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== जीवन दृष्टि के सूत्र ==
 
== जीवन दृष्टि के सूत्र ==
प्राचीन काल से ही मै कौन हूं? कहाँ से आया हूं? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या है ? मरने के बाद मै कहाँ जाऊंगा? आदि प्रश्नों के उत्तर हमारे पूर्वजों ने खोज निकाले थे। वह उत्तर आज भी उतने ही सटीक हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिये जो चिंतन हुवा उस का सार निम्न है।
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प्राचीन काल से ही मै कौन हूं? कहाँ से आया हूं? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या है ? मरने के बाद मै कहाँ जाऊंगा? आदि प्रश्नों के उत्तर हमारे पूर्वजों ने खोज निकाले थे। वह उत्तर आज भी उतने ही सटीक हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिये जो चिंतन हुआ हुआ उस का सार निम्न है:
१.  चराचर अर्थात् जड और चेतन सृष्टि यह आत्मतत्त्व का ही विस्तार है। इस लिये चराचर के प्रत्येक घटक का एक दूसरे से आत्मीयता का संबंध है। आत्मीयता शब्द ही आत्मतत्त्व से बना है। आत्मीयता से व्यवहार के सूत्र प्रेम, सेवा और त्याग है। आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति परिवार भावना है।
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# चराचर अर्थात् जड़ और चेतन सृष्टि यह आत्म तत्व का ही विस्तार है। इस लिये चराचर के प्रत्येक घटक का एक दूसरे से आत्मीयता का संबंध है। आत्मीयता शब्द ही आत्मतत्व से बना है। आत्मीयता से व्यवहार के सूत्र प्रेम, सेवा और त्याग है। आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति परिवार भावना है।
२. आत्मतत्त्व परम चैतन्यमय है। इस लिये सारी सृष्टि यह चैतन्यमय ही है। जड, जीव, वनस्पति, प्राणी और मानव आदि अक्रिय से लेकर सक्रियतक की चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों को दिये गये नाम है।
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# आत्मतत्व परम चैतन्यमय है। इस लिये सारी सृष्टि यह चैतन्यमय ही है। जड़, जीव, वनस्पति, प्राणी और मानव आदि अक्रिय से लेकर सक्रिय तक की चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों को दिये गये नाम है।
३. सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्त्व से) से निकले वहाँ (परमात्त्वतत्त्वतक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्त्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
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# सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
४. जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटनेवाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जबतक सृष्टि में उसका ले होगा तबतक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बारबार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।  
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# जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
५. एक मात्र मनुष्य योनी कर्म योनी है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनी में कर्म ही जीवन का नियमन करते है । इसे समझने के लिए ही कर्म सिध्दांत की प्रस्तुति की गयी है।
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# एक मात्र मनुष्य योनी कर्म योनी है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनी में कर्म ही जीवन का नियमन करते है । इसे समझने के लिए ही कर्म सिध्दांत की प्रस्तुति की गयी है।
    
== व्यवहार के सूत्र ==
 
== व्यवहार के सूत्र ==
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सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान इंद्रिय, मन, बुध्दि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान
 
सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान इंद्रिय, मन, बुध्दि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान
 
एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे । खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं । दूरबीन के अगले कांचपर बीच में एक छोटा छेदवाला कागज चिपका दें । अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा । अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखेने दें । तारे गिनने दें । फिर संख्या लिख लें । अब तरों की संख्या कम हो गई होगी । अब एक अंधे को देखने दें । अब संख्या शून्य होगी । अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौनसी है । तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी उत्तर होगा तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है ।  
 
एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे । खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं । दूरबीन के अगले कांचपर बीच में एक छोटा छेदवाला कागज चिपका दें । अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा । अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखेने दें । तारे गिनने दें । फिर संख्या लिख लें । अब तरों की संख्या कम हो गई होगी । अब एक अंधे को देखने दें । अब संख्या शून्य होगी । अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौनसी है । तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी उत्तर होगा तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है ।  
भारतीय मनीषियों की यही विषेषता रही है की जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्हों ने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें । न्यूटन के काल में यदि किसी ने आईनस्टाईन के सिध्दांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुवा था । इसलिये आईनस्टाईन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता । किन्तु आईनस्टाईन के सिध्दांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आईनस्टाईन के काल में ।   
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भारतीय मनीषियों की यही विषेषता रही है की जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्हों ने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें । न्यूटन के काल में यदि किसी ने आईनस्टाईन के सिध्दांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था । इसलिये आईनस्टाईन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता । किन्तु आईनस्टाईन के सिध्दांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आईनस्टाईन के काल में ।   
 
इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है । अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुध्दी का इतना आदर शायद ही दुनियाँ के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा । भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई । किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया । प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरित विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया । यह तो अभारतीय चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसापर उतारू हो जाते है ।  
 
इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है । अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुध्दी का इतना आदर शायद ही दुनियाँ के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा । भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई । किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया । प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरित विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया । यह तो अभारतीय चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसापर उतारू हो जाते है ।  
 
इस पार्श्वभूमिपर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।  
 
इस पार्श्वभूमिपर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।  
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रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
 
रूचीनाम् वैचित्र्यात् ॠजुकुटिल नाना पथजुषां ।  नृणामेको गम्या: त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
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भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुध्दि का वरदान दिया हुवा है । प्रत्येक की बुध्दि भिन्न होती ही है । किसी की बुध्दि में ॠजुता होगी किसी की बुध्दि में कुटिलता होगी । ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी । हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा । कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है । ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है ।  
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भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुध्दि का वरदान दिया हुआ है । प्रत्येक की बुध्दि भिन्न होती ही है । किसी की बुध्दि में ॠजुता होगी किसी की बुध्दि में कुटिलता होगी । ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी । हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा । कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है । ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है ।  
    
आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं ।
 
आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं ।
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आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगों की समझ होती है । किन्तु यह सोच ठीक नही है । आत्मा और परमात्मा की भारतीय संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है । इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी भी भिन्न संकल्पनाएं है । गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है । किन्तु यह ठीक नही हे । इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे ।
 
आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगों की समझ होती है । किन्तु यह सोच ठीक नही है । आत्मा और परमात्मा की भारतीय संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है । इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी भी भिन्न संकल्पनाएं है । गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है । किन्तु यह ठीक नही हे । इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे ।
 
- परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है । यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी ईच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्र्माण की है । यह है परमात्मा की संकल्पना । अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है । छ: दिन में विश्व का निर्माण कर गॉड थक जाता है । वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? जो गॉड डेव्हिल को या जो अल्ला शैतान इब्लिस को नियंत्रण में नही रख सकता वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? सातवें आसमानपर बैठनेवाला अर्थात् एक स्थानपर बैठनेवाला सर्वव्यापी कैसे हो सकता है ? जो सर्वव्यापी नहीं है वह सर्वज्ञानी कैसे हो सकता है ? आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है । इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती । ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है । परमात्मा वैसा नहीं है । जिस प्रकार जिसे विज्ञान पता नहीं है वह भी विज्ञान के वही फल पाता है वैसे ही एक वैज्ञानिक पाता है उसी प्रकार जो परमात्मापर विश्वास नहीं भी रखता किंतु सदाचार से जीता है, परमात्मा की कृपा को प्राप्त होता है । किन्तु ऐसी बात अल्ला या गॉड के विषय में नहीं है । मनुष्य कितना भी सदाचारी हो वह जबतक वह ईसा और गॉड की या पप्रगंबर महम्मद और अल्ला की शरण में नहीं आएगा उसे क्रमश: हेवन या जन्नत की प्राप्ति नहीं होगी ।  
 
- परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है । यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी ईच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्र्माण की है । यह है परमात्मा की संकल्पना । अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है । छ: दिन में विश्व का निर्माण कर गॉड थक जाता है । वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? जो गॉड डेव्हिल को या जो अल्ला शैतान इब्लिस को नियंत्रण में नही रख सकता वह सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है ? सातवें आसमानपर बैठनेवाला अर्थात् एक स्थानपर बैठनेवाला सर्वव्यापी कैसे हो सकता है ? जो सर्वव्यापी नहीं है वह सर्वज्ञानी कैसे हो सकता है ? आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है । इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती । ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है । परमात्मा वैसा नहीं है । जिस प्रकार जिसे विज्ञान पता नहीं है वह भी विज्ञान के वही फल पाता है वैसे ही एक वैज्ञानिक पाता है उसी प्रकार जो परमात्मापर विश्वास नहीं भी रखता किंतु सदाचार से जीता है, परमात्मा की कृपा को प्राप्त होता है । किन्तु ऐसी बात अल्ला या गॉड के विषय में नहीं है । मनुष्य कितना भी सदाचारी हो वह जबतक वह ईसा और गॉड की या पप्रगंबर महम्मद और अल्ला की शरण में नहीं आएगा उसे क्रमश: हेवन या जन्नत की प्राप्ति नहीं होगी ।  
- आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है । वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है । इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है । इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है । भारतीय संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है । जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुवा है । अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है । वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादी और अनंत ही है ।  
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- आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है । वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है । इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है । इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है । भारतीय संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है । जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुआ है । अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है । वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादी और अनंत ही है ।  
 
कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है की परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते । ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है की वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं की परमात्मा नहीं है । एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है । परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ?  वास्तविक बात तो यह है की मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है । वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है । शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है । इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुध्दि, बुध्दि से सूक्ष्म चित्त और चइत्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है । यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है । परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते ।  
 
कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है की परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते । ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है की वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं की परमात्मा नहीं है । एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है । परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ?  वास्तविक बात तो यह है की मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है । वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है । शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है । इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुध्दि, बुध्दि से सूक्ष्म चित्त और चइत्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है । यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है । परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते ।  
 
अपने पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है । उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे ।  
 
अपने पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है । उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे ।  
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मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं। व्यक्तिगत विकास, समश्तीगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन औए बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें की धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।   
 
मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा । हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं। व्यक्तिगत विकास, समश्तीगत विकास और सृष्टी गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन औए बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टी गत विकास का अर्थ है सृष्टी के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें की धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरूषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है ।   
 
४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् :  
 
४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् :  
सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी । संत तुलसीदासजी कहते है - परहितसम पुण्य नही भाई परपीडासम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की शध्दा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनतापर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है । मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्याप्त की इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुवा । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड के विकास में किसी स्तरपर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते ।   
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सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी । संत तुलसीदासजी कहते है - परहितसम पुण्य नही भाई परपीडासम नही अधमाई । तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा । मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी भारतीय समाज की शध्दा है । इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) भारतीय राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनतापर कभी अत्याचार नहीं किये । किन्तु इहवादी भारतीय अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है । मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है । इन्हें इहवादी कहा जाता है । ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है । योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे । योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया । यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्याप्त की इन की मान्यता इहवादी थी । ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ । इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है । जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तरपर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया । ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते ।   
 
परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।।
 
परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।।
 
परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम् ।।
 
परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम् ।।
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भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारिरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारिरिर्क दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे ।
 
भारतीय मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है । और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है । और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है । हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है । कृति तो प्रत्यक्ष शारिरिक पीडा देनेवाला कार्य है । उस का फल शारिरिर्क दृष्टि से भोगना ही पडेगा । आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे ।
यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानी होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जबतक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानी नहीं होती तबतक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेल्वे कानून के अनुसार रेल्वे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जबतक मेरे ऐसा करने से किसी को हानी नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहें है । कुछ वर्षपूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुवा करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वरतमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बेजैसे सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतरतक पीछा नहीं छोडता ।   
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यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है । वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है । ऐसी कृति से किसी को हानी होती हो या ना होती हो वह अपराध है । और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है । किंतु हमारी कृति से जबतक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानी नहीं होती तबतक वह पाप नहीं है । भारतीय सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेल्वे कानून के अनुसार रेल्वे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है । किंतु जबतक मेरे ऐसा करने से किसी को हानी नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहें है । कुछ वर्षपूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी । और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे । उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था । दंडनीय नहीं था । किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी । इसलिये वह पाप अवश्य था । वरतमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बेजैसे सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है । अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है । किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतरतक पीछा नहीं छोडता ।   
 
४.५ कर्मसिध्दांत  
 
४.५ कर्मसिध्दांत  
 
मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।   
 
मनुष्य को सन्मार्गपर रखने के लिये भारतीय मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे । कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है । कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ ऐसा जीवनदर्शन है । किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।   
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे ।  
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत यह पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ और शस्त्रशुध्द सिद्धांत है। भारतीय विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है । जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता । यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है । इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही । यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता । वह अंततक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है । अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे ।  
क) किये हुवे अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुवा है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
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क) किये हुवे अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है । अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है । मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये । यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया । इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे । इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया । तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा । मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है । तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे । जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है । उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है । थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं ।  
 
ख) किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता ।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है की पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे यह हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है की पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही खतम हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं ।  
 
ख) किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता ।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है । जैसे हम बाजार जाते है । यह विचार कर के जाते है की पालक की सब्जी लाएंगे । और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है । इस में पैसे यह हमारा संचित कर्म है । और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है की पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही खतम हो गई है । यह बात हमारे हाथ में नहीं है । किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं ।  
विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुवे है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुवा वैज्ञानिक  सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुवा है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुवा है । इसे समझना महत्वपूर्ण है ।  
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विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे । बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुवे है । अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है । यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिध्दांत । अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया । पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली । अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा । आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं । इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते । तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है । उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है । फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है । इसे समझना महत्वपूर्ण है ।  
 
यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है । एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है । दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है । तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है । संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनी को कर्मयोनी कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनीयाँ कहा जाता है।
 
यहाँ कर्म की भारतीय संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा । कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है । एक है संचित कर्म । हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है । यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है । दूसरा है प्रारब्ध कर्म । हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है । तीसरा होता है क्रियमाण कर्म । वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है । संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है । किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है । इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनी को कर्मयोनी कहा जाता है । अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते । उन्हें भोगयोनीयाँ कहा जाता है।
 
ग) जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है यह  है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है ।   
 
ग) जिस की बुध्दि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है । अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुध्दि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है यह  है । और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है । जिस की बुध्दि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते । वह अपनी बुध्दि के हिसाब से काम कर ही लेता है । अल्पबुध्दिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुध्दि से होता ही है ।   
 
घ) कर्मफलों का जोड या घट नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है । अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है । दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं  की पत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है । अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते । दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है ।
 
घ) कर्मफलों का जोड या घट नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है । अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है । दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं  की पत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है । अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते । दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है ।
च) परमात्मा सर्वशक्तिमान है । किन्तु वह आपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुवा है ।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है । उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है । किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है । फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों ।  
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च) परमात्मा सर्वशक्तिमान है । किन्तु वह आपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है ।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है । उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है । किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है । फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों ।  
 
हमारे कई संत कहते है की परमात्मा दयालू है । किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं की परमात्मा भक्त की परिक्षा लेता है । परिक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है की बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है । परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परिक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते ।
 
हमारे कई संत कहते है की परमात्मा दयालू है । किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं की परमात्मा भक्त की परिक्षा लेता है । परिक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है की बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है । परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परिक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते ।
 
वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है । केवल पाद्री को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है । इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे । साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे । ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे । किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता ।  
 
वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है । केवल पाद्री को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है । इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर महम्मदपर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे । साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे । ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे । किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता ।  
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जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था । सन्यास की अनुमति थी । स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जबतक एक भी भारतीय दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये । यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है । अपना काम ठीक करना चाहिये । लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है । इस के साथ ही जबतक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता । अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है । और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है । यह है भारतीय मान्यता ।  
 
जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था । सन्यास की अनुमति थी । स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जबतक एक भी भारतीय दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये । यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है । अपना काम ठीक करना चाहिये । लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है । इस के साथ ही जबतक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता । अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है । और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है । यह है भारतीय मान्यता ।  
 
५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग :
 
५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग :
अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुवा है ।  
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अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है ।  
वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेलपर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराकपर हुवे हमले से यही सिध्द हुवा है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये वस्तू और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है ।  
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वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेलपर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराकपर हुवे हमले से यही सिध्द हुआ है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये वस्तू और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है ।  
 
इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जबतक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता ।  
 
इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जबतक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता ।  
 
६  यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे  
 
६  यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे  
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७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास   
 
७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास   
 
कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासोंपर है जब की अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्षपर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है । एक कहानी के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे ।
 
कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासोंपर है जब की अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्षपर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है । एक कहानी के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे ।
दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्री में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुवा । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी ।  
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दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्री में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी ।  
योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर , ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुवा था ।  
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योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर , ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था ।  
 
अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्सेपर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरेधीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है ।
 
अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्सेपर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरेधीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है ।
 
वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्योंपर बल देना चाहिये था । स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी । और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये ।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है । माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।  
 
वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्योंपर बल देना चाहिये था । स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी । और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये ।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है । माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।  
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- बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथी का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशू, पक्षी, पाप्रधे आदि परिवार के घटक ही है ऐसा उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे ।   
 
- बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथी का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशू, पक्षी, पाप्रधे आदि परिवार के घटक ही है ऐसा उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे ।   
 
- मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती । आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं तो भावनिक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है । इस भावनिक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है ।  
 
- मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती । आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं तो भावनिक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है । इस भावनिक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है ।  
- अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है । इन सब समस्याओं की जड तो अभारतीय जीवनशप्रली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है ।  
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- अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है । इन सब समस्याओं की जड़ तो अभारतीय जीवनशप्रली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है ।  
 
- आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है । विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवारपर होता है एकत्रित परिवारपर नहीं होता है ।
 
- आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है । विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवारपर होता है एकत्रित परिवारपर नहीं होता है ।
 
- एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है । अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है । विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है । पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण  एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है । इस संदर्भ में एक मजेदार और मार्मिक ऐसी दो पंक्तियाँ हिंदी प्रदेश में सुनने में आती है ।  
 
- एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है । अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है । विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है । पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण  एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है । इस संदर्भ में एक मजेदार और मार्मिक ऐसी दो पंक्तियाँ हिंदी प्रदेश में सुनने में आती है ।  
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ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधी बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुवे लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनी या मनुष्य योनी में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
 
ॠण का अर्थ है कर्जा । किसी ने मेरे उपर किये उपकार का बोझ । पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक आदी जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुध्दि का विकास अत्यंत अल्प होता है । इस कारण से इन में ना ही किसीपर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की । इसलिये पशू, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है । मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है । इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है । मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में । अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है । अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता । उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधी बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है । जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का साप्रभाग्य मिला है । गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुवे लोगों से कई बातें सीखता है । जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है । माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है । हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है । उपकारों का बोझ बढता जाता है । बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनी या मनुष्य योनी में हीन स्तर को प्राप्त होता है । इन उपकारों को भारतीय मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है । वे निम्न है ।     
 
९.१.१ पितर ॠण  
 
९.१.१ पितर ॠण  
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुवा है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
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अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है । उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता । इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं ।  
 
श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है । मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं । ऐसा ना करने से मुझे पशू, पक्षी आदी जप्रसी हीन योनी में या हीन मानव के स्तरपर जन्म लेना पडेगा ।
 
श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है । मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं । ऐसा ना करने से मुझे पशू, पक्षी आदी जप्रसी हीन योनी में या हीन मानव के स्तरपर जन्म लेना पडेगा ।
 
९.१.२ भूतॠण  
 
९.१.२ भूतॠण  
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९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ती )  
 
९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ती )  
 
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
 
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधी करने की प्रथा थी । इस विधी में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी । यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे । यह संकल्प १५ थे । इन में कहा गया है की दान श्रध्दा से दो । भय के कारण दो । लज्जा के कारण दो । मित्रता के कारण दो । अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो ।  
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुवा । और कलियुग में सृष्टि केवल दानपर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देनेवाला देता जाए । लेनेवाला लेता जाए । लेनेवाला एक दिन देनेवाले के देनेवाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरूषार्थ की पराकाष्टा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं इस भावना से करो ।  
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कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे । हर युग में एक एक आधार कम हुआ । और कलियुग में सृष्टि केवल दानपर चलेगी । कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है । भारतीय समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है । देनेवाला देता जाए । लेनेवाला लेता जाए । लेनेवाला एक दिन देनेवाले के देनेवाले हाथ ले ले । अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले । किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे । पुरूषार्थ की पराकाष्टा करो । खूब धन कमाओ । लेकिन यह सब मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं इस भावना से करो ।  
 
भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देनेवाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
 
भारतीय शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है । डोनेशन देनेवाला बडा होता है । लेनेवाला छोटा माना जाता है । किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है । एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है । यह इस का मेरे उपर उपकार है । मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं । दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था ।  
 
दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी ।
 
दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी ।
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श्रेष्ठ शिक्षा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि -
 
श्रेष्ठ शिक्षा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि -
 
साक्षरा विपरिताश्चेत राक्षसा एव केवलम् । सरसो विपरितश्चेत सरसत्वं न मुंचते ॥
 
साक्षरा विपरिताश्चेत राक्षसा एव केवलम् । सरसो विपरितश्चेत सरसत्वं न मुंचते ॥
भावार्थ : मनुष्य शिक्षण के द्वारा केवल साक्षर हुवा होगा तब विपरीत परिस्थिती में उस में छिपा हीन भाव ही प्रकट होगा। राक्षस ही प्रकट होगा। किन्तु उसे यदि मन की शिक्षा मिली है, उस का मन सुसंस्कृत हुवा है तो वह विपरीत परिस्थिती में भी अपने संस्कार नही छोडेगा ।
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भावार्थ : मनुष्य शिक्षण के द्वारा केवल साक्षर हुआ होगा तब विपरीत परिस्थिती में उस में छिपा हीन भाव ही प्रकट होगा। राक्षस ही प्रकट होगा। किन्तु उसे यदि मन की शिक्षा मिली है, उस का मन सुसंस्कृत हुआ है तो वह विपरीत परिस्थिती में भी अपने संस्कार नही छोडेगा ।
 
संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है -  
 
संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है -  
 
मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर ।  किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥  
 
मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर ।  किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥  
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नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा ।  
 
नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा ।  
 
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
 
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, नर का नारायण बनने का अवसर दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
जगत में जड और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है ।
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जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है । जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है । वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये । गती का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही । बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है । कुछ वप्रज्ञानिक कहेंगे की नही यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता । यह अपने आप होता है । किन्तु ऐसे वप्रज्ञानिक बगप्रर किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है । किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है ।
ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुवा और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टी एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान ।   
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ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है । अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है । वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है । यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है । और सृष्टि के अंततक चलेगा । इस ॠणाणू को चलाता काप्रन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई । किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है । किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टी एकदम नियमों के आधारपर एक व्यवस्था से चलती है । यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया ? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा ' यह सब परमात्मा की लीला है '। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं । सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम: । और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की । इसीलिये भारतीय मनीषि घोषणा करते हैं की जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का । अनूभूति के स्तर का । इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान ।   
 
१२ एकात्म जीवनदृष्टि  
 
१२ एकात्म जीवनदृष्टि  
 
अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
 
अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचरपर होनेवाले परिणामों का विचार करना । और चराचर के अहित की बात नहीं करना । भारतीय पध्दति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है । इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है । पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है । फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है । इस पाश्चात्य प्रणालि का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है । टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग । अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ । और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही । अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना ।  
 
इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहें की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता ।
 
इसलिये जब भारतीय दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है । पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है । भारतीय अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहें की जा सकती । वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है । उस की आर्थिक सोच हो सकती है । किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता ।
 
१३ आत्मवत् सर्वभूतेषू
 
१३ आत्मवत् सर्वभूतेषू
पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है । इसी भारतीय मान्यता के आधारपर यह वर्तनसूत्र बना है । मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड चेतन सभी परमर्मतत्व ही है । इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों की ओर से अपेक्षा है । और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता । यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है । इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है । एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है । मनवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है । इस सूत्र का उपयोग करने की पध्दति समझना महत्वपूर्ण है ।  
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पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है । इसी भारतीय मान्यता के आधारपर यह वर्तनसूत्र बना है । मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़ चेतन सभी परमर्मतत्व ही है । इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों की ओर से अपेक्षा है । और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता । यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है । इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है । एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है । मनवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है । इस सूत्र का उपयोग करने की पध्दति समझना महत्वपूर्ण है ।  
 
१३.१ समस्या की ठीक प्रस्तुति करें। जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है । किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है । कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है । कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है । समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है । इसलिये मूल समस्या है वधू के पितापर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव ।  
 
१३.१ समस्या की ठीक प्रस्तुति करें। जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है । किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है । कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है । कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है । समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है । इसलिये मूल समस्या है वधू के पितापर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव ।  
 
१३,२ दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है । दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है ।  
 
१३,२ दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है । दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है ।  
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यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है ।  
 
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है । आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये । ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रग़ के थे । उन्हों ने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया । ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है । इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है । तर्क के लिये मान लिजीये की आर्य यह जाति थी । तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना । इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती । किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर भारतीय समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही । चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है । यह सामान्य ज्ञान की बात है । किन्तु इसे प्रमाणों के आधारपर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है । सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है । फिर भी हमने इतिहास में ' आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है । मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से अधोरेखित होता है ।  
 
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती दुनियाँ उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही दुनियाँ भी आर्य बनने का प्रयास करेगी ।   
 
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता । उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधारपर जबतक शक्ति खडी नहीं की जाती दुनियाँ उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती । सत्यमेव जयते यह अर्धसर्य है । सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है । इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है । अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है । सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा । ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा । दुर्जनों के मन में डर पप्रदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा । तब ही दुनियाँ भी आर्य बनने का प्रयास करेगी ।   
और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी । वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुवा है । इस का प्रभाव बहुत गहरा है । हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है । एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही । इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रहानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते ' । इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा । हम अभिमान से कह रहे है की हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे । यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है । न्याय का है । यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी । वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है । जिस का पक्ष असत्य का है । अन्याय का है । हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है । ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा । इस में भी कवी कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिहलाएं । अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कप्रसे होगी । एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन ' । जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,'  दुनियाँ में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है । वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण । इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा ।  
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और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी । वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुआ है । इस का प्रभाव बहुत गहरा है । हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है । एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही । इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रहानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते ' । इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा । हम अभिमान से कह रहे है की हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे । यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है । न्याय का है । यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी । वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है । जिस का पक्ष असत्य का है । अन्याय का है । हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है । ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा । इस में भी कवी कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिहलाएं । अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कप्रसे होगी । एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन ' । जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,'  दुनियाँ में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है । वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण । इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा ।  
 
१५.१ घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला । उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी।  'निसचर हीन करऊं मही '  दुनियाँ में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे ।
 
१५.१ घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला । उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी।  'निसचर हीन करऊं मही '  दुनियाँ में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे ।
 
१५.२ हमारा पक्ष सत्य का है । इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है ।  
 
१५.२ हमारा पक्ष सत्य का है । इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है ।  
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