Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ: लेख सम्पादित किया
Line 105: Line 105:  
जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जाने पर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनि या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है । इसलिये भारतीय जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है । मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है । उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है ।
 
जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जाने पर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनि या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है । इसलिये भारतीय जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है । मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है । उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है ।
   −
==== ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ ====
+
==== ४.३ चतुर्विध पुरुषार्थ ====
पुरूषार्थ शब्द आते ही पुडरूष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरूष शब्द पुत्र शब्द के अर्थ में पुरूष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरूषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरूषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ती के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्यप्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरूषार्थ कहा गया है । इसलिये इन दोनों को पुरूषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरूषार्थों में प्रारंभ तो काम पुरूषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरूषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरूषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है की सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटिपर इच्छाओं की परिक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ती के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरूषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो । मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्मका अविरोधी काम मैं ही हूं ।    
+
पुरुषार्थ शब्द आते ही पुरुष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरुष शब्द के अर्थ में पुरुष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरुषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरुषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ति के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्य प्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरुषार्थ कहा गया है । इसलिये अर्थ और काम इन दोनों को पुरुषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरुषार्थो में प्रारंभ तो काम पुरुषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरुषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरुषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है कि सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटी पर इच्छाओं की परीक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरुषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो ।
मोक्ष पुरूषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरूषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरूषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है ।  
+
 
 +
मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्म का अविरोधी काम मैं ही हूं ।  
 +
 
 +
मोक्ष पुरुषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरुषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरुषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है ।  
    
===== ४.३.१ काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थ =====
 
===== ४.३.१ काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थ =====
धर्म के विषय में अध्याय ३ में हमने लिखा है उसे देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।
+
धर्म के विषय में यह [[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:भारतीय जीवन दृष्टि)|लेख]] देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।
काम पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं । धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं । सभी इच्छाओं को पुरूषार्थ नही कहा जाता । सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं । वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं । और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें । मेरा आदर सम्मान करें । ऐसी वाहत या यह तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है । किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरूषार्थ नहीं कहलातीं । श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है । काम पुरूषार्थ ही है । किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ट पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरूषार्थ नही काम पुरूषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी । ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है ।
+
 
अर्थ पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरूषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्चाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरूषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा की श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ कहता है ।
+
काम पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं । धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं । सभी इच्छाओं को पुरुषार्थ नही कहा जाता । सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं । वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं । और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें । मेरा आदर सम्मान करें । ऐसी तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है । किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरुषार्थ नहीं कहलातीं । श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है । काम पुरुषार्थ ही है । किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ठ पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरुषार्थ नही काम पुरुषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी । ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है ।
मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं। व्यक्तिगत विकास, समश्तीगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन औए बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें की धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।
+
 
 +
अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है ।
 +
 
 +
मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं: व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन और बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें कि धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।
    
==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् ====
 
==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् ====
सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी । संत तुलसीदासजी कहते है - परहितसम पुण्य नही भाई परपीडासम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की शध्दा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनतापर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है । मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्याप्त की इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तरपर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते ।  
+
सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी ।  
परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।।
+
 
परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम् ।।
+
संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की श्रद्धा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है ।  
 +
 
 +
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते ।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।।</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम् ।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है । पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है । मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुध्दिमान हूं, क्षमतावान हूं । इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये । यह है भारतीय विचार ।
   −
प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है । पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है । मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुध्दिमान हूं, क्षमतावान हूं । इसलिये मैंने भी अपने शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये । यह है भारतीय विचार
+
इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है । केवल ईसा मसीह पर श्रध्दा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रध्दा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है । इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है । अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है ।
   −
इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है । केवल ईसा मसीहपर श्रध्दा या पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है । इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है । अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है
+
भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे  
   −
भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारिरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारिरिर्क दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे ।
+
यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानि होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जब तक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानि नहीं होती तब तक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेलवे कानून के अनुसार रेलवे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जब तक मेरे ऐसा करने से किसी को हानि नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहीं है । कुछ वर्ष पूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वर्तमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोडता ।   
यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानी होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जबतक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानी नहीं होती तबतक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेल्वे कानून के अनुसार रेल्वे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जबतक मेरे ऐसा करने से किसी को हानी नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहें है । कुछ वर्षपूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वरतमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बेजैसे सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतरतक पीछा नहीं छोडता ।   
      
==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
 
==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
Line 152: Line 159:  
जैसे कुटुंब चलता है कौटुंबिक भावना के आधारपर । अब यदि यही कौटुंबिक भावना ग्राम स्तरपर विकसित करना हो तो क्या करना होगा । इस प्रश्न का उत्तर यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के सुयोग्य उपयोजन से मिल सकेगा । इसी के आधारपर ही तो हमारे पूर्वजों ने वसुधैव कुटुंबकम् के लिये प्रयास किये थे ।  
 
जैसे कुटुंब चलता है कौटुंबिक भावना के आधारपर । अब यदि यही कौटुंबिक भावना ग्राम स्तरपर विकसित करना हो तो क्या करना होगा । इस प्रश्न का उत्तर यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के सुयोग्य उपयोजन से मिल सकेगा । इसी के आधारपर ही तो हमारे पूर्वजों ने वसुधैव कुटुंबकम् के लिये प्रयास किये थे ।  
 
७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास   
 
७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास   
कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासोंपर है जब की अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्षपर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है । एक कहानी के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे ।
+
कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासोंपर है जब की अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्षपर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है । एक कहानि के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे ।
 
दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्री में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी ।  
 
दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्री में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी ।  
 
योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर , ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था ।  
 
योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर , ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था ।  
अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्सेपर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरेधीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है ।
+
अब इसी कहानि में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्सेपर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरेधीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है ।
 
वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्योंपर बल देना चाहिये था । स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी । और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये ।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है । माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।  
 
वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्योंपर बल देना चाहिये था । स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी । और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये ।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है । माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।  
 
किन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था समेत सभी व्यवस्थाओं में अधिकारोंपर ही बल दिया जा रहा है । सर्वप्रथम तो मानव के अधिकार शिक्षा का हिस्सा बनें । फिर आए महिलाओं के अधिकार । अब आ गए हैं बच्चों के अधिकार । पाश्चात्यों के अंधानुकरण की हमें बहुत बुरी आदत पड गई है । इन्ही अधिकारों के विषय में विकृति के कारण पाश्चात्य जगत में तलाक का प्रमाण, वृध्दाश्रम, अनाथालय, अपंगाश्रम आदि की संख्या तेजी से बढ रही है । पश्चिम के इस अंधानुकरण को हमें शीघ्रातिशीघ्र छोडना होगा ।  
 
किन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था समेत सभी व्यवस्थाओं में अधिकारोंपर ही बल दिया जा रहा है । सर्वप्रथम तो मानव के अधिकार शिक्षा का हिस्सा बनें । फिर आए महिलाओं के अधिकार । अब आ गए हैं बच्चों के अधिकार । पाश्चात्यों के अंधानुकरण की हमें बहुत बुरी आदत पड गई है । इन्ही अधिकारों के विषय में विकृति के कारण पाश्चात्य जगत में तलाक का प्रमाण, वृध्दाश्रम, अनाथालय, अपंगाश्रम आदि की संख्या तेजी से बढ रही है । पश्चिम के इस अंधानुकरण को हमें शीघ्रातिशीघ्र छोडना होगा ।  
Line 163: Line 170:  
अंग्रेजी में एक काहावत है ' क्राईंग चाईल्ड ओन्ली गेट्स् मिल्क् ' अर्थात् यदि बच्चा भूख से रोएगा नही तो उसे दूध नहीं मिलेगा । इस कहावत का जन्म उन के अधिकारों के लिये संघर्ष के वर्तनसूत्र में है । अन्यथा ऐसी कोई माँ (अंग्रेज भी) नहीं हो सकती जो बच्चा रोएगा नहीं तो उसे भूखा रखेगी ।   
 
अंग्रेजी में एक काहावत है ' क्राईंग चाईल्ड ओन्ली गेट्स् मिल्क् ' अर्थात् यदि बच्चा भूख से रोएगा नही तो उसे दूध नहीं मिलेगा । इस कहावत का जन्म उन के अधिकारों के लिये संघर्ष के वर्तनसूत्र में है । अन्यथा ऐसी कोई माँ (अंग्रेज भी) नहीं हो सकती जो बच्चा रोएगा नहीं तो उसे भूखा रखेगी ।   
 
स्त्री यह परिवार व्यवस्था का आधारस्तंभ है । घर के मुख्य स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य ऐसी बात है । वेसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएं होतीं है । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासणा का साधन नहीं माना गया है । वह क्षण काल की पत्नी और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को  जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है ।  
 
स्त्री यह परिवार व्यवस्था का आधारस्तंभ है । घर के मुख्य स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य ऐसी बात है । वेसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएं होतीं है । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासणा का साधन नहीं माना गया है । वह क्षण काल की पत्नी और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को  जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है ।  
बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती होनी चाहिये । इतनी ही समझ होती है । वह केवल अपने लिये जीनेवाला जीव होता है । परिवार उसे सामाजिक बनाता है । पैवार उसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को संस्कारित कर उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठाकर, केवल अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया बना देता है ।  
+
बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये । इतनी ही समझ होती है । वह केवल अपने लिये जीनेवाला जीव होता है । परिवार उसे सामाजिक बनाता है । पैवार उसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को संस्कारित कर उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठाकर, केवल अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया बना देता है ।  
 
अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटे परिवारों का देश है । परिवारों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के हितचिंतक विद्वान करने लगे है । किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगों के मन में जगाना सरल बात नहीं है । हमारे यहाँ परिवार व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है, उस की हमें कीमत नहीं है।
 
अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटे परिवारों का देश है । परिवारों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के हितचिंतक विद्वान करने लगे है । किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगों के मन में जगाना सरल बात नहीं है । हमारे यहाँ परिवार व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है, उस की हमें कीमत नहीं है।
 
हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की तो उसे पूर्णत्व की स्थितितक ले गये । उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और बलवान भी बनाते थे । इसीलिये भारतीय परिवार व्यवस्था कालजयी बनी है । इस कुटुंब व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न है ।  
 
हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की तो उसे पूर्णत्व की स्थितितक ले गये । उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और बलवान भी बनाते थे । इसीलिये भारतीय परिवार व्यवस्था कालजयी बनी है । इस कुटुंब व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न है ।  
Line 198: Line 205:  
भारतीय मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है । केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता । या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता । यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये । इसलिये जराजरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा भारतीय समाज में नही है । पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिनी ताप्ररतरिकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप ' आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना । अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले भारतीय भी दिखाई देने लगे है । इसलिये कृतज्ञता के संबंध में भारतीय सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है ।
 
भारतीय मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है । केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता । या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता । यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये । इसलिये जराजरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा भारतीय समाज में नही है । पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिनी ताप्ररतरिकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप ' आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना । अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले भारतीय भी दिखाई देने लगे है । इसलिये कृतज्ञता के संबंध में भारतीय सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है ।
 
कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है । कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना । पशूओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है । शेर और उसे जाल में से छुडानेवाले चूहे की कथा बचपन में बच्चों को बताना ठीक ही है । किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराईतक बिठाने के लिये, बडे बच्चों को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है । यह सुधारित कथा ऐसी है ।
 
कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है । कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना । पशूओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है । शेर और उसे जाल में से छुडानेवाले चूहे की कथा बचपन में बच्चों को बताना ठीक ही है । किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराईतक बिठाने के लिये, बडे बच्चों को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है । यह सुधारित कथा ऐसी है ।
शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा । इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया । यहाँतक छोटे बच्चों के लिये ठीक है । बडे बच्चों की सुधारित कहानी मै शेर चुहे का बहुत बडा गाप्ररव करता है । चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेरद्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है । इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इसपर शेर कहता है देखो यह कहानी मानव जगत की है । पशू जगत की नहीं है । मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है । किन्तु पशू जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है । इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है । तात्पर्य यह है की जो मनुष्य अपनेपर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशू ही है ।  
+
शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा । इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया । यहाँतक छोटे बच्चों के लिये ठीक है । बडे बच्चों की सुधारित कहानि मै शेर चुहे का बहुत बडा गाप्ररव करता है । चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेरद्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है । इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इसपर शेर कहता है देखो यह कहानि मानव जगत की है । पशू जगत की नहीं है । मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है । किन्तु पशू जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है । इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है । तात्पर्य यह है की जो मनुष्य अपनेपर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशू ही है ।  
 
९.१ पंच ॠण  
 
९.१ पंच ॠण  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
Line 223: Line 230:  
९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ती )  
 
९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ती )  
 
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
 
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुआ । और कलियुग में सृष्टि केवल दानपर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देनेवाला देता जाए । लेनेवाला लेता जाए । लेनेवाला एक दिन देनेवाले के देनेवाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरूषार्थ की पराकाष्टा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं इस भावना से करो ।  
+
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुआ । और कलियुग में सृष्टि केवल दानपर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देनेवाला देता जाए । लेनेवाला लेता जाए । लेनेवाला एक दिन देनेवाले के देनेवाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरुषार्थ की पराकाष्टा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं इस भावना से करो ।  
 
भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देनेवाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
 
भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देनेवाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
 
दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी ।
 
दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी ।
Line 251: Line 258:  
अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना । मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा । ऐसा दृढनिश्चय । सडकपर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है । मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है । भ्रष्टाचार तो डकैती है । भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है ।  
 
अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना । मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा । ऐसा दृढनिश्चय । सडकपर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है । मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है । भ्रष्टाचार तो डकैती है । भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है ।  
 
अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना । अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना । मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है ।  
 
अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना । अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना । मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है ।  
ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरूष संबंधोंतक यह सीमित नहीं है । उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मनपर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट होसकता है ।   
+
ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरुष संबंधोंतक यह सीमित नहीं है । उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मनपर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट होसकता है ।   
 
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥
 
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥
 
एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:। विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम् ॥
 
एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:। विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम् ॥
Line 258: Line 265:  
नियम भी पांच है । शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ।  
 
नियम भी पांच है । शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ।  
 
शौच का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता । अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुध्दि चित्त की शुध्दता से है । बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुध्दता ।
 
शौच का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता । अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुध्दि चित्त की शुध्दता से है । बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुध्दता ।
संतोष का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता । किन्तु भगवान होग तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरूषार्थ का शत्रू नहीं है । पराकोटी का पुरूषार्थ करो । लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होणा, इसी को ही संतोष कहते है । .   
+
संतोष का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता । किन्तु भगवान होग तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरुषार्थ का शत्रू नहीं है । पराकोटी का पुरुषार्थ करो । लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होणा, इसी को ही संतोष कहते है । .   
 
तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना । तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुध्दि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है । तप केवल हिमालय चढनेवाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है ।  
 
तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना । तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुध्दि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है । तप केवल हिमालय चढनेवाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है ।  
   Line 277: Line 284:  
यही सूत्र अब चोरी की समस्या के लिये लगाकर देखें। जिस की वस्तू या धन चोरी हो गया है वह है समस्या पीडित। चोर जब जिस के घर वह चोरी कर रहा है उस की भूमिका से विचार करेगा तब उसे लगेगा, मेरी मेहनत की कमाई को कोई चुराए नहीं । तो मै भी किसी की मेहनत की कमाई नहीं चुराऊं ।  
 
यही सूत्र अब चोरी की समस्या के लिये लगाकर देखें। जिस की वस्तू या धन चोरी हो गया है वह है समस्या पीडित। चोर जब जिस के घर वह चोरी कर रहा है उस की भूमिका से विचार करेगा तब उसे लगेगा, मेरी मेहनत की कमाई को कोई चुराए नहीं । तो मै भी किसी की मेहनत की कमाई नहीं चुराऊं ।  
 
अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं । इस समस्या में रिशवत देनेवाला समस्य-पीडित है । रिश्वत  लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा । क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता ।  
 
अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं । इस समस्या में रिशवत देनेवाला समस्य-पीडित है । रिश्वत  लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा । क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता ।  
स्त्रीयों के साथ पुरूषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है । शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है । समस्या यह है की पुरूष स्त्री का सम्मान नही करता । जब पुरूष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह हमेशा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा । मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये । इसी को भारतीय संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू । हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है ।
+
स्त्रीयों के साथ पुरुषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है । शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है । समस्या यह है की पुरुष स्त्री का सम्मान नही करता । जब पुरुष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह हमेशा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा । मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये । इसी को भारतीय संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू । हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है ।
 
१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  
 
१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  
 
सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।  
 
सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।  
890

edits

Navigation menu