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# सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
 
# सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
 
# जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
 
# जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
# एक मात्र मनुष्य योनी कर्म योनी है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनी में कर्म ही जीवन का नियमन करते है । इसे समझने के लिए ही कर्म सिध्दांत की प्रस्तुति की गयी है।
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# एक मात्र मनुष्य योनि कर्म योनि है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनि में कर्म ही जीवन का नियमन करते है । इसे समझने के लिए ही कर्म सिध्दांत की प्रस्तुति की गयी है।
    
== व्यवहार के सूत्र ==
 
== व्यवहार के सूत्र ==
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==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
 
==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।
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मनुष्य को सन्मार्ग पर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।  
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे
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क) किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
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वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:
ख) किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता ।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है की पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे यह हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है की पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही खतम हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं ।
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# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है । इसे समझना महत्वपूर्ण है ।  
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# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता ।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है । इसे समझना महत्वपूर्ण है । यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:
यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है । दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है । तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है । संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनी को कर्मयोनी कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनीयाँ कहा जाता है।
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## एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है ।  
ग) जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है यह  है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है ।
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## दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है ।  
घ) कर्मफलों का जोड या घट नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है । अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है । दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं की पत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है । अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते । दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है ।
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## तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है। 
च) परमात्मा सर्वशक्तिमान है । किन्तु वह आपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है ।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है । उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है । किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है । फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों ।  
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##* संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनि को कर्मयोनि कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनियाँ कहा जाता है।  
हमारे कई संत कहते है की परमात्मा दयालू है । किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं की परमात्मा भक्त की परिक्षा लेता है । परिक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है की बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है । परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परिक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते ।
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# जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है ।  
वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है । केवल पाद्री को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है । इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे । साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे । ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे । किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता ।  
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# कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है । अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है । दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है । अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते । दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है ।  
४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना : अन्य समाज और भारतीय समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है । अन्य समाजों में  गॉड या अल्लापर और उन के प्रेषितोंपर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है । स्वर्ग-नरक की भारतीय मान्यता यह बुध्दियुक्त है । भारतीय विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा । और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी । स्वर्ग और नरक की भारतीय कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता । व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में भारतीय स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है ।  
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# परमात्मा सर्वशक्तिमान है । किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है ।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है । उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है । किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है । फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों । हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है । किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है । परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है । परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते ।
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#* वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है । केवल पादरी को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है । इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद पर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे । साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे । ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे । किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता ।
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==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
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अन्य समाज और भारतीय समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है । अन्य समाजों में  गॉड या अल्लापर और उन के प्रेषितोंपर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है । स्वर्ग-नरक की भारतीय मान्यता यह बुध्दियुक्त है । भारतीय विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा । और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी । स्वर्ग और नरक की भारतीय कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता । व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में भारतीय स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है ।  
 
४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च   
 
४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च   
 
जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था । सन्यास की अनुमति थी । स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जबतक एक भी भारतीय दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये । यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है । अपना काम ठीक करना चाहिये । लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है । इस के साथ ही जबतक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता । अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है । और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है । यह है भारतीय मान्यता ।  
 
जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था । सन्यास की अनुमति थी । स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जबतक एक भी भारतीय दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये । यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है । अपना काम ठीक करना चाहिये । लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है । इस के साथ ही जबतक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता । अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है । और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है । यह है भारतीय मान्यता ।  
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९.१ पंच ॠण  
 
९.१ पंच ॠण  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनी या मनुष्य योनी में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
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ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
 
९.१.१ पितर ॠण  
 
९.१.१ पितर ॠण  
 
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
 
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है । मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं । ऐसा ना करने से मुझे पशू, पक्षी आदी जप्रसी हीन योनी में या हीन मानव के स्तरपर जन्म लेना पडेगा ।
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श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है । मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं । ऐसा ना करने से मुझे पशू, पक्षी आदी जप्रसी हीन योनि में या हीन मानव के स्तरपर जन्म लेना पडेगा ।
 
९.१.२ भूतॠण  
 
९.१.२ भूतॠण  
 
मेर शरीर पंचमहाभूतों से बना है । इस का रक्षण और पोषण भी पंचमहाभूतों के कारण ही हो पाता है । मेरी सभी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन पंचमहाभूतों के ही कारण हो पाती है । यह पंचमहाभूत स्वच्छ, शुध्द और पर्याप्त होने के कारण ही मै अच्छा शरीर और पोषण प्राप्त कर सका हूं और प्राप्त करता रहूंगा । यह है वास्तव । और इन पंचमहाभूतों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य बनता है । ये स्वच्छ रहें, शुध्द रहें, पर्याप्त रहें यह देखना व्यक्तिश: मेरी जिम्मेदारी बनती है । ऐसा करने से ही मै इन के ॠण से उॠण हो पाऊंगा ।  
 
मेर शरीर पंचमहाभूतों से बना है । इस का रक्षण और पोषण भी पंचमहाभूतों के कारण ही हो पाता है । मेरी सभी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन पंचमहाभूतों के ही कारण हो पाती है । यह पंचमहाभूत स्वच्छ, शुध्द और पर्याप्त होने के कारण ही मै अच्छा शरीर और पोषण प्राप्त कर सका हूं और प्राप्त करता रहूंगा । यह है वास्तव । और इन पंचमहाभूतों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य बनता है । ये स्वच्छ रहें, शुध्द रहें, पर्याप्त रहें यह देखना व्यक्तिश: मेरी जिम्मेदारी बनती है । ऐसा करने से ही मै इन के ॠण से उॠण हो पाऊंगा ।  
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कुटुंब व्यवस्था । गो आधारित खेती ।  
 
कुटुंब व्यवस्था । गो आधारित खेती ।  
 
अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं । ० से ९ तक के ऑंकडे । देवनागरी लिपी
 
अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं । ० से ९ तक के ऑंकडे । देवनागरी लिपी
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वाचनीय साहित्य
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१. Our Glorious Heritage Author Bharatee krishn  Tirth( Shankaraachaary, Puri Peeth)
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2.  चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टि, भारतीय विचार साधना प्रकाशन, पुणे 
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3.  श्रीमद्भगवद्गीता
      
==References==
 
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<references />अन्य स्रोत:
 
<references />अन्य स्रोत:
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1. Our Glorious Heritage Author Bharatee krishn Tirth( Shankaraachaary, Puri Peeth)
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2.  चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टि, भारतीय विचार साधना प्रकाशन, पुणे
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3.  श्रीमद्भगवद्गीता
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
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