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== चिरंजीवी धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की पुन: प्रतिष्ठा ==
 
== चिरंजीवी धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की पुन: प्रतिष्ठा ==
परिवर्तन जगत का नियम है। विश्व के हर घटक में हर क्षण परिवर्तन होता ही रहता है। इन में कुछ परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं। यह परिवर्तन परमात्मा द्वारा किये होते हैं याने सृष्टी के नियमों के अनुसार होते हैं। और कुछ परिवर्तन मानव कृत होते हैं। मानव समाज के लिये यही बुध्दिमानी की बात है की वह जो परिवर्तन करता है वे परमात्मा कृत परिवर्तनों से सुसंगत रहें। कम से कम अविरोधी तो रहें। अर्थात् परमात्मा कृत परिवर्तनों का और प्रकृति का विरोध करने वाली कोई भी बात इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्जित होगी। धर्म से संबंधित कुछ धार्मिक (धार्मिक) संकल्पनाओं को इस संदर्भ में समझना ठीक होगा:  
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परिवर्तन जगत का नियम है। विश्व के हर घटक में हर क्षण परिवर्तन होता ही रहता है। इन में कुछ परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं। यह परिवर्तन परमात्मा द्वारा किये होते हैं याने सृष्टि के नियमों के अनुसार होते हैं। और कुछ परिवर्तन मानव कृत होते हैं। मानव समाज के लिये यही बुध्दिमानी की बात है की वह जो परिवर्तन करता है वे परमात्मा कृत परिवर्तनों से सुसंगत रहें। कम से कम अविरोधी तो रहें। अर्थात् परमात्मा कृत परिवर्तनों का और प्रकृति का विरोध करने वाली कोई भी बात इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्जित होगी। धर्म से संबंधित कुछ धार्मिक (धार्मिक) संकल्पनाओं को इस संदर्भ में समझना ठीक होगा:  
 
# धारणात् धर्ममित्याहू धर्मो धारयते प्रजा:<ref>महाभारत, धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः</ref>  इस व्याख्या के अनुसार जिस से धारणा होती है उसे धर्म कहते हैं। समाज धर्म का अर्थ है, जिस से समाज की धारणा होती है। और समाज की धारणा का या समाज धर्म का अर्थ है समाज को यानी समाज के सभी घटकों को वह सब बातें करनी चाहिये जो उसे बनाए रखे, बलवान बनाए और बनाए रखे, निरोग बनाए और बनाए रखे, लचीला बनाए और बनाए रखे, तितिक्षावान बनाए और बनाए रखे। इस के विपरीत कुछ भी नहीं करे। पुत्रधर्म, गृहस्थ धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म आदि अलग अलग संदर्भों में इसे समझना होगा।  
 
# धारणात् धर्ममित्याहू धर्मो धारयते प्रजा:<ref>महाभारत, धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः</ref>  इस व्याख्या के अनुसार जिस से धारणा होती है उसे धर्म कहते हैं। समाज धर्म का अर्थ है, जिस से समाज की धारणा होती है। और समाज की धारणा का या समाज धर्म का अर्थ है समाज को यानी समाज के सभी घटकों को वह सब बातें करनी चाहिये जो उसे बनाए रखे, बलवान बनाए और बनाए रखे, निरोग बनाए और बनाए रखे, लचीला बनाए और बनाए रखे, तितिक्षावान बनाए और बनाए रखे। इस के विपरीत कुछ भी नहीं करे। पुत्रधर्म, गृहस्थ धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म आदि अलग अलग संदर्भों में इसे समझना होगा।  
 
# यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:<ref>वैशेषिक सूत्र 1.1.2 </ref> : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref>' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  
 
# यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:<ref>वैशेषिक सूत्र 1.1.2 </ref> : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref>' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  

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