Puja And Yoga (पूजा एवं योग)

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सनातन धर्म का एक प्रमुख अंग पूजा है। सृष्टि का प्रत्येक मानव अपने-अपने ढंग से परमात्मा या दैवी सत्ता की आराधना, प्रार्थना और ध्यान आदि करता है, यह सब पूजा का ही रूप है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति के लिये चित्त को एकाग्र करने का नाम पूजा है। चिन्तन, मनन, उपासना आदि पूजा के पर्यायवाची शब्द हैं। जिन साधनों से जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध स्थापित हो जाये, वही पूजा है। पूजा का वास्तविक स्वरूप है पूज्य के आदर्श को अनुकरण करके उसके सद्गुणों का स्वयं भी ग्रहण करना चाहिये।

परिचय॥ Introduction

अपने पूज्य आराध्य के गुणों में अनुराग करना, उन जैसे गुणों की प्राप्ति की उपासना करना, उनके स्तोत्र का पाठ करना, पदार्थ समर्पण करना, नृत्य, गायन, मंत्रोच्चारण आदि से उनकी भक्ति करना ही पूजा है। भजन और यजन के सम्मिलित रूपको पूजा कह सकते हैं क्योंकि भक्ति भाव रूप होती है और यज्ञ क्रियात्मक होता है। यही भाव और क्रिया का सम्मिलित रूप ही पूजा है। अथवा जहां पर आत्मिक गुणों को उन्नत और आत्मा को पवित्र करने की क्रियाऐं की जायें वह पूजा है।[1]

भाव पूजा एवं द्रव्य पूजा के भेद से पूजा के दो प्रकार होते हैं-

  1. भाव पूजा- आराध्यदेव का स्मरण, स्तुतिपाठ, स्तोत्रपाठ या उनके गुणों की प्रशंसा आदि करना भावपूजा कहलाती है।
  2. द्रव्य पूजा- देव-विग्रह, इष्टदेव आदि को गन्धपुष्पादि रूप द्रव्यों को समर्पित करना, प्रणाम, नमस्कार, प्रदक्षिणाऐं करना आदिरूप शरीर और वाणी की जो क्रियायें की जाती हैं वे सब द्रव्यपूजा के अन्तर्गत आती है।

परिभाषा॥ Etymology

पूजा शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है। पूजा शब्द पुञ् धातु से पवित्र करने अर्थ में प्रयोग किया जाता है-

पूतं जायते एतया इति पूजा।

भावार्थ- जिससे पवित्र हुआ जाये, जो आत्मा को पवित्र करे, दुर्विचारों को दूर करे तथा पापकर्मों से बचाकर जो पुण्य कर्मों या शुभ क्रियाओं में लगाये वह पूजा है।

पूजा नमस्यापचितिः सपर्यार्चार्हणाः समाः। वरिवस्या तु शुश्रूषा परिचर्यायुपासना॥(अम०को० २,७,३४-३५)

भाषार्थ- अमरकोशकार ने उपसाना, नमस्या, अपचिति, सपर्या, अर्हणा, वरिवस्या, ध्यान तथा अनुष्ठान आदि पूजा के पर्यायवाची शब्द वर्णित किये हैं।

पूजा एवं योग समन्वय

योग को साधारण अर्थ में मेल या सम्मिश्रण कहते हैं। स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को (स्थूल+भावनात्मक+निम्नमनस) से मिलाना। सूक्ष्म शरीर को कारण देह से या जीवात्मा (मनस, बुद्धि, चित्त और अहंकार) से मिलाना तथा जीवात्मा को परमात्मा से मिलाना, दूसरे शब्दों में अन्नमय कोश से प्राणमय कोश, प्राणमय कोश से मनोमयकोश, मनोमय कोश से विज्ञानमय कोश तथा विज्ञानमय कोश को आनंदमय कोश से क्रमशः मिलाते हुए अंत में जीव को ईश्वर से आत्मा परमात्मा से या ब्रह्म से संयोग कराने को योग कहते हैं।[2]

  • व्यावहारिक स्तर पर, योग शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करके उनमें तालमेल बनाने में मदद करता है।
  • योग करने से व्यक्तिका मन, आत्मा और शरीर के बीच तालमेल बनाकर शारीरिक, मानसिक और व्यावहारिक रूप से स्वस्थ हो जाता है।

भारतीय धार्मिक जीवन में पूजा विधान को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। मानव जीवनमें जो भी अभाव अनुभव करता है वह पूजा के विविध साधनों - स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रजप, तप, स्वाध्याय, कथा, कीर्तन, यज्ञ, मनन, चिन्तन आदि से उनको प्राप्त कर लेता है।[3] पूजा विधि के माध्यम से बहिरंग क्रियाओं का दीर्घकाल तक निरन्तर अभ्यास करते हुये मानसिक क्रिया का अन्तरंग योग में समावेश करवाते हुये लय अवस्था की प्राप्ति करवाने में पूजा विधान का महत्वपूर्ण योगदान है। इस प्रकार पूजा विधान में योग की महत् भूमिका प्रतिपादित की गई है -

पूजा कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समो जपः। जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः॥

पूजा विधि के मुख्य पाँच अंग हैं- अर्चन, स्तुति, जप, ध्यान और लय। जिस प्रकार से योग शास्त्र में यम-नियमादि अंगों का यथाविधि अभ्यास करने के पश्चात् ध्यान का अभ्यास किया जाता है एवं ध्यान की अन्तिम अवस्था को ही समाधि कहते हैं। उसी प्रकार पूजा विधि में लय अवस्था के पूर्व अर्चन, स्तुति, जप और ध्यान का निरन्तन धारावाहिक चिन्तन किया जाता है। जैसे- बहिरंग क्रियाओं के माध्यम से पूजा एवं स्तोत्र पाठ मन को अंतरंग योग साधना के प्रति प्रेरित करते हैं। पूजा विधि में मन के अभ्यस्त होने के उपरांत जो क्रियाऐं पूजा में साक्षात् की गईं वह सभी स्तोत्र पाठ स्तुतिके माध्यम से मानसिक की जाती हैं। अनन्तर मन्त्रजप के माध्यम से मन में मन्त्र और मन्त्र में मन के द्वारा अंतरंग एवं बहिरंग योग का समावेश होता है। पूजा के तृतीय अंग जप में अभ्यस्त होने के उपरांत चतुर्थ अंग ध्यान योग का अभ्यास करते हुये सर्वोत्कृष्ट और पूजा का अंतिम अंग लय योग की प्राप्ति में पूजा विधि का क्रमशः अभ्यास के साथ योग का समन्वय अतीव महत्वपूर्ण है।

पूजा

पूजा संस्कृत भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ है सम्मान, श्रद्धा, आराधना और उपासना आदि। ईश्वर की सेवा करने की भेंट, प्रेम से और बिना उसके प्रति अपनी भक्ति की घोषणा करें ऐसा करने से आपको आंतरिक शांति और सुख की भावना प्राप्त होती है। ईश्वर की पूजा करते समय मन में एकाग्रता और लक्ष्य के प्रति ध्यान हुआ करता है जिससे चिंतन के द्वारा चिंतित लक्ष्य की प्राप्ति सुलभ हो जाती है एवं मन और आत्मा में शांति की प्राति होती है।

स्तोत्र

जिसमें किसी भी देवी या देवता का गुणगान और महिमा का वर्णन किया जाये उसे स्तोत्र कहते हैं। स्त्रोत का जाप करने से अलौकिक ऊर्जा का संचार होता है और दिव्य शब्दों के चयन से हम उस देवता को प्राप्त कर लेते हैं और इसे किसी भी राग में गाया जा सकता है। स्त्रोत के शब्दों का चयन ही महत्वपूर्ण होता है और ये गीतात्मक होता है। स्तोत्र का शाब्दिक अर्थ-

स्तूयते अनेन इति स्तोत्रम्।

जिन कथनों के द्वारा किसी भी देवी या देवता की स्तुति की जाय उसे स्तोत्र कहते हैं। स्तोत्र संस्कृत भाषा का शब्द है। यह शब्द स्तुञ् धातु से बना है। स्तुति गान की क्रमबद्ध रचना यह स्तोत्र का अर्थ है।[4] स्तोत्र इष्टदेव की स्तुति करना। भक्त की दीनता, कोमलता, अपराध स्वीकार, क्षमा याचना आदि की अभिव्यक्ति का एक माध्यम हैं। स्तोत्र को मुख्यतः चार प्रकार का बतलाया गया है-

द्रव्य स्तोत्रं कर्म स्तोत्रं विधि स्तोत्रं तथैव च। तथैवाभिजनस्तोत्रं स्तोत्रमेतच्चतुष्टयम् ॥

अर्थात- देवता-सम्बन्धी स्तोत्र, कर्म-सम्बन्धी स्तोत्र, विधि-सम्बन्धी स्तोत्र और महापुरुषों से सम्बन्धी स्तोत्र ये चार प्रकार के स्तोत्र होते हैं।[5]

हम अपने मुँह से जो भी शब्द निकालते हैं वह वायुमण्डल में गुञ्जरित रहता है। क्योंकि इस वायुमण्डल में से उत्पन्न ध्वनि कभी भी समाप्त नहीं होती है। इसलिये वैज्ञानिक प्रयत्नशील हैं कि यदि ध्वनि समाप्त नहीं होती वह शाश्वत रहती तो श्रीकृष्णार्जुन संवाद तथा वह ध्वनि भी वायुमण्डलमें ही गतिशील होगी, यदि ध्वनि की वह तरंग पकडी जा सके तो संवाद को भी सुना जा सकता है। स्तोत्र भी एक विशेष प्रकार के शब्दों का संयोजन है, जिसके माध्यम से एक विशेष प्रकार का ध्वनि-संयोजन तैयार होकर प्रवाहित होता है और सामने वाले व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।[6]

जप

मन्त्र को केवल शब्दों का समूह समझना उनके प्रभाव को कम करके आंकना है। मन्त्र तो शक्तिशाली लयबद्ध शब्दों की तरंगे हैं जो बहुत ही चमत्कारिक रूप से कार्य करती हैं। ये तरंगे भटकते हुए मन को केंद्र बिंदु में रखती हैं। शब्दों का संयोजन भी साधारण नहीं होता है, इन्हे ऋषि मुनियों के द्वारा वर्षों की साधना के बाद लिखा गया है। मन्त्रों के जाप से आस पास का वातावरण शांत और भक्तिमय हो जाता है जो सकारात्मक ऊर्जा को एकत्रिक करके मन को शांत करता है। मन के शांत होते ही आधी से ज्यादा समस्याएं स्वतः ही शांत हो जाती हैं। मंत्र किसी देवी और देवता का ख़ास मन्त्र होता है जिसे एक छंद में रखा जाता है।

ध्यान

किसी विषय अथवा वस्तु पर एकाग्र चिन्तन की क्रिया ध्यान कहलाती है। महर्षि पतंजलि रचित योग दर्शन के अष्टांग योग का सातवाँ अंग ध्यान है। धारणा की उत्कृष्ट अवस्था को ध्यान में परिभाषित किया गया है। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार-

प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।(यो०सू० ३,२) ध्यान निर्विषय मन।(सां०द० ६,२५)

अर्थात्- मन का निर्विषय होना ध्यान है। ध्यान का मुख्य उद्देश्य है मन को भौतिक विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना। अन्तर्मुखी होने से ही आत्मदर्शन की योग्यता आती है। देव अर्चन करने के क्रम में ध्यान के उपरांत ही लय अवस्था की प्राप्ति होती है। मन का अन्तर्मुखी भाव होते-होते ध्यान की प्रगाढ अवस्था आ जाती है। और अन्त में ध्याता ध्यान तथा ध्येय एक हो जाते हैं, त्रिपुटी समाप्त हो जाती है, और साधक साध्य को प्राप्त कर लेता है। योग साधना के अनुसार ध्यान के बाद समाधि अवस्था का प्रादुर्भाव हो जाता है। समाधि में भी पहले सविकल्प समाधि फिर धीरे-धीरे निर्विकल्प समाधि आ जाती है। ध्यान हेतु ध्येय का होना आवश्यक है। यदि विषयों का ध्यान करेंगे तो विषयों के प्रति अधिक आकर्षित होंगे। अतः आराध्य का ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ है एवं ध्यान करने से पूर्व ध्येय का निर्धारण आवश्यक है। कुछ लोग ब्रह्म को निराकार मानते है एवं ब्रह्म को ज्योति-स्वरूप जानते है तो वह ज्योति का भी ध्यान कर सकते हैं। हठयोग के प्रमुख ग्रंथ घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान के प्रकार जो कि इस प्रकार हैं -

स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्म ध्यानस्य त्रिविधं विदुः। स्थूल मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा। सूक्ष्मं बिन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता॥

अर्थात् - ध्यान तीन प्रकार के है जिसमें मूर्तिमय इष्टदेवता का ध्यान हो वह स्थूल ध्यान, जिसमें तेजोमय ज्योतिरूप ब्रह्म का चिन्तन हो वह ज्योतिर्ध्यान तथा जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म कुण्डलिनी शक्ति का चिन्तन किया जाय वह सूक्ष्म ध्यान है।

ध्यानाभ्यास ब्रह्ममुहूर्त में किया जाये तो सर्वश्रेष्ठ है, ध्यान करने का स्थान पवित्र एवं स्वच्छ होना चाहिये एवं ध्यान योग के साधक को हठ्योग में वर्णित पथ्य-अपथ्य आहार का पालन दृढता से करना चाहिये।

लय

लय शब्द ली धातु से बना है जिसका अर्थ है विलीन होना, विश्रांति, संयोग, एक रूप होना, मिलन अर्थात् जब दो के बीच एकरूपता या साम्य, इस प्रकार सम्पन्न हो जाए कि उसका अन्तराल न कम हो और न अधिक तो उसे लय कहते हैं। मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।

यो वात्मानं तु वै तस्मिन् मानवः कुरुते लयम्। भवबन्धविनिर्मुक्तो लययोगं स आप्नुते॥

जो मनुष्य अपने आपको स्वयं में लय कर देता है, वह मनुष्य सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर लययोग को प्राप्त करता है।

लययोगस्तु स एषो येन संधौतकल्मषः। सच्चिदानन्दरूपेण साधकः सुखमाप्नुते॥

यह लययोग वह है जिस सच्चिदानन्द रूपयोग से जिसके पाप नष्ट हो गये हैं इस प्रकार का साधक सुखं को प्राप्त करता है। चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है। साधक के चित्त में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है-

गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात्।

लय का अर्थ है लीन होना, किसी में घुल जाना विलीन हो जाना। आत्मा को परमात्मा में घुला देना, लीन कर देना लय योग का उद्देश्य है। मुक्ति या समाधि अवस्था में आत्म विस्मृति हो जाती है, द्वैत मिट जाता है और एकता की सायुज्यता का आनन्द प्राप्त होता है। लययोग में अपने मन को भुलाने का अभ्यास किया जाता है। जिससे वर्तमान स्थूल स्थिति में रहते हुए भी उसका विस्मरण हो जाय और ऐसी किसी स्थिति का अनुभव होता रहे जो यद्यपि स्थूल रूप से नहीं है पर मन जिसे चाहता है। जो स्थूल स्थित है उसका अनुभव न करना और जो बात भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं है पर उसे अपनी भावना के बल पर अनुभव करना- यही कार्य प्रणाली लय योग में होती है। इस अभ्यास में प्रवीण हो जाने पर मनुष्य वर्तमान परिस्थितियों को सांसारिक दृष्टि से देखना भूल जाता है, फल स्वरूप वे बातें भी उसे दुखदायी प्रतीत नहीं होती जिनके कारण साधारण लोग बहुत भयभीत और दुःखी रहते हैं। लययोग का साधक कष्ट, पीडा या विपत्ति में भी आनन्द एवं कल्याण का अनुभव करता हुआ संतुष्ट रह सकता है।[7]

लययोग का आरंभ पंच इन्द्रियों की, पंच तत्वों की, तन्मात्राओं पर काबू करने से होता है, धीरे-धीरे यह अभ्यास बढ कर आत्मविस्मृति की पूर्ण सफलता तक पहुंच जाता है और जीवभाव से छुटकारा पाकर आत्म भाव दिव्य स्थिति का आनन्द लेता है।

पूजा के भेद

संसार में मानव की प्रकृति और रुचि में भिन्नता रहती है अर्थात् समस्त मानवों के स्वभावाउर रुचि एक जैसी नहीं होती। इस प्रकार मानवीय भेद को जानकर शास्त्रकारों ने पूजा के विविध प्रकार प्रस्तुत किये हैं। जिससे प्रत्येक मानव अपनी प्रकृति और रुचि अनुसार भगवद् प्राप्ति के लिये अपने इष्ट की पूजा में संलग्न हो सकता है। यही कारण है कि शास्त्रों में एक ही ब्रह्म को कई रूपों में वर्णित किया है-

एकं सदविप्रा बहुधा वदन्ति।

इस तरह अनेक रूपों में वर्णित पूजा में साधक(पूजक) अपनी मनःस्थिति के अनुसार अपने इष्ट (उपास्य) का निश्चय कर पूजा में संलग्न होकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है। पूजा में निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार कोई भी भगवत्स्वरूप लक्ष्य बनाया जा सकता है।

पूजा आध्यात्मिक विकास में मदद करती है। पूजा भक्त द्वारा भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति की अभिव्यक्ति है, उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा, सचेतन संवाद, आदि। पूजा प्रार्थना, स्तुतिपाठ, कीर्तन, जप, ध्यान आदि के रूपमें हो सकती है।[8]

पूजा के कई भेद हैं- देवपूजा, पितृपूजा, प्रकृति पूजा, वीर पूजा, महान व्यक्तियों की पूजा आदि।

पूजा के विविध प्रकार

शास्त्रों में पूजाके पाँच प्रकार बताये गये हैं- अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या। देवताके स्थान को साफ करना, लीपना, निर्माल्य हटाना- ये सब कर्म अभिगमन के अन्तर्गत हैं। गन्ध, पुष्प आदि पूजा-सामग्रीका संग्रह उपादान है। इष्टदेवकी आत्मरूपसे भावना करना योग है। मन्त्रार्थका अनुसन्धान करते हुये जप करना, सूक्त, स्तोत्र आदिका पाठ करना, गुण, नाम, लीला आदिका कीर्तन करना, वेदान्तशास्त्र आदिका अभ्यास करना- ये सब स्वाध्याय हैं। उपचारोंके द्वारा अपने आराध्यदेवकी पूजा इज्या है। ये पाँच प्रकार की पूजाएँ क्रमशः सार्ष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्यमुक्ति को देने वाली है।

पूजा के मुख्य रूप से दो प्रकार का बताया गया है। संक्षेप एवं विस्तारके भेदसे अनेकों प्रकार के उपचार हैं-

  1. पंचोपचार पूजन- गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य।
  2. दस उपचार- पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य।
  3. षोडश उपचार पूजन- पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल, स्तवपाठ, तर्पण और नमस्कार।
  4. द्वात्रिंशोपचार-
  5. चतुष्षष्ट्युपचार- पाद्यम् , अर्घ्यम् , आसनम् , सुगन्धितैलाभ्यंगम् , मज्जनशालाप्रवेशनम् , मज्जनमणिपीठोपवेशनम् , दिव्यस्नानीयम् , उद्वर्तनम् , उष्णोदकस्नानम् , कनक कलशस्थितसर्वतीर्थाभिषेकम् , धौतवस्त्रपरिमार्जनम् , अरुणदुकूलपरिधानम् , अरुणदुकूलोत्तरीयम् , आलेप
  6. एकशताधिकद्वात्रिंशोपचार-

मानस पूजा को शास्त्रों में सबसे शक्तिशाली पूजा माना गया है। नैगमिक पूजा को कर्मानुसार तीन भागों में विभाजित किया गया है जो कि इस प्रकार है-

(नैगमिक पूजा विधान)
निगम
श्रौत स्मार्त्त
नित्य पूजा नैमित्तिक पूजा काम्य पूजा नित्य पूजा नैमित्तिक पूजा काम्य पूजा
अग्निहोत्र यशस्कामेष्टि संध्या षोडशसंस्कार शतचण्डी
दर्शपूर्णमास भूतिकामेष्टि पञ्चमाहायज्ञ इत्यादि विष्णुयाग
चातुर्मास्य मित्रविन्देष्टि इत्यादि रुद्रयाग
सोमयाग कारिरीष्टी इत्यादि

नित्य पूजा- जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो ओर न करने से पाप लगे उन्हें नित्य पूजा कहते हैं। प्रतिदिन करने योग्य कर्म नित्य-कर्म है।

नैमित्तिक पूजा- किसी उद्देश्य से किये जाने वाले कर्म नैमित्तिक कर्म हैं। निमित्त का अर्थ है- उद्देश्य, कारण। जैसे- जन्मोत्सव , संस्कार आदि।

काम्य पूजा- किसी विशेष इच्छा को रखकर उनकी सफलता के लिये शास्त्रानुसार जब कोई कर्म किया जाता है, तब वह काम्य पूजा कहलाता है। जैसे- पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्रेष्टि यज्ञ तथा अभीष्ट कार्य के लिये शतचण्डी आदि।

पूजा की आवश्यकता

पूजा व्यक्ति की वृद्धि और विकास के अनुसार विभिन्न रूपों में होती है।

प्रकृति पूजा-

वीर पूजा-

नायक पूजा-

महान व्यक्तियों की पूजा-

पितृ पूजा-

जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता है वह एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाता है। निचली अवस्थायें अपने आप वहीं छूट जाती हैं एवं उच्च स्तर पर पहुंचते-पहुंचते लय अर्थात् समाधि की स्थिति को प्राप्त होता है। जैसा की श्री गीता जी में कहा गया है-

कोई भी भक्त जिस किसी रूपकी श्रद्धा से पूजा करना चाहता है- उसी विश्वास को में दृढ और अचल बना देता हूँ।(गीता ८/२१)

पूजा विधान का महत्व

सनातन धर्म में पूजाविधान को प्रवृत्ति और निवृत्ति मूलक एक-लक्ष्य केन्द्रित धर्म माना है। वहां प्रवृत्ति मूलक और निवृत्ति मूलक दोनों मार्गों का एक ही लक्ष्य है - मुक्ति। संसार से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना।

उद्धरण॥ References

  1. धन्य कुमार जैन, प्राकृतिक अपभ्रंश एवं सांस्कृतिक वांग्मय में जैन पूजा विधि विधान का तुलनात्मक अध्ययन, सन् २०१५, बिहारः बडासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (पृ० २५)। http://hdl.handle.net/10603/429325
  2. श्री कान्त, कर्मज व्याधियों की ज्योतिषीय समीक्षा, (शोधगंगा) सन् २०२१, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (पृ० १८८)।
  3. अर्चना सिंह, प्राचीन भारत में शक्ति पूजा,(शोध गंगा) सन् २००७, वी०बी०एस० पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, अध्याय- १, (पृ०१२)।http://hdl.handle.net/10603/180127
  4. लोकेश शर्मा, ऋचा एवं स्तोत्र में संगीत एक अध्ययन उत्तर भारत के सन्दर्भ में, शोध गंगा सन् २०१४, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, अध्याय-१, (पृ०१५)।http://hdl.handle.net/10603/303622
  5. सत्यदेव सिंह, पण्डितराज जगन्नाथ रचित स्तोत्र काव्यों का साहित्यिक अनुशीलन, शोध गंगा, सन् २०१७, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, अध्याय- ०१, (पृ०-१९)।http://hdl.handle.net/10603/313247
  6. अजय कुमार उत्तम, स्तोत्र महार्णव, देवता खण्ड, भूमिका, भारतीय विद्या संस्थान वाराणसी, (पृ० १/२)।
  7. श्री राम शर्मा, आचार्य, अखण्ड ज्योति, गायत्री योग, (पृ० २३)।
  8. मञ्जीत कुमार, देवीभागवतपुराण में उपासना एक परिशीलन, सन् २०१२, पंजाब विश्वविद्यालय अध्याय-०३, (पृ० २२)।http://hdl.handle.net/10603/134316