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→‎१२ एकात्म जीवनदृष्टि: लेख सम्पादित किया
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=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
 
=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
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एकात्म जीवनदृष्टि अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचर पर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पद्धति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणाली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहें की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता ।
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१३ आत्मवत् सर्वभूतेषू
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इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता ।  
पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है । इसी भारतीय मान्यता के आधारपर यह वर्तनसूत्र बना है । मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़ चेतन सभी परमर्मतत्व ही है । इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों की ओर से अपेक्षा है । और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता । यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है । इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है । एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है । मनवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है । इस सूत्र का उपयोग करने की पध्दति समझना महत्वपूर्ण है ।  
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१३.१ समस्या की ठीक प्रस्तुति करें। जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है । किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है । कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है । कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है । समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है । इसलिये मूल समस्या है वधू के पितापर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव ।  
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=== १३ आत्मवत् सर्वभूतेषू ===
१३,२ दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है । दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है ।  
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पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है । इसी भारतीय मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है । मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है । इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है । और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता ।
१३.३ अब उस पीडित के स्थानपर मै हूं, ऐसी कल्पना करिये । और बेटी के ससुरालवालों से मै कप्रसे व्यवहार की अपेक्षा करता हूं यह सोचिये । वरपक्ष की ओर से ऐसा दबाव मुझपर नहीं आए यही तो वधू का पिता सोचेगा !  
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१३.४ बस अब वरपक्ष के लोग आत्मवत् सर्वभूतेषू तत्व लगाएं । वधूपिता के स्थानपर वे हैं ऐसी कल्पना करें । वधूपिता के रूप में जैसी वरपक्ष से अपेक्षा होगी वप्रसी ही अपेक्षा वे प्रत्यक्ष में वधूपक्ष से रखें । अर्थात् वधूपिता की इच्छासे अधिक देने के लिये दबाव नही डालें । ऐसा दबाव नही डालना यह है मानवीय व्यवहार और वधूपिता की इच्छा के विपरीत अधिक देने के लिये दबाव डालना, यह है अमानवीय व्यवहार ।  
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यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है । इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है । एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है । मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है । इस सूत्र का उपयोग करने की पद्धति समझना महत्वपूर्ण है ।
यही सूत्र अब चोरी की समस्या के लिये लगाकर देखें। जिस की वस्तू या धन चोरी हो गया है वह है समस्या पीडित। चोर जब जिस के घर वह चोरी कर रहा है उस की भूमिका से विचार करेगा तब उसे लगेगा, मेरी मेहनत की कमाई को कोई चुराए नहीं । तो मै भी किसी की मेहनत की कमाई नहीं चुराऊं ।  
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* पहला चरण : समस्या की ठीक प्रस्तुति
अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं । इस समस्या में रिशवत देनेवाला समस्य-पीडित है । रिश्वत लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा । क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता ।  
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** जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है । किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है । कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है । कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है । समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है । इसलिये मूल समस्या है वधू के पिता पर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव ।
स्त्रीयों के साथ पुरुषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है । शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है । समस्या यह है की पुरुष स्त्री का सम्मान नही करता । जब पुरुष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह हमेशा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा । मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये । इसी को भारतीय संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू । हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है ।
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१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  
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* दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है ।
सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।  
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** दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है ।  
हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी रहता है । मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये । अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता । गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है । अन य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते । अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे । जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है । यह स्वाभाविक भी है । आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि । औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है । पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है ।  
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* अब उस पीडित के स्थानपर मै हूं, ऐसी कल्पना करिये । और बेटी के ससुरालवालों से मै कैसे व्यवहार की अपेक्षा करता हूं यह सोचिये । वरपक्ष की ओर से ऐसा दबाव मुझपर नहीं आए यही तो वधू का पिता सोचेगा !  
वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी भी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है ।  किन्तु वर्तमान भारतीय नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है । स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग । माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक ' । विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है । विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है ।  
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* बस अब वरपक्ष के लोग आत्मवत् सर्वभूतेषू तत्व लगाएं । वधू पिता के स्थानपर वे हैं ऐसी कल्पना करें । वधूपिता के रूप में जैसी वरपक्ष से अपेक्षा होगी वैसे ही अपेक्षा वे प्रत्यक्ष में वधूपक्ष से रखें । अर्थात् वधूपिता की इच्छा से अधिक देने के लिये दबाव नही डालें । ऐसा दबाव नही डालना यह है मानवीय व्यवहार और वधूपिता की इच्छा के विपरीत अधिक देने के लिये दबाव डालना, यह है अमानवीय व्यवहार ।  
उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वप्रसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बप्रठे रहना ठीक नहीं है ।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  ।
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यही सूत्र अब चोरी की समस्या के लिये लगाकर देखें। जिस की वस्तू या धन चोरी हो गया है वह है समस्या पीडित। चोर जब जिस के घर वह चोरी कर रहा है उस की भूमिका से विचार करेगा तब उसे लगेगा, मेरी मेहनत की कमाई को कोई चुराए नहीं । तो मै भी किसी की मेहनत की कमाई नहीं चुराऊं ।
१५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम्  
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कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तानपर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर बी यही पढ़ाया जा रहा है।
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अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं । इस समस्या में रिश्वत देनेवाला समस्य-पीडित है । रिश्वत लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा । क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता ।  
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स्त्रियों के साथ पुरुषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है । शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है । समस्या यह है की पुरुष स्त्री का सम्मान नही करता । जब पुरुष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह हमेशा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा । मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये । इसी को भारतीय संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू । हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है ।  
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=== १४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम् ===
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सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।
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हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी रहता है । मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये । अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता । गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है । अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते । अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे । जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है । यह स्वाभाविक भी है । आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि । औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है । पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है ।  
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वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है ।  किन्तु वर्तमान भारतीय नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है । स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग । माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक ' । विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है । विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है ।  
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उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वैसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बैठे हना ठीक नहीं है ।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  ।  
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=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
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कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तानपर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर बी यही पढ़ाया जा रहा है।
 
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है ।  
 
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है ।  
 
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी ।   
 
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी ।   
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