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मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । किन्तु जब तक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है । ऐसी भारतीय मान्यता है । स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये ।
 
मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । किन्तु जब तक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है । ऐसी भारतीय मान्यता है । स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये ।
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=== ३. एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति/विविधता में एकता ===
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=== ३. एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति / विविधता में एकता ===
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सत्य एक ही है । किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुध्दि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है । इन साधनों के आधारपर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है । ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है ।  
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सत्य एक ही है । किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुध्दि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है । इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है । ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है ।<blockquote>सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान </blockquote><blockquote>इंद्रिय, मन, बुध्दि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान</blockquote>एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे । खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं । दूरबीन के अगले कांच पर बीच में एक छोटा छेद वाला कागज चिपका दें । अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा । अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखने दें । तारे गिनने दें । फिर संख्या लिख लें । अब तारों की संख्या कम हो गई होगी । अब एक अंधे को देखने दें । अब संख्या शून्य होगी । अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौन सी है । तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी, तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है ।  
सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान इंद्रिय, मन, बुध्दि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान
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एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे । खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं । दूरबीन के अगले कांचपर बीच में एक छोटा छेदवाला कागज चिपका दें । अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा । अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखेने दें । तारे गिनने दें । फिर संख्या लिख लें । अब तरों की संख्या कम हो गई होगी । अब एक अंधे को देखने दें । अब संख्या शून्य होगी । अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौनसी है । तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी उत्तर होगा तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है ।  
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भारतीय मनीषियों की यही विषेषता रही है की जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्हों ने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें । न्यूटन के काल में यदि किसी ने आईनस्टाईन के सिध्दांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था । इसलिये आईनस्टाईन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता । किन्तु आईनस्टाईन के सिध्दांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आईनस्टाईन के काल में । 
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इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है । अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुध्दी का इतना आदर शायद ही दुनियाँ के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा । भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई । किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया । प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरित विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया । यह तो अभारतीय चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसापर उतारू हो जाते है ।
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इस पार्श्वभूमिपर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।
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मेरे साथ यदि कोई पशूजैसा व्यवहार करे तो मै क्या करूं ? ऐसी स्थिति में भारतीय विचार में अपनी बुध्दी का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते है की वेद उपनिषद भी चिल्लाचिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा । क्यों कि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है । पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता मै १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है ‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो ।
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यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा । श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुर्रान मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है की अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ । किंतु बायबल और कुर्रान के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों असहिष्णू समाजों की मान्यता है । जब की श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है । हिंदुत्ववादी लोगों की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है ।
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एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुध्दि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर भारतीय समाज ने मान्य किया है । स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है । उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था । वह था -
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रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
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भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुध्दि का वरदान दिया हुआ है प्रत्येक की बुध्दि भिन्न होती ही है किसी की बुध्दि में ॠजुता होगी किसी की बुध्दि में कुटिलता होगी । ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी । हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा । कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है । ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है ।  
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भारतीय मनीषियों की यही विशेषता रही है कि जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्होंने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें । न्यूटन के काल में यदि किसी ने आइंस्टीन के सिध्दांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था इसलिये आइंस्टीन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता किन्तु आइंस्टीन के सिध्दांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आइंस्टीन के काल में
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आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं
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इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर शायद ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा । भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई । किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया । प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया । यह तो अभारतीय चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है
सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति
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जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है । लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुध्द भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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इस पार्श्वभूमि पर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।
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मेरे साथ यदि कोई पशु जैसा व्यवहार करे तो मै क्या करूं ? ऐसी स्थिति में भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते है कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा । क्यों कि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है ।
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पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता मै १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है ‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो ।
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यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा । श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुरआन मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है कि अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ । किंतु बायबल और कुरआन के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों समाजों की मान्यता है । जब कि श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है ।
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हिंदुत्ववादी लोगों की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है ।
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एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुध्दि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर भारतीय समाज ने मान्य किया है ।
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स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है ।
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उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था । वह था:<blockquote>रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुध्दि का वरदान दिया हुआ है । प्रत्येक की बुध्दि भिन्न होती ही है । किसी की बुध्दि में ॠजुता होगी किसी की बुध्दि में कुटिलता होगी । ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी । हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा । कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है । ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है । <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं ।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति ।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है । लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
    
“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।
 
“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।
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११ अष्टांग योग  
 
११ अष्टांग योग  
 
गतिमानता तो जगत का नियम है । गति करता है इसीलिये जगत कहलाता है । किन्तु वर्तमान में मानव जीवन ने जो गति प्राप्त की है वह उसे तेजी से आत्मनाश की ओर ले जा रही है । ऐसी स्थिति में संयम की पहले कभी भी नही थी इतनी आवश्यकता निर्माण हो गई है ।
 
गतिमानता तो जगत का नियम है । गति करता है इसीलिये जगत कहलाता है । किन्तु वर्तमान में मानव जीवन ने जो गति प्राप्त की है वह उसे तेजी से आत्मनाश की ओर ले जा रही है । ऐसी स्थिति में संयम की पहले कभी भी नही थी इतनी आवश्यकता निर्माण हो गई है ।
संयम का अर्थ है इंद्रीय निग्रह । वासनाओंपर नियंत्रण । वासनाओं को दबाना भिन्न बात है । मनपर संयम निर्माण करने के लिये अपने पूर्वज पतंजली मुनी ने भारतीय चिंतन से ‘अष्टांग योग’ नामक एक अपूर्व ऐसी भेंट जगत को दी है । मानव व्यक्तित्व के पांच प्रमुख घटक होते है । शरीर, प्राण, मन, बुध्दी, चित्त ये वे पांच घटक है । ये पांच तत्व प्रत्येक मनुष्य के भिन्न होते है। इन के माध्यम से जब परमात्मा अपने को अभिव्यक्त करता है तो वह इकाई व्यक्ति कहलाती है । और उस का रूप-लक्षण व्यक्तित्व कहलाता है । यह पाश्चात्य संकल्पना पर्सनॅलिटी (मुखौटा) से भिन्न संकल्पना है । पर्सनॅलिटी में मुखौटा अर्थात् दिखता कैसा है, यह महत्वपूर्ण है, बाहरी व्यवहार से, शिष्टाचार से संबंध है । व्यक्तित्व में अंतर्बाह्य कैसा है इसे महत्व है । संस्कार कैसे हैं इसे महत्व है ।   
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संयम का अर्थ है इंद्रीय निग्रह । वासनाओंपर नियंत्रण । वासनाओं को दबाना भिन्न बात है । मनपर संयम निर्माण करने के लिये अपने पूर्वज पतंजली मुनी ने भारतीय चिंतन से ‘अष्टांग योग’ नामक एक अपूर्व ऐसी भेंट जगत को दी है । मानव व्यक्तित्व के पांच प्रमुख घटक होते है । शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त ये वे पांच घटक है । ये पांच तत्व प्रत्येक मनुष्य के भिन्न होते है। इन के माध्यम से जब परमात्मा अपने को अभिव्यक्त करता है तो वह इकाई व्यक्ति कहलाती है । और उस का रूप-लक्षण व्यक्तित्व कहलाता है । यह पाश्चात्य संकल्पना पर्सनॅलिटी (मुखौटा) से भिन्न संकल्पना है । पर्सनॅलिटी में मुखौटा अर्थात् दिखता कैसा है, यह महत्वपूर्ण है, बाहरी व्यवहार से, शिष्टाचार से संबंध है । व्यक्तित्व में अंतर्बाह्य कैसा है इसे महत्व है । संस्कार कैसे हैं इसे महत्व है ।   
 
जिस की बुध्दि का नियंत्रण मनपर, मन का नियंत्रण इंद्रियोंपर और इंद्रियों का शरीरपर नियंत्रण होता है उस का व्यक्तित्व विकसित माना जाता है । ऐसा होने से व्यक्तिगत और समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है । किन्तु सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति इस के बराबर विपरीत होती है । उस के शरीर का नियंत्रण इंद्रियोंपर, इंद्रियों का मनपर, और मन का बुध्दिपर होता है । व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इस से अव्यवस्थित हो जाता है । ऐसा ना हो इसीलिये व्यक्तित्व के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये ‘अष्टांग योग’ की प्रस्तुति हुई है ।  
 
जिस की बुध्दि का नियंत्रण मनपर, मन का नियंत्रण इंद्रियोंपर और इंद्रियों का शरीरपर नियंत्रण होता है उस का व्यक्तित्व विकसित माना जाता है । ऐसा होने से व्यक्तिगत और समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है । किन्तु सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति इस के बराबर विपरीत होती है । उस के शरीर का नियंत्रण इंद्रियोंपर, इंद्रियों का मनपर, और मन का बुध्दिपर होता है । व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इस से अव्यवस्थित हो जाता है । ऐसा ना हो इसीलिये व्यक्तित्व के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये ‘अष्टांग योग’ की प्रस्तुति हुई है ।  
 
योग भी अपने आप में सदाचार से जीने के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक संपूर्ण जीवनदर्शन है ।  
 
योग भी अपने आप में सदाचार से जीने के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक संपूर्ण जीवनदर्शन है ।  
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कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तानपर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर बी यही पढ़ाया जा रहा है।
 
कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे । हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है । ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है । वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ । प्राचीन और मध्यकालीन पूरे भारतीय साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा । किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया । इसे हिन्दुस्तानपर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया । आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया । इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर बी यही पढ़ाया जा रहा है।
 
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है ।  
 
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है ।  
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती दुनियाँ उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही दुनियाँ भी आर्य बनने का प्रयास करेगी ।   
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केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी ।   
और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी । वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुआ है । इस का प्रभाव बहुत गहरा है । हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है । एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही । इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रहानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते ' । इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा । हम अभिमान से कह रहे है की हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे । यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है । न्याय का है । यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी । वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है । जिस का पक्ष असत्य का है । अन्याय का है । हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है । ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा । इस में भी कवी कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिहलाएं । अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कप्रसे होगी । एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन ' । जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,'  दुनियाँ में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है । वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण । इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा ।  
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और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी । वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुआ है । इस का प्रभाव बहुत गहरा है । हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है । एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही । इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रहानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते ' । इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा । हम अभिमान से कह रहे है की हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे । यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है । न्याय का है । यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी । वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है । जिस का पक्ष असत्य का है । अन्याय का है । हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है । ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा । इस में भी कवी कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिहलाएं । अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कप्रसे होगी । एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन ' । जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,'  विश्व में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है । वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण । इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा ।  
१५.१ घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला । उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी।  'निसचर हीन करऊं मही '  दुनियाँ में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे ।
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१५.१ घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला । उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी।  'निसचर हीन करऊं मही '  विश्व में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे ।
 
१५.२ हमारा पक्ष सत्य का है । इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है ।  
 
१५.२ हमारा पक्ष सत्य का है । इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है ।  
इतिहास की भी यही सीख है । जबतक हमारे अश्वमेध के अश्व चतुरंगिणी सेना के साथ दुनियाँभर मे घूमते थे बाहर से किसी की हमारे देशपर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं होती थी । हमारी सम्राट परंपरा नष्ट हुई और भारतवर्षपर आक्रमणों का ताँता लग गया । आक्रमणों के उपरांत भी हमने सीमोल्लंघन कर प्रत्याक्रमण नहीं किये । इसी के कारण हमारा संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार से ऱ्हास होता जा रहा है । इसे समझना ही कृण्वंतो विश्वमार्यम् को समझना है ।
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इतिहास की भी यही सीख है । जबतक हमारे अश्वमेध के अश्व चतुरंगिणी सेना के साथ विश्वभर मे घूमते थे बाहर से किसी की हमारे देशपर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं होती थी । हमारी सम्राट परंपरा नष्ट हुई और भारतवर्षपर आक्रमणों का ताँता लग गया । आक्रमणों के उपरांत भी हमने सीमोल्लंघन कर प्रत्याक्रमण नहीं किये । इसी के कारण हमारा संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार से ऱ्हास होता जा रहा है । इसे समझना ही कृण्वंतो विश्वमार्यम् को समझना है ।
 
डॉ. श्री अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपती थे, एक युवक सम्मेलन में उन्हों ने यही प्रश्न पूछा था की हमने आक्रमण क्याप्त नही किया ? हमने आक्रमण नहीं किया यह हमारी बहुत बडी भूल थी यही उन्हें बताना था । जिस सजीव वस्तू का विकास थम जाता है, उस का ऱ्हास होना यह स्वाभाविक बात है । भारतीय समाज का इतिहास यही कहता है । जबतक हम सम्राट व्यवस्था के माध्यम से अपनी संस्कृति का विस्तार करते रहे हम संख्या और क्षेत्र में बढते गये । जैसे ही हमने विस्तार करना बंद किया हम सिकुडने लग गये । किन्तु हमारा विस्तारवाद और चीन का विस्तारवाद इन में गुणात्मक अंतर होगा । चीन ने अपना विस्तार किया । और पूरी तिब्बती प्राजा को नामशेष कर दिया । हमारा विस्तार अन्य समाजों को नष्ट करनेवाला विस्तार नहीं होगा । यह सर्वहितकारी होगा । उस भाप्रगोलिक क्षेत्र की दुर्जन शक्ति को नष्ट करनेतक ही वह सीमित होगा । भारतीय मानस में आयी झुकने और टूटने की इस विकृति को परिश्रमपूर्वक और ककठोरता से दूर करना होगा ।
 
डॉ. श्री अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपती थे, एक युवक सम्मेलन में उन्हों ने यही प्रश्न पूछा था की हमने आक्रमण क्याप्त नही किया ? हमने आक्रमण नहीं किया यह हमारी बहुत बडी भूल थी यही उन्हें बताना था । जिस सजीव वस्तू का विकास थम जाता है, उस का ऱ्हास होना यह स्वाभाविक बात है । भारतीय समाज का इतिहास यही कहता है । जबतक हम सम्राट व्यवस्था के माध्यम से अपनी संस्कृति का विस्तार करते रहे हम संख्या और क्षेत्र में बढते गये । जैसे ही हमने विस्तार करना बंद किया हम सिकुडने लग गये । किन्तु हमारा विस्तारवाद और चीन का विस्तारवाद इन में गुणात्मक अंतर होगा । चीन ने अपना विस्तार किया । और पूरी तिब्बती प्राजा को नामशेष कर दिया । हमारा विस्तार अन्य समाजों को नष्ट करनेवाला विस्तार नहीं होगा । यह सर्वहितकारी होगा । उस भाप्रगोलिक क्षेत्र की दुर्जन शक्ति को नष्ट करनेतक ही वह सीमित होगा । भारतीय मानस में आयी झुकने और टूटने की इस विकृति को परिश्रमपूर्वक और ककठोरता से दूर करना होगा ।
 
१६ पूर्णत्व की आस  
 
१६ पूर्णत्व की आस  
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