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# वर्तमान प्रतिमान ने हमारे लिये संपर्क भाषा की भी गंभीर समस्या निर्माण कर रखी है। अंग्रेजपूर्व भारत में अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, पुण्यार्जन आदि तक सीमित थे। नौकरी का तो चलन ही नहीं था। मनोरंजन के लिये अटन करनेवाले लोगोंं की संख्या नगण्य थी। संस्कृत भाषा के जानकारों के लिये तो संपर्क भाषा की समस्या लगभग थी ही नहीं। वर्तमान प्रतिमान में अधिक से अधिक पैसे के लिये सभी लोग नौकरी करते हैं। काम के स्वरूप का वर्ण (स्वभाव) से कोई सम्बन्ध  नहीं होता। इस लिये काम बोझ लगता है। मनोरंजन अनिवार्य हो जाता है। इस कारण अटन करने का प्रमाण बहुत अधिक हो गया है। अब करोडों की संख्या में लोग एक भाषिक प्रांत से निकलकर दूसरे भाषिक प्रान्त में नौकरी या उद्योग के लिए जाते हैं। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा के कारण पैदा होने वाली गुलामी की मानसिकता इस समस्या को और बढावा देती है। इस प्रतिमान में भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी जैसी निकृष्ट भाषा श्रेष्ठ धार्मिक (धार्मिक) भाषाओं को नष्ट कर रही है और नष्ट कर के रहेगी।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने हमारे लिये संपर्क भाषा की भी गंभीर समस्या निर्माण कर रखी है। अंग्रेजपूर्व भारत में अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, पुण्यार्जन आदि तक सीमित थे। नौकरी का तो चलन ही नहीं था। मनोरंजन के लिये अटन करनेवाले लोगोंं की संख्या नगण्य थी। संस्कृत भाषा के जानकारों के लिये तो संपर्क भाषा की समस्या लगभग थी ही नहीं। वर्तमान प्रतिमान में अधिक से अधिक पैसे के लिये सभी लोग नौकरी करते हैं। काम के स्वरूप का वर्ण (स्वभाव) से कोई सम्बन्ध  नहीं होता। इस लिये काम बोझ लगता है। मनोरंजन अनिवार्य हो जाता है। इस कारण अटन करने का प्रमाण बहुत अधिक हो गया है। अब करोडों की संख्या में लोग एक भाषिक प्रांत से निकलकर दूसरे भाषिक प्रान्त में नौकरी या उद्योग के लिए जाते हैं। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा के कारण पैदा होने वाली गुलामी की मानसिकता इस समस्या को और बढावा देती है। इस प्रतिमान में भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी जैसी निकृष्ट भाषा श्रेष्ठ धार्मिक (धार्मिक) भाषाओं को नष्ट कर रही है और नष्ट कर के रहेगी।
 
# वर्तमान प्रतिमान में न्याय व्यवस्था में 'सत्य' की धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की व्याख्या 'यद्भूतहितं अत्यंत' नहीं चल सकती। इस प्रतिमान में सत्य की व्याख्या 'जो साक्ष और प्रमाणों से सामने आया है' ऐसी बन गई है। शासन की, गुंडों की, पैसे की और बुध्दिमत्ता की शक्तियाँ साक्ष और प्रमाणों को तोडने मरोडने की क्षमता रखतीं हैं। इसलिये वर्तमान प्रतिमान में सत्य और न्याय भी बलवानों के आश्रित बन जाते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में न्याय व्यवस्था में 'सत्य' की धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की व्याख्या 'यद्भूतहितं अत्यंत' नहीं चल सकती। इस प्रतिमान में सत्य की व्याख्या 'जो साक्ष और प्रमाणों से सामने आया है' ऐसी बन गई है। शासन की, गुंडों की, पैसे की और बुध्दिमत्ता की शक्तियाँ साक्ष और प्रमाणों को तोडने मरोडने की क्षमता रखतीं हैं। इसलिये वर्तमान प्रतिमान में सत्य और न्याय भी बलवानों के आश्रित बन जाते हैं।
# वर्तमान प्रतिमान में शासन, वह किंग का हो या लोकतन्त्रात्मक हो, सर्वसत्ताधीश होता है। लेकिन यह सरकार सर्व सक्षम नहीं होती। सत्ता के विषय में कहा गया है - 'पॉवर करप्ट्स् एँड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स् अब्सोल्यूटली' (power corrupts and absolute power corrupts absolutely) यानी सत्ता होती है तो आचार भ्रष्ट होता ही है और सत्ता यदि निरंकुश है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में भौतिक सत्ता हमेशा धर्मसत्ता से नियमित होती है, इस लिये वह बिगडने की सम्भावनाएँ अत्यंत कम होती है।
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# वर्तमान प्रतिमान में शासन, वह किंग का हो या लोकतन्त्रात्मक हो, सर्वसत्ताधीश होता है। लेकिन यह सरकार सर्व सक्षम नहीं होती। सत्ता के विषय में कहा गया है - 'पॉवर करप्ट्स् एँड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स् अब्सोल्यूटली' (power corrupts and absolute power corrupts absolutely) यानी सत्ता होती है तो आचार भ्रष्ट होता ही है और सत्ता यदि निरंकुश है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में भौतिक सत्ता सदा धर्मसत्ता से नियमित होती है, इस लिये वह बिगडने की सम्भावनाएँ अत्यंत कम होती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगोंं के मन जीतता है, लोगोंं के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक (धार्मिक) लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगोंं के मन जीतता है, लोगोंं के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक (धार्मिक) लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक कानूनी मुकदमे में एक पक्ष सत्य का होता है। दूसरा पक्ष तो असत्य का ही होता है। दोनों पक्षों की ओर से वकील पैरवी करते हैं। यानी दोनों वकीलों में से एक वकील असत्य की जीत के लिये प्रयास करता है। इस का अर्थ यह है की कुल मिलाकर इस प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में ५० प्रतिशत वकील हमेशा सत्य को झूठ और झूठ को सत्य सिध्द करने में अपनी बुद्धि का उपयोग करता है। यह न्याय व्यवस्था है या अन्याय व्यवस्था? धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में मुकदमों के लम्बित होने से लाभान्वित होने वाला और इस लिये लम्बित करने में प्रयत्नशील और झूठ को सत्य तथा सत्य को झूठ सिध्द करने वाला वकील नहीं होता। सात्विक वृत्ति का निर्भय, नि:स्वार्थी, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र जानने वाला न्यायाधीश ही दोनों पक्षों का अध्ययन कर सत्य को स्थापित करता है।
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# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक कानूनी मुकदमे में एक पक्ष सत्य का होता है। दूसरा पक्ष तो असत्य का ही होता है। दोनों पक्षों की ओर से वकील पैरवी करते हैं। यानी दोनों वकीलों में से एक वकील असत्य की जीत के लिये प्रयास करता है। इस का अर्थ यह है की कुल मिलाकर इस प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में ५० प्रतिशत वकील सदा सत्य को झूठ और झूठ को सत्य सिध्द करने में अपनी बुद्धि का उपयोग करता है। यह न्याय व्यवस्था है या अन्याय व्यवस्था? धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में मुकदमों के लम्बित होने से लाभान्वित होने वाला और इस लिये लम्बित करने में प्रयत्नशील और झूठ को सत्य तथा सत्य को झूठ सिध्द करने वाला वकील नहीं होता। सात्विक वृत्ति का निर्भय, नि:स्वार्थी, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र जानने वाला न्यायाधीश ही दोनों पक्षों का अध्ययन कर सत्य को स्थापित करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
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जमाने के साथ चलना चाहिए, आजकल साईंस का ज़माना है, आजकल ज्ञानाधारित समाज का ज़माना है, आधुनिकता आदि शब्द प्रयोग युगानुकूल याने आज जैसा युग है उसके अनुकूल जीने के लिए उपयोग में किये जाते हैं। हमारा व्यवहार युगानुकूल होना चाइये ऐसा कहना ठीक ही है। लेकिन किसी बात का वर्तमान में चलन होना ही मात्र युगानुकूलता की कसौटी नहीं है। कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करेंगे  
 
जमाने के साथ चलना चाहिए, आजकल साईंस का ज़माना है, आजकल ज्ञानाधारित समाज का ज़माना है, आधुनिकता आदि शब्द प्रयोग युगानुकूल याने आज जैसा युग है उसके अनुकूल जीने के लिए उपयोग में किये जाते हैं। हमारा व्यवहार युगानुकूल होना चाइये ऐसा कहना ठीक ही है। लेकिन किसी बात का वर्तमान में चलन होना ही मात्र युगानुकूलता की कसौटी नहीं है। कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करेंगे  
 
# वस्त्रों की आवश्यकता मुख्यत: वातावरण की विषमताओं से सुरक्षा और लज्जा रक्षण के लिए किया जाता है। लज्जा रक्षण के वस्त्रों से तात्पर्य है जिनमें आपको देखकर किसी के मन में कामवासना न जागे। वस्त्रों का रंगरूप, वस्त्रों में नवाचार यह वर्तमान में जो भी प्रचलित है उस के हिसाब से हो सकता है। जबतक वातावरण से सुरक्षा और लज्जा रक्षण होता है तबतक किसी भी प्रकार के वस्त्र युगानुकूल हो सकते हैं।  
 
# वस्त्रों की आवश्यकता मुख्यत: वातावरण की विषमताओं से सुरक्षा और लज्जा रक्षण के लिए किया जाता है। लज्जा रक्षण के वस्त्रों से तात्पर्य है जिनमें आपको देखकर किसी के मन में कामवासना न जागे। वस्त्रों का रंगरूप, वस्त्रों में नवाचार यह वर्तमान में जो भी प्रचलित है उस के हिसाब से हो सकता है। जबतक वातावरण से सुरक्षा और लज्जा रक्षण होता है तबतक किसी भी प्रकार के वस्त्र युगानुकूल हो सकते हैं।  
# आत्मिक सुख की सर्वोच्चता : इसी प्रकार से सुख के भिन्न भिन्न स्तर तो हमेशा ही रहेंगे। किसे किस प्रकार के सुख की अभिलाषा है वह अन्य कोई तय नहीं करेगा। लेकिन सुख प्राप्ति के मार्ग भिन्न हो सकते हैं। वह पूर्व काल से वर्तमान में भिन्न भी हो सकते हैं। जैसे कभी भारत में नाटक मंडलियाँ नाटक प्रस्तुत करतीं थीं। उस का स्थान यदि ड्रामा अकेडमी के नाम से तामझाम से प्रस्तुति होती है, वातानुकूलित भवन में होती है तो उसमें कोई आपत्ति लेने का कारण नहीं है।  
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# आत्मिक सुख की सर्वोच्चता : इसी प्रकार से सुख के भिन्न भिन्न स्तर तो सदा ही रहेंगे। किसे किस प्रकार के सुख की अभिलाषा है वह अन्य कोई तय नहीं करेगा। लेकिन सुख प्राप्ति के मार्ग भिन्न हो सकते हैं। वह पूर्व काल से वर्तमान में भिन्न भी हो सकते हैं। जैसे कभी भारत में नाटक मंडलियाँ नाटक प्रस्तुत करतीं थीं। उस का स्थान यदि ड्रामा अकेडमी के नाम से तामझाम से प्रस्तुति होती है, वातानुकूलित भवन में होती है तो उसमें कोई आपत्ति लेने का कारण नहीं है।  
    
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==

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