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== पूजा एवं योग समन्वय ==
 
== पूजा एवं योग समन्वय ==
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योग का अर्थ है, जुड़ना या जोड़ना। व्यावहारिक स्तर पर, योग शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करके उनमें तालमेल बनाने में मदद करता है। योग करने से व्यक्तिके मन, आत्मा  और शरीर के बीच तालमेल बनाकर शारीरिक, मानसिक और व्यावहारिक रूप से स्वस्थ बन जाता है।
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भारतीय धार्मिक जीवन में पूजा को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। पूजा के विविध साधनों- स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रजप, तप, स्वाध्याय, कथा, कीर्तन, यज्ञ, मनन, चिन्तन आदि से मानव में जो भी अभाव अनुभव करता है, उसको प्राप्त कर लेता है।<ref>अर्चना सिंह, प्राचीन भारत में शक्ति पूजा,(शोध गंगा) सन् २००७, वी०बी०एस० पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, अध्याय- १, (पृ०१२)।http://hdl.handle.net/10603/180127 </ref>पूजा विधि के माध्यम से बहिरंग क्रियाओं का दीर्घकाल तक निरन्तर अभ्यास करते हुये मानसिक क्रिया  का अन्तरंग योग में समावेश करवाते हुये लय अवस्था की प्राप्ति करवाने में पूजा विधि का महत्वपूर्ण योगदान है।<blockquote>पूजा कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समो जपः। जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः॥</blockquote>पूजा विधि के मुख्य पाँच अंग हैं- अर्चन, स्तुति, जप, ध्यान और लय। जिस प्रकार से योग शास्त्र में यम-नियमादि अंगों का यथाविधि अभ्यास करने के पश्चात् ध्यान का अभ्यास किया जाता है एवं ध्यान की अन्तिम अवस्था को ही समाधि कहते हैं। उसी प्रकार  पूजा विधि में लय अवस्था के पूर्व अर्चन, स्तुति, जप और ध्यान का निरन्तन धारावाहिक चिन्तन किया जाता है। जैसे- बहिरंग क्रियाओं के माध्यम से पूजा एवं स्तोत्र पाठ मन को अंतरंग योग साधना के प्रति प्रेरित करते हैं। पूजा विधि में मन के अभ्यस्त होने के उपरांत जो क्रियाऐं पूजा में साक्षात् की गईं वह सभी स्तोत्र पाठ स्तुतिके माध्यम से मानसिक की जाती हैं। अनन्तर मन्त्रजप के माध्यम से मन में मन्त्र और मन्त्र में मन के द्वारा अंतरंग एवं बहिरंग योग का समावेश होता है। पूजा के तृतीय अंग जप में अभ्यस्त होने के उपरांत चतुर्थ अंग  ध्यान योग का अभ्यास करते हुये सर्वोत्कृष्ट और पूजा का अंतिम अंग लय योग की प्राप्ति में पूजा विधि का क्रमशः अभ्यास के साथ योग का समन्वय अतीव महत्वपूर्ण है।
 
भारतीय धार्मिक जीवन में पूजा को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। पूजा के विविध साधनों- स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रजप, तप, स्वाध्याय, कथा, कीर्तन, यज्ञ, मनन, चिन्तन आदि से मानव में जो भी अभाव अनुभव करता है, उसको प्राप्त कर लेता है।<ref>अर्चना सिंह, प्राचीन भारत में शक्ति पूजा,(शोध गंगा) सन् २००७, वी०बी०एस० पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, अध्याय- १, (पृ०१२)।http://hdl.handle.net/10603/180127 </ref>पूजा विधि के माध्यम से बहिरंग क्रियाओं का दीर्घकाल तक निरन्तर अभ्यास करते हुये मानसिक क्रिया  का अन्तरंग योग में समावेश करवाते हुये लय अवस्था की प्राप्ति करवाने में पूजा विधि का महत्वपूर्ण योगदान है।<blockquote>पूजा कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समो जपः। जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः॥</blockquote>पूजा विधि के मुख्य पाँच अंग हैं- अर्चन, स्तुति, जप, ध्यान और लय। जिस प्रकार से योग शास्त्र में यम-नियमादि अंगों का यथाविधि अभ्यास करने के पश्चात् ध्यान का अभ्यास किया जाता है एवं ध्यान की अन्तिम अवस्था को ही समाधि कहते हैं। उसी प्रकार  पूजा विधि में लय अवस्था के पूर्व अर्चन, स्तुति, जप और ध्यान का निरन्तन धारावाहिक चिन्तन किया जाता है। जैसे- बहिरंग क्रियाओं के माध्यम से पूजा एवं स्तोत्र पाठ मन को अंतरंग योग साधना के प्रति प्रेरित करते हैं। पूजा विधि में मन के अभ्यस्त होने के उपरांत जो क्रियाऐं पूजा में साक्षात् की गईं वह सभी स्तोत्र पाठ स्तुतिके माध्यम से मानसिक की जाती हैं। अनन्तर मन्त्रजप के माध्यम से मन में मन्त्र और मन्त्र में मन के द्वारा अंतरंग एवं बहिरंग योग का समावेश होता है। पूजा के तृतीय अंग जप में अभ्यस्त होने के उपरांत चतुर्थ अंग  ध्यान योग का अभ्यास करते हुये सर्वोत्कृष्ट और पूजा का अंतिम अंग लय योग की प्राप्ति में पूजा विधि का क्रमशः अभ्यास के साथ योग का समन्वय अतीव महत्वपूर्ण है।
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== लय ==
 
== लय ==
लय शब्द ली धातु से बना है जिसका अर्थ है विलीन होना, विश्रांति, संयोग, एक रूप होना, मिलन अर्थात् जब दो के बीच एकरूपता या साम्य, इस प्रकार सम्पन्न हो जाए कि उसका अन्तराल न कम हो और न अधिक तो उसे लय कहते हैं। मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।<blockquote>यो वात्मानं तु वै तस्मिन् मानवः कुरुते लयम्। भवबन्धविनिर्मुक्तो लययोगं स आप्नुते॥</blockquote>जो मनुष्य अपने आपको स्वयं में लय कर देता है, वह मनुष्य सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर लययोग को प्राप्त करता है।<blockquote>लययोगस्तु स एषो येन संधौतकल्मषः। सच्चिदानन्दरूपेण साधकः सुखमाप्नुते॥</blockquote>यह लययोग वह है जिस सच्चिदानन्द रूपयोग से जिसके पाप नष्ट हो गये हैं इस प्रकार का साधक सुखं को प्राप्त करता है।
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लय शब्द ली धातु से बना है जिसका अर्थ है विलीन होना, विश्रांति, संयोग, एक रूप होना, मिलन अर्थात् जब दो के बीच एकरूपता या साम्य, इस प्रकार सम्पन्न हो जाए कि उसका अन्तराल न कम हो और न अधिक तो उसे लय कहते हैं। मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।<blockquote>यो वात्मानं तु वै तस्मिन् मानवः कुरुते लयम्। भवबन्धविनिर्मुक्तो लययोगं स आप्नुते॥</blockquote>जो मनुष्य अपने आपको स्वयं में लय कर देता है, वह मनुष्य सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर लययोग को प्राप्त करता है।<blockquote>लययोगस्तु स एषो येन संधौतकल्मषः। सच्चिदानन्दरूपेण साधकः सुखमाप्नुते॥</blockquote>यह लययोग वह है जिस सच्चिदानन्द रूपयोग से जिसके पाप नष्ट हो गये हैं इस प्रकार का साधक सुखं को प्राप्त करता है। चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है। साधक के चित्त में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है-<blockquote>गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात्।</blockquote>लय का अर्थ है लीन होना, किसी में घुल जाना विलीन हो जाना। आत्मा को परमात्मा में घुला देना, लीन कर देना लय योग का उद्देश्य है। मुक्ति या समाधि अवस्था में आत्म विस्मृति हो जाती है, द्वैत मिट जाता है और एकता की सायुज्यता का आनन्द प्राप्त होता है। लययोग में अपने मन को भुलाने का अभ्यास किया जाता है। जिससे वर्तमान स्थूल स्थिति में रहते हुए भी उसका विस्मरण हो जाय और ऐसी किसी स्थिति का अनुभव होता रहे जो यद्यपि स्थूल रूप से नहीं है पर मन जिसे चाहता है। जो स्थूल स्थित है उसका अनुभव न करना और जो बात भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं है पर उसे अपनी भावना के बल पर अनुभव करना- यही कार्य प्रणाली लय योग में होती है। इस अभ्यास में प्रवीण हो जाने पर मनुष्य वर्तमान परिस्थितियों को सांसारिक दृष्टि से देखना भूल जाता है, फल स्वरूप वे बातें भी उसे दुखदायी प्रतीत नहीं होती जिनके कारण साधारण लोग बहुत भयभीत और दुःखी रहते हैं। लययोग का साधक कष्ट, पीडा या  विपत्ति में भी आनन्द एवं कल्याण का अनुभव करता हुआ संतुष्ट रह सकता है।<ref>श्री राम शर्मा, आचार्य, [http://literature.awgp.org/book/gayatri_yog/v1.23 अखण्ड ज्योति], गायत्री योग,  (पृ० २३)।</ref>
 
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लय का अर्थ है लीन होना, किसी में घुल जाना विलीन हो जाना। आत्मा को परमात्मा में घुला देना, लीन कर देना लय योग का उद्देश्य है। मुक्ति या समाधि अवस्था में आत्म विस्मृति हो जाती है, द्वैत मिट जाता है और एकता की सायुज्यता का आनन्द प्राप्त होता है। लययोग में अपने मन को भुलाने का अभ्यास किया जाता है। जिससे वर्तमान स्थूल स्थिति में रहते हुए भी उसका विस्मरण हो जाय और ऐसी किसी स्थिति का अनुभव होता रहे जो यद्यपि स्थूल रूप से नहीं है पर मन जिसे चाहता है। जो स्थूल स्थित है उसका अनुभव न करना और जो बात भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं है पर उसे अपनी भावना के बल पर अनुभव करना- यही कार्य प्रणाली लय योग में होती है। इस अभ्यास में प्रवीण हो जाने पर मनुष्य वर्तमान परिस्थितियों को सांसारिक दृष्टि से देखना भूल जाता है, फल स्वरूप वे बातें भी उसे दुखदायी प्रतीत नहीं होती जिनके कारण साधारण लोग बहुत भयभीत और दुःखी रहते हैं। लययोग का साधक कष्ट, पीडा या  विपत्ति में भी आनन्द एवं कल्याण का अनुभव करता हुआ संतुष्ट रह सकता है।<ref>श्री राम शर्मा, आचार्य, [http://literature.awgp.org/book/gayatri_yog/v1.23 अखण्ड ज्योति], गायत्री योग,  (पृ० २३)।</ref>
      
लययोग का आरंभ पंच इन्द्रियों की, पंच तत्वों की, तन्मात्राओं पर काबू करने से होता है, धीरे-धीरे यह अभ्यास बढ कर आत्मविस्मृति की पूर्ण सफलता तक पहुंच जाता है और जीवभाव से छुटकारा पाकर आत्म भाव दिव्य स्थिति का आनन्द लेता है।
 
लययोग का आरंभ पंच इन्द्रियों की, पंच तत्वों की, तन्मात्राओं पर काबू करने से होता है, धीरे-धीरे यह अभ्यास बढ कर आत्मविस्मृति की पूर्ण सफलता तक पहुंच जाता है और जीवभाव से छुटकारा पाकर आत्म भाव दिव्य स्थिति का आनन्द लेता है।
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