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- अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँरहतीं हैं| झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
 
- अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँरहतीं हैं| झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
 
- लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
 
- लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
- भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुवे माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुवा है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।
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- भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुवे माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुवा है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।  
राज्य की आवश्यकता - भारतीय दृष्टि
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मनुष्य यह जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीता है उसे प्राणी कहते हैं| प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर कम करना| सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणीयों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
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== राज्य की आवश्यकता - भारतीय दृष्टि ==
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मनुष्य यह जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीता है उसे प्राणी कहते हैं| प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर कम करना| सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणीयों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
 
किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे इस का प्रयास करता है। पशु जैसा ही अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं।  
 
किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे इस का प्रयास करता है। पशु जैसा ही अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं।  
 
स्वहित या स्वार्थ साधने के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक होती है| काम और मोह अनियंत्रित हो जाने के कारण मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता के लिए अन्यों के हित का हनन करने लग जाता है| इससे समाज नष्ट न हो इस हेतु से सदाचार सिखाया जाता है| सदाचार के लिए सहानुभूति आवश्यक होती है| सहानुभूति का अर्थ है अन्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करना| मनुष्य न केवल स्वतन्त्रता से और न ही केवल सदाचार से जी सकता है| इसलिए व्यवस्था की आवश्यकता होती है| इसलिए व्यवस्था यह धर्म अनुपालन का साधन है|  
 
स्वहित या स्वार्थ साधने के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक होती है| काम और मोह अनियंत्रित हो जाने के कारण मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता के लिए अन्यों के हित का हनन करने लग जाता है| इससे समाज नष्ट न हो इस हेतु से सदाचार सिखाया जाता है| सदाचार के लिए सहानुभूति आवश्यक होती है| सहानुभूति का अर्थ है अन्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करना| मनुष्य न केवल स्वतन्त्रता से और न ही केवल सदाचार से जी सकता है| इसलिए व्यवस्था की आवश्यकता होती है| इसलिए व्यवस्था यह धर्म अनुपालन का साधन है|  
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भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि भारतीय समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुवा करते हैं। गुरू शिष्य का मानसपिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजाद्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानसपिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होनेपर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
 
भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि भारतीय समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुवा करते हैं। गुरू शिष्य का मानसपिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजाद्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानसपिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होनेपर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ
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== राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ ==
 
भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं।
 
भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं।
 
१. यथा राजा तथा प्रजा : सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं। इस से यदि राजा श्रेष्ठ होता है तो प्रजा भी वैसी ही बन जाती है।  
 
१. यथा राजा तथा प्रजा : सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं। इस से यदि राजा श्रेष्ठ होता है तो प्रजा भी वैसी ही बन जाती है।  
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आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया | दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् || देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः, | आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ||
 
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया | दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् || देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः, | आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ||
 
भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं| विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन| विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना| राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है| शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है| विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है| विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है| देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना| इस दृष्टी से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना| बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना|
 
भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं| विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन| विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना| राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है| शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है| विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है| विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है| देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना| इस दृष्टी से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना| बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना|
लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें
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== लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें ==
 
अच्छे लोकतंत्र के अच्छी तरह चलने के लिये कुछ बातें अनिवार्य होती हैं। वे निम्न हैं।
 
अच्छे लोकतंत्र के अच्छी तरह चलने के लिये कुछ बातें अनिवार्य होती हैं। वे निम्न हैं।
 
१.  लोग स्वतंत्र हों : स्वतंत्र होने का अर्थ है लोग अपनी इच्छा के अनुसार जिस किसी प्रतिनिधि का चयन करना चाहते हैं उसका चयन कर सकें। यह तब होता है जब लोग आत्मनिर्भर या स्वावलंबी भी होते हैं।  
 
१.  लोग स्वतंत्र हों : स्वतंत्र होने का अर्थ है लोग अपनी इच्छा के अनुसार जिस किसी प्रतिनिधि का चयन करना चाहते हैं उसका चयन कर सकें। यह तब होता है जब लोग आत्मनिर्भर या स्वावलंबी भी होते हैं।  
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१२. जनता देशभक्त हो : देश के हित में काम करनेवाले लोग चुनकर आएँ इसलिये तो वास्तव में चुनाव होते हैं। लेकिन जब मतदाताओं में देशहित के विरोधी लोगों की संख्या लक्षणीय होती है तब थोडे से देशद्रोहियों के इकठ्ठे मतों से भी परिणाम विपरीत आ जाते हैं।
 
१२. जनता देशभक्त हो : देश के हित में काम करनेवाले लोग चुनकर आएँ इसलिये तो वास्तव में चुनाव होते हैं। लेकिन जब मतदाताओं में देशहित के विरोधी लोगों की संख्या लक्षणीय होती है तब थोडे से देशद्रोहियों के इकठ्ठे मतों से भी परिणाम विपरीत आ जाते हैं।
 
१३. जो योग्य है वह चुनाव में प्रत्याशी हो : सब से महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जो सज्जन भी हैं, क्षमतावान भी हैं और बुध्दिमान भी हैं ऐसे लोग अपवाद से ही राजनीति के क्षेत्र में आते हैं। सामान्यत: तो धूर्त ही राजनीति के क्षेत्र के बादशाह होते हैं। ऐसे में व्यक्ति योग्य है किंतु चुनाव के या राजनीति के कीचड में नहीं उतरना चाहता ऐसा व्यक्ति प्रत्याशी बनने से दूर ही रहता है।
 
१३. जो योग्य है वह चुनाव में प्रत्याशी हो : सब से महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जो सज्जन भी हैं, क्षमतावान भी हैं और बुध्दिमान भी हैं ऐसे लोग अपवाद से ही राजनीति के क्षेत्र में आते हैं। सामान्यत: तो धूर्त ही राजनीति के क्षेत्र के बादशाह होते हैं। ऐसे में व्यक्ति योग्य है किंतु चुनाव के या राजनीति के कीचड में नहीं उतरना चाहता ऐसा व्यक्ति प्रत्याशी बनने से दूर ही रहता है।
लोकतंत्र की मर्यादाएँ
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== लोकतंत्र की मर्यादाएँ ==
 
१.  लोकतंत्र में सब लोग समान माने जाते हैं। एक व्यक्ति के स्वरूप में तो सब समान होते ही हैं। किंतु जब समझदारी का विषय आता है, जानकार होने का विषय आता है, निर्भयता का विषय आता है तो प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों से भिन्न ही होता है। लोकतंत्र में बुध्दिमान की बुद्धि और बुध्दू की बुद्धि को समान ऑंका जाता है। सामान्य लोगों द्वारा योग्यता के बगैर ही बराबरी की अपेक्षा की जाती है। वास्तव में यह अराजक की स्थिति ही है। टके सेर भाजी टके सेर खाजा की स्थिति है।  
 
१.  लोकतंत्र में सब लोग समान माने जाते हैं। एक व्यक्ति के स्वरूप में तो सब समान होते ही हैं। किंतु जब समझदारी का विषय आता है, जानकार होने का विषय आता है, निर्भयता का विषय आता है तो प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों से भिन्न ही होता है। लोकतंत्र में बुध्दिमान की बुद्धि और बुध्दू की बुद्धि को समान ऑंका जाता है। सामान्य लोगों द्वारा योग्यता के बगैर ही बराबरी की अपेक्षा की जाती है। वास्तव में यह अराजक की स्थिति ही है। टके सेर भाजी टके सेर खाजा की स्थिति है।  
 
२. मतदाता की अर्हता तय करना भी एक कठिन विषय होता है। केवल सज्ञानता की कानूनद्वारा निर्धारित आयु और पागल नहीं होना इन दो बातों के आधार पर ही वर्तमान में मतदान का अधिकार मान्य हो जाता है। लेकिन आवश्यकता तो समझदारी की होती है। समझदार बनने की कोई आयु नहीं होती। कोई 15 वर्ष की आयु में समझदार हो जाता है तो कोई 50 वर्ष का होने पर भी समझदार नहीं बनता।
 
२. मतदाता की अर्हता तय करना भी एक कठिन विषय होता है। केवल सज्ञानता की कानूनद्वारा निर्धारित आयु और पागल नहीं होना इन दो बातों के आधार पर ही वर्तमान में मतदान का अधिकार मान्य हो जाता है। लेकिन आवश्यकता तो समझदारी की होती है। समझदार बनने की कोई आयु नहीं होती। कोई 15 वर्ष की आयु में समझदार हो जाता है तो कोई 50 वर्ष का होने पर भी समझदार नहीं बनता।
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८. प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।  
 
८. प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।  
 
९. चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुध्दिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
 
९. चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुध्दिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
१०.कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी भारतीय मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है| ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था भारतीय राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अभारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।  
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१०.कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी भारतीय मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है| ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था भारतीय राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अभारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप
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== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
 
शिक्षण का उद्देष्य भी समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। सामान्यत: जब समाज भी धर्माचरणी होता है तो शासन को धर्म की रक्षा करना सहज ही संभव हो जाता है। किंतु जब समाज का बडा हिस्सा अधर्माचरणी होता है तब कोई भी शासन समाज को दुष्टों से और अन्याय से छुटकारा नहीं दिला सकता। इसलिये धर्माचरण सिखाने वाली शिक्षा समाज में प्रतिष्टित हो यह देखना यह शासन का दायित्व होता है। उसी प्रकार से धर्माचरणी राजा शासक बने यह सुनिश्चित करना यह धर्माचरण की शिक्षा देनेवाली व्यवस्था का दायित्व होता है।  
 
शिक्षण का उद्देष्य भी समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। सामान्यत: जब समाज भी धर्माचरणी होता है तो शासन को धर्म की रक्षा करना सहज ही संभव हो जाता है। किंतु जब समाज का बडा हिस्सा अधर्माचरणी होता है तब कोई भी शासन समाज को दुष्टों से और अन्याय से छुटकारा नहीं दिला सकता। इसलिये धर्माचरण सिखाने वाली शिक्षा समाज में प्रतिष्टित हो यह देखना यह शासन का दायित्व होता है। उसी प्रकार से धर्माचरणी राजा शासक बने यह सुनिश्चित करना यह धर्माचरण की शिक्षा देनेवाली व्यवस्था का दायित्व होता है।  
 
प्रकृति विकेंद्रित है। हवा, पानी, सूर्यप्रकाश, जंगल, खनिज पदार्थ ये संसाधन प्रकृति में बिखरे हुए हैं, विकेंद्रित हैं। और इन के बिना मानव का जीना असंभव है। इसलिये मानव जीवन की रचना में एक तो प्रकृति सुसंगत जीना यानी प्राकृतिक पदार्थों में न्यूनतम फेरफार कर उनका उपयोग करना और दूसरे विकेंद्रित जन, धन, उत्पादन और सत्ता की रचना करना मानव के लिये, समाज के लिये और मानवेतर सृष्टि के लिये भी हितकर होता है। इसे समझकर हमारे पूर्वजों ने सामाजिक व्यवस्थाओं का तानाबाना रचा था। समाज जीवन के लिये आवश्यक पोषण, रक्षण और शिक्षण तीनों की विकेंद्रित व्यवस्था की गई थी। शासन व्यवस्था भी गृह, ग्राम, गुरुकुल, जाति, राजा या सम्राट और अंत में त्याग, तपस्या, ज्ञान, चराचर के हित का सदैव चिंतन और चिंता करनेवाली नैतिक सत्ता अर्थात् धर्मसत्ता ऐसी विकेंद्रित थी। लेकिन इन सभी स्तरोंपर जो प्रमुख होता था उसकी भूमिका एक कुटुम्ब के मुखिया जैसी ही होती थी और आचरण धर्मानुसारी ही रहता था।  
 
प्रकृति विकेंद्रित है। हवा, पानी, सूर्यप्रकाश, जंगल, खनिज पदार्थ ये संसाधन प्रकृति में बिखरे हुए हैं, विकेंद्रित हैं। और इन के बिना मानव का जीना असंभव है। इसलिये मानव जीवन की रचना में एक तो प्रकृति सुसंगत जीना यानी प्राकृतिक पदार्थों में न्यूनतम फेरफार कर उनका उपयोग करना और दूसरे विकेंद्रित जन, धन, उत्पादन और सत्ता की रचना करना मानव के लिये, समाज के लिये और मानवेतर सृष्टि के लिये भी हितकर होता है। इसे समझकर हमारे पूर्वजों ने सामाजिक व्यवस्थाओं का तानाबाना रचा था। समाज जीवन के लिये आवश्यक पोषण, रक्षण और शिक्षण तीनों की विकेंद्रित व्यवस्था की गई थी। शासन व्यवस्था भी गृह, ग्राम, गुरुकुल, जाति, राजा या सम्राट और अंत में त्याग, तपस्या, ज्ञान, चराचर के हित का सदैव चिंतन और चिंता करनेवाली नैतिक सत्ता अर्थात् धर्मसत्ता ऐसी विकेंद्रित थी। लेकिन इन सभी स्तरोंपर जो प्रमुख होता था उसकी भूमिका एक कुटुम्ब के मुखिया जैसी ही होती थी और आचरण धर्मानुसारी ही रहता था।  
भारतीय लोकराज्य का स्वरूप - धर्मराज्य
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बच्चा जब पैदा होता है तब वह केवल 'मम हिताय मम सुखाय' जानता है। इस अवस्था से आगे विकास की क्रमश: अवस्थाएँ मम जन हिताय मम जन सुखाय, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय और सबसे ऊपर सर्वे भवन्तु सुखिन: ये होतीं हैं। सर्वे भवन्तु सुखिन: के स्तर के आचरण को ही धर्म कहते हैं। इस का अर्थ है कि मनुष्य जीवन की सर्वाधिक विकास की अवस्था धर्माचरणी जीवन की है।
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== भारतीय लोकराज्य का स्वरूप - धर्मराज्य ==
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बच्चा जब पैदा होता है तब वह केवल 'मम हिताय मम सुखाय' जानता है। इस अवस्था से आगे विकास की क्रमश: अवस्थाएँ मम जन हिताय मम जन सुखाय, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय और सबसे ऊपर सर्वे भवन्तु सुखिन: ये होतीं हैं। सर्वे भवन्तु सुखिन: के स्तर के आचरण को ही धर्म कहते हैं। इस का अर्थ है कि मनुष्य जीवन की सर्वाधिक विकास की अवस्था धर्माचरणी जीवन की है।
 
भारत में धर्म को अनन्यसाधारण महत्व दिया गया है। हमारी सभी व्यवस्थाएँ धर्माधिष्ठित ही होतीं हैं। राज्य भी धर्मराज्य होता है। मूलत: धर्म को छोडकर राज्य का विचार ही नहीं किया जा सकता। राज्य का स्वरूप भले ही लोकतंत्रात्मक हो चाहे राजा का हो उसे यदि लोकहितकरी होना है तो उसका धर्मानुसारी होना अनिवार्य माना गया है। धर्माधिष्ठित नहीं हैं तो शासन लोकतंत्रात्मक हो या एकतंत्रीय राजा का हो उसमें लोगों का उत्पीडन होगा ही।  
 
भारत में धर्म को अनन्यसाधारण महत्व दिया गया है। हमारी सभी व्यवस्थाएँ धर्माधिष्ठित ही होतीं हैं। राज्य भी धर्मराज्य होता है। मूलत: धर्म को छोडकर राज्य का विचार ही नहीं किया जा सकता। राज्य का स्वरूप भले ही लोकतंत्रात्मक हो चाहे राजा का हो उसे यदि लोकहितकरी होना है तो उसका धर्मानुसारी होना अनिवार्य माना गया है। धर्माधिष्ठित नहीं हैं तो शासन लोकतंत्रात्मक हो या एकतंत्रीय राजा का हो उसमें लोगों का उत्पीडन होगा ही।  
 
धर्मराज्य में व्यक्ति और समाज के साथ साथ ही प्रकृति का हित भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाता है। केवल व्यक्ति का हित या केवल समाज का हित सर्वोपरि मानने से राज्य एकांगी बन जाता है। व्यक्तिवादी यानी पूँजीवादी राज्यव्यवस्था में समाज का और सृष्टि का हित गौण बन जाता है। इसी तरह से समाज के हितपर आधारित यानी साम्यवादी राज्य में व्यक्ति का और सृष्टि का हित खतरे में पड जाता है।  
 
धर्मराज्य में व्यक्ति और समाज के साथ साथ ही प्रकृति का हित भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाता है। केवल व्यक्ति का हित या केवल समाज का हित सर्वोपरि मानने से राज्य एकांगी बन जाता है। व्यक्तिवादी यानी पूँजीवादी राज्यव्यवस्था में समाज का और सृष्टि का हित गौण बन जाता है। इसी तरह से समाज के हितपर आधारित यानी साम्यवादी राज्य में व्यक्ति का और सृष्टि का हित खतरे में पड जाता है।  
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वर्तमान अभारतीय प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। भारतीय जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार शायद बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिध्दांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चों के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
 
वर्तमान अभारतीय प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। भारतीय जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार शायद बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिध्दांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चों के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
 
लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगों का लोगों के हित में लोगोंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगों के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  
 
लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगों का लोगों के हित में लोगोंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगों के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  
निष्कर्ष
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उपर्युक्त विवेचन से निम्न बातें ध्यान में आतीं हैं।
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== निष्कर्ष ==
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उपर्युक्त विवेचन से निम्न बातें ध्यान में आतीं हैं।
 
१.  हजारों लाखों वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो सोच और व्यवस्थाएँ निर्माण की थीं वह कालसिध्द हैं।
 
१.  हजारों लाखों वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो सोच और व्यवस्थाएँ निर्माण की थीं वह कालसिध्द हैं।
 
२.  अभारतीय समाजोंने पुरस्कृत की हुई और आग्रहपूर्वक लादी गई व्यवस्थाएँ तो उन के लिये भी हितकारी सिध्द नहीं हुईं हैं| तो  भारत के लिये हितकारी कैसे सिध्द होंगी।  
 
२.  अभारतीय समाजोंने पुरस्कृत की हुई और आग्रहपूर्वक लादी गई व्यवस्थाएँ तो उन के लिये भी हितकारी सिध्द नहीं हुईं हैं| तो  भारत के लिये हितकारी कैसे सिध्द होंगी।  
३.  'धर्मराज्य' ही वास्तव में लोगों का, लोगों (चराचर के हित की चिंता करनेवालों) द्वारा चलाया गया, लोगों के ही नहीं तो चराचर के हित में काम करनेवाले शासन का श्रेष्ठ स्वरूप है। इसी को हम रामराज्य भी कहते हैं| रामराज्य का वर्णन आगे दे रहे हैं|  
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३.  'धर्मराज्य' ही वास्तव में लोगों का, लोगों (चराचर के हित की चिंता करनेवालों) द्वारा चलाया गया, लोगों के ही नहीं तो चराचर के हित में काम करनेवाले शासन का श्रेष्ठ स्वरूप है। इसी को हम रामराज्य भी कहते हैं| रामराज्य का वर्णन आगे दे रहे हैं|
राम राज्य
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=== राम राज्य ===
 
(तुलसीदास रचित रामचरित मानस - उत्तरकाण्ड में राम राज्य का वर्णन पृष्ठ २३,२४,२५)
 
(तुलसीदास रचित रामचरित मानस - उत्तरकाण्ड में राम राज्य का वर्णन पृष्ठ २३,२४,२५)
 
(गीता प्रेस गोरखपुर - टीकाकार हनुमानप्रसाद पोद्दार)
 
(गीता प्रेस गोरखपुर - टीकाकार हनुमानप्रसाद पोद्दार)
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१. महाभारत  
 
१. महाभारत  
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२. भारतीय राज्यशास्त्र, लेखक गो. वा. टोकेकर और मधुकर महाजन, प्रकाशक : विद्या प्रकाशन, मुम्बई
 
२. भारतीय राज्यशास्त्र, लेखक गो. वा. टोकेकर और मधुकर महाजन, प्रकाशक : विद्या प्रकाशन, मुम्बई
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३. प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
 
३. प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
    
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
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