Changes

Jump to navigation Jump to search
Line 339: Line 339:     
=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
 
=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तानपर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर बी यही पढ़ाया जा रहा है।
+
कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर भी यही पढ़ाया जा रहा है।  
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है ।
  −
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी । 
  −
और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी । वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुआ है । इस का प्रभाव बहुत गहरा है । हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है । एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही । इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रहानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते ' । इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा । हम अभिमान से कह रहे है की हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे । यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है । न्याय का है । यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी । वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है । जिस का पक्ष असत्य का है । अन्याय का है । हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है । ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा । इस में भी कवी कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिहलाएं । अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कप्रसे होगी । एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन ' । जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,'  विश्व में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है । वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण । इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा ।
  −
१५.१ घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला । उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी।  'निसचर हीन करऊं मही '  विश्व में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे ।
  −
१५.२ हमारा पक्ष सत्य का है । इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है ।
  −
इतिहास की भी यही सीख है । जबतक हमारे अश्वमेध के अश्व चतुरंगिणी सेना के साथ विश्वभर मे घूमते थे बाहर से किसी की हमारे देशपर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं होती थी । हमारी सम्राट परंपरा नष्ट हुई और भारतवर्षपर आक्रमणों का ताँता लग गया । आक्रमणों के उपरांत भी हमने सीमोल्लंघन कर प्रत्याक्रमण नहीं किये । इसी के कारण हमारा संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार से ऱ्हास होता जा रहा है । इसे समझना ही कृण्वंतो विश्वमार्यम् को समझना है ।
  −
डॉ. श्री अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपती थे, एक युवक सम्मेलन में उन्हों ने यही प्रश्न पूछा था की हमने आक्रमण क्याप्त नही किया ? हमने आक्रमण नहीं किया यह हमारी बहुत बडी भूल थी यही उन्हें बताना था । जिस सजीव वस्तू का विकास थम जाता है, उस का ऱ्हास होना यह स्वाभाविक बात है । भारतीय समाज का इतिहास यही कहता है । जबतक हम सम्राट व्यवस्था के माध्यम से अपनी संस्कृति का विस्तार करते रहे हम संख्या और क्षेत्र में बढते गये । जैसे ही हमने विस्तार करना बंद किया हम सिकुडने लग गये । किन्तु हमारा विस्तारवाद और चीन का विस्तारवाद इन में गुणात्मक अंतर होगा । चीन ने अपना विस्तार किया । और पूरी तिब्बती प्राजा को नामशेष कर दिया । हमारा विस्तार अन्य समाजों को नष्ट करनेवाला विस्तार नहीं होगा । यह सर्वहितकारी होगा । उस भाप्रगोलिक क्षेत्र की दुर्जन शक्ति को नष्ट करनेतक ही वह सीमित होगा । भारतीय मानस में आयी झुकने और टूटने की इस विकृति को परिश्रमपूर्वक और ककठोरता से दूर करना होगा ।
  −
१६ पूर्णत्व की आस
  −
ईशावास्योपनिषद मे कहा है - ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते  ।     पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते    ॥
  −
भावार्थ : वह ( ब्रह्म ) स्वत:ही पूर्ण है । उस में से कुछ अलग नोइकाला तो भी वह पूर्ण ही रहता है । और जो निकाला है वह भी पूर्ण ही रहता है । उस में बाहर से कुछ जोडने से भी उस का पूर्णत्व नष्ट नहीं होता ।
  −
पूरी भारतीय जीवनशप्रली को इस पूर्णता की आस लेकर बाँधने का प्रयास हमारे पूर्वजों ने किया था । चार पाँच पीढियों पहले भारत में सिलाई मशीन से बने वस्त्र नहीं पहनते थे । इन वस्त्रों की विशेषता यह थी की इन में इन साडी या धोती में थोडा कम या थोडा अधिक वस्त्र होने से कोई विसंगति का अनुभव नहीं होता था । द्रौपदी ने साडी पहनी थी इसीलिये वह साडी का थोडा पल्लू फाडकर कृष्ण की जखम में पट्टी बाँध सकी थी । क्या वर्तमान जीन पँट पहननेवाली लडकी जीन पँट से ऐसा कर सकती है ?  इस वस्त्र का उपयोग भी पुरी तरह होता था । धोती जीर्ण हुई तो उस के तौलिये बना देते थे । वह भी जीर्ण हो गये तो रुमाल बन जाते थे । जख्मों को बाँधने की पट्टियाँ बन जाती थीं । पोंछे बन जाते थे । किन्तु वर्तमान वस्त्रों में कमी आ गई या जीर्ण हो गये तो उन का कोई उपयोग नहीं रह जाता ।
  −
पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी । किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है ।
  −
शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है । ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है । वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन भारतीय ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी । यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है । हमारे भारतीय पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है । इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी । 
  −
वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है । कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।  
     −
अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे
+
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रंग के थे । उन्होंने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लीजिये कि आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधार पर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । 
कुटुंब व्यवस्था गो आधारित खेती
+
 
अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं ० से ९ तक के ऑंकडे देवनागरी लिपी
+
सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में 'आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से स्थापित होता है । 
 +
 
 +
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधार पर जब तक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसत्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पैदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी ।   
 +
 
 +
और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी । वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुआ है । इस का प्रभाव बहुत गहरा है । हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है । एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही । इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते ' । इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा । हम अभिमान से कह रहे है कि हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे । यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है । न्याय का है । यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी । वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है । जिस का पक्ष असत्य का है । अन्याय का है । हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है । ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा । इस में भी कवि कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिखलायें । अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कैसे होगी । 
 +
 
 +
एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन ' । जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,'  विश्व में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है । वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण । इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा । 
 +
* घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला । उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी।  'निसचर हीन करऊं मही '  विश्व में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे ।
 +
* हमारा पक्ष सत्य का है । इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है । इतिहास की भी यही सीख है । जबतक हमारे अश्वमेध के अश्व चतुरंगिणी सेना के साथ विश्वभर मे घूमते थे बाहर से किसी की हमारे देशपर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं होती थी । हमारी सम्राट परंपरा नष्ट हुई और भारतवर्षपर आक्रमणों का ताँता लग गया । आक्रमणों के उपरांत भी हमने सीमोल्लंघन कर प्रत्याक्रमण नहीं किये। इसी के कारण हमारा संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार से ह्रास होता जा रहा है । इसे समझना ही कृण्वंतो विश्वमार्यम् को समझना है ।
 +
डॉ. श्री अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति थे, एक युवक सम्मेलन में उन्होंने यही प्रश्न पूछा था की हमने आक्रमण क्यों नही किया ? हमने आक्रमण नहीं किया यह हमारी बहुत बडी भूल थी यही उन्हें बताना था । जिस सजीव वस्तू का विकास थम जाता है, उस का ह्रास होना यह स्वाभाविक बात है । भारतीय समाज का इतिहास यही कहता है । जबतक हम सम्राट व्यवस्था के माध्यम से अपनी संस्कृति का विस्तार करते रहे हम संख्या और क्षेत्र में बढते गये । जैसे ही हमने विस्तार करना बंद किया हम सिकुडने लग गये । किन्तु हमारा विस्तारवाद और चीन का विस्तारवाद इन में गुणात्मक अंतर होगा । चीन ने अपना विस्तार किया । और पूरी तिब्बती प्रजा को नामशेष कर दिया । हमारा विस्तार अन्य समाजों को नष्ट करनेवाला विस्तार नहीं होगा । यह सर्वहितकारी होगा । उस भाप्रगोलिक क्षेत्र की दुर्जन शक्ति को नष्ट करनेतक ही वह सीमित होगा । भारतीय मानस में आयी झुकने और टूटने की इस विकृति को परिश्रमपूर्वक और ककठोरता से दूर करना होगा ।
 +
 
 +
=== १६ पूर्णत्व की आस ===
 +
ईशावास्योपनिषद मे कहा है 
 +
 
 +
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
 +
 
 +
भावार्थ : वह ( ब्रह्म ) स्वत:ही पूर्ण है । उस में से कुछ अलग निकाला तो भी वह पूर्ण ही रहता है । और जो निकाला है वह भी पूर्ण ही रहता है । उस में बाहर से कुछ जोडने से भी उस का पूर्णत्व नष्ट नहीं होता ।
 +
 
 +
पूरी भारतीय जीवनशैली को इस पूर्णता की आस लेकर बाँधने का प्रयास हमारे पूर्वजों ने किया था । चार पाँच पीढियों पहले भारत में सिलाई मशीन से बने वस्त्र नहीं पहनते थे । इन वस्त्रों की विशेषता यह थी की इन में इन साडी या धोती में थोडा कम या थोडा अधिक वस्त्र होने से कोई विसंगति का अनुभव नहीं होता था । द्रौपदी ने साडी पहनी थी इसीलिये वह साडी का थोडा पल्लू फाडकर कृष्ण की जखम में पट्टी बाँध सकी थी । क्या वर्तमान जीन पँट पहननेवाली लडकी जीन पँट से ऐसा कर सकती है ?  इस वस्त्र का उपयोग भी पुरी तरह होता था । धोती जीर्ण हुई तो उस के तौलिये बना देते थे । वह भी जीर्ण हो गये तो रुमाल बन जाते थे । जख्मों को बाँधने की पट्टियाँ बन जाती थीं । पोंछे बन जाते थे । किन्तु वर्तमान वस्त्रों में कमी आ गई या जीर्ण हो गये तो उन का कोई उपयोग नहीं रह जाता ।
 +
 
 +
पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी । किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है । 
 +
 
 +
शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है । ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है । वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन भारतीय ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी । यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है । हमारे भारतीय पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है । इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी ।
 +
 
 +
वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है । कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।
 +
 
 +
अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे: कुटुंब व्यवस्था, गो आधारित खेती, अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं, ० से ९ तक के ऑंकडेदेवनागरी लिपी
    
==References==
 
==References==
890

edits

Navigation menu