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=== १. नर करनी करे तो नर का नारायण बन जाये ===
 
=== १. नर करनी करे तो नर का नारायण बन जाये ===
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योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है और आगे देवत्व या परमात्मपद भी पा सकता है । यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन और मान्यता है । अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है । फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह परमात्म्प्द प्राप्त करता है ऐसा भगवद्गीता में कहा है । इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है ।
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योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है और आगे देवत्व या परमात्मपद भी पा सकता है । यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन की मान्यता है । अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है । फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह परमात्मपद प्राप्त करता है ऐसा भगवद्गीता में कहा है । इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है ।  
मनुष्य चार प्रकार के होते है । सब से नीचे के स्तरपर होता है नरराक्षस । औरों को कष्ट देकर इया औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है ।  जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंककर लोगों को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानोंपर लोगों के बदनपर डालकर लोगों की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है ।  
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नरराक्षस से उपरका स्तर होता है नरपशू का । जिस की संवेदनाएं मर गईं है ऐसे मनुष्य को नरपशू कहा जाता है । जिसे ओराप्त के दुख देखकर कोई दर्द नही होता ऐसे मनुष्य को नरपशू कहते है । आपकी बेटी को बहुत अच्छा वर मिला है ।  आपकी बेटी बडी भाग्यवान है । फिर वर के गुणों का बखान किया जाता है ,' कप्रसा नाक की सीध में चलता है । घर से कार्यालय और कार्यालय से सीधा घर । किसी के झंझट मे पडता नही है '। वास्तव में इस वर में और पशू में क्या अंतर है । जो अपने आसपास के दुख-दर्द को समझ नही सकता वह नरपशू नही है तो और क्या है ? किंतु यह भावना समाज में बहुत सामान्य हो गई है ।
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मनुष्य चार प्रकार के होते है ।  
औरों का दुख-दर्द समझनेवाले मनुष्य को नर कहा जाता है । ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं जागृत रहती है । लोगों के दर्द निवारण के लिये मै कुछ करूं ऐसा उस का मन करता है । लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नही रखता ।  
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दुखी लोगों के साथ सहानुभूति के कारण जो लोगों के दर्द दूर करने का प्रयास करता है उसे नरोत्तम कहते है । ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं इतनी तीव्र होती है की वे उसे स्वस्थ बप्रठने नही देतीं । ऐसी लोगों की मदद करने की उस की लगन की तीव्रता के अनुसार उस का नरोत्तमता का प्रमाण तय होता है । ऐसे नरोत्तम की परिसीमा ही परमात्मपद प्राप्ति है । संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता ' । इस का अर्थ यह है की अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही । जो कुछ जीना हे बस लोगों के लिये । यही है परमात्मपद प्राप्ति की अवस्था । और ऐसा कहते है की संत तुकाराम सदेह परमात्म्पद को प्राप्त हुवे
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सब से नीचे के स्तरपर होता है '''नरराक्षस''' । औरों को कष्ट देकर या औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है ।  जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंक कर लोगों को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानों पर लोगों के बदन पर डालकर लोगों की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है ।  
प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जप्रसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है की जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशू और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है ।
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संक्षेप में ऐसा कह सकते है -
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नरराक्षस से उपरका स्तर होता है '''नरपशू''' का । जिस की संवेदनाएं मर गईं है ऐसे मनुष्य को नरपशू कहा जाता है । जिसे अन्य के दुख देखकर कोई दर्द नही होता ऐसे मनुष्य को नरपशू कहते है । नरपशू नाक की सीध में चलता है । किसी के झंझट मे पडता नही है । जो अपने आसपास के दुख-दर्द को समझ नही सकता वह नरपशू नही है तो और क्या है ? किंतु यह भावना समाज में बहुत सामान्य हो गई है ।  
परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥  
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औरों का दुख-दर्द समझनेवाले मनुष्य को '''नर''' कहा जाता है । ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं जागृत रहती है । लोगों के दर्द निवारण के लिये मै कुछ करूं ऐसा उस का मन करता है । लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नही रखता ।  
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दुखी लोगों के साथ सहानुभूति के कारण जो लोगों के दर्द दूर करने का प्रयास करता है उसे '''नरोत्तम''' कहते है । ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं इतनी तीव्र होती है की वे उसे स्वस्थ बैठने नही देतीं । ऐसी लोगों की मदद करने की उस की लगन की तीव्रता के अनुसार उस का नरोत्तमता का प्रमाण तय होता है । ऐसे नरोत्तम की परिसीमा ही परमात्मपद प्राप्ति है ।
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संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता ' । इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही । जो कुछ जीना हे बस लोगों के लिये । यही है परमात्मपद प्राप्ति की अवस्था । और ऐसा कहते है कि संत तुकाराम सदेह परमात्म्पद को प्राप्त हुए ।  
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प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशू और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है ।  
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संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं: <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये</blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote>
    
=== २ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात् ===
 
=== २ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात् ===
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मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव । शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥
 
मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव । शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥
 
किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधी गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है । उस के बाद ही वह औषधी बनाने के लिये योग्य बनता है ।  
 
किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधी गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है । उस के बाद ही वह औषधी बनाने के लिये योग्य बनता है ।  
महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है । किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था । ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुवे ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था । साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था ।
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महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है । किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था । ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था । साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था ।
    
२.१ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता:
 
२.१ आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता:
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मेरे साथ यदि कोई पशूजैसा व्यवहार करे तो मै क्या करूं ? ऐसी स्थिति में भारतीय विचार में अपनी बुध्दी का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते है की वेद उपनिषद भी चिल्लाचिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा । क्यों कि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है । पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता मै १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है ‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो ।  
 
मेरे साथ यदि कोई पशूजैसा व्यवहार करे तो मै क्या करूं ? ऐसी स्थिति में भारतीय विचार में अपनी बुध्दी का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते है की वेद उपनिषद भी चिल्लाचिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा । क्यों कि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है । पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता मै १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है ‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो ।  
 
यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा । श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुर्रान मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है की अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ । किंतु बायबल और कुर्रान के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों असहिष्णू समाजों की मान्यता है । जब की श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है । हिंदुत्ववादी लोगों की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है ।
 
यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा । श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुर्रान मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है की अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ । किंतु बायबल और कुर्रान के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों असहिष्णू समाजों की मान्यता है । जब की श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है । हिंदुत्ववादी लोगों की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है ।
एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुध्दि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर भारतीय समाज ने मान्य किया है । स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुवे संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है । उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था । वह था -
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एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुध्दि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर भारतीय समाज ने मान्य किया है । स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है । उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था । वह था -
 
रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
 
रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
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मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।   
 
मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।   
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे ।  
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे ।  
क) किये हुवे अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
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क) किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
 
ख) किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता ।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है की पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे यह हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है की पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही खतम हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं ।  
 
ख) किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता ।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है की पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे यह हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है की पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही खतम हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं ।  
विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुवे है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है । इसे समझना महत्वपूर्ण है ।  
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विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है । इसे समझना महत्वपूर्ण है ।  
 
यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है । एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है । दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है । तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है । संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनी को कर्मयोनी कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनीयाँ कहा जाता है।
 
यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है । एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है । दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है । तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है । संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनी को कर्मयोनी कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनीयाँ कहा जाता है।
 
ग) जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है यह  है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है ।   
 
ग) जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है यह  है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है ।   
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५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग :
 
५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग :
 
अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है ।  
 
अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है ।  
वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेलपर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराकपर हुवे हमले से यही सिध्द हुआ है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये वस्तू और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है ।  
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वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेलपर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराकपर हुए हमले से यही सिध्द हुआ है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये वस्तू और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है ।  
 
इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जबतक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता ।  
 
इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जबतक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता ।  
 
६  यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे  
 
६  यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे  
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८.२ ग्रामकुल
 
८.२ ग्रामकुल
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अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ऐसे ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुवे थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जप्रसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जप्रसे पप्रसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जप्रसे परिवार के सभी लोफगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्य्वस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे ।  
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अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ऐसे ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जप्रसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जप्रसे पप्रसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जप्रसे परिवार के सभी लोफगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्य्वस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे ।  
 
८.३ वसुधैव कुटुंबकम् :
 
८.३ वसुधैव कुटुंबकम् :
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९.१ पंच ॠण  
 
९.१ पंच ॠण  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
 
    ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है ।  
ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधी बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुवे लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनी या मनुष्य योनी में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
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ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधी बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनी या मनुष्य योनी में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
 
९.१.१ पितर ॠण  
 
९.१.१ पितर ॠण  
 
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
 
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
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