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कोई भी मरना नहीं चाहता। अमर होने की इच्छा सब को होती है। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। इसके साथ ही उसका बीमार नहीं होना, बूढा नहीं होना, गरीब नहीं होना, सदा सुखी होना आदि शर्तें भी यदि जुडी नहीं हैं तो ऐसे अमर मानव का जीवन नरक से भी भयावह बन जाएगा। और वह शीघ्रातिशीघ्र मरने की इच्छा करने लग जाएगा। इसी तथ्य का ज्ञान तथागत गौतम बुद्ध के जीवन को मोड़ देकर उन्हें संसार से विमुख करनेवाला कारक विचार था।  
 
कोई भी मरना नहीं चाहता। अमर होने की इच्छा सब को होती है। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। इसके साथ ही उसका बीमार नहीं होना, बूढा नहीं होना, गरीब नहीं होना, सदा सुखी होना आदि शर्तें भी यदि जुडी नहीं हैं तो ऐसे अमर मानव का जीवन नरक से भी भयावह बन जाएगा। और वह शीघ्रातिशीघ्र मरने की इच्छा करने लग जाएगा। इसी तथ्य का ज्ञान तथागत गौतम बुद्ध के जीवन को मोड़ देकर उन्हें संसार से विमुख करनेवाला कारक विचार था।  
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इसलिए अमर या चिरंजीवी बनने के साथ सदा सुखी होने की क्षमता की आवश्यकता उस मानव में होना आवश्यक है। लेकिन जीवन में सुख और दु:ख दोनों होते ही हैं। निर्जीव को सुख और दु:ख दोनों की संवेदनाएं नहीं होतीं। लेकिन मानव तो सजीव होने के साथ ही अत्यंत संवेदनशील जीव भी है। इसलिए किसी भी मानव के लिए वह जब सुख और दु:ख दोनों से परे हो जाएगा तब ही चिरंजीवी बनने में औचित्य होता है। भारतीय मान्यता है कि सात लोग चिरंजीवी बने हैं। कहा है {{Citation needed}} :
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इसलिए अमर या चिरंजीवी बनने के साथ सदा सुखी होने की क्षमता की आवश्यकता उस मानव में होना आवश्यक है। लेकिन जीवन में सुख और दु:ख दोनों होते ही हैं। निर्जीव को सुख और दु:ख दोनों की संवेदनाएं नहीं होतीं। लेकिन मानव तो सजीव होने के साथ ही अत्यंत संवेदनशील जीव भी है। इसलिए किसी भी मानव के लिए वह जब सुख और दु:ख दोनों से परे हो जाएगा तब ही चिरंजीवी बनने में औचित्य होता है। धार्मिक (भारतीय) मान्यता है कि सात लोग चिरंजीवी बने हैं। कहा है {{Citation needed}} :
    
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च बिभीषण:  ।
 
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च बिभीषण:  ।
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कृप: परशुरामश्च सप्तै ते चिरजीविन: ।।
 
कृप: परशुरामश्च सप्तै ते चिरजीविन: ।।
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लेकिन अश्वत्थामा जैसा अपने जख्म और उनसे होनेवाली वेदनाएं लेकर अमर बनना कोई नहीं चाहता। भारतीय मान्यता के अनुसार सात चिरंजीवी लोगों में से अन्य बलि, व्यास, हनुमान, बिभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये जो छ: चिरंजीवी लोग हैं वे इस सुख और दुःख से परे गए हुए लोग हैं। उनके जैसे हम बनें ऐसी प्रार्थना लोग नित्य करते हैं।  
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लेकिन अश्वत्थामा जैसा अपने जख्म और उनसे होनेवाली वेदनाएं लेकर अमर बनना कोई नहीं चाहता। धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार सात चिरंजीवी लोगों में से अन्य बलि, व्यास, हनुमान, बिभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये जो छ: चिरंजीवी लोग हैं वे इस सुख और दुःख से परे गए हुए लोग हैं। उनके जैसे हम बनें ऐसी प्रार्थना लोग नित्य करते हैं।  
    
हमारे पूर्वजों ने यह सुख दुःख के परे जाने की प्रक्रिया को ढूंढा था। उस प्रक्रिया के अनुसार प्रत्यक्ष जीने का तरीका उन्होंने आत्मसात किया था। केवल इसीलिये भारत एक चिरंजीवी राष्ट्र बन सका है। आज भी इस तत्वज्ञान को जानने वाले लोग अच्छी खासी संख्या में भारत राष्ट्र में विद्यमान हैं। इस तत्वज्ञान के अनुसार जीने की शायद उनकी क्षमता नहीं होगी लेकिन इस में उनका विश्वास अवश्य है। इस प्रक्रिया के अनुसार जीनेवालों की संख्या में जिस प्रमाण में कमी आ रही है, भारत राष्ट्र की चिरंजीविता उसी प्रमाण में घट रही है।
 
हमारे पूर्वजों ने यह सुख दुःख के परे जाने की प्रक्रिया को ढूंढा था। उस प्रक्रिया के अनुसार प्रत्यक्ष जीने का तरीका उन्होंने आत्मसात किया था। केवल इसीलिये भारत एक चिरंजीवी राष्ट्र बन सका है। आज भी इस तत्वज्ञान को जानने वाले लोग अच्छी खासी संख्या में भारत राष्ट्र में विद्यमान हैं। इस तत्वज्ञान के अनुसार जीने की शायद उनकी क्षमता नहीं होगी लेकिन इस में उनका विश्वास अवश्य है। इस प्रक्रिया के अनुसार जीनेवालों की संख्या में जिस प्रमाण में कमी आ रही है, भारत राष्ट्र की चिरंजीविता उसी प्रमाण में घट रही है।
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नश्वर का अर्थ सामान्यत: “नष्ट होनेवाली” से लिया जाता है। लेकिन अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि सृष्टि में कोई भी वस्तु या पदार्थ नष्ट नहीं होता। उसके रूप में परिवर्तन होता है। इसलिए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि रूप में परिवर्तन को ही नश्वरता कहते हैं। फिर अमरता क्या है?   
 
नश्वर का अर्थ सामान्यत: “नष्ट होनेवाली” से लिया जाता है। लेकिन अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि सृष्टि में कोई भी वस्तु या पदार्थ नष्ट नहीं होता। उसके रूप में परिवर्तन होता है। इसलिए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि रूप में परिवर्तन को ही नश्वरता कहते हैं। फिर अमरता क्या है?   
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श्रीमद्भगवद्गीता में तीन प्रकार के पुरूषों का वर्णन हैं। क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष और उत्तम पुरूष। कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-16 व 15-17 </ref>: <blockquote>द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थो$क्षर उच्यते । (भ.गी. १५ – १६) </blockquote><blockquote>उत्तम: पुरुषस्त्वन्य परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्य व्यय ईश्वर ।  (भ.गी. १५  - १७) </blockquote><blockquote>अर्थ : इस विश्व में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो पुरुष हैं। सभी अस्तित्वों के शरीर नाशवान हैं। नाशवान का अर्थ है जिनमें परिवर्तन होता है। अविनाशी का अर्थ है जिनमें परिवर्तन नहीं होता। दूसरा पुरुष अविनाशी है याने अमर है। याने जो अपना रूप नहीं बदलता। इसे ही भारतीय विचारों में आत्मा कहा गया है। तीसरा पुरुष है वह है उत्तम पुरुष याने परमात्मा। </blockquote>इसी तरह इसी अध्याय के ७वें श्लोक में कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>: <blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । </blockquote><blockquote>याने सभी शरीरों में उपस्थित जीवात्मा मेरा अंश ही है। </blockquote>चिरंजीवी से तात्पर्य इस परिवर्तनशील पुरुष से नहीं है। वह है उस जीवात्मा से जो अविनाशी है। जब हम शरीर के स्तरपर जीते हैं याने मैं शरीर हूँ ऐसी भावना से जीते हैं तब हम नाशवान हो जाते हैं। लेकिन जब हम जीवात्मा जो परमात्मा का ही अंश है, के स्तरपर जीते हैं तब हम अविनाशी याने चिरंजीवी बन जाते हैं। तो चिरंजीवी बनने से तात्पर्य मै अविनाशी हूँ, ऐसी मन की श्रद्धा से है। ऐसी जब किसी समाज की श्रद्धा बन जाती है तब भी वह समाज चिरंजीवी बन जाता है।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में तीन प्रकार के पुरूषों का वर्णन हैं। क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष और उत्तम पुरूष। कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-16 व 15-17 </ref>: <blockquote>द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थो$क्षर उच्यते । (भ.गी. १५ – १६) </blockquote><blockquote>उत्तम: पुरुषस्त्वन्य परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्य व्यय ईश्वर ।  (भ.गी. १५  - १७) </blockquote><blockquote>अर्थ : इस विश्व में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो पुरुष हैं। सभी अस्तित्वों के शरीर नाशवान हैं। नाशवान का अर्थ है जिनमें परिवर्तन होता है। अविनाशी का अर्थ है जिनमें परिवर्तन नहीं होता। दूसरा पुरुष अविनाशी है याने अमर है। याने जो अपना रूप नहीं बदलता। इसे ही धार्मिक (भारतीय) विचारों में आत्मा कहा गया है। तीसरा पुरुष है वह है उत्तम पुरुष याने परमात्मा। </blockquote>इसी तरह इसी अध्याय के ७वें श्लोक में कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>: <blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । </blockquote><blockquote>याने सभी शरीरों में उपस्थित जीवात्मा मेरा अंश ही है। </blockquote>चिरंजीवी से तात्पर्य इस परिवर्तनशील पुरुष से नहीं है। वह है उस जीवात्मा से जो अविनाशी है। जब हम शरीर के स्तरपर जीते हैं याने मैं शरीर हूँ ऐसी भावना से जीते हैं तब हम नाशवान हो जाते हैं। लेकिन जब हम जीवात्मा जो परमात्मा का ही अंश है, के स्तरपर जीते हैं तब हम अविनाशी याने चिरंजीवी बन जाते हैं। तो चिरंजीवी बनने से तात्पर्य मै अविनाशी हूँ, ऐसी मन की श्रद्धा से है। ऐसी जब किसी समाज की श्रद्धा बन जाती है तब भी वह समाज चिरंजीवी बन जाता है।  
    
=== विकास और मृत्यू ===
 
=== विकास और मृत्यू ===
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चिरंजीवी बनने का अर्थ है निरंतर (निर्माण होनेवाली अतिरिक्त पेशियों के कारण) वर्धिष्णु रहना। यह तो हुआ मनुष्य के विषय में चिरंजीविता की पूर्वशर्त। समाज या राष्ट्र भी एक जीवंत इकाई होते हैं। इनमें भी ये जबतक बढ़ाते रहते हैं, वर्धिष्णु रहते हैं तबतक जीते हैं। घटना शुरू हुआ कि ये नष्ट होने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। इसलिए किसी भी जीव की चिरंजीविता की यह आवश्यक शर्त है कि वह बढ़ता रहे, वर्धिष्णु रहे। भारत का इतिहास भी यही बताता है कि भारत जब तक वर्धिष्णु था भारत पर बाहर से आक्रमण नहीं हुए। और जैसे ही भारत ने अपनी वर्धिष्णुता खोई इसका आकुंचन शुरू हो गया। भारत अब भी कुछ जीवित है इसका एकमात्र कारण है कि भारत विस्तार करते करते विश्वमय हो गया था इसीलिये अन्य समाजों जैसा यह नष्ट नहीं हो सका। लेकिन यह जिस आकुंचन के दौर में जी रहा है यह उसे मृत्यू की याने नष्ट होने की दिशा में ही ले जा रहा है।   
 
चिरंजीवी बनने का अर्थ है निरंतर (निर्माण होनेवाली अतिरिक्त पेशियों के कारण) वर्धिष्णु रहना। यह तो हुआ मनुष्य के विषय में चिरंजीविता की पूर्वशर्त। समाज या राष्ट्र भी एक जीवंत इकाई होते हैं। इनमें भी ये जबतक बढ़ाते रहते हैं, वर्धिष्णु रहते हैं तबतक जीते हैं। घटना शुरू हुआ कि ये नष्ट होने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। इसलिए किसी भी जीव की चिरंजीविता की यह आवश्यक शर्त है कि वह बढ़ता रहे, वर्धिष्णु रहे। भारत का इतिहास भी यही बताता है कि भारत जब तक वर्धिष्णु था भारत पर बाहर से आक्रमण नहीं हुए। और जैसे ही भारत ने अपनी वर्धिष्णुता खोई इसका आकुंचन शुरू हो गया। भारत अब भी कुछ जीवित है इसका एकमात्र कारण है कि भारत विस्तार करते करते विश्वमय हो गया था इसीलिये अन्य समाजों जैसा यह नष्ट नहीं हो सका। लेकिन यह जिस आकुंचन के दौर में जी रहा है यह उसे मृत्यू की याने नष्ट होने की दिशा में ही ले जा रहा है।   
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वैसे तो भारत की चिरंजीविता को चुनौती कई बार मिली है। लेकिन हमारे पूर्वजों ने उन चुनौतियों पर मात कर भारत को चिरंजीवी बनाए रखा। वर्तमान में जो चुनौती हमारे सम्मुख है वह शायद अभीतक की चुनौतियों में सबसे गंभीर चुनौती है। यह चुनौती जीवन के पूरे प्रतिमान को, जो वर्तमान में अभारतीय बन गया है, उसे भारतीय बनाने की है। पूरे प्रतिमान को ठीक करने की चुनौती का सामना आज तक कभी भारत ने नहीं किया है। इसलिए इससे निपटने का पूर्वानुभव भी हमारे पास नहीं है।  
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वैसे तो भारत की चिरंजीविता को चुनौती कई बार मिली है। लेकिन हमारे पूर्वजों ने उन चुनौतियों पर मात कर भारत को चिरंजीवी बनाए रखा। वर्तमान में जो चुनौती हमारे सम्मुख है वह शायद अभीतक की चुनौतियों में सबसे गंभीर चुनौती है। यह चुनौती जीवन के पूरे प्रतिमान को, जो वर्तमान में अधार्मिक (अभारतीय) बन गया है, उसे धार्मिक (भारतीय) बनाने की है। पूरे प्रतिमान को ठीक करने की चुनौती का सामना आज तक कभी भारत ने नहीं किया है। इसलिए इससे निपटने का पूर्वानुभव भी हमारे पास नहीं है।  
    
=== समाज या राष्ट्र की चिरंजीविता के लिए आवश्यक बिन्दु ===
 
=== समाज या राष्ट्र की चिरंजीविता के लिए आवश्यक बिन्दु ===
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भारत ही विश्व का एक ऐसा देश है जो लाखों वर्षों से अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार जीता रहा है और वर्तमान में भी जी रहा है। जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों का प्रमाण कम अवश्य हुआ है। भारत की चिति याने आत्मा याने जीवनदृष्टि के पीछे काम करनेवाली प्राणशक्ति दुर्बल अवश्य हुई है लेकिन नष्ट नहीं हुई है। यह फिर से जाग्रत होने का प्रयास कर रही है। भारत राष्ट्र यह कैसे संभव बना पाया जब की अन्य राष्ट्र एक के बाद एक नष्ट होते गए, यह अब विचारणीय है। चिरंजीविता की ओर अग्रसर होने के लिए हमें हमारे इतिहास से प्रेरणा और सबक लेते हुए आगे बढ़ना होगा।
 
भारत ही विश्व का एक ऐसा देश है जो लाखों वर्षों से अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार जीता रहा है और वर्तमान में भी जी रहा है। जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों का प्रमाण कम अवश्य हुआ है। भारत की चिति याने आत्मा याने जीवनदृष्टि के पीछे काम करनेवाली प्राणशक्ति दुर्बल अवश्य हुई है लेकिन नष्ट नहीं हुई है। यह फिर से जाग्रत होने का प्रयास कर रही है। भारत राष्ट्र यह कैसे संभव बना पाया जब की अन्य राष्ट्र एक के बाद एक नष्ट होते गए, यह अब विचारणीय है। चिरंजीविता की ओर अग्रसर होने के लिए हमें हमारे इतिहास से प्रेरणा और सबक लेते हुए आगे बढ़ना होगा।
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किसी भी जीवंत इकाई के लिए वृद्धि ही जीवन का लक्षण होती है। इस नियम से भारतीय जीवनदृष्टि की समझ है ऐसे लोगों की संख्या और इस जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और भौगोलिक क्षेत्र बढ़ते रहना ही भारतीय जीवनदृष्टि की जीवन्तता का लक्षण था। इसी को हमारे पूर्वजों ने नाम दिया था “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”। सारे विश्व को आर्य बनाना। “चराचर के साथ आत्मीयता से जुडा हुआ” मानव याने आर्य बनाना।  
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किसी भी जीवंत इकाई के लिए वृद्धि ही जीवन का लक्षण होती है। इस नियम से धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की समझ है ऐसे लोगों की संख्या और इस जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और भौगोलिक क्षेत्र बढ़ते रहना ही धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की जीवन्तता का लक्षण था। इसी को हमारे पूर्वजों ने नाम दिया था “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”। सारे विश्व को आर्य बनाना। “चराचर के साथ आत्मीयता से जुडा हुआ” मानव याने आर्य बनाना।  
# भारतीय जीवनदृष्टि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जिसमें उपर्युक्त चिरंजीविता के लिए गिनाए गए आवश्यक बिन्दुओं में से पहले चार बिन्दुओं के विषय में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मूलत: भारतीय जीवनदृष्टि में श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन और निर्माण, सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुसार व्यवहार, उसमें से सामाजिक सुख का समष्टीगत होना, पर्यावरण सुसंगत जीवनयापन और जीवनशैली आदि बातें आज भी कुछ मात्रा में भारतधर्मी लोगों के व्यवहार में हैं। भारतीय जीवनदृष्टि और वर्तनसूत्रों के विषय में हमने अध्याय ७ और ८ में जान लिया है। बस इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोग (बड़ी संख्या में) और उनके व्यवहार करने की सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाओं या तंत्रों के निर्माण के लिए परिश्रम करने होंगे।
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# भारतीय जीवनदृष्टि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जिसमें उपर्युक्त चिरंजीविता के लिए गिनाए गए आवश्यक बिन्दुओं में से पहले चार बिन्दुओं के विषय में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मूलत: धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि में श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन और निर्माण, सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुसार व्यवहार, उसमें से सामाजिक सुख का समष्टीगत होना, पर्यावरण सुसंगत जीवनयापन और जीवनशैली आदि बातें आज भी कुछ मात्रा में भारतधर्मी लोगों के व्यवहार में हैं। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि और वर्तनसूत्रों के विषय में हमने अध्याय ७ और ८ में जान लिया है। बस इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोग (बड़ी संख्या में) और उनके व्यवहार करने की सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाओं या तंत्रों के निर्माण के लिए परिश्रम करने होंगे।
 
# भारतीय जीवनदृष्टि  के अनुसार जीनेवाले लोगों के विश्वभर में विस्तार का शांतिपूर्ण पथ प्रशस्त करना। भारत के इतिहास में इस प्रकार के विस्तार के पुरोधा निम्न रहे हैं।
 
# भारतीय जीवनदृष्टि  के अनुसार जीनेवाले लोगों के विश्वभर में विस्तार का शांतिपूर्ण पथ प्रशस्त करना। भारत के इतिहास में इस प्रकार के विस्तार के पुरोधा निम्न रहे हैं।
## व्यापारी : भारत का व्यापार विश्वभर में चलता था। १५ वीं सदी पुर्तगाल से वास्को-द-गामा भारत में आया था। वह भारतीय व्यापारियोंके साथ में भारत आया था। उस समय भारत के व्यापारी जहाज यूरोप के देशों की तुलना में महाकाय हुआ करते थे। सामान्यत: सभी समाजों में व्यापारी उनकी अप्रामाणिकता के लिए जाने जाते हैं। समाज में सबसे अधिक अप्रामाणिक व्यापारी ही होता है, ऐसा सामान्यत: आज भी विश्वभर के सभी समाज मानते हैं। लेकिन भारतीय जीवनदृष्टि के कारण, इसमें विद्यमान कर्म सिद्धान्तपर होनेवाली श्रद्धा के कारण भारतीय व्यापारी की यह विशेषता रही की यह भी प्रामाणिकता की मूर्तिस्वरूप हुआ करते थे। इसका परिणाम जिस भी समाजों से भारतीय व्यापारी व्यापार करते थे उन समाजोंपर होता था। जिस समाज का व्यापारी भी सत्य व्यापार की परतिमूरती है उस भारतीय समाज के प्रति आदर की भावना उस समाज में निर्माण होती थी। इससे वे भारत के लोगों, समाज से जीवन प्रामाणिकता से जीने की कला सीखने के लिए आते थे। यहाँ के विद्वानों को भारतीय तत्वज्ञान जानने के लिए अपने देशों में बुलाते थे। अपने देश के युवाओं को और विद्वानों को भी भारत में ज्ञानार्जन के लिए भेजते थे।  
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## व्यापारी : भारत का व्यापार विश्वभर में चलता था। १५ वीं सदी पुर्तगाल से वास्को-द-गामा भारत में आया था। वह धार्मिक (भारतीय) व्यापारियोंके साथ में भारत आया था। उस समय भारत के व्यापारी जहाज यूरोप के देशों की तुलना में महाकाय हुआ करते थे। सामान्यत: सभी समाजों में व्यापारी उनकी अप्रामाणिकता के लिए जाने जाते हैं। समाज में सबसे अधिक अप्रामाणिक व्यापारी ही होता है, ऐसा सामान्यत: आज भी विश्वभर के सभी समाज मानते हैं। लेकिन धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के कारण, इसमें विद्यमान कर्म सिद्धान्तपर होनेवाली श्रद्धा के कारण धार्मिक (भारतीय) व्यापारी की यह विशेषता रही की यह भी प्रामाणिकता की मूर्तिस्वरूप हुआ करते थे। इसका परिणाम जिस भी समाजों से धार्मिक (भारतीय) व्यापारी व्यापार करते थे उन समाजोंपर होता था। जिस समाज का व्यापारी भी सत्य व्यापार की परतिमूरती है उस धार्मिक (भारतीय) समाज के प्रति आदर की भावना उस समाज में निर्माण होती थी। इससे वे भारत के लोगों, समाज से जीवन प्रामाणिकता से जीने की कला सीखने के लिए आते थे। यहाँ के विद्वानों को धार्मिक (भारतीय) तत्वज्ञान जानने के लिए अपने देशों में बुलाते थे। अपने देश के युवाओं को और विद्वानों को भी भारत में ज्ञानार्जन के लिए भेजते थे।  
## धर्म के जानकार/ सांस्कृतिक दूत : किसी भी समाज की नैतिकता का स्तर उस समाज की जीवनदृष्टि कितनी श्रेष्ठ है इसपर निर्भर होता है। साथ ही में उस श्रेष्ठ जीवनदृष्टि की शिक्षा को समाज में स्सर्वत्रिक करनेवाले शिक्षकों, विद्वानों के ज्ञान, आचरण और कुशलातापर भी निर्भर करता है। जब अन्य समाज देखते थे की भारत का सामान्य व्यापारी भी प्रामाणिक है तो ऐसे व्यापारी को निर्माण करनेवाले शिक्षक, विद्वान से मार्गदर्शन पाने की इच्छा उस समाज में बलवती होती होगी। फिर ऐसे शिक्षकों को/ विद्वानों को वे अपने देश में सम्मान के साथ बुलाते थे, विद्वानों के हर प्रकार के सुख सुविधा की चिंता करते थे और अपने देश में रहकर ऐसी ही शिक्षा की प्रतिष्ठापना का अनुरोध करते थे। ऐसे शिक्षक या आचार्य वहाँ राजा से भी अधिक सम्मान पाते थे। ऐसी एक कहावत है कि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, लेकिन विद्वान तो अन्य देशों में भी सम्मान पाता  है। ऐसे आचार्य फिर उस देश में भारतीय जीवनदृष्टि की सीख उन समाजों को देते थे। भारतीय जीवनदृष्टि या संस्कृति के विश्वसंचार का यही वास्तव है।
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## धर्म के जानकार/ सांस्कृतिक दूत : किसी भी समाज की नैतिकता का स्तर उस समाज की जीवनदृष्टि कितनी श्रेष्ठ है इसपर निर्भर होता है। साथ ही में उस श्रेष्ठ जीवनदृष्टि की शिक्षा को समाज में स्सर्वत्रिक करनेवाले शिक्षकों, विद्वानों के ज्ञान, आचरण और कुशलातापर भी निर्भर करता है। जब अन्य समाज देखते थे की भारत का सामान्य व्यापारी भी प्रामाणिक है तो ऐसे व्यापारी को निर्माण करनेवाले शिक्षक, विद्वान से मार्गदर्शन पाने की इच्छा उस समाज में बलवती होती होगी। फिर ऐसे शिक्षकों को/ विद्वानों को वे अपने देश में सम्मान के साथ बुलाते थे, विद्वानों के हर प्रकार के सुख सुविधा की चिंता करते थे और अपने देश में रहकर ऐसी ही शिक्षा की प्रतिष्ठापना का अनुरोध करते थे। ऐसे शिक्षक या आचार्य वहाँ राजा से भी अधिक सम्मान पाते थे। ऐसी एक कहावत है कि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, लेकिन विद्वान तो अन्य देशों में भी सम्मान पाता  है। ऐसे आचार्य फिर उस देश में धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि की सीख उन समाजों को देते थे। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि या संस्कृति के विश्वसंचार का यही वास्तव है।
## श्रेष्ठ वैश्विक विद्याकेंद्र : भारत हजारों वर्षों से श्रेष्ठ शिक्षा का केंद्र रहा है। विश्वभर से युवा, विद्वान, ज्ञानिओं से सभी स्तर के लोग सीखने के लिए भारत के शिक्षा केन्द्रों में आते रहते थे। इनमें शिक्षा प्राप्त करना उनके देशों में गौरव की बात मानी जाती थी। इनमें सीखे हुए लोगों को उनके देशों में विशेष व्यक्ति के रूप में सम्मान मिलता था। ऐसे भारत के विद्याकेंद्रों से अध्ययन कर लौटे हुए लोगों से श्रेष्ठा आचरण और अपने ज्ञान को समष्टीगत करने की अपेक्षा रखी जाती थी। इस कारण भारतीय जीवनदृष्टि के विषय में आदर और स्वीकृति का वातावरण उन देशों में बनता था।
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## श्रेष्ठ वैश्विक विद्याकेंद्र : भारत हजारों वर्षों से श्रेष्ठ शिक्षा का केंद्र रहा है। विश्वभर से युवा, विद्वान, ज्ञानिओं से सभी स्तर के लोग सीखने के लिए भारत के शिक्षा केन्द्रों में आते रहते थे। इनमें शिक्षा प्राप्त करना उनके देशों में गौरव की बात मानी जाती थी। इनमें सीखे हुए लोगों को उनके देशों में विशेष व्यक्ति के रूप में सम्मान मिलता था। ऐसे भारत के विद्याकेंद्रों से अध्ययन कर लौटे हुए लोगों से श्रेष्ठा आचरण और अपने ज्ञान को समष्टीगत करने की अपेक्षा रखी जाती थी। इस कारण धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के विषय में आदर और स्वीकृति का वातावरण उन देशों में बनता था।
## इस जीवनदृष्टि के विस्तार का विशेष परिस्थिति में उपयोग में लाया जानेवाला मार्ग याने “सम्राट व्यवस्था”। वह कितना भी बलशाली हो किसी राजा के मन में आ जाने से वह सम्राट नहीं बन सकता था। वैश्विक परिस्थितियाँ देखकर भारत के विद्वान सामर्थ्यवान और धर्मनिष्ठ राजा को अनुरोध करते थे कि वह “राजसूय” या “अश्वमेध” यज्ञ करे। इस यज्ञ के माध्यम से वह विश्व में फैल रहे आसुरी प्रभाव को नष्ट करे। विश्वभर के सज्जनों को वह आश्वस्त करे कि धर्माचरण करो। धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। भारतीय सम्राट का काम ही धर्म को वैश्विक जीवन का अधिष्ठाता बनाना। धर्म विरोधी शक्तियों का नाश करना।
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## इस जीवनदृष्टि के विस्तार का विशेष परिस्थिति में उपयोग में लाया जानेवाला मार्ग याने “सम्राट व्यवस्था”। वह कितना भी बलशाली हो किसी राजा के मन में आ जाने से वह सम्राट नहीं बन सकता था। वैश्विक परिस्थितियाँ देखकर भारत के विद्वान सामर्थ्यवान और धर्मनिष्ठ राजा को अनुरोध करते थे कि वह “राजसूय” या “अश्वमेध” यज्ञ करे। इस यज्ञ के माध्यम से वह विश्व में फैल रहे आसुरी प्रभाव को नष्ट करे। विश्वभर के सज्जनों को वह आश्वस्त करे कि धर्माचरण करो। धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। धार्मिक (भारतीय) सम्राट का काम ही धर्म को वैश्विक जीवन का अधिष्ठाता बनाना। धर्म विरोधी शक्तियों का नाश करना।
 
== चिरंजीविता की ओर ==
 
== चिरंजीविता की ओर ==
 
भारत को यदि फिर से चिरंजीवी बनने की दिशा में आगे बढ़ना हो तो निम्न बातें करनी होंगी:  
 
भारत को यदि फिर से चिरंजीवी बनने की दिशा में आगे बढ़ना हो तो निम्न बातें करनी होंगी:  
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अन्य स्रोत:  
 
अन्य स्रोत:  
 
# देशिक शास्त्र  
 
# देशिक शास्त्र  
# चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टि, प्रकाशक भारतीय विचार साधना, पुणे  
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# चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टि, प्रकाशक धार्मिक (भारतीय) विचार साधना, पुणे  
    
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]

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