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→‎८.३ वसुधैव कुटुंबकम्: लेख सम्पादित किया
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==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
 
==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
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गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधि करने की प्रथा थी । इस विधि में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है कि दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुआ । और कलियुग में सृष्टि केवल दानपर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देनेवाला देता जाए । लेनेवाला लेता जाए । लेनेवाला एक दिन देनेवाले के देनेवाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरुषार्थ की पराकाष्टा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं इस भावना से करो ।  
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भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देनेवाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
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कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुआ । और कलियुग में सृष्टि केवल दान पर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देने वाला देता जाए । लेने वाला लेता जाए । लेने वाला एक दिन देने वाले के देने वाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब "मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं" इस भावना से करो ।
दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी ।
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१० माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या :
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भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देने वाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
अति प्राचीन काल से भारतीय समाज सृष्टि के अत्यंत उपकारी घटकों को माता के रूप में देखता आया है । जिन के बारे में हमें प्यार, आत्मीयता, मन की निकटता और आदर होता है ऐसे सभी घटकों को ‘माता कहते है । वेद वचन है - माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या:।‘ मेरी प्यारी, मेरे सभी प्रमादों को क्षमा करनेवाली, मेरी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाली  यह भूमि मेरी माता है। और मै उस का पुत्र (पुत्रि) हूं। इसीलिये हम कहते है भारत हमारी माता है । गाय हमारी माता है । तुलसी हमारी माता है । गंगा (या स्थानिक नदी भी) हमारी माता है ।  महाराष्ट्र में तो संतों को भी माता या माऊलि कहा जाता है । ज्ञानदेव माऊलि, तुकाराम माऊलि आदि ।
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११ अष्टांग योग  
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दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी ।
गतिमानता तो जगत का नियम है । गति करता है इसीलिये जगत कहलाता है । किन्तु वर्तमान में मानव जीवन ने जो गति प्राप्त की है वह उसे तेजी से आत्मनाश की ओर ले जा रही है । ऐसी स्थिति में संयम की पहले कभी भी नही थी इतनी आवश्यकता निर्माण हो गई है
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संयम का अर्थ है इंद्रीय निग्रह । वासनाओंपर नियंत्रण । वासनाओं को दबाना भिन्न बात है । मनपर संयम निर्माण करने के लिये अपने पूर्वज पतंजली मुनी ने भारतीय चिंतन से ‘अष्टांग योग’ नामक एक अपूर्व ऐसी भेंट जगत को दी है । मानव व्यक्तित्व के पांच प्रमुख घटक होते है । शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त ये वे पांच घटक है । ये पांच तत्व प्रत्येक मनुष्य के भिन्न होते है। इन के माध्यम से जब परमात्मा अपने को अभिव्यक्त करता है तो वह इकाई व्यक्ति कहलाती है । और उस का रूप-लक्षण व्यक्तित्व कहलाता है । यह पाश्चात्य संकल्पना पर्सनॅलिटी (मुखौटा) से भिन्न संकल्पना है । पर्सनॅलिटी में मुखौटा अर्थात् दिखता कैसा है, यह महत्वपूर्ण है, बाहरी व्यवहार से, शिष्टाचार से संबंध है । व्यक्तित्व में अंतर्बाह्य कैसा है इसे महत्व है । संस्कार कैसे हैं इसे महत्व है ।
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=== १० माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या ===
जिस की बुध्दि का नियंत्रण मनपर, मन का नियंत्रण इंद्रियोंपर और इंद्रियों का शरीरपर नियंत्रण होता है उस का व्यक्तित्व विकसित माना जाता है । ऐसा होने से व्यक्तिगत और समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है । किन्तु सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति इस के बराबर विपरीत होती है । उस के शरीर का नियंत्रण इंद्रियोंपर, इंद्रियों का मनपर, और मन का बुध्दिपर होता है । व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इस से अव्यवस्थित हो जाता है । ऐसा ना हो इसीलिये व्यक्तित्व के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये ‘अष्टांग योग’ की प्रस्तुति हुई है ।  
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अति प्राचीन काल से भारतीय समाज सृष्टि के अत्यंत उपकारी घटकों को माता के रूप में देखता आया है । जिन के बारे में हमें प्यार, आत्मीयता, मन की निकटता और आदर होता है ऐसे सभी घटकों को ‘माता कहते है । वेद वचन है - माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या:।‘ मेरी प्यारी, मेरे सभी प्रमादों को क्षमा करनेवाली, मेरी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाली  यह भूमि मेरी माता है। और मै उस का पुत्र (पुत्री ) हूँ ।
योग भी अपने आप में सदाचार से जीने के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक संपूर्ण जीवनदर्शन है ।  
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भारतीय मान्यता के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के चार प्रमुख मार्ग है । ज्ञानमार्ग, निष्काम कर्म मार्ग, भक्तिमार्ग और अष्टांग योग मार्ग । इन में योगमार्ग सबसे कठिन लेकिन शीघ्र मोक्षगामी बनानेवाला मार्ग है । पूर्व कर्मों के फलों को नष्ट करने की संभावनाएं अन्य तीन मार्गों में नहीं है। किन्तु इस का लाभ केवल मोक्षप्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को ही होता है ऐसा नहीं है । योग के दो हिस्से है । बहिरंग योग और अंतरंग योग । इन में से बहिरंग योग का लाभ तो समाज के हर घटक को हर अवस्था में मिल सकता है। योगिक साधना से ज्ञानार्जन के करण और अंत:करण के घटकों का विकास किया जा सकता है। इसीलिये योग विषय का शिक्षा की दृष्टि से अनन्य साधारण महत्व है ।   
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इसीलिये हम कहते है भारत हमारी माता है । गाय हमारी माता है । तुलसी हमारी माता है । गंगा (या स्थानिक नदी भी) हमारी माता है ।  महाराष्ट्र में तो संतों को भी माता या माऊलि कहा जाता है । ज्ञानदेव माऊलि, तुकाराम माऊलि आदि ।
मन की शिक्षा यह शिक्षा का प्रमुख और प्राथमिक अंग है । स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘मुझे यदि फिर से शिक्षा का अवसर मिले और क्या सीखना चाहिये यह निर्णय भी मेरे हाथ में हो तो मै सर्वप्रथम अपने मन को नियंत्रित करने की शिक्षा प्राप्त करूंगा । बाद में तय करूंगा की अन्य काप्रन सी जानकारी मुझे चाहिये ।‘ और मन की शिक्षा के लिये वर्त्तमान में योग जितना प्रभावी मार्ग नहीं है ।
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श्रेष्ठ शिक्षा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि -
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=== ११ अष्टांग योग ===
साक्षरा विपरिताश्चेत राक्षसा एव केवलम् । सरसो विपरितश्चेत सरसत्वं न मुंचते ॥
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गतिमानता तो जगत का नियम है । गति करता है इसीलिये जगत कहलाता है । किन्तु वर्तमान में मानव जीवन ने जो गति प्राप्त की है वह उसे तेजी से आत्मनाश की ओर ले जा रही है । ऐसी स्थिति में संयम की पहले कभी भी नही थी इतनी आवश्यकता निर्माण हो गई है ।संयम का अर्थ है इन्द्रिय निग्रह । वासनाओं पर नियंत्रण । वासनाओं को दबाना भिन्न बात है । मन पर संयम निर्माण करने के लिये अपने पूर्वज पतंजलि मुनि ने भारतीय चिंतन से ‘अष्टांग योग’ नामक एक अपूर्व ऐसी भेंट जगत को दी है । मानव व्यक्तित्व के पांच प्रमुख घटक होते है । शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त ये वे पांच घटक है । ये पांच तत्व प्रत्येक मनुष्य के भिन्न होते है। इन के माध्यम से जब परमात्मा अपने को अभिव्यक्त करता है तो वह इकाई व्यक्ति कहलाती है । और उस का रूप-लक्षण व्यक्तित्व कहलाता है । यह पाश्चात्य संकल्पना पर्सनॅलिटी (मुखौटा) से भिन्न संकल्पना है । पर्सनॅलिटी में मुखौटा अर्थात् दिखता कैसा है, यह महत्वपूर्ण है, बाहरी व्यवहार से, शिष्टाचार से संबंध है ।  
भावार्थ : मनुष्य शिक्षण के द्वारा केवल साक्षर हुआ होगा तब विपरीत परिस्थिती में उस में छिपा हीन भाव ही प्रकट होगा। राक्षस ही प्रकट होगा। किन्तु उसे यदि मन की शिक्षा मिली है, उस का मन सुसंस्कृत हुआ है तो वह विपरीत परिस्थिती में भी अपने संस्कार नही छोडेगा ।
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संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है -  
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व्यक्तित्व में अंतर्बाह्य कैसा है इसे महत्व है । संस्कार कैसे हैं इसे महत्व है । जिस की बुध्दि का नियंत्रण मन पर, मन का नियंत्रण इंद्रियों पर और इंद्रियों का शरीर पर नियंत्रण होता है उस का व्यक्तित्व विकसित माना जाता है । ऐसा होने से व्यक्तिगत और समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है । किन्तु सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति इस के बराबर विपरीत होती है । उस के शरीर का नियंत्रण इंद्रियों पर, इंद्रियों का मन पर, और मन का बुध्दि पर होता है । व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इस से अव्यवस्थित हो जाता है । ऐसा ना हो इसीलिये व्यक्तित्व के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये ‘अष्टांग योग’ की प्रस्तुति हुई है ।
मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर ।  किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥  
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युधिष्ठिरने जब दुर्योधन से पूछा,' अरे ! तू इतना बुध्दिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्याप्त रहा ? ' । उत्तर में दूर्योधन कहता है - जानामि धर्मं नच मे प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं नच मे निवृत्ती: ॥
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योग भी अपने आप में सदाचार से जीने के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक संपूर्ण जीवनदर्शन है ।  
भावार्थ : मेरी बुध्दि को तो पता था की धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।  
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अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है । इस के पाँच चरण होते है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार । दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है । इस के तीन चरण है । धारणा, ध्यान और समाधी । इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है । जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंसजीने किया था । बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है । अष्टांग योग के भी दो प्रकार है । पहला है सहजयोग या राजयोग दूसरा है हठयोग । हठयोग में साँसपर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है । इसलिये हठयोग अरुणावस्थातक वर्जित माना जाता है । विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार । सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही ।  
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भारतीय मान्यता के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के चार प्रमुख मार्ग है । ज्ञानमार्ग, निष्काम कर्म मार्ग, भक्तिमार्ग और अष्टांग योग मार्ग । इन में योगमार्ग सबसे कठिन लेकिन शीघ्र मोक्षगामी बनाने वाला मार्ग है । पूर्व कर्मों के फलों को नष्ट करने की संभावनाएं अन्य तीन मार्गों में नहीं है। किन्तु इस का लाभ केवल मोक्षप्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को ही होता है ऐसा नहीं है । योग के दो हिस्से है । बहिरंग योग और अंतरंग योग । इन में से बहिरंग योग का लाभ तो समाज के हर घटक को हर अवस्था में मिल सकता है। योगिक साधना से ज्ञानार्जन के करण और अंत:करण के घटकों का विकास किया जा सकता है। इसीलिये योग विषय का शिक्षा की दृष्टि से अनन्य साधारण महत्व है ।   
बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है । इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नही है । बहिरंग योग में भी यम, (सामाजिक वर्तनसूत्र) और नियम (व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य ऐसे विषय है । इन के सुयोग्य विकास के आधारपर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है । किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है । इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता । यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगप्रर व्यक्तित्व का विकास । यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते है ज्ञानदेव नही । यम, नियमों की मदद से मनुष्य सदाचारी बनता है । सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है । आसन और प्राणायाम की मदद से श्रेष्ठ शारिरिक क्षमताएं विकसित होती है । और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है ।
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मन की शिक्षा यह शिक्षा का प्रमुख और प्राथमिक अंग है । स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘मुझे यदि फिर से शिक्षा का अवसर मिले और क्या सीखना चाहिये यह निर्णय भी मेरे हाथ में हो तो मै सर्वप्रथम अपने मन को नियंत्रित करने की शिक्षा प्राप्त करूंगा । बाद में तय करूंगा की अन्य कौन सी जानकारी मुझे चाहिये ।‘ और मन की शिक्षा के लिये वर्तमान में योग जैसा प्रभावी मार्ग नहीं है । श्रेष्ठ शिक्षा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि:<blockquote>साक्षरा विपरिताश्चेत राक्षसा एव केवलम् । सरसो विपरितश्चेत सरसत्वं न मुंचते ॥</blockquote>भावार्थ : मनुष्य शिक्षण के द्वारा केवल साक्षर हुआ होगा तब विपरीत परिस्थिति में उस में छिपा हीन भाव ही प्रकट होगा। राक्षस ही प्रकट होगा। किन्तु उसे यदि मन की शिक्षा मिली है, उस का मन सुसंस्कृत हुआ है तो वह विपरीत परिस्थिती में भी अपने संस्कार नही छोडेगा ।
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संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है - <blockquote>मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर ।  किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥</blockquote>कृष्ण ने जब दुर्योधन से पूछा,' अरे ! तू इतना बुध्दिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा ? ' ।  
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उत्तर में दुर्योधन कहता है - जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं नच मे निवृत्ती: ॥
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भावार्थ : मेरी बुध्दि को तो पता था कि धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।
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अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है । इस के पाँच चरण होते है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ।  
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दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है । इस के तीन चरण है । धारणा, ध्यान और समाधि
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इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है । जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस जीने किया था । बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है ।  
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अष्टांग योग के भी दो प्रकार है । पहला है सहज योग या राजयोगदूसरा है हठयोग । हठयोग में साँस पर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है । इसलिये हठयोग अरुणावस्था तक वर्जित माना जाता है । विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार । सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही ।
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बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है । इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नही है । बहिरंग योग में भी यम, (सामाजिक वर्तनसूत्र) और नियम (व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य विषय है । इन के सुयोग्य विकास के आधार पर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है । किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है । इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता । यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगैर व्यक्तित्व का विकास । यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते है ज्ञानदेव नही । यम, नियमों की मदद से मनुष्य सदाचारी बनता है । सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है । आसन और प्राणायाम की मदद से श्रेष्ठ शारिरिक क्षमताएं विकसित होती है । और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है ।
 
   
 
   
 
यम पांच है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । सामान्यत: प्रत्येक यम का उपयोग सामाजिक संबंधों के लिये है ।
 
यम पांच है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । सामान्यत: प्रत्येक यम का उपयोग सामाजिक संबंधों के लिये है ।
 
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* '''सत्य''' का अर्थ है मन, वचन और कर्म से सत्य व्यवहार । सत्यनिष्ठा का अर्थ है सत्य के लिये कीमत चुकाने की मानसिकता । मेरा अहित होगा यह जानकर भी जब मै सत्य व्यवहार करता हूं तो मै सत्यनिष्ठ हूं । यही सत्यनिष्ठा की कसौटी है ।
सत्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म से सत्य व्यवहार । सत्यनिष्ठा का अर्थ है सत्य के लिये कीमत चुकाने की मानसिकता । मेरा अहित होगा यह जानकर भी जब मै सत्य व्यवहार करता हूं तो मै सत्यनिष्ठ हूं । यही सत्यनिष्ठा की कसौटी है ।  
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* '''अहिंसा''' का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी को दुख नही देना । किसी का अहित नही करना ।
अहिंसा का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी को दुख नही देना । किसी का अहित नही करना । .
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* '''अस्तेय''' का अर्थ है चोरी नहीं करना । मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा । ऐसा दृढनिश्चय । सडक पर मिली वस्तु भी मेरे लिये वर्जित है । मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है । भ्रष्टाचार तो डकैती है । भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है ।
अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना । मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा । ऐसा दृढनिश्चय । सडकपर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है । मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है । भ्रष्टाचार तो डकैती है । भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है ।  
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* '''अपरिग्रह''' का अर्थ है संचय नहीं करना । अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना । मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है।
अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना । अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना । मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है ।
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* '''ब्रह्मचर्य''' का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरुष संबंधों तक यह सीमित नहीं है । उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मन पर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट हो सकता है ।
ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरुष संबंधोंतक यह सीमित नहीं है । उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मनपर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट होसकता है ।
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** स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥ एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:। विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम् ॥
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥
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** अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तु की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तु का दर्शन, विषयवस्तु की चर्चा, विषयवस्तु की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तु पाने का प्रयत्न और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषय्वस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है । इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य ।
एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:। विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम् ॥
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अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने क ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषय्वस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है । इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य ।
   
नियम भी पांच है । शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ।  
 
नियम भी पांच है । शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ।  
शौच का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता । अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुध्दि चित्त की शुध्दता से है । बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुध्दता ।
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* '''शौच''' का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता । अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुध्दि चित्त की शुध्दता से है । बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुध्दता ।  
संतोष का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता । किन्तु भगवान होग तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरुषार्थ का शत्रू नहीं है । पराकोटी का पुरुषार्थ करो । लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होणा, इसी को ही संतोष कहते है । .  
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* '''संतोष''' का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता । किन्तु भगवान होगा तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरुषार्थ का शत्रू नहीं है । पराकोटी का पुरुषार्थ करो । लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होना, इसी को ही संतोष कहते है ।  
तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना । तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुध्दि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है । तप केवल हिमालय चढनेवाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है ।  
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* '''तपस''' का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना । तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुध्दि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है । तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है
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* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत । स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना । अपनी बुध्दि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना । फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना । पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था । इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था । कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था । स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था । नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा ।
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* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है । ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान ।  
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स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत । स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना । अपनी बुध्दि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना । फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना । पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था । इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था । कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था । स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था । 
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=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा ।
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अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।
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जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है ।
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ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान । 
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१२ एकात्म जीवनदृष्टि  
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अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
   
इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहें की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता ।
 
इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहें की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता ।
 
१३ आत्मवत् सर्वभूतेषू
 
१३ आत्मवत् सर्वभूतेषू
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पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी । किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है ।  
 
पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी । किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है ।  
 
शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है । ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है । वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन भारतीय ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी । यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है । हमारे भारतीय पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है । इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी ।   
 
शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है । ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है । वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन भारतीय ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी । यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है । हमारे भारतीय पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है । इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी ।   
वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है । कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।
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वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है । कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।  
    
अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे ।
 
अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे ।
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