस्था बनती है| अपनी स्वतन्त्रता और जीने के लिए विविध आवश्यकताओं की परस्परावलंबन से पूर्ति करने के लिए जब परस्पर संबंधों को मानव व्यवस्थित करता है तो उसे ग्राम कहते हैं| अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव जब जन्मजात विभिन्न व्यावसायिक कौशलों को व्यवस्थित कर सातत्य से आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता है तब कौशल विधा व्यवस्था ( पूर्व में जाति) बनती है| इसी प्रकार समान जीवन दृष्टीवाला समाज जब अपने सुख-शान्तिपूर्ण सुरक्षित सहजीवन को व्यवस्थित करता है तो उसे राष्ट्र कहते हैं| इन व्यवस्थाओं के दो उद्देश्य होते हैं| पहला होता है इससे जीवन की अनिश्चितताएँ दूर हों| और दूसरा होता है इन व्यवस्थाओं के कारण सुख और शान्ति से जीवन चले| इस प्रकार यह चार प्राकृतिक ईकाईयाँ मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने हित के लिए व्यवस्थित करता है| |
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| समृद्धि शास्त्र यह मुख्यत: कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा(जाति), राष्ट्र और प्रकृति सुसंगतता इन पाँच बातों के समायोजन का शास्त्र है| वास्तव में समायोजन तो प्रकृति के साथ मानव की चारों ईकाईयों को करना होता है| इन में से मानव की चारों ईकाईयों में से प्रत्येक का प्रकृति सुसंगतता के साथ ही अन्य तीन ईकाईयों के साथ समायोजन करने के लिए आवश्यक नियमों को ही उन ईकाईयों का धर्म कहा जाता है| जैसे कुटुम्ब धर्म, ग्रामधर्म, कौशल विधा (जाति) धर्म और राष्ट्रधर्म| ये चार ईकाईयाँ ही समाज के समृद्धि शास्त्र के आधार स्तंभ हैं| | | समृद्धि शास्त्र यह मुख्यत: कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा(जाति), राष्ट्र और प्रकृति सुसंगतता इन पाँच बातों के समायोजन का शास्त्र है| वास्तव में समायोजन तो प्रकृति के साथ मानव की चारों ईकाईयों को करना होता है| इन में से मानव की चारों ईकाईयों में से प्रत्येक का प्रकृति सुसंगतता के साथ ही अन्य तीन ईकाईयों के साथ समायोजन करने के लिए आवश्यक नियमों को ही उन ईकाईयों का धर्म कहा जाता है| जैसे कुटुम्ब धर्म, ग्रामधर्म, कौशल विधा (जाति) धर्म और राष्ट्रधर्म| ये चार ईकाईयाँ ही समाज के समृद्धि शास्त्र के आधार स्तंभ हैं| |
| अब हम इन चारों में से एक एक ईकाई का धर्म जानने का प्रयास करेंगे| | | अब हम इन चारों में से एक एक ईकाई का धर्म जानने का प्रयास करेंगे| |
− | कुटुम्ब धर्म | + | |
| + | === कुटुम्ब धर्म === |
| - कुटुम्ब में श्रेष्ठ जीवात्माओं को जन्म देना| | | - कुटुम्ब में श्रेष्ठ जीवात्माओं को जन्म देना| |
| - गर्भधारणा से लेकर संस्कारक्षम आयुतक बच्चों को श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त करना| उनमें उपभोग संयम जैसी अच्छी आदतें डालना| सदाचार, संयम, स्वच्छता, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वावलंबन, स्वतंत्रता, सहकारिता, स्वदेशी (राष्ट्रभक्ति), परोपकार आदि का स्वभाव बनें ऐसे संस्कार करना| | | - गर्भधारणा से लेकर संस्कारक्षम आयुतक बच्चों को श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त करना| उनमें उपभोग संयम जैसी अच्छी आदतें डालना| सदाचार, संयम, स्वच्छता, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वावलंबन, स्वतंत्रता, सहकारिता, स्वदेशी (राष्ट्रभक्ति), परोपकार आदि का स्वभाव बनें ऐसे संस्कार करना| |
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| - अतिथि सत्कार के लिए सदैव तत्पर रहना| | | - अतिथि सत्कार के लिए सदैव तत्पर रहना| |
| - सभी को सुख मिलने के लिए चार बातें आवश्यक होतीं हैं| सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष| इन का विश्लेषण हम अध्याय ३६ विज्ञान और तंत्रज्ञान दृष्टि में देखेंगे| यहाँ इतना ही समझ लें कि सुख के सार्वत्रिक होने के लिए समाज के हर व्यक्ति के लिए समाज के हित में कुछ समय देना आवश्यक होता है| सामान्यत: अपनी आजीविका से भिन्न ऐसा कोई काम हर व्यक्ति करे जिससे समाज के अन्य घटकों का लाभ हो| ऐसा करने की आदतें और प्रारम्भ का स्थान कुटुम्ब है| | | - सभी को सुख मिलने के लिए चार बातें आवश्यक होतीं हैं| सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष| इन का विश्लेषण हम अध्याय ३६ विज्ञान और तंत्रज्ञान दृष्टि में देखेंगे| यहाँ इतना ही समझ लें कि सुख के सार्वत्रिक होने के लिए समाज के हर व्यक्ति के लिए समाज के हित में कुछ समय देना आवश्यक होता है| सामान्यत: अपनी आजीविका से भिन्न ऐसा कोई काम हर व्यक्ति करे जिससे समाज के अन्य घटकों का लाभ हो| ऐसा करने की आदतें और प्रारम्भ का स्थान कुटुम्ब है| |
− | ग्राम धर्म | + | |
| + | === ग्राम धर्म === |
| - ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्त्वपूर्ण धर्म है| यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जनतक ही सीमित नहीं है| ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं| जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/विज्ञान/तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि| वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगों यह काम हैं| सेवा और नौकरी में अंतर है| सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है| नौकरी स्वार्थ भावसे होती है| | | - ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्त्वपूर्ण धर्म है| यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जनतक ही सीमित नहीं है| ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं| जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/विज्ञान/तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि| वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगों यह काम हैं| सेवा और नौकरी में अंतर है| सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है| नौकरी स्वार्थ भावसे होती है| |
| - ग्राम के सभी लोगों का चरितार्थ सम्मान के साथ चले| इस दृष्टी से रचना बनाना और चलाना| अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो| आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो| | | - ग्राम के सभी लोगों का चरितार्थ सम्मान के साथ चले| इस दृष्टी से रचना बनाना और चलाना| अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो| आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो| |
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| - ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है| इसलिए अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना| लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है| | | - ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है| इसलिए अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना| लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है| |
| - अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना| कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना| | | - अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना| कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना| |
− | कौशल विधा (जाति) धर्म | + | |
| + | === कौशल विधा (जाति) धर्म === |
| - कभी भी ग्राम की आवश्यकता पूर्ण करनेवाली अपनी कौशल विधा से निर्माण हुई वस्तु की कमी न हो इसकी आश्वस्ति करना| इस दृष्टि से अपनी कौशल विधा का और अधिक विकास कर अगली पीढी को हस्तान्तरित करना| समाज की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादनों में परिवर्तन करते जाना| | | - कभी भी ग्राम की आवश्यकता पूर्ण करनेवाली अपनी कौशल विधा से निर्माण हुई वस्तु की कमी न हो इसकी आश्वस्ति करना| इस दृष्टि से अपनी कौशल विधा का और अधिक विकास कर अगली पीढी को हस्तान्तरित करना| समाज की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादनों में परिवर्तन करते जाना| |
| - मेरे द्वारा निर्मित पदार्थ का उपभोग करनेवाले सभी लोग परमात्मा के ही रूप हैं यह ध्यान में रखकर मैं जो भी पदार्थ बना रहा हूँ वह परमात्मा के चरणों में चढाने के लिए है, ऐसी भावना से श्रेष्ठतम बने ऐसा प्रयास करना| | | - मेरे द्वारा निर्मित पदार्थ का उपभोग करनेवाले सभी लोग परमात्मा के ही रूप हैं यह ध्यान में रखकर मैं जो भी पदार्थ बना रहा हूँ वह परमात्मा के चरणों में चढाने के लिए है, ऐसी भावना से श्रेष्ठतम बने ऐसा प्रयास करना| |
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| - कौशल विधा के किसी भी सदस्य पर अन्याय न हो यह देखना| किसी सदस्य द्वारा दुर्व्यवहार होनेपर उसे साम, दाम, दंड, भेद से ठीक करना| कौशल विधा के सभी सदस्य कौशल बांधव हैं ऐसा उन के साथ व्यवहार रखना| | | - कौशल विधा के किसी भी सदस्य पर अन्याय न हो यह देखना| किसी सदस्य द्वारा दुर्व्यवहार होनेपर उसे साम, दाम, दंड, भेद से ठीक करना| कौशल विधा के सभी सदस्य कौशल बांधव हैं ऐसा उन के साथ व्यवहार रखना| |
| - अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना| | | - अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना| |
− | राष्ट्र धर्म | + | |
| + | === राष्ट्र धर्म === |
| राष्ट्र धर्म के अनेकों पहलू हैं| जिनमें से एक समृद्धि से सम्बंधित है| यहाँ हम केवल राष्ट्र धर्म के समृद्धि से सम्बंधित बिदुओं का विचार करेंगे| | | राष्ट्र धर्म के अनेकों पहलू हैं| जिनमें से एक समृद्धि से सम्बंधित है| यहाँ हम केवल राष्ट्र धर्म के समृद्धि से सम्बंधित बिदुओं का विचार करेंगे| |
| - अपरमातृका समृद्धिव्यवस्था और अदेवमातृका खेती| | | - अपरमातृका समृद्धिव्यवस्था और अदेवमातृका खेती| |
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| - प्राकृतिक संसाधनों का वास्तविक मूल्य उन्हें उपभोक्तातक लाने के लिए किया गया यातायात का व्यय, उन्हें उपयुक्त बनाने के लिए की गयी प्रक्रिया का व्यय और लाभ, इतना ही नहीं होता| उसका वास्तविक मूल्य लगाया ही नहीं जा सकता| क्यों कि उपभोग की कोई मर्यादा नहीं है और सभी संसाधन मर्यादित मात्रा में ही प्रकृति में उपलब्ध हैं| | | - प्राकृतिक संसाधनों का वास्तविक मूल्य उन्हें उपभोक्तातक लाने के लिए किया गया यातायात का व्यय, उन्हें उपयुक्त बनाने के लिए की गयी प्रक्रिया का व्यय और लाभ, इतना ही नहीं होता| उसका वास्तविक मूल्य लगाया ही नहीं जा सकता| क्यों कि उपभोग की कोई मर्यादा नहीं है और सभी संसाधन मर्यादित मात्रा में ही प्रकृति में उपलब्ध हैं| |
| - व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होंगी| व्यवस्था धर्म के सूत्रों का विचार हमने समाज धारणा के अध्याय में किया है| | | - व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होंगी| व्यवस्था धर्म के सूत्रों का विचार हमने समाज धारणा के अध्याय में किया है| |
− | समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा | + | |
| + | == समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा == |
| समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है| इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते| जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है| इससे वह धन के बलपर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है| और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है| इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है|कहा गया है – | | समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है| इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते| जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है| इससे वह धन के बलपर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है| और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है| इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है|कहा गया है – |
| यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता | | | यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता | |
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| अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है| यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा? | | अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है| यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा? |
| लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता| धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता| और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता| | | लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता| धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता| और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता| |
− | समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा कुछ आगे बताया है ऐसा होगा|
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− | धर्म
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− | शिक्षा
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− | कौशल विधा निर्धारण/नियमन व्यवस्था शासन
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− | प्र संगोपात्त हस्तक्षेप
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− | कौशल विधा निर्धारण कौशल विधा व्यवस्था स्वावलंबी ग्राम प्रशासन सुरक्षा न्याय
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− | शोध कौशलधर्म कौशल-विधा-पंचायत कौटुम्बिक उद्योग समूह अनुसंधान प्रचार निरीक्षण/मार्गदर्शन
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− | कौशल प्रशिक्षण उत्पादन विनिमय/क्रय/विक्रय
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| भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा | | भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा |
| जीवन का भारतीय प्रतिमान धर्माधिष्ठित है| इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी| शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है| लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा| यथावश्यक शासन की मदद लेनी होगी| इस का विचार हमने “समाज धारणा” के अध्याय में किया है| इसलिए यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे| | | जीवन का भारतीय प्रतिमान धर्माधिष्ठित है| इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी| शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है| लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा| यथावश्यक शासन की मदद लेनी होगी| इस का विचार हमने “समाज धारणा” के अध्याय में किया है| इसलिए यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे| |