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== व्यवहार के सूत्र ==
 
== व्यवहार के सूत्र ==
इस चिंतन के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न है।
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इस चिंतन के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न हैं:
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=== १. नर करनी करे तो नर का नारायण बन जाये ===
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=== १. नर करनी करे तो नारायण बन जाये ===
    
योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है और आगे देवत्व या परमात्मपद भी पा सकता है । यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन की मान्यता है । अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है । फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह परमात्मपद प्राप्त करता है ऐसा भगवद्गीता में कहा है । इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है ।  
 
योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है और आगे देवत्व या परमात्मपद भी पा सकता है । यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन की मान्यता है । अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है । फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह परमात्मपद प्राप्त करता है ऐसा भगवद्गीता में कहा है । इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है ।  
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प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशू और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है ।  
 
प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशू और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है ।  
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संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं: <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये</blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote>
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संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं: <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये </blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote>
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=== २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात् ===
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भावार्थ - सब सुखी हों । किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो । किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो । अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों ।
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=== २ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात् ===
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विश्वभर का हजारों वर्षों का साहित्य खोजकर देखनेपर भी इतना श्रेष्ठ विचार कहीं नही मिलेगा । कुछ लोग कहेंगे यह तो कागजी विचार है । सभी लोग तो कभी भी एक साथ सुखी नही हो सकते । यह कुछ मात्रा में सत्य भी है । हर व्यक्ति भिन्न होता है । कुछ दुष्ट या नरराक्षस प्रवृत्ति के लोग तो औरों के सुख से दुखी होते है या दूसरों को दुखी कर सुख पाते है। फिर सब सुखी कैसे हो सकते है ? ऐसा होनेपर भी हमारा लक्ष्य तो सब सुखी हों यही रखना होगा ।  
भावार्थ - सब सुखी हों । किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो । किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो । अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों । विश्वभर का हजारों वर्षों का साहित्य खोजकर देखनेपर भी इतना श्रेष्ठ विचार कहीं नही मिलेगा ।  
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कुछ लोग कहेंगे यह तो कागजी विचार है । सभी लोग तो कभी भी एकसाथ सुखी नही हो सकते । यह कुछ मात्रा में सत्य भी है । हर व्यक्ति भिन्न होता है । कुछ दुष्ट या नरराक्षस प्रवृत्ति के लोग तो औरों के सुख से दुखि होते है या दूसरों को दुखी कर सुख पाते है। फिर सब सुखी कप्रसे हो सकते है ? ऐसा होनेपर भी हमारा लक्ष्य तो सब सुखी हों यही रखना होगा
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दुनियाँभर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है । किंतु उस के परिणाम हम  देख रहे है । केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है । बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है । इसीलिये स्वामीऔ विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमने व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये । जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘
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एकबार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है । उन का उत्तर था की यह संभव नही है । इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता । परिणाम हम सबके सामने है । कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है । इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है । इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही । इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा । निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है -
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मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव । शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥
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किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधी गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है । उस के बाद ही वह औषधी बनाने के लिये योग्य बनता है ।
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महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है । किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था । ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था । साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था
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२.१ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता:
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दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है । किंतु उस के परिणाम हम  देख रहे है । केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है । बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है । इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमें व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये । जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘
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भद्र या शुभ-ज्ञान संपूर्ण विश्व से हमें मिले। हमारा जो ज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा अहंकार भारतीय मनीषियों ने कभी नही पाला। यहाँतक कह डाला की ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यं’। छोटा बच्चा भी कुछ श्रेष्ठ ज्ञान देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिये । बाहर से आनेवाली शीतल और शुध्द हवा के लिये हम अपने घरों की खिडकियाँ खोलते है । ठीक उसी तरह हमने अपने मन की खिडकियाँ भी शुभ ज्ञान की प्राप्ति के लिये खुली रखनी चाहिये । किन्तु कुछ अशुद्ध हवा आने लगे तो हम जैसे खिडकियाँ बंद भी कर लेते है वैसी ही हमारी अभद्र ज्ञान के विषय में भूमिका होनी चाहिये कोई बात अन्यों के लिए हितकर है इसलिये यह आवश्यक नही की वह हमारे लिये भी उपयुक्त होगी ही इसलिये उसे अपनी स्थानिकता की दृष्टि से वह कितनी हितकर है, इस की कसौटिपर ही भद्र-अभद्र का निर्णय कर स्वीकार करना होगा ।  
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एकबार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है । उन का उत्तर था की यह संभव नही है । इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता परिणाम हम सबके सामने है । कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही । इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा
यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरना सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधी के लिये नहीं होकर चिरकालतक सब के हित का होना आवश्यक है । ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है
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ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो । ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जबतक हम उसे चिरकालतक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें । वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा।
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भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है । कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदाई है और कुछ मात्रा में हानी करनेवाला । ऐसे तंत्रज्ञान को वह जबतक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमातक ही उपयोग में लाना होगा । उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा । उदा. संगणक को लें एक सीमातक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है । किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा । जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी ।  
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निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है:<blockquote>मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव ।</blockquote><blockquote>शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥</blockquote>किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधि गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है ।
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२.२ आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च
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महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है । किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था । ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था । साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था ।
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मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । किन्तु जबतक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है । ऐसी भारतीय मान्यता है । स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये ।
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==== २.१ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता: ====
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भावार्थ - भद्र या शुभ-ज्ञान संपूर्ण विश्व से हमें मिले।
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हमारा जो ज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा अहंकार भारतीय मनीषियों ने कभी नही पाला। यहाँ तक कह डाला कि ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यं’। छोटा बच्चा भी कुछ श्रेष्ठ ज्ञान देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिये । बाहर से आनेवाली शीतल और शुध्द हवा के लिये हम अपने घरों की खिडकियाँ खोलते है । ठीक उसी तरह हमने अपने मन की खिडकियाँ भी शुभ ज्ञान की प्राप्ति के लिये खुली रखनी चाहिये । किन्तु कुछ अशुद्ध हवा आने लगे तो हम जैसे खिडकियाँ बंद भी कर लेते है वैसी ही हमारी अभद्र ज्ञान के विषय में भूमिका होनी चाहिये । कोई बात अन्यों के लिए हितकर है इसलिये यह आवश्यक नही कि वह हमारे लिये भी उपयुक्त होगी ही । इसलिये उसे अपनी स्थानिकता की दृष्टि से वह कितनी हितकर है, इस की कसौटी पर ही भद्र-अभद्र का निर्णय कर स्वीकार करना होगा ।
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यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा । भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है । ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है ।  ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो । ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जबतक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें । वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा।
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भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है । कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है । ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा । उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा । उदाहरण: संगणक को लें । एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है । किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा । जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी ।
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==== २.२ आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च ====
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मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । किन्तु जब तक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है । ऐसी भारतीय मान्यता है । स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये ।
    
=== ३. एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति/विविधता में एकता ===
 
=== ३. एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति/विविधता में एकता ===
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९.१ पंच ॠण  
 
९.१ पंच ॠण  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधी बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनी या मनुष्य योनी में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
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ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनी या मनुष्य योनी में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
 
९.१.१ पितर ॠण  
 
९.१.१ पितर ॠण  
 
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
 
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
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१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  
 
१४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  
 
सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।  
 
सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है । उस की तर्क, अनुमान आदि बुध्दि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है । यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है । मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे । सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा । अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है । फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे ।  
हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी रहता है । मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये । अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता । गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है । अन य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते । अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे । जप्रसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है । यह स्वाभाविक भी है । आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधी औषधी को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है । पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है ।  
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हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी रहता है । मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये । अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता । गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है । अन य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते । अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे । जप्रसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है । यह स्वाभाविक भी है । आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है । पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है ।  
 
वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी भी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है ।  किन्तु वर्तमान भारतीय नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है । स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग । माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक ' । विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है । विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है ।  
 
वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी भी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है ।  किन्तु वर्तमान भारतीय नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है । स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग । माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक ' । विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है । विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है ।  
 
उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वप्रसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बप्रठे रहना ठीक नहीं है ।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  ।
 
उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन । वप्रसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है । लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बप्रठे रहना ठीक नहीं है ।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्  ।
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