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# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के लोगोंं के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जडवादी अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
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# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के लोगोंं के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जड़वादी अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
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# वर्तमान प्रतिमान में बडे शहर अपराधों के बडे केन्द्र बन गये हैं। गाँवों से आकर इन में बसनेवाले लोगोंं के लिये ये शहर 'अपने' नहीं होते। इन लोगोंं का लगाव तो अपने मूल गाँवों से होता है। इस लिये ये शहर अच्छे बनें, साफ सूथरे रहें, महिलाओं के लिये भी सुरक्षित रहें इस की जिम्मेदारी इन की नहीं होती। इन में बेघर लोगोंं की संख्या अच्छी खासी होती है। सामान्यत: ऐसे बेघर लोगोंं में अपराधीकरण जल्दी फलता फूलता ही है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में बडे शहर अपराधों के बडे केन्द्र बन गये हैं। गाँवों से आकर इन में बसनेवाले लोगोंं के लिये ये शहर 'अपने' नहीं होते। इन लोगोंं का लगाव तो अपने मूल गाँवों से होता है। इस लिये ये शहर अच्छे बनें, साफ सूथरे रहें, महिलाओं के लिये भी सुरक्षित रहें इस की जिम्मेदारी इन की नहीं होती। इन में बेघर लोगोंं की संख्या अच्छी खासी होती है। सामान्यत: ऐसे बेघर लोगोंं में अपराधीकरण जल्दी फलता फूलता ही है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोग अधिक पैसे का संचय होने पर इस अतिरिक्त धन को और अधिक धन-प्राप्ति के मदों में लगाते हैं। होटल बनाते हैं, मॉल बनाते हैं, कंपनियों के हिस्से ( शेयर) खरीदते हैं। मुष्किल से ८/१० पीढी पहले धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अतिरिक्त धन संचय होने पर उस से लोग धर्मशालाएं, अन्नछत्र, कुएँ बनवाना आदि लोकहित के काम करवाते थे।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोग अधिक पैसे का संचय होने पर इस अतिरिक्त धन को और अधिक धन-प्राप्ति के मदों में लगाते हैं। होटल बनाते हैं, मॉल बनाते हैं, कंपनियों के हिस्से ( शेयर) खरीदते हैं। मुष्किल से ८/१० पीढी पहले धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अतिरिक्त धन संचय होने पर उस से लोग धर्मशालाएं, अन्नछत्र, कुएँ बनवाना आदि लोकहित के काम करवाते थे।
# वर्तमान प्रतिमान में प्रकृति का प्रदूषण यह बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। लेकिन अधार्मिक (अधार्मिक) सोच होने से हम भूमि, जल और वायु के प्रदूषण की ही बात करते रहते हैं। धार्मिक (धार्मिक) दृष्टी से तो प्रकृति अष्टधा होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये तीन महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलकर प्रकृति बनती है। प्रदूषण का विचार इन आठों के सन्दर्भ में होने की आवश्यकता है। विशेषत: मन और बुद्धि का प्रदूषण ही वास्तव में समूची समस्या की जड़ में हैं। इन का प्रदूषण दूर करने से सभी प्रदूषण दूर हो जायंगे। इसके लिए वायू, पृथ्वि, अग्नि, वरूण आदि देवता हैं ऐसे संस्कार करने होंगे। इन के प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हमारे (तथाकथित सेक्युलर) अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में ऐसा कहना असंवैधानिक माना जाएगा।
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# वर्तमान प्रतिमान में प्रकृति का प्रदूषण यह बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। लेकिन अधार्मिक (अधार्मिक) सोच होने से हम भूमि, जल और वायु के प्रदूषण की ही बात करते रहते हैं। धार्मिक (धार्मिक) दृष्टी से तो प्रकृति अष्टधा होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये तीन महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलकर प्रकृति बनती है। प्रदूषण का विचार इन आठों के सन्दर्भ में होने की आवश्यकता है। विशेषत: मन और बुद्धि का प्रदूषण ही वास्तव में समूची समस्या की जड़़ में हैं। इन का प्रदूषण दूर करने से सभी प्रदूषण दूर हो जायंगे। इसके लिए वायू, पृथ्वि, अग्नि, वरूण आदि देवता हैं ऐसे संस्कार करने होंगे। इन के प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हमारे (तथाकथित सेक्युलर) अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में ऐसा कहना असंवैधानिक माना जाएगा।
    
== वर्तमान प्रतिमान और धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में तात्विक अन्तर ( संक्षेप में) ==
 
== वर्तमान प्रतिमान और धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में तात्विक अन्तर ( संक्षेप में) ==
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# वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी धार्मिक (धार्मिक) 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
 
# वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी धार्मिक (धार्मिक) 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
 
# हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।   
 
# हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।   
# इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगोंं में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगोंं से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।  
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# इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगोंं में जड़ता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगोंं से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।  
 
# इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।   
 
# इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।   
 
# धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।  
 
# धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।  

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