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# वर्तमान प्रतिमान में चार्वाक के तत्वज्ञान का बोलबाला हो गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। कर्जा लेकर ऐश करना शिष्टाचार बन गया है। कर्जा लेनेवाला चाहता है कि पैसा अधिक से अधिक देरी से दे। इस के पीछे इहवादिता की सोच दिखाई देती है। कर्जे की राशि लौटाने से पहले ही यदि देने वाले की या लेने वाले की मृत्यु हो जाये तो कर्जा लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में तो पहले कर्जा लेना ही शर्म की बात माना गया है। कर्जा उतारने से पहले मर जाने से तो अगले जन्म में अधम गति प्राप्त होती है, ऐसी मान्यता है। इस लिये कर्जा ले भी लिया तो पहले सम्भव क्षण को यानी शीघ्रातिशीघ्र लौटाने का मानस होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में चार्वाक के तत्वज्ञान का बोलबाला हो गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। कर्जा लेकर ऐश करना शिष्टाचार बन गया है। कर्जा लेनेवाला चाहता है कि पैसा अधिक से अधिक देरी से दे। इस के पीछे इहवादिता की सोच दिखाई देती है। कर्जे की राशि लौटाने से पहले ही यदि देने वाले की या लेने वाले की मृत्यु हो जाये तो कर्जा लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में तो पहले कर्जा लेना ही शर्म की बात माना गया है। कर्जा उतारने से पहले मर जाने से तो अगले जन्म में अधम गति प्राप्त होती है, ऐसी मान्यता है। इस लिये कर्जा ले भी लिया तो पहले सम्भव क्षण को यानी शीघ्रातिशीघ्र लौटाने का मानस होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में सामान्यत: सभी सामाजिक सम्बन्ध करार होते हैं। काँट्रॅक्ट होते हैं। एग्रीमेंट होते हैं। समझौते होते हैं। विवाह भी करार ही होता है। करार में दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ के लिये साथ में आते हैं। स्वार्थ को ठेस पहुंचने पर करार तोड कर अलग हो जाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) विवाह जैसे अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह में हस्बण्ड और वाईफ यह दोनों मिलकर पूर्ण बनने वाले एक दूसरे के पूरक और पोषक ऐसे घटक नहीं होते। वे होते हैं एक दूसरे के ग्राहक और उपभोक्ता। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में सभी सामाजिक सम्बन्धों का आधार ' कुटुम्ब भावना ' होता है। धार्मिक (धार्मिक) विवाह दो भिन्न व्यक्तित्वों का 'एक बनने' का संस्कार होता है। दोनों की एकात्मता का संस्कार होता है। राजा और प्रजा के सम्बन्धों में, प्रजा शब्द का तो अर्थ ही संतान होता है। इस लिये राजा या शासक का जनता से सम्बन्धों में पिता और सन्तान जैसा होता है। शिक्षा क्षेत्र में गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। एक ही व्यवसाय करने वाले लोग एक दूसरे के स्पर्धक नहीं होते। जाति-बांधव होते हैं। भाषण सुनने आये लोग 'माय डीयर लेडीज एँड जन्टलमेन’ नहीं होते। ‘मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। चन्द्रमा चंन्दामामा और चूहा चूहामामा होता है। धरती, नदी, गाय, तुलसी आदि माताएं होतीं हैं। वर्तमान प्रतिमान में कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लग गए हैं। लेकिन धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में बाजार भी कुटुम्ब भावना से चलते थे। आज भी बाजार में ‘क्यों काकाजी! सब्जी कैसी दी?’ ऐसा प्रश्न बहुत सामान्य बात है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में सामान्यत: सभी सामाजिक सम्बन्ध करार होते हैं। काँट्रॅक्ट होते हैं। एग्रीमेंट होते हैं। समझौते होते हैं। विवाह भी करार ही होता है। करार में दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ के लिये साथ में आते हैं। स्वार्थ को ठेस पहुंचने पर करार तोड कर अलग हो जाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) विवाह जैसे अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह में हस्बण्ड और वाईफ यह दोनों मिलकर पूर्ण बनने वाले एक दूसरे के पूरक और पोषक ऐसे घटक नहीं होते। वे होते हैं एक दूसरे के ग्राहक और उपभोक्ता। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में सभी सामाजिक सम्बन्धों का आधार ' कुटुम्ब भावना ' होता है। धार्मिक (धार्मिक) विवाह दो भिन्न व्यक्तित्वों का 'एक बनने' का संस्कार होता है। दोनों की एकात्मता का संस्कार होता है। राजा और प्रजा के सम्बन्धों में, प्रजा शब्द का तो अर्थ ही संतान होता है। इस लिये राजा या शासक का जनता से सम्बन्धों में पिता और सन्तान जैसा होता है। शिक्षा क्षेत्र में गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। एक ही व्यवसाय करने वाले लोग एक दूसरे के स्पर्धक नहीं होते। जाति-बांधव होते हैं। भाषण सुनने आये लोग 'माय डीयर लेडीज एँड जन्टलमेन’ नहीं होते। ‘मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। चन्द्रमा चंन्दामामा और चूहा चूहामामा होता है। धरती, नदी, गाय, तुलसी आदि माताएं होतीं हैं। वर्तमान प्रतिमान में कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लग गए हैं। लेकिन धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में बाजार भी कुटुम्ब भावना से चलते थे। आज भी बाजार में ‘क्यों काकाजी! सब्जी कैसी दी?’ ऐसा प्रश्न बहुत सामान्य बात है।
# वर्तमान प्रतिमान में दुर्बल का शोषण होता है। बडा उद्योगपति छोटे उद्योगपति को चूसता है। और छोटा उद्योगपति उस से छोटे को। केवल पैसे वाले ही नहीं तो अवसर पाने पर दुर्बल भी मजबूरों का शोषण करते हैं। जब ऑटोरिक्षा बंद होते हैं, टांगेवाले अपनी दर बढ़ा कर लोगोंं की मजबूरी का लाभ लेते हैं। इस प्रतिमान में पति भी नौकरी करने वाली स्त्री का शोषण करता है। दोनों नौकरी से थक कर घर आते हैं। पुरूष तो आराम करता है। कितनी भी थकान हो, स्त्री को रसोई और बच्चों का काम करना पडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में घरेलू सम्बन्ध, कौटुम्बिक बातें, संस्कार आदि से सम्बन्धित सभी बातों में गृहिणी प्रमुख होती है। गृहस्थ गृहिणी के कहे अनुसार व्यवहार करता है।
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# वर्तमान प्रतिमान में दुर्बल का शोषण होता है। बडा उद्योगपति छोटे उद्योगपति को चूसता है। और छोटा उद्योगपति उस से छोटे को। केवल पैसे वाले ही नहीं तो अवसर पाने पर दुर्बल भी मजबूरों का शोषण करते हैं। जब ऑटोरिक्षा बंद होते हैं, टांगेवाले अपनी दर बढ़ा कर लोगोंं की मजबूरी का लाभ लेते हैं। इस प्रतिमान में पति भी नौकरी करने वाली स्त्री का शोषण करता है। दोनों नौकरी से थक कर घर आते हैं। पुरूष तो आराम करता है। कितनी भी थकान हो, स्त्री को रसोई और बच्चोंं का काम करना पडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में घरेलू सम्बन्ध, कौटुम्बिक बातें, संस्कार आदि से सम्बन्धित सभी बातों में गृहिणी प्रमुख होती है। गृहस्थ गृहिणी के कहे अनुसार व्यवहार करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मनुष्य का बस चले तो पूरे विश्व के संसाधन केवल मेरे अधिकार में रहें ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये मनुष्य ने प्रकृति के शोषण के लिये बडे बडे यंत्र निर्माण किये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अपनी आवश्यकताओं से अधिक प्रकृति से लेना पाप माना गया है। चोरी, डकैती माना गया है। प्रकृति को पवित्र माना जाता है, माता माना जाता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मनुष्य का बस चले तो पूरे विश्व के संसाधन केवल मेरे अधिकार में रहें ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये मनुष्य ने प्रकृति के शोषण के लिये बडे बडे यंत्र निर्माण किये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अपनी आवश्यकताओं से अधिक प्रकृति से लेना पाप माना गया है। चोरी, डकैती माना गया है। प्रकृति को पवित्र माना जाता है, माता माना जाता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने मानव को पगढीला बना दिया है। संस्कृति का विकास स्थिर समाज में ही होता है। वर्तमान प्रतिमान ने समाज को संस्कृति से तोडकर दर बदर घूमने वाला घुमन्तु जीव बना दिया है। पगढीला समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में और सुख के साधन जुटाने में ही पूरा समय खर्च कर देता है। पगढीलापन कौटुम्बिक भावना को, संस्कृति को नष्ट कर देता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने मानव को पगढीला बना दिया है। संस्कृति का विकास स्थिर समाज में ही होता है। वर्तमान प्रतिमान ने समाज को संस्कृति से तोडकर दर बदर घूमने वाला घुमन्तु जीव बना दिया है। पगढीला समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में और सुख के साधन जुटाने में ही पूरा समय खर्च कर देता है। पगढीलापन कौटुम्बिक भावना को, संस्कृति को नष्ट कर देता है।
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# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
# वर्तमान प्रतिमान ने परिवारों की संस्कार क्षमता नष्ट कर दी है। बडी संख्या में स्त्रियाँ पैसे कमाने वाली (करियर वादी) बनना चाहती हैं। उन की प्राथमिकता अधिक से अधिक पैसा कमाना यह है। इस में गलत कुछ नहीं है। किन्तु इस कारण वह अब 'माता प्रथमो गुरू' में विश्वास नहीं रखतीं। अपने बच्चों पर अच्छे संस्कार कैसे किये जाते हैं इसे सीखने की उसे आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती और समय भी नहीं होता। यह ठीक नहीं है। अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान पुरूष सत्ताक या पुरूष प्रधान होने से स्त्रियाँ अपने को पुरूष की बराबरी या पुरुषों से श्रेष्ठ सिध्द करने के लिये तथा विवाह टूटने की स्थिति में आनेवाली असुरक्षितता की भावना के कारण, पुरूषों से अधिक पैसे कमाना अपरिहार्य मानतीं हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री और पुरूष, अकेले अकेले दोनों अधूरे होते हैं। दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं। 'माता प्रथमो गुरू और पिता द्वितीय:’ में श्रध्दा रखते हैं। इस कारण बच्चे उन से भी श्रेष्ठ बनने की सम्भावनाएँ बनतीं हैं।
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# वर्तमान प्रतिमान ने परिवारों की संस्कार क्षमता नष्ट कर दी है। बडी संख्या में स्त्रियाँ पैसे कमाने वाली (करियर वादी) बनना चाहती हैं। उन की प्राथमिकता अधिक से अधिक पैसा कमाना यह है। इस में गलत कुछ नहीं है। किन्तु इस कारण वह अब 'माता प्रथमो गुरू' में विश्वास नहीं रखतीं। अपने बच्चोंं पर अच्छे संस्कार कैसे किये जाते हैं इसे सीखने की उसे आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती और समय भी नहीं होता। यह ठीक नहीं है। अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान पुरूष सत्ताक या पुरूष प्रधान होने से स्त्रियाँ अपने को पुरूष की बराबरी या पुरुषों से श्रेष्ठ सिध्द करने के लिये तथा विवाह टूटने की स्थिति में आनेवाली असुरक्षितता की भावना के कारण, पुरूषों से अधिक पैसे कमाना अपरिहार्य मानतीं हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री और पुरूष, अकेले अकेले दोनों अधूरे होते हैं। दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं। 'माता प्रथमो गुरू और पिता द्वितीय:’ में श्रध्दा रखते हैं। इस कारण बच्चे उन से भी श्रेष्ठ बनने की सम्भावनाएँ बनतीं हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में नौकरों की संख्या बहुत अधिक और मालिकों की संख्या अत्यल्प होती है। जीने का मूल उद्देष्य जो स्वतन्त्रता प्राप्ति है उसी का लोप होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में नौकरों की संख्या अत्यल्प और मालिकों की संख्या अधिक होती है। इस कारण औसत समाज का व्यवहार भी आत्मविश्वासपूर्ण, जिम्मेदारी का, बडप्पन का होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में नौकरों की संख्या बहुत अधिक और मालिकों की संख्या अत्यल्प होती है। जीने का मूल उद्देष्य जो स्वतन्त्रता प्राप्ति है उसी का लोप होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में नौकरों की संख्या अत्यल्प और मालिकों की संख्या अधिक होती है। इस कारण औसत समाज का व्यवहार भी आत्मविश्वासपूर्ण, जिम्मेदारी का, बडप्पन का होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में किसान नष्ट होता है और जनसंख्या के केन्द्रिकरण के कारण जो गोचर भूमि का अभाव निर्माण होता है उस के कारण धार्मिक (धार्मिक) गाय को कोई स्थान नहीं है। एक स्थान पर बाँधी हुई धार्मिक (धार्मिक) गाय और अपने मन के अनुसार मुक्त गोचर भूमि में चरने वाली गाय के दूध में महद् अन्तर पड जाता है। गोचर भूमि में चरने वाली धार्मिक (धार्मिक) गाय यह गोमाता होती है। गोमाता यह अच्छी तरह समझती है की क्या चरना चाहिये और क्या नहीं। ऐसी गाय धार्मिक (धार्मिक) होती है। भारत के बाहर गाय नहीं गाय जैसा दिखनेवाला एक प्राणी 'काऊ' होता है। काऊ की तरह धार्मिक (धार्मिक) गोमाता के दूध में मानव के लिये अत्यंत हानिकारक बीसीएम् ७ रसायन नहीं होता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में किसान नष्ट होता है और जनसंख्या के केन्द्रिकरण के कारण जो गोचर भूमि का अभाव निर्माण होता है उस के कारण धार्मिक (धार्मिक) गाय को कोई स्थान नहीं है। एक स्थान पर बाँधी हुई धार्मिक (धार्मिक) गाय और अपने मन के अनुसार मुक्त गोचर भूमि में चरने वाली गाय के दूध में महद् अन्तर पड जाता है। गोचर भूमि में चरने वाली धार्मिक (धार्मिक) गाय यह गोमाता होती है। गोमाता यह अच्छी तरह समझती है की क्या चरना चाहिये और क्या नहीं। ऐसी गाय धार्मिक (धार्मिक) होती है। भारत के बाहर गाय नहीं गाय जैसा दिखनेवाला एक प्राणी 'काऊ' होता है। काऊ की तरह धार्मिक (धार्मिक) गोमाता के दूध में मानव के लिये अत्यंत हानिकारक बीसीएम् ७ रसायन नहीं होता।
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# वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी धार्मिक (धार्मिक) 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
 
# वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी धार्मिक (धार्मिक) 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
 
# हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।   
 
# हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।   
# इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगोंं में जड़ता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगोंं से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।  
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# इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगोंं में जड़ता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चोंं को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगोंं से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।  
 
# इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।   
 
# इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।   
 
# धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।  
 
# धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।  

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