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किसी भी जीवंत इकाई के लिए वृद्धि ही जीवन का लक्षण होती है। इस नियम से धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की समझ है ऐसे लोगों की संख्या और इस जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और भौगोलिक क्षेत्र बढ़ते रहना ही धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की जीवन्तता का लक्षण था। इसी को हमारे पूर्वजों ने नाम दिया था “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”। सारे विश्व को आर्य बनाना। “चराचर के साथ आत्मीयता से जुडा हुआ” मानव याने आर्य बनाना।  
 
किसी भी जीवंत इकाई के लिए वृद्धि ही जीवन का लक्षण होती है। इस नियम से धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की समझ है ऐसे लोगों की संख्या और इस जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और भौगोलिक क्षेत्र बढ़ते रहना ही धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की जीवन्तता का लक्षण था। इसी को हमारे पूर्वजों ने नाम दिया था “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”। सारे विश्व को आर्य बनाना। “चराचर के साथ आत्मीयता से जुडा हुआ” मानव याने आर्य बनाना।  
# भारतीय जीवनदृष्टि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जिसमें उपर्युक्त चिरंजीविता के लिए गिनाए गए आवश्यक बिन्दुओं में से पहले चार बिन्दुओं के विषय में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मूलत: धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि में श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन और निर्माण, सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुसार व्यवहार, उसमें से सामाजिक सुख का समष्टीगत होना, पर्यावरण सुसंगत जीवनयापन और जीवनशैली आदि बातें आज भी कुछ मात्रा में भारतधर्मी लोगों के व्यवहार में हैं। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि और वर्तनसूत्रों के विषय में हमने अध्याय ७ और ८ में जान लिया है। बस इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोग (बड़ी संख्या में) और उनके व्यवहार करने की सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाओं या तंत्रों के निर्माण के लिए परिश्रम करने होंगे।
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# धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जिसमें उपर्युक्त चिरंजीविता के लिए गिनाए गए आवश्यक बिन्दुओं में से पहले चार बिन्दुओं के विषय में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मूलत: धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि में श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन और निर्माण, सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुसार व्यवहार, उसमें से सामाजिक सुख का समष्टीगत होना, पर्यावरण सुसंगत जीवनयापन और जीवनशैली आदि बातें आज भी कुछ मात्रा में भारतधर्मी लोगों के व्यवहार में हैं। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि और वर्तनसूत्रों के विषय में हमने अध्याय ७ और ८ में जान लिया है। बस इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोग (बड़ी संख्या में) और उनके व्यवहार करने की सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाओं या तंत्रों के निर्माण के लिए परिश्रम करने होंगे।
# भारतीय जीवनदृष्टि  के अनुसार जीनेवाले लोगों के विश्वभर में विस्तार का शांतिपूर्ण पथ प्रशस्त करना। भारत के इतिहास में इस प्रकार के विस्तार के पुरोधा निम्न रहे हैं।
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# धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि  के अनुसार जीनेवाले लोगों के विश्वभर में विस्तार का शांतिपूर्ण पथ प्रशस्त करना। भारत के इतिहास में इस प्रकार के विस्तार के पुरोधा निम्न रहे हैं।
 
## व्यापारी : भारत का व्यापार विश्वभर में चलता था। १५ वीं सदी पुर्तगाल से वास्को-द-गामा भारत में आया था। वह धार्मिक (भारतीय) व्यापारियोंके साथ में भारत आया था। उस समय भारत के व्यापारी जहाज यूरोप के देशों की तुलना में महाकाय हुआ करते थे। सामान्यत: सभी समाजों में व्यापारी उनकी अप्रामाणिकता के लिए जाने जाते हैं। समाज में सबसे अधिक अप्रामाणिक व्यापारी ही होता है, ऐसा सामान्यत: आज भी विश्वभर के सभी समाज मानते हैं। लेकिन धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के कारण, इसमें विद्यमान कर्म सिद्धान्तपर होनेवाली श्रद्धा के कारण धार्मिक (भारतीय) व्यापारी की यह विशेषता रही की यह भी प्रामाणिकता की मूर्तिस्वरूप हुआ करते थे। इसका परिणाम जिस भी समाजों से धार्मिक (भारतीय) व्यापारी व्यापार करते थे उन समाजोंपर होता था। जिस समाज का व्यापारी भी सत्य व्यापार की परतिमूरती है उस धार्मिक (भारतीय) समाज के प्रति आदर की भावना उस समाज में निर्माण होती थी। इससे वे भारत के लोगों, समाज से जीवन प्रामाणिकता से जीने की कला सीखने के लिए आते थे। यहाँ के विद्वानों को धार्मिक (भारतीय) तत्वज्ञान जानने के लिए अपने देशों में बुलाते थे। अपने देश के युवाओं को और विद्वानों को भी भारत में ज्ञानार्जन के लिए भेजते थे।  
 
## व्यापारी : भारत का व्यापार विश्वभर में चलता था। १५ वीं सदी पुर्तगाल से वास्को-द-गामा भारत में आया था। वह धार्मिक (भारतीय) व्यापारियोंके साथ में भारत आया था। उस समय भारत के व्यापारी जहाज यूरोप के देशों की तुलना में महाकाय हुआ करते थे। सामान्यत: सभी समाजों में व्यापारी उनकी अप्रामाणिकता के लिए जाने जाते हैं। समाज में सबसे अधिक अप्रामाणिक व्यापारी ही होता है, ऐसा सामान्यत: आज भी विश्वभर के सभी समाज मानते हैं। लेकिन धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के कारण, इसमें विद्यमान कर्म सिद्धान्तपर होनेवाली श्रद्धा के कारण धार्मिक (भारतीय) व्यापारी की यह विशेषता रही की यह भी प्रामाणिकता की मूर्तिस्वरूप हुआ करते थे। इसका परिणाम जिस भी समाजों से धार्मिक (भारतीय) व्यापारी व्यापार करते थे उन समाजोंपर होता था। जिस समाज का व्यापारी भी सत्य व्यापार की परतिमूरती है उस धार्मिक (भारतीय) समाज के प्रति आदर की भावना उस समाज में निर्माण होती थी। इससे वे भारत के लोगों, समाज से जीवन प्रामाणिकता से जीने की कला सीखने के लिए आते थे। यहाँ के विद्वानों को धार्मिक (भारतीय) तत्वज्ञान जानने के लिए अपने देशों में बुलाते थे। अपने देश के युवाओं को और विद्वानों को भी भारत में ज्ञानार्जन के लिए भेजते थे।  
 
## धर्म के जानकार/ सांस्कृतिक दूत : किसी भी समाज की नैतिकता का स्तर उस समाज की जीवनदृष्टि कितनी श्रेष्ठ है इसपर निर्भर होता है। साथ ही में उस श्रेष्ठ जीवनदृष्टि की शिक्षा को समाज में स्सर्वत्रिक करनेवाले शिक्षकों, विद्वानों के ज्ञान, आचरण और कुशलातापर भी निर्भर करता है। जब अन्य समाज देखते थे की भारत का सामान्य व्यापारी भी प्रामाणिक है तो ऐसे व्यापारी को निर्माण करनेवाले शिक्षक, विद्वान से मार्गदर्शन पाने की इच्छा उस समाज में बलवती होती होगी। फिर ऐसे शिक्षकों को/ विद्वानों को वे अपने देश में सम्मान के साथ बुलाते थे, विद्वानों के हर प्रकार के सुख सुविधा की चिंता करते थे और अपने देश में रहकर ऐसी ही शिक्षा की प्रतिष्ठापना का अनुरोध करते थे। ऐसे शिक्षक या आचार्य वहाँ राजा से भी अधिक सम्मान पाते थे। ऐसी एक कहावत है कि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, लेकिन विद्वान तो अन्य देशों में भी सम्मान पाता  है। ऐसे आचार्य फिर उस देश में धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की सीख उन समाजों को देते थे। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि या संस्कृति के विश्वसंचार का यही वास्तव है।
 
## धर्म के जानकार/ सांस्कृतिक दूत : किसी भी समाज की नैतिकता का स्तर उस समाज की जीवनदृष्टि कितनी श्रेष्ठ है इसपर निर्भर होता है। साथ ही में उस श्रेष्ठ जीवनदृष्टि की शिक्षा को समाज में स्सर्वत्रिक करनेवाले शिक्षकों, विद्वानों के ज्ञान, आचरण और कुशलातापर भी निर्भर करता है। जब अन्य समाज देखते थे की भारत का सामान्य व्यापारी भी प्रामाणिक है तो ऐसे व्यापारी को निर्माण करनेवाले शिक्षक, विद्वान से मार्गदर्शन पाने की इच्छा उस समाज में बलवती होती होगी। फिर ऐसे शिक्षकों को/ विद्वानों को वे अपने देश में सम्मान के साथ बुलाते थे, विद्वानों के हर प्रकार के सुख सुविधा की चिंता करते थे और अपने देश में रहकर ऐसी ही शिक्षा की प्रतिष्ठापना का अनुरोध करते थे। ऐसे शिक्षक या आचार्य वहाँ राजा से भी अधिक सम्मान पाते थे। ऐसी एक कहावत है कि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, लेकिन विद्वान तो अन्य देशों में भी सम्मान पाता  है। ऐसे आचार्य फिर उस देश में धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की सीख उन समाजों को देते थे। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि या संस्कृति के विश्वसंचार का यही वास्तव है।
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== चिरंजीविता की ओर ==
 
== चिरंजीविता की ओर ==
 
भारत को यदि फिर से चिरंजीवी बनने की दिशा में आगे बढ़ना हो तो निम्न बातें करनी होंगी:  
 
भारत को यदि फिर से चिरंजीवी बनने की दिशा में आगे बढ़ना हो तो निम्न बातें करनी होंगी:  
# भारतीय जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना। प्रारम्भ शिक्षा क्षेत्र से होगा। अध्ययन अनुसंधान का शक्तिशाली दौर चलाना होगा। जीवन के सभी पहलुओं में प्रातिमानिक परिवर्तन के अर्थ क्या हैं इसकी बुद्धियुक्त प्रस्तुति करनी होगी। जीवन के सभी क्षेत्रों से विद्वानों को पहल करनी होगी। क्यों कि प्रतिमान को खंड खंड में नहीं बदला जा सकता। शिक्षा क्षेत्र के विद्वानों ने की हुई अपने अपने क्षेत्र के प्रातिमानिक परिवर्तन के स्वरूप को समझना और ठीक लगे तो उसे प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रयोग करना।  
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# धार्मिक (भारतीय) जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना। प्रारम्भ शिक्षा क्षेत्र से होगा। अध्ययन अनुसंधान का शक्तिशाली दौर चलाना होगा। जीवन के सभी पहलुओं में प्रातिमानिक परिवर्तन के अर्थ क्या हैं इसकी बुद्धियुक्त प्रस्तुति करनी होगी। जीवन के सभी क्षेत्रों से विद्वानों को पहल करनी होगी। क्यों कि प्रतिमान को खंड खंड में नहीं बदला जा सकता। शिक्षा क्षेत्र के विद्वानों ने की हुई अपने अपने क्षेत्र के प्रातिमानिक परिवर्तन के स्वरूप को समझना और ठीक लगे तो उसे प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रयोग करना।  
 
# श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण करना। और आग्रहपूर्वक निर्वहन करना।  
 
# श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण करना। और आग्रहपूर्वक निर्वहन करना।  
 
# तत्वज्ञान कितना भी श्रेष्ठ होवे दुर्बल के तत्वज्ञान को कोइ नहीं पूछता। इसलिए विश्व की ज्ञान और सामरिक सामर्थ्य की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में अपना विकास करना। ऐसा होने से ही लोग हामारा अनुसरण करने की इच्छा और प्रयास करेंगे। आपद्धर्म के रूप में ही अपनी सामरिक शक्ति का उपयोग करना।  
 
# तत्वज्ञान कितना भी श्रेष्ठ होवे दुर्बल के तत्वज्ञान को कोइ नहीं पूछता। इसलिए विश्व की ज्ञान और सामरिक सामर्थ्य की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में अपना विकास करना। ऐसा होने से ही लोग हामारा अनुसरण करने की इच्छा और प्रयास करेंगे। आपद्धर्म के रूप में ही अपनी सामरिक शक्ति का उपयोग करना।  

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