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→‎८.२ ग्रामकुल: लेख सम्पादित किया
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सब से नीचे के स्तरपर होता है '''नरराक्षस''' । औरों को कष्ट देकर या औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है ।  जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंक कर लोगों को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानों पर लोगों के बदन पर डालकर लोगों की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है ।  
 
सब से नीचे के स्तरपर होता है '''नरराक्षस''' । औरों को कष्ट देकर या औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है ।  जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंक कर लोगों को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानों पर लोगों के बदन पर डालकर लोगों की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है ।  
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नरराक्षस से उपरका स्तर होता है '''नरपशू''' का । जिस की संवेदनाएं मर गईं है ऐसे मनुष्य को नरपशू कहा जाता है । जिसे अन्य के दुख देखकर कोई दर्द नही होता ऐसे मनुष्य को नरपशू कहते है । नरपशू नाक की सीध में चलता है । किसी के झंझट मे पडता नही है । जो अपने आसपास के दुख-दर्द को समझ नही सकता वह नरपशू नही है तो और क्या है ? किंतु यह भावना समाज में बहुत सामान्य हो गई है ।  
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नरराक्षस से उपरका स्तर होता है '''नरपशु''' का । जिस की संवेदनाएं मर गईं है ऐसे मनुष्य को नरपशु कहा जाता है । जिसे अन्य के दुख देखकर कोई दर्द नही होता ऐसे मनुष्य को नरपशु कहते है । नरपशु नाक की सीध में चलता है । किसी के झंझट मे पडता नही है । जो अपने आसपास के दुख-दर्द को समझ नही सकता वह नरपशु नही है तो और क्या है ? किंतु यह भावना समाज में बहुत सामान्य हो गई है ।  
    
औरों का दुख-दर्द समझनेवाले मनुष्य को '''नर''' कहा जाता है । ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं जागृत रहती है । लोगों के दर्द निवारण के लिये मै कुछ करूं ऐसा उस का मन करता है । लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नही रखता ।  
 
औरों का दुख-दर्द समझनेवाले मनुष्य को '''नर''' कहा जाता है । ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं जागृत रहती है । लोगों के दर्द निवारण के लिये मै कुछ करूं ऐसा उस का मन करता है । लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नही रखता ।  
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संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता ' । इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही । जो कुछ जीना हे बस लोगों के लिये । यही है परमात्मपद प्राप्ति की अवस्था । और ऐसा कहते है कि संत तुकाराम सदेह परमात्म्पद को प्राप्त हुए ।  
 
संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता ' । इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही । जो कुछ जीना हे बस लोगों के लिये । यही है परमात्मपद प्राप्ति की अवस्था । और ऐसा कहते है कि संत तुकाराम सदेह परमात्म्पद को प्राप्त हुए ।  
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प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशू और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है ।  
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प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है ।  
    
संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं: <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये । </blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote>
 
संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं: <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये । </blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote>
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==== ४.२ पंच ॠण ====
 
==== ४.२ पंच ॠण ====
ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों के द्वारा अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशू पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता को मनुष्यता का लक्षण नही माना जाता ।       
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ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों के द्वारा अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशु पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता को मनुष्यता का लक्षण नही माना जाता ।       
    
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । '''वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण''' ।
 
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । '''वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण''' ।
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अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है ।
 
अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है ।
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मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं: व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन और बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें कि धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।
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मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं: व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टि गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन और बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टि गत विकास का अर्थ है सृष्टि के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें कि धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।
    
==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् ====
 
==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् ====
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* जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा ।  
 
* जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा ।  
 
* अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृध्दि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना । इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था ।  
 
* अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृध्दि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना । इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था ।  
* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशू, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे ।   
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* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे ।   
 
* मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती । आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है । इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है ।  
 
* मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती । आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है । इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है ।  
 
* अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है । इन सब समस्याओं की जड़ तो अभारतीय जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है ।  
 
* अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है । इन सब समस्याओं की जड़ तो अभारतीय जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है ।  
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==== ८.२ ग्रामकुल ====
 
==== ८.२ ग्रामकुल ====
अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ऐसे ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जप्रसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जप्रसे पप्रसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जप्रसे परिवार के सभी लोफगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्य्वस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे
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अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे?
८.३ वसुधैव कुटुंबकम् :
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अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्
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==== ८.३ वसुधैव कुटुंबकम् ====
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<blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम्</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्</blockquote>भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है । जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है । ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है । यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी । यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा ।
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भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है । जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है । ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है । यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा
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वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएं तो बस एक दिखावा और छलावा मात्र है । जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नही सकते उन्हे हम भारतीयों को सीखाने का कोई अधिकार नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हम उन्हें सिखाएंगे ।
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=== ९. कृतज्ञता ===
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पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पध्दति भारतीय पध्दति से भिन्न है । किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पध्दति है । इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है । दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है । दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता । 
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भारतीय मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है । केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता । या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता । यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये । इसलिये जरा जरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा भारतीय समाज में नही है । पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिमी तौर तरीकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप 'आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना । अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले भारतीय भी दिखाई देने लगे है । इसलिये कृतज्ञता के संबंध में भारतीय सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है ।
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कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है । कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना । पशुओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है । शेर और उसे जाल में से छुडाने वाले चूहे की कथा बचपन में बच्चों को बताना ठीक ही है । किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराई तक बिठाने के लिये, बडे बच्चों को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है । 
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यह सुधारित कथा ऐसी है । शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा । इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया । यहाँ तक छोटे बच्चों के लिये ठीक है । बडे बच्चों की सुधारित कहानी में शेर चुहे का बहुत बडा गौरव करता है । चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेर द्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है । इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इस पर शेर कहता है देखो यह कहानी मानव जगत की है । पशु जगत की नहीं है । मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है । किन्तु पशु जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है । इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है । तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य अपने पर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशु ही है ।  
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==== ९.१ पंच ॠण ====
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ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है । ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है वे निम्न हैं:
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वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएं तो बस एक दिखावा और छलावा मात्र है । जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नही सकते उन्हे हम भारतीयों को सीखाने का कोई अधिकार नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हम उन्हें सिखाएंगे
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===== ९.१.१ पितर ॠण =====
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अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं । श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है । मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं । ऐसा ना करने से मुझे पशु, पक्षी आदि जैसी हीन योनि में या हीन मानव के स्तर पर जन्म लेना पडेगा ।
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===== ९.१.२ भूतॠण =====
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मेर शरीर पंचमहाभूतों से बना है । इस का रक्षण और पोषण भी पंचमहाभूतों के कारण ही हो पाता है । मेरी सभी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन पंचमहाभूतों के ही कारण हो पाती है । यह पंचमहाभूत स्वच्छ, शुध्द और पर्याप्त होने के कारण ही मै अच्छा शरीर और पोषण प्राप्त कर सका हूं और प्राप्त करता रहूंगा । यह है वास्तव और इन पंचमहाभूतों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य बनता है । ये स्वच्छ रहें, शुध्द रहें, पर्याप्त रहें यह देखना व्यक्तिश: मेरी जिम्मेदारी बनती है । ऐसा करने से ही मै इन के ॠण से उॠण हो पाऊंगा । वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण के विषय में कुछ जागृति आई है । अच्छा ही है । किन्तु ऐसी जागृति क्यों आवश्यक हुई ? उत्तर है हमने पंचमहाभूतों के प्रति अपने कर्तव्य पूरे नही किये । यज्ञ नही किये । यज्ञ का अर्थ केवल कुछ होम-हवन करना नही है । सामान्यत: यज्ञ का एक हेतु पर्यावरण की शुध्दि यही होता है । इस भूतॠण का संस्कार तो घर-घर में देने का संस्कार है । इस संस्कार के अभाव में विद्यालयों में चल रहा पर्यावरण के प्रति जागृति का प्रयास तो अधूरा ही नही असंभव भी है ।  
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९. कृतज्ञता
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===== ९.१.३ गुरूॠण / ॠषिॠण =====
पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पध्दति भारतीय पध्दति से भिन्न है । किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पध्दति है । इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है । दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है । दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता । 
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गुरू या ॠषि का अर्थ है जिन जिन लोगों से हम कुछ भी सीखे है या जिन से हमने ज्ञान प्राप्त किया है वे सब । गर्भ में हमारी जीवात्मा प्रवेश करती है तब से लेकर हमारी मृत्यूतक अन्यों से हम कुछ ना कुछ सीखते ही रहते है । इस अर्थ से ये सब, जिनसे हमने कुछ सीखा होगा हमारे गुरू है । इन के हमारे उपर महति उपकार है । मै मनुष्य की वाणी में बात करता हूं तो इन के सिखाने से, मै मनुष्य की तरह दो पैरों पर चल सकता हूं तो इन के सिखाने के कारण । मै अपनी भावनाएं, इच्छाएं, आकांक्षाएं स्पष्ट रूप में वयक्त कर सकता हूं तो इन के सिखाने के कारण । संक्षेप में मैने अपने माता-पिता, पडोसी, रिश्तेदार, पहचान के या अंजान ऐसे अनगिनत लोगों से अनगिनत उपकार लिये है । इन उपकारों का बोझ मै इसी जन्म में कम नही करता तो अगले जन्म में मेरी अधोगति हो जाती है । इसलिये इन के ॠण से मुझे उतराई होना होगा । ऐसी भावना सदैव मन में रखना और इन के ॠण से उतराई होने के प्रयास करना मेरे लिये आवश्यक कर्म है । इस कर्म की सतत अनुभूति ही गुरूॠण की भावना है ।
भारतीय मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है । केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता । या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता । यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये । इसलिये जराजरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा भारतीय समाज में नही है । पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिनी ताप्ररतरिकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप ' आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना । अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले भारतीय भी दिखाई देने लगे है । इसलिये कृतज्ञता के संबंध में भारतीय सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है ।
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कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है । कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना । पशूओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है । शेर और उसे जाल में से छुडानेवाले चूहे की कथा बचपन में बच्चों को बताना ठीक ही है । किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराईतक बिठाने के लिये, बडे बच्चों को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है । यह सुधारित कथा ऐसी है ।
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शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा । इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया । यहाँतक छोटे बच्चों के लिये ठीक है । बडे बच्चों की सुधारित कहानि मै शेर चुहे का बहुत बडा गाप्ररव करता है । चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेरद्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है । इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इसपर शेर कहता है देखो यह कहानि मानव जगत की है । पशू जगत की नहीं है । मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है । किन्तु पशू जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है । इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है । तात्पर्य यह है की जो मनुष्य अपनेपर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशू ही है ।
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९.१ पंच ॠण
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    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।
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ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।   
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९.१.१ पितर ॠण
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अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।
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श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है । मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं । ऐसा ना करने से मुझे पशू, पक्षी आदी जप्रसी हीन योनि में या हीन मानव के स्तरपर जन्म लेना पडेगा ।
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९.१.२ भूतॠण
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मेर शरीर पंचमहाभूतों से बना है । इस का रक्षण और पोषण भी पंचमहाभूतों के कारण ही हो पाता है । मेरी सभी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन पंचमहाभूतों के ही कारण हो पाती है । यह पंचमहाभूत स्वच्छ, शुध्द और पर्याप्त होने के कारण ही मै अच्छा शरीर और पोषण प्राप्त कर सका हूं और प्राप्त करता रहूंगा । यह है वास्तव । और इन पंचमहाभूतों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य बनता है । ये स्वच्छ रहें, शुध्द रहें, पर्याप्त रहें यह देखना व्यक्तिश: मेरी जिम्मेदारी बनती है । ऐसा करने से ही मै इन के ॠण से उॠण हो पाऊंगा ।
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वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण के विषय में कुछ जागृति आई है । अच्छा ही है । किन्तु ऐसी जागृति क्याप्त आवश्यक हुई ? उत्तर है हमने पंचमहाभूतों के प्रति अपने कर्तव्य पूरे नही किये । यज्ञ नही किये । यज्ञ का अर्थ केवल कुछ होम-हवन करना नही है । सामान्यत: यज्ञ का एक हेतु पर्यावरण की शुध्दि यही होता है । इस भूतॠण का संस्कार तो घर-घर में देने का संस्कार है । इस संस्कार के अभाव में विद्यालयों में चल रहा पर्यावरण के प्रति जागृति का प्रयास तो अधूरा ही नही असंभव भी है ।
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९.१.३ गुरूॠण / ॠषिॠण  
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गुरू या ॠषि का अर्थ है जिन जिन लोगों से हम कुछ भी सीखे है या जिन से हमने ज्ञान प्राप्त किया है वे सब । गर्भ में हमारी जीवात्मा प्रवेश करती है तब से लेकर हमारी मृत्यूतक अन्यों से हम कुछ ना कुछ सीखते ही रहते है । इस अर्थ से ये सब, जिनसे हमने कुछ सीखा होगा हमारे गुरू है । इन के हमरे उपर महति उपकार है । मै मनुष्य की वाणी में बात करता हूं तो इन के सिखाने से, मै मनुष्य की तरह दो पप्ररोंपर चल सकत हूं तो इन के सीखाने के कारण । मै अपनी भावनाएं, इच्चाएं, आकांक्षाएं स्पष्ट रूप में व यक्त कर सकता हूं तो इन के सिखाने के कारण । संक्षेप में मैने मेरे माता-पिता, पडोसी, रिश्तेदार, पहचान के या अंजान ऐसे अनगिनत लोगों से अनगिनत उपकार लिये है । इन उपकारों का बोझ मै इसी जन्म में कम नही करता तो अगले जन्म में मेरी अधोगति हो जाती है । इसलिये इन के ॠण से मुझे उतराई होना होगा । ऐसी भावना सदैव मन में रखना और इन के ॠण से उतराई होने के प्रयास करना मेरे लिये आवश्यक कर्म है । इस कर्म की सतत अनुभूति ही गुरूॠण की भावना है ।  
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गुरूॠण से उॠण होने का अर्थ है मेरा व्यवहार ऐसा रहे की समाज के सभी लोगों को लगे की इस के अनुसार मेरा व्यवहार होना चाहिये । मुझ से विभिन्न प्रकार से विभिन्न लोग परोक्षा या अपरोक्ष मार्गदर्शन लेते रहें । यह तब ही संभव होता है जब मै औरों से प्राप्त ज्ञान को परिष्कृत कर अपने तप-स्वाधाय से उसे बढ़ाकर, अधिक श्रेष्ठ बनाकर अपने व्यवहार में लाने का प्रयास करूं ।
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९.१.४ समाजॠण / नृॠण
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गुरूॠण से उॠण होने का अर्थ है मेरा व्यवहार ऐसा रहे की समाज के सभी लोगों को लगे की इस के अनुसार मेरा व्यवहार होना चाहिये । मुझ से विभिन्न प्रकार से विभिन्न लोग परोक्षा या अपरोक्ष मार्गदर्शन लेते रहें । यह तब ही संभव होता है जब मै औरों से प्राप्त ज्ञान को परिष्कृत कर अपने तप-स्वाधाय से उसे बढ़ाकर, अधिक श्रेष्ठ बनाकर अपने व्यवहार में लाने का प्रयास करूं ।
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मनुष्य और पशू में बहुत अंतर होता है । पशू सामान्य ताप्ररपर व्यक्तिगत जीवन ही जीते है । समुदाय में रहनेवाले हाथीजप्रसे पशू भी सुविधा के लिये समूह में रहते है । किन्तु उन का व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है । मानव की बात भिन्न है । मानव बिना समाज के जी नही सकता । इसीलिये मानव को सामाजिक जीव कहा जाता है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होतीं है । इन इच्छाओं के अनुरूप मानव की आवश्यकताएं भी अनगिनत होतीं है । इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले मानव के बस की बात नही है । इसे समाज की मदद लेनी ही पडती है । इस मदद के कारण मनुष्य समाज का ॠणी बन जाता है । और जब ॠणी बन जाता है तो उॠण होना भी उस की एक आवश्यकता है ।  
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===== ९.१.४ समाजॠण / नृॠण =====
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मनुष्य और पशु में बहुत अंतर होता है । पशु सामान्य तौर पर व्यक्तिगत जीवन ही जीते है । समुदाय में रहनेवाले हाथी जैसे पशु भी सुविधा के लिये समूह में रहते है । किन्तु उन का व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है । मानव की बात भिन्न है । मानव बिना समाज के जी नही सकता । इसीलिये मानव को सामाजिक जीव कहा जाता है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होतीं है । इन इच्छाओं के अनुरूप मानव की आवश्यकताएं भी अनगिनत होतीं हैं। इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले मानव के बस की बात नही है । उसे समाज की मदद लेनी ही पडती है । इस मदद के कारण मनुष्य समाज का ॠणी बन जाता है । और जब ॠणी बन जाता है तो उॠण होना भी उस की एक आवश्यकता है ।  
    
समाज के ॠण से मुक्ति केवल अपना काम ठीक ढंग से करने से नही होती । वह तो करना ही चाहिये । किन्तु साथ में ही समाज के उन्नयन के लिये ज्ञानदान, समयदान और धनदान करना भी आवश्यक बात है । इन के बिना मनुष्य की अधोगति सुनिश्चित ही माननी चाहिये । जनहित के काम करने से, उन में योगदान देने से ही इस ॠण से उॠण हो सकते है ।
 
समाज के ॠण से मुक्ति केवल अपना काम ठीक ढंग से करने से नही होती । वह तो करना ही चाहिये । किन्तु साथ में ही समाज के उन्नयन के लिये ज्ञानदान, समयदान और धनदान करना भी आवश्यक बात है । इन के बिना मनुष्य की अधोगति सुनिश्चित ही माननी चाहिये । जनहित के काम करने से, उन में योगदान देने से ही इस ॠण से उॠण हो सकते है ।
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९.१.५ देवॠण  
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===== ९.१.५ देवॠण =====
देव शब्द दिव धातु से बना है। दिव से तात्पर्य है दिव्यता से। सृष्टी में ऐसे देवता हैं, जिनके बिना सृष्टी चल नहीं सकती। वायु, अग्नि, पृथ्वी, वरुण, इंद्र आदि ये देवता हैं। वेदों में इन्हें देवता कहा गया है। जिनमें विराट शक्ति है और जो अपनी शक्तियों को मुक्तता से बांटते रहते हैं।  
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देव शब्द दिव धातु से बना है। दिव से तात्पर्य है दिव्यता से। सृष्टि में ऐसे देवता हैं, जिनके बिना सृष्टि चल नहीं सकती। वायु, अग्नि, पृथ्वी, वरुण, इंद्र आदि ये देवता हैं। वेदों में इन्हें देवता कहा गया है। जिनमें विराट शक्ति है और जो अपनी शक्तियों को मुक्तता से बांटते रहते हैं।
इन देवताओं के ऋण से मुक्ति यज्ञ के द्वारा होती है। अग्निहोत्रों से होती है। यज्ञ के कारण इन देवताओं की पुश्टी होती है। इनके पुष्ट होने से तात्पर्य है इनका प्रदूषण दूर होना। इनका प्रदूषण दूर होने से मनुष्य और समाज का भी भला होता है।
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९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ती )  
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इन देवताओं के ऋण से मुक्ति यज्ञ के द्वारा होती है। अग्निहोत्रों से होती है। यज्ञ के कारण इन देवताओं की पुष्टि होती है। इनके पुष्ट होने से तात्पर्य है इनका प्रदूषण दूर होना। इनका प्रदूषण दूर होने से मनुष्य और समाज का भी भला होता है।
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
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==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
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गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
 
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुआ । और कलियुग में सृष्टि केवल दानपर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देनेवाला देता जाए । लेनेवाला लेता जाए । लेनेवाला एक दिन देनेवाले के देनेवाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरुषार्थ की पराकाष्टा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं इस भावना से करो ।  
 
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुआ । और कलियुग में सृष्टि केवल दानपर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देनेवाला देता जाए । लेनेवाला लेता जाए । लेनेवाला एक दिन देनेवाले के देनेवाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरुषार्थ की पराकाष्टा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं इस भावना से करो ।  
 
भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देनेवाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
 
भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देनेवाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
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संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है -  
 
संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है -  
 
मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर ।  किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥  
 
मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर ।  किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥  
युधिष्ठिरने जब दुर्योधन से पूछा,' अरे ! तू इतना बुध्दिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्याप्त रहा ? ' । उत्तर में दूर्योधन कहता है - जानामि धर्मं नच मे प्रवृत्ती: । जानाम्यधर्मं नच मे निवृत्ती: ॥
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युधिष्ठिरने जब दुर्योधन से पूछा,' अरे ! तू इतना बुध्दिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्याप्त रहा ? ' । उत्तर में दूर्योधन कहता है - जानामि धर्मं नच मे प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं नच मे निवृत्ती: ॥
 
भावार्थ : मेरी बुध्दि को तो पता था की धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।  
 
भावार्थ : मेरी बुध्दि को तो पता था की धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।  
 
अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है । इस के पाँच चरण होते है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार । दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है । इस के तीन चरण है । धारणा, ध्यान और समाधी । इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है । जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंसजीने किया था । बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है । अष्टांग योग के भी दो प्रकार है । पहला है सहजयोग या राजयोग दूसरा है हठयोग । हठयोग में साँसपर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है । इसलिये हठयोग अरुणावस्थातक वर्जित माना जाता है । विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार । सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही ।  
 
अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है । इस के पाँच चरण होते है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार । दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है । इस के तीन चरण है । धारणा, ध्यान और समाधी । इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है । जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंसजीने किया था । बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है । अष्टांग योग के भी दो प्रकार है । पहला है सहजयोग या राजयोग दूसरा है हठयोग । हठयोग में साँसपर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है । इसलिये हठयोग अरुणावस्थातक वर्जित माना जाता है । विशेषत: हठयोग की शुध्दिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार । सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही ।  
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ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
 
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
 
जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है ।
 
जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है ।
ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टी एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान ।   
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ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान ।   
 
१२ एकात्म जीवनदृष्टि  
 
१२ एकात्म जीवनदृष्टि  
 
अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
 
अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
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१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  
 
१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  
 
सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।  
 
सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।  
हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी रहता है । मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये । अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता । गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है । अन य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते । अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे । जप्रसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है । यह स्वाभाविक भी है । आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि । औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है । पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है ।  
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हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी रहता है । मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये । अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता । गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है । अन य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते । अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे । जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है । यह स्वाभाविक भी है । आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि । औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है । पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है ।  
 
वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी भी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है ।  किन्तु वर्तमान भारतीय नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है । स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग । माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक ' । विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है । विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है ।  
 
वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी भी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है ।  किन्तु वर्तमान भारतीय नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है । स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग । माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक ' । विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है । विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है ।  
 
उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वप्रसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बप्रठे रहना ठीक नहीं है ।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  ।
 
उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वप्रसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बप्रठे रहना ठीक नहीं है ।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  ।
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