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सुधार जारी
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पंचतंत्र जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितांत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भिन्न भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण हुए। कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण तंत्राख्यायिका के नाम से विख्यात है जिसका मूल स्थान काश्मीर है।[2]
 
पंचतंत्र जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितांत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भिन्न भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण हुए। कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण तंत्राख्यायिका के नाम से विख्यात है जिसका मूल स्थान काश्मीर है।[2]
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पंचतंत्र में पांच तंत्र हैं (तंत्र का अर्थ है भाग) – मित्रभेद, मित्रलाभ, संधिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षित कारक। इसमें पांच मुख्य कथाएं हैं प्रत्येक कथा में अनेक उपकथाएं हैं। इनका संयोजन इस प्रकार है - [3]
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पंचतंत्र में पांच तंत्र हैं (तंत्र का अर्थ है भाग) – मित्रभेद, मित्रलाभ, संधिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षित कारक। इसमें पांच मुख्य कथाएं हैं प्रत्येक कथा में अनेक उपकथाएं हैं। इनका संयोजन इस प्रकार है -<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, [https://archive.org/details/sanskrit-sahitya-ka-samikshatmak-itihas-dr-kapildeva-dwivedi_compress/page/n593/mode/1up संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास], (पृ० ५७८)।</ref>
 
{| class="wikitable"
 
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|क्र०सं०
 
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|मुख्यकथा
 
|मुख्यकथा
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==पंचतंत्र का संक्षिप्त कथासार==
 
==पंचतंत्र का संक्षिप्त कथासार==
पंचतंत्र के पाँच तंत्र प्राप्त होते हैं। तंत्र शब्द इस ग्रंथ के पांच भागों में विभाजित होने के द्योतक हैं। इसमें नीतियुक्त शासन विधि के पांच विधि (गुण) बताए गए हैं। ग्रंथ के आरंभ में मंगलाचरण के उपरांत मनु, वाचस्पति, शुक्र, पाराशर, व्यास, चाणक्य की स्तुति की गई है।[4] पञ्चतंत्र के लेखक के विषय में भी विद्वान मतैक्य नहीं हैं। पंचतंत्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतंत्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि – [5] <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तंत्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥ (पंचतंत्र कथामुख-3) </blockquote>अर्थात मै विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तंत्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूं।
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पंचतंत्र के पाँच तंत्र प्राप्त होते हैं। तंत्र शब्द इस ग्रंथ के पांच भागों में विभाजित होने के द्योतक हैं। इसमें नीतियुक्त शासन विधि के पांच विधि (गुण) बताए गए हैं। ग्रंथ के आरंभ में मंगलाचरण के उपरांत मनु, वाचस्पति, शुक्र, पाराशर, व्यास, चाणक्य की स्तुति की गई है।[4] पञ्चतंत्र के लेखक के विषय में भी विद्वान मतैक्य नहीं हैं। पंचतंत्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतंत्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि – [5] <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तंत्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥ (पंचतंत्र कथामुख-3) </blockquote>अर्थात मै विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तंत्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूं। प्रथम तंत्र की अंगी कथा के पूर्व राजा अमरशक्ति के पुत्रों का आख्यान है। वह उन्हें विष्णुशर्मा को उनकी प्रतिज्ञा पर सौंप देते हैं कि वह उन्हें छः माह में राजनीति का ज्ञान करा देंगे। तदनंतर – <blockquote>अधीते य इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च। न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन॥(पंचतंत्र, मित्रभेद, 1/1)</blockquote>जो इस नीतिशास्त्र का नित्य अध्ययन करता है अथवा श्रवण करता है वह देवराज इन्द्र से भी कभी पराजित नहीं हो सकता है। इस वाक्य के द्वारा कथामुख समाप्त होता है तत्पश्चात मित्रभेद नामक तंत्र प्रारंभ होता है जो अतिसंक्षेप में प्रस्तुत है।  
 
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प्रथम तंत्र की अंगी कथा के पूर्व राजा अमरशक्ति के पुत्रों का आख्यान है। वह उन्हें विष्णुशर्मा को उनकी प्रतिज्ञा पर सौंप देते हैं कि वह उन्हें छः माह में राजनीति का ज्ञान करा देंगे। तदनंतर – <blockquote>अधीते य इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च। न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन॥(पंचतंत्र, मित्रभेद, 1/1)</blockquote>जो इस नीतिशास्त्र का नित्य अध्ययन करता है अथवा श्रवण करता है वह देवराज इन्द्र से भी कभी पराजित नहीं हो सकता है। इस वाक्य के द्वारा कथामुख समाप्त होता है तत्पश्चात मित्रभेद नामक तंत्र प्रारंभ होता है जो अतिसंक्षेप में प्रस्तुत है।  
      
===मित्रभेद '''   '''===
 
===मित्रभेद '''   '''===
मित्रभेद नामक इस तंत्र के आद्य श्लोक में ही कथा की जिज्ञासा होती है –<blockquote>वर्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने। पिशुनेनातिलुब्धेन जंबुकेन विनाशितः॥ </blockquote>वन में एक सिंह और एक बैल के बीच अत्यंत गहरी मित्रता थी जिसे अत्यंत लालची और चुगलखोर गीदड़ ने नष्ट कर दिया।
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मित्रभेद नामक इस तंत्र के आद्य श्लोक में ही कथा की जिज्ञासा होती है –<blockquote>वर्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने। पिशुनेनातिलुब्धेन जंबुकेन विनाशितः॥ </blockquote>वन में एक सिंह और एक बैल के बीच अत्यंत गहरी मित्रता थी जिसे अत्यंत लालची और चुगलखोर गीदड़ ने नष्ट कर दिया। मित्रभेद में एक मुख्य कथा तथा इस कथा के अंतर्गत 23 उपकथाएं हैं जो इस प्रकार हैं – [6]<ref name=":0">https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/5/05_chapter1.pdf</ref>{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
 
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मित्रभेद में एक मुख्य कथा तथा इस कथा के अंतर्गत 23 उपकथाएं हैं जो इस प्रकार हैं – [6]{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
      
# मूर्खवानर कथा
 
# मूर्खवानर कथा
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अप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदंति नृणामिह। त एव सुहृदः प्रोक्ता अन्ये स्युर्नामधारकाः॥ (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति, श्लोक- 167)
 
अप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदंति नृणामिह। त एव सुहृदः प्रोक्ता अन्ये स्युर्नामधारकाः॥ (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति, श्लोक- 167)
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उपर्युक्त उक्तियों से प्रतीत होता है कि मित्र संप्राप्ति अर्थात ‘मित्रस्य संप्राप्तिः’ सच्चे मित्र की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसके लिए जो भी विधि अपनानी पड़े। अपनाना चाहिए। मित्रसंप्राप्ति में सात कथा हैं जो इस प्रकार हैं – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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उपर्युक्त उक्तियों से प्रतीत होता है कि मित्र संप्राप्ति अर्थात ‘मित्रस्य संप्राप्तिः’ सच्चे मित्र की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसके लिए जो भी विधि अपनानी पड़े। अपनाना चाहिए। मित्रसंप्राप्ति में सात कथा हैं जो इस प्रकार हैं –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# लुब्धक-चित्रग्रीव-हिरण्यक-कथा  
 
# लुब्धक-चित्रग्रीव-हिरण्यक-कथा  
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# वृषभानुशृगाल-कथा।}}  
 
# वृषभानुशृगाल-कथा।}}  
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===काकोलूकीय===
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===काकोलूकीय ===
 
इस तंत्र में एक मुख्य कथा तथा 17 उपकथाएं हैं। इसमें विग्रह (युद्ध) तथा संधि का वर्णन है। मुख्य कथा के अंतर्गत कौवों के राजा मेघवर्ण एवं उल्लुओं के राजा अरिमर्दन की कथा है।
 
इस तंत्र में एक मुख्य कथा तथा 17 उपकथाएं हैं। इसमें विग्रह (युद्ध) तथा संधि का वर्णन है। मुख्य कथा के अंतर्गत कौवों के राजा मेघवर्ण एवं उल्लुओं के राजा अरिमर्दन की कथा है।
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काकोलूकीयम् में एक मुख्य कथा तथा उसके अंतर्गत 17 उपकथाएं हैं। सत्रहों उपकथा इस प्रकार हैं – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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काकोलूकीयम् में एक मुख्य कथा तथा उसके अंतर्गत 17 उपकथाएं हैं। सत्रहों उपकथा इस प्रकार हैं –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# काकोलूकवैर-कथा  
 
# काकोलूकवैर-कथा  
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काकोलूकीय के बाद चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणाश अर्थात “प्राप्त के नाश”। इसमें यह बतलाया गया है कि प्राप्त हुई वस्तु को सम्यक् प्रकार न रखने से वह कैसे विनाश से वह कैसे विनाश को प्राप्त होता है। इसमें वानर एवं मकर ध्वज की मुख्य कथा है। दोनों की कथा इस प्रकार है – <blockquote>समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते। स एव दुर्ग तरति जलस्थो वानरो यथा॥ (पंचतंत्र, लब्धप्रणाश, श्लोक-1)[7] </blockquote>
 
काकोलूकीय के बाद चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणाश अर्थात “प्राप्त के नाश”। इसमें यह बतलाया गया है कि प्राप्त हुई वस्तु को सम्यक् प्रकार न रखने से वह कैसे विनाश से वह कैसे विनाश को प्राप्त होता है। इसमें वानर एवं मकर ध्वज की मुख्य कथा है। दोनों की कथा इस प्रकार है – <blockquote>समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते। स एव दुर्ग तरति जलस्थो वानरो यथा॥ (पंचतंत्र, लब्धप्रणाश, श्लोक-1)[7] </blockquote>
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इस तंत्र में वानर-मकरध्वज की मुख्य कथा है तथा इसके अंतर्गत ग्यारह (11) उपकथाएं हैं, जो इस प्रकार है – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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इस तंत्र में वानर-मकरध्वज की मुख्य कथा है तथा इसके अंतर्गत ग्यारह (11) उपकथाएं हैं, जो इस प्रकार है –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# मंडूकराज गंगदत्त की कथा  
 
# मंडूकराज गंगदत्त की कथा  
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पंचतंत्र का पांचवा तंत्र अपरीक्षिकारक है। जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रंथकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि बिना भली-भांति विचार किए एवं बिना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन के अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता है।  
 
पंचतंत्र का पांचवा तंत्र अपरीक्षिकारक है। जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रंथकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि बिना भली-भांति विचार किए एवं बिना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन के अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता है।  
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अपरीक्षितकारक में कुल 15 कथाएं हैं, जिनका शीर्षक एवं संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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अपरीक्षितकारक में कुल 15 कथाएं हैं, जिनका शीर्षक एवं संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# क्षपणक-कथा  
 
# क्षपणक-कथा  
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==पंचतंत्र में सामाजिक व्यवस्था==
 
==पंचतंत्र में सामाजिक व्यवस्था==
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भारतीय समाज को योजनाबद्ध व्यवस्थित और सुसंगठित सामाजिक संस्थाओं (वर्णव्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार) के द्वारा संतुलित किया गया है। इन सामाजिक संस्थाओं का विकास उस समय भारतीय समाज को सुनियोजित कर रहा था।<ref>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/7/07_chapter3.pdf</ref>
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==पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
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== पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।  
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किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।<ref>शोध गंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831 पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वो का अध्ययन], सन् २०२१, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (पृ० १३६)।</ref>
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*'''राजधर्म -''' राजा-प्रजा , कूटनीति या उपाय का महत्व
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*'''राजधर्म -''' राजा-प्रजा ,  
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*'''कूटनीति या उपाय का महत्व -'''
 
*'''राष्ट्रीय और अनतर्राष्ट्रीय शक्ति के विकास के लिए राजा के पास तीन माध्यम होना आवश्यक है -'''
 
*'''राष्ट्रीय और अनतर्राष्ट्रीय शक्ति के विकास के लिए राजा के पास तीन माध्यम होना आवश्यक है -'''
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#उपाय या नीति
 
#उपाय या नीति
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*'''राज्य संरक्षण के उपाय -''' साम नीति, दाम नीति, भेद नीति, दण्ड नीति।
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*'''राज्य संरक्षण के उपाय -''' साम नीति, दाम नीति, भेद नीति, दण्ड नीति
*'''षाड्गुण्य -''' संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय, द्वैधी भाव।
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*'''षाड्गुण्य -''' संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय, द्वैधी भाव इस प्रकार षाड्गुण्य के ये छः अंग बताये गये हैं। राजनीतिक स्थिति में षाड्गुण्य की नीति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। दूसरे देश या दूसरे राज्यों के बीच आपसी सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए षाड्गुण नीति अपनानी चाहिए।
*'''अमात्य -'''
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*'''अमात्य -''' पञ्चतन्त्र में राज्य हेतु योग्य अमात्यों को अत्यन्त आवश्यक बताया गया है। अमात्य वर्ग को अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त था एवं अमात्य को राज्य रूपी रथ की धुरी माना है।
*'''गुप्तचर -''' स्थायी गुप्तचर एवं भ्रमणशील गुप्तचर।
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*'''गुप्तचर -''' पञ्चतन्त्र में गुप्तचर एवं दूत में कोई भेद नहीं है। दूत भी गुप्तचर का कार्य करते थे। गुप्तचरों को अधिक महत्ता दी गयी है। इन्हें राजा का चक्षु कहा गया है। गुप्तचर के विषय में कहा गया है कि गाय आदि पशु गन्ध के द्वारा वस्तुओं का पता लगा लेते हैं। उसी प्रकार राजा गुप्तचरों से दूसरे राष्ट्र की गुप्त बात जान लेते हैं।
*'''दुर्ग'''
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*'''दुर्ग -''' प्राचीन काल में युद्ध के साधन आजकल के साधनों से सर्वथा भिन्न थे। उस समय की सेना के मुख्य अस्त्र-शस्त्रों में धनुष, बाण, तलवार आदि ही होते थे। यही कारण है कि उस समय दुर्ग आदि का महत्व बहुत ही अधिक रहता था। राजधानी पर शत्रु के अधिकार से गम्भीर भय उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि वहीं भोज्य पदार्थ एकत्र रहता है। वहीं प्रमुख तत्त्व एवं सैन्य बल का आयोजन रहता है। राजधानी ही शासन यन्त्र की धुरी है, राजधानी देश की सम्पत्ति का दर्पण है और यदि वह ऊँची दीवारों से सुदृढ रहती है तो सुरक्षा का कार्य भी करती है। अतः पञ्चतन्त्र में दुर्ग को आवश्यक सामग्रियों से युक्त होना बतलाया गया है।
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इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।
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== पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व ==
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==पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व ==
    
==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा==
 
==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा==
पंचतन्त्र के लेखक के विषय में भी विद्वान् मतैक्य नहीं हैं। पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतन्त्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि - <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तन्त्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥</blockquote>अर्थात् मैं विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तन्त्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूँ।
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पंचतन्त्र के लेखक के विषय में भी विद्वान् मतैक्य नहीं हैं। पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतन्त्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि -<ref>शोधगंगा-अनूप कुमार द्विवेदी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/447119/5/05_chapter1.pdf पञ्चतन्त्र में प्रतिपादित लोक संस्कृति], सन् २०२२, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विशविद्यालय, वाराणसी (पृ० ३)।</ref> <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तन्त्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥</blockquote>अर्थात् मैं विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तन्त्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूँ।
    
प्राचीन समय से ही संस्कृत के कवियों की लेखकों की यह परम्परा रही है कि प्रायः वे अपने जीवन के विषय में कुछ नहीं लिखते थे। सम्भवतः पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा ने भी इसी मत का आश्रय लिया है। पञ्चतन्त्र के कथा मुख से हमें लेखक के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त होती है -  
 
प्राचीन समय से ही संस्कृत के कवियों की लेखकों की यह परम्परा रही है कि प्रायः वे अपने जीवन के विषय में कुछ नहीं लिखते थे। सम्भवतः पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा ने भी इसी मत का आश्रय लिया है। पञ्चतन्त्र के कथा मुख से हमें लेखक के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त होती है -  
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==उद्धरण==
 
==उद्धरण==
[1] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327791</nowiki>
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[2] <nowiki>https://ia801405.us.archive.org/21/itemsin.ernet.dli.2015.327677/2015.327677.Sanskrit-Sahitya.pdf</nowiki>
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[3] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/447119/5/05_chapter1.pdf</nowiki>
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[4] <nowiki>https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/90483/1/Block-3.pdf</nowiki>                                                                                                            
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[5] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831</nowiki>
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[6] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/5/05_chapter1.pdf</nowiki>
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  −
[7] <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/5/05_chapter1.pdf</nowiki>
  −
  −
<nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/447119</nowiki>
   
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
<references />
 
<references />
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