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यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा । श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुरआन मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है कि अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ । किंतु बायबल और कुरआन के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों समाजों की मान्यता है । जब कि श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है ।  
 
यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा । श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुरआन मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है कि अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ । किंतु बायबल और कुरआन के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों समाजों की मान्यता है । जब कि श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है ।  
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हिंदुत्ववादी लोगों की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है ।
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हिंदुत्ववादी लोगों की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है । एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुध्दि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर भारतीय समाज ने मान्य किया है ।
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एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुध्दि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर भारतीय समाज ने मान्य किया है ।  
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स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है । उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था । वह था: <blockquote>रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुध्दि का वरदान दिया हुआ है । प्रत्येक की बुध्दि भिन्न होती ही है । किसी की बुध्दि में ॠजुता होगी किसी की बुध्दि में कुटिलता होगी । ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी । हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा । कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है । ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है । <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं ।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति ।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है । लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है ।
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“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।
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उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था । वह था:<blockquote>रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुध्दि का वरदान दिया हुआ है । प्रत्येक की बुध्दि भिन्न होती ही है । किसी की बुध्दि में ॠजुता होगी किसी की बुध्दि में कुटिलता होगी ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी । हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है । ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं ।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति ।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है । लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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=== ४ आत्मा, परमात्मा और इस से जुडी मान्यताएं ===
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आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगों की समझ होती है । किन्तु यह सोच ठीक नही है । आत्मा और परमात्मा की भारतीय संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी (spirituality) भी भिन्न संकल्पनाएं है इस विषय पर यह [[Non-Translatable Sanskrit words|लेख]] देखें । गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है । किन्तु यह ठीक नही हे इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे ।  
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“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।
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परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है । यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी इच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्माण किया है । यह है परमात्मा की संकल्पना । अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है । आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? सेमेटिक धर्मों में अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है । इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती । ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है । परमात्मा वैसा नहीं है ।  आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है । वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है । इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है । इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है । 
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=== ४ आत्मा, परमात्मा और इस से जुडी मान्यताएं ===
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भारतीय संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है । जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुआ है । अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है । वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादि और अनंत ही है । कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है कि परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते । ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है कि वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं कि परमात्मा नहीं है । एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है । परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ?  वास्तविक बात तो यह है कि मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है । वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है । शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है । इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुध्दि, बुध्दि से सूक्ष्म चित्त और चित्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है । यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है । परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते । हमारे पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है । उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे ।
आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगों की समझ होती है । किन्तु यह सोच ठीक नही है । आत्मा और परमात्मा की भारतीय संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है । इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी भी भिन्न संकल्पनाएं है । गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है । किन्तु यह ठीक नही हे । इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे ।
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- परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है । यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी ईच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्र्माण की है । यह है परमात्मा की संकल्पना । अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है । छ: दिन में विश्व का निर्माण कर गॉड थक जाता है । वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? जो गॉड डेव्हिल को या जो अल्ला शैतान इब्लिस को नियंत्रण में नही रख सकता वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? सातवें आसमानपर बैठनेवाला अर्थात् एक स्थानपर बैठनेवाला सर्वव्यापी कैसे हो सकता है ? जो सर्वव्यापी नहीं है वह सर्वज्ञानी कैसे हो सकता है ? आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है । इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती । ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है । परमात्मा वैसा नहीं है । जिस प्रकार जिसे विज्ञान पता नहीं है वह भी विज्ञान के वही फल पाता है वैसे ही एक वैज्ञानिक पाता है उसी प्रकार जो परमात्मापर विश्वास नहीं भी रखता किंतु सदाचार से जीता है, परमात्मा की कृपा को प्राप्त होता है । किन्तु ऐसी बात अल्ला या गॉड के विषय में नहीं है । मनुष्य कितना भी सदाचारी हो वह जबतक वह ईसा और गॉड की या पप्रगंबर महम्मद और अल्ला की शरण में नहीं आएगा उसे क्रमश: हेवन या जन्नत की प्राप्ति नहीं होगी ।
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- आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है । वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है । इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है । इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है । भारतीय संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है । जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुआ है । अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है । वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादी और अनंत ही है ।  
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कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है की परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते । ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है की वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं की परमात्मा नहीं है । एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है । परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ?  वास्तविक बात तो यह है की मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है । वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है । शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है । इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुध्दि, बुध्दि से सूक्ष्म चित्त और चइत्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है । यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है । परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते ।  
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अपने पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है । उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे ।  
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४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं
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==== ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं ====
 
हम अमृतपुत्र हैं। हम अमर हैं। अविनाशी हैं। मैं केवल शरीर नहीं हूं । मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं । यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है । मेरा शरीर और मैं, हम भिन्न हैं। जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है । चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है । वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है । आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है ।  
 
हम अमृतपुत्र हैं। हम अमर हैं। अविनाशी हैं। मैं केवल शरीर नहीं हूं । मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं । यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है । मेरा शरीर और मैं, हम भिन्न हैं। जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है । चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है । वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है । आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है ।  
 
‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है । धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है ।
 
‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है । धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है ।
 
आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं। किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है । ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं।
 
आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं। किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है । ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं।
४.२ पंच ॠण : ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों ने अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशू पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि उसपर किसी ने किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता यह मनुष्य का लक्षण नही माना जाता ।       
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==== ४.२ पंच ॠण ====
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ॠण का अर्थ है कर्ज । कृतज्ञता का अर्थ है औरों ने अपने हित में किये उपकारों को याद रखना । और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना । पशू पक्षियों की स्मृति कम होती है । संवेदनाएं भी कम होती है । बुध्दि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है । इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता । किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती । वह यदि उसपर किसी ने किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है । कृतघ्नता यह मनुष्य का लक्षण नही माना जाता ।       
 
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । वे है भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण ।  
 
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है । इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है । वे है भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण ।  
जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जानेपर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनी या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है । इसलिये भारतीय जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है । मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है । उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है ।  
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जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जानेपर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनी या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है । इसलिये भारतीय जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है । मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है । उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है ।
४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ :  पुरूषार्थ शब्द आते ही पुडरूष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरूष शब्द पुत्र शब्द के अर्थ में पुरूष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरूषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरूषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ती के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्यप्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरूषार्थ कहा गया है । इसलिये इन दोनों को पुरूषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरूषार्थों में प्रारंभ तो काम पुरूषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरूषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरूषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है की सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटिपर इच्छाओं की परिक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ती के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरूषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो । मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्मका अविरोधी काम मैं ही हूं ।      
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==== ४.३ चतुर्विध पुरूषार्थ ====
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:  पुरूषार्थ शब्द आते ही पुडरूष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है । भारतीय प्राचीन साहित्य में पुरूष शब्द पुत्र शब्द के अर्थ में पुरूष और स्त्री दोनों का समावेष होता है । भारतीय वर्तनसूत्रों में चार पुरूषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । यह पुरूषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं । और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये किये प्रयासों से । इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा । और इच्छाओं की पूर्ती के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्यप्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है । किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है । इसलिये इच्छाओं को भी पुरूषार्थ कहा गया है । इसलिये इन दोनों को पुरूषार्थ कहा गया है । मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है । यह सभी को ज्ञात है । कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है । कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है । इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है । इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है । और कुछ धर्म विरोधी भी होते है । कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है । ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है । वास्तव में इन पुरूषार्थों में प्रारंभ तो काम पुरूषार्थ से होता है । उस के बाद अर्थ पुरूषार्थ आता है । किन्तु धर्म पुरूषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है की सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटिपर इच्छाओं की परिक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो । केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ती के प्रयास करो । इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरूषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो । धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो । मनुस्मृति में (६-१७६) मे यही कहा है – परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ । श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है । धर्मका अविरोधी काम मैं ही हूं ।      
 
मोक्ष पुरूषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरूषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरूषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है ।  
 
मोक्ष पुरूषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है । वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरूषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है । ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरूषार्थ की योजना है । अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है ।  
४.३.१ धर्म के विषय में अध्याय ३ में हमने लिखा है उसे देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।
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===== ४.३.१ काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थ =====
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धर्म के विषय में अध्याय ३ में हमने लिखा है उसे देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।
 
काम पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं । धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं । सभी इच्छाओं को पुरूषार्थ नही कहा जाता । सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं । वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं । और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें । मेरा आदर सम्मान करें । ऐसी वाहत या यह तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है । किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरूषार्थ नहीं कहलातीं । श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है । काम पुरूषार्थ ही है । किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ट पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरूषार्थ नही काम पुरूषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी । ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है ।
 
काम पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं । धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं । सभी इच्छाओं को पुरूषार्थ नही कहा जाता । सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं । वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं । और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें । मेरा आदर सम्मान करें । ऐसी वाहत या यह तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है । किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरूषार्थ नहीं कहलातीं । श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है । काम पुरूषार्थ ही है । किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ट पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरूषार्थ नही काम पुरूषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी । ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है ।
 
अर्थ पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरूषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्चाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरूषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा की श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ कहता है ।   
 
अर्थ पुरूषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास । अर्थ पुरूषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है । इच्चाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है । तब ही वह प्रयास पुरूषार्थ कहलाया जा सकेगा । ऊपर हमने देखा की श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ कहता है ।   
मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं। व्यक्तिगत विकास, समश्तीगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन औए बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें की धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।
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मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं। व्यक्तिगत विकास, समश्तीगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन औए बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें की धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।
४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् :
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सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी । संत तुलसीदासजी कहते है - परहितसम पुण्य नही भाई परपीडासम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की शध्दा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनतापर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है । मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्याप्त की इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तरपर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते ।   
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==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् ====
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सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी । संत तुलसीदासजी कहते है - परहितसम पुण्य नही भाई परपीडासम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की शध्दा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनतापर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है । मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्याप्त की इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तरपर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते ।   
 
परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।।
 
परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।।
 
परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम् ।।
 
परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम् ।।
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भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारिरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारिरिर्क दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे ।
 
भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारिरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारिरिर्क दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे ।
यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानी होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जबतक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानी नहीं होती तबतक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेल्वे कानून के अनुसार रेल्वे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जबतक मेरे ऐसा करने से किसी को हानी नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहें है । कुछ वर्षपूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वरतमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बेजैसे सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतरतक पीछा नहीं छोडता ।
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यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानी होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जबतक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानी नहीं होती तबतक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेल्वे कानून के अनुसार रेल्वे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जबतक मेरे ऐसा करने से किसी को हानी नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहें है । कुछ वर्षपूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वरतमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बेजैसे सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतरतक पीछा नहीं छोडता ।  
४.५ कर्मसिध्दांत  
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मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।   
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==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
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मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।   
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे ।  
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे ।  
 
क) किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
 
क) किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
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