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==== ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ ====
 
==== ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ ====
पुरूषार्थ शब्द आते ही पुडरूष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरूष शब्द पुत्र शब्द के अर्थ में पुरूष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरूषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरूषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ती के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्यप्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरूषार्थ कहा गया है । इसलिये इन दोनों को पुरूषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरूषार्थों में प्रारंभ तो काम पुरूषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरूषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरूषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है की सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटिपर इच्छाओं की परिक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ती के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरूषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो । मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्मका अविरोधी काम मैं ही हूं ।      
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पुरूषार्थ शब्द आते ही पुडरूष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरूष शब्द पुत्र शब्द के अर्थ में पुरूष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरूषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरूषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ती के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्यप्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरूषार्थ कहा गया है । इसलिये इन दोनों को पुरूषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरूषार्थों में प्रारंभ तो काम पुरूषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरूषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरूषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है की सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटिपर इच्छाओं की परिक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ती के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरूषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो । मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्मका अविरोधी काम मैं ही हूं ।      
 
मोक्ष पुरूषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरूषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरूषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है ।  
 
मोक्ष पुरूषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरूषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरूषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है ।  
  
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