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भावार्थ : मेरी बुध्दि को तो पता था की धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।  
 
भावार्थ : मेरी बुध्दि को तो पता था की धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।  
 
अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है । इस के पाँच चरण होते है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार । दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है । इस के तीन चरण है । धारणा, ध्यान और समाधी । इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है । जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंसजीने किया था । बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है । अष्टांग योग के भी दो प्रकार है । पहला है सहजयोग या राजयोग दूसरा है हठयोग । हठयोग में साँसपर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है । इसलिये हठयोग अरुणावस्थातक वर्जित माना जाता है । विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार । सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही ।  
 
अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है । इस के पाँच चरण होते है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार । दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है । इस के तीन चरण है । धारणा, ध्यान और समाधी । इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है । जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंसजीने किया था । बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है । अष्टांग योग के भी दो प्रकार है । पहला है सहजयोग या राजयोग दूसरा है हठयोग । हठयोग में साँसपर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है । इसलिये हठयोग अरुणावस्थातक वर्जित माना जाता है । विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार । सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही ।  
बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है । इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नही है । बहिरंग योग में भी यम, (सामाजिक वर्तनसूत्र) और नियम (व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य ऐसे विषय है । इन के सुयोग्य विकास के आधारपर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है । किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है । इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता । यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगप्रर व्यक्तित्व का विकास । यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते है ज्ञानदेव नही । यम, नियमों की मदद से मनुष्य सदाचारी बनता है । सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है । आसन और प्राणायाम की मदद से श्रेष्ठ शारिरिक क्षमताएं विकसित होती है । और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है ।  
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बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है । इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नही है । बहिरंग योग में भी यम, (सामाजिक वर्तनसूत्र) और नियम (व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य ऐसे विषय है । इन के सुयोग्य विकास के आधारपर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है । किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है । इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता । यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगप्रर व्यक्तित्व का विकास । यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते है ज्ञानदेव नही । यम, नियमों की मदद से मनुष्य सदाचारी बनता है । सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है । आसन और प्राणायाम की मदद से श्रेष्ठ शारिरिक क्षमताएं विकसित होती है । और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है ।
  यम पांच है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । सामान्यत: प्रत्येक यम का उपयोग सामाजिक संबंधों के लिये है ।  
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सत्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म से सत्य व्यवहार । सत्यनिष्ठा का अर्थ है सत्य के लिये कीमत चुकाने की मानसिकता । मेरा अहित होगा यह जानकर भी जब मै सत्य व्यवहार करता हूं तो मै सत्यनिष्ठ हूं । यही सत्यनिष्ठा की कसौटी है ।  
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यम पांच है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । सामान्यत: प्रत्येक यम का उपयोग सामाजिक संबंधों के लिये है ।
अहिंसा का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी को दुख नही देना । किसी का अहित नही करना । .  
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अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना । मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा । ऐसा दृढनिश्चय । सडकपर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है । मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है । भ्रष्टाचार तो डकैती है । भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है ।  
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सत्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म से सत्य व्यवहार । सत्यनिष्ठा का अर्थ है सत्य के लिये कीमत चुकाने की मानसिकता । मेरा अहित होगा यह जानकर भी जब मै सत्य व्यवहार करता हूं तो मै सत्यनिष्ठ हूं । यही सत्यनिष्ठा की कसौटी है ।  
अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना । अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना । मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है ।  
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अहिंसा का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी को दुख नही देना । किसी का अहित नही करना । .  
ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरूष संबंधोंतक यह सीमित नहीं है । उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मनपर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट होसकता है ।   
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अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना । मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा । ऐसा दृढनिश्चय । सडकपर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है । मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है । भ्रष्टाचार तो डकैती है । भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है ।  
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं   संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥ एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन: विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम्      
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अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना । अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना । मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है ।  
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ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरूष संबंधोंतक यह सीमित नहीं है । उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मनपर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट होसकता है ।   
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स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥
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एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:। विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम् ॥
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अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने क ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषय्वस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है । इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य ।
 
अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने क ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषय्वस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है । इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य ।
नियम भी पांच है । शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ।  
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नियम भी पांच है । शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ।  
शौच का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता । अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुध्दि चित्त की शुध्दता से है । बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुध्दता ।
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शौच का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता । अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुध्दि चित्त की शुध्दता से है । बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुध्दता ।
संतोष का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता । किन्तु भगवान होग तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरूषार्थ का शत्रू नहीं है । पराकोटी का पुरूषार्थ करो । लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होणा, इसी को ही संतोष कहते है । .   
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संतोष का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता । किन्तु भगवान होग तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरूषार्थ का शत्रू नहीं है । पराकोटी का पुरूषार्थ करो । लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होणा, इसी को ही संतोष कहते है । .   
तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना । तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुध्दि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है । तप केवल हिमालय चढनेवाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है ।  
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तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना । तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुध्दि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है । तप केवल हिमालय चढनेवाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है ।  
स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत । स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना । अपनी बुध्दि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना । फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना । पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था । इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था । कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था । स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था ।   
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नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा ।  
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स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत । स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना । अपनी बुध्दि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना । फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना । पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था । इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था । कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था । स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था ।   
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
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नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा ।  
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ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
 
जगत में जड और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है ।
 
जगत में जड और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है ।
 
ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुवा और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टी एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान ।   
 
ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुवा और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टी एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान ।   
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