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# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगोंं के मन जीतता है, लोगोंं के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक (धार्मिक) लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगोंं के मन जीतता है, लोगोंं के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक (धार्मिक) लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक कानूनी मुकदमे में एक पक्ष सत्य का होता है। दूसरा पक्ष तो असत्य का ही होता है। दोनों पक्षों की ओर से वकील पैरवी करते हैं। यानी दोनों वकीलों में से एक वकील असत्य की जीत के लिये प्रयास करता है। इस का अर्थ यह है की कुल मिलाकर इस प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में ५० प्रतिशत वकील सदा सत्य को झूठ और झूठ को सत्य सिध्द करने में अपनी बुद्धि का उपयोग करता है। यह न्याय व्यवस्था है या अन्याय व्यवस्था? धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में मुकदमों के लम्बित होने से लाभान्वित होने वाला और इस लिये लम्बित करने में प्रयत्नशील और झूठ को सत्य तथा सत्य को झूठ सिध्द करने वाला वकील नहीं होता। सात्विक वृत्ति का निर्भय, नि:स्वार्थी, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र जानने वाला न्यायाधीश ही दोनों पक्षों का अध्ययन कर सत्य को स्थापित करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक कानूनी मुकदमे में एक पक्ष सत्य का होता है। दूसरा पक्ष तो असत्य का ही होता है। दोनों पक्षों की ओर से वकील पैरवी करते हैं। यानी दोनों वकीलों में से एक वकील असत्य की जीत के लिये प्रयास करता है। इस का अर्थ यह है की कुल मिलाकर इस प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में ५० प्रतिशत वकील सदा सत्य को झूठ और झूठ को सत्य सिध्द करने में अपनी बुद्धि का उपयोग करता है। यह न्याय व्यवस्था है या अन्याय व्यवस्था? धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में मुकदमों के लम्बित होने से लाभान्वित होने वाला और इस लिये लम्बित करने में प्रयत्नशील और झूठ को सत्य तथा सत्य को झूठ सिध्द करने वाला वकील नहीं होता। सात्विक वृत्ति का निर्भय, नि:स्वार्थी, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र जानने वाला न्यायाधीश ही दोनों पक्षों का अध्ययन कर सत्य को स्थापित करता है।
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
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# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपड़े पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के लोगोंं के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जड़वादी अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
 
# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के लोगोंं के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जड़वादी अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।

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