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→‎४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं: लेख सम्पादित किया
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==== ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं ====
 
==== ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं ====
हम अमृतपुत्र हैं। हम अमर हैं। अविनाशी हैं। मैं केवल शरीर नहीं हूं । मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं । यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है । मेरा शरीर और मैं, हम भिन्न हैं। जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है । चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है । वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है । आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है ।  
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हम अमृतपुत्र हैं। हम अमर हैं। अविनाशी हैं। मैं केवल शरीर नहीं हूं । मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं । यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है । मेरा शरीर और मैं, यह भिन्न हैं। जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है । चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है । वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है । आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है ।
‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है । धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है ।
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आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं। किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है । ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं।
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'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है । धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है ।
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आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं। किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है । ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं।
    
==== ४.२ पंच ॠण ====
 
==== ४.२ पंच ॠण ====
ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों ने अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशू पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि उसपर किसी ने किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता यह मनुष्य का लक्षण नही माना जाता ।       
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ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों के द्वारा अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशू पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता को मनुष्यता का लक्षण नही माना जाता ।       
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हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । '''वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण''' ।
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हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । वे है भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण ।
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जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जाने पर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनि या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है । इसलिये भारतीय जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है । मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है । उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है ।
जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जानेपर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनी या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है । इसलिये भारतीय जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है । मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है । उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है ।
      
==== ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ ====
 
==== ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ ====
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