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शासन दृष्टि
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समाज के व्यवहार सुख शांति, समाधान से चलें, समाज और समाज के विभिन्न घटक जीवन के अपने अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अग्रसर हो सकें, समाज में अन्याय नहीं हों, सज्जनों को सुरक्षा मिले, दुष्टों को नियंत्रण में रखा जाये इसलिये शासन व्यवस्था होती है। यही शासन व्यवस्था के निर्माण का उद्देश्य होना चाहिये ऐसा सामान्य लोगों को लगता है। यह स्वाभाविक भी है। किंतु इस के लिये व्यवस्था कैसी हो, उस व्यवस्था को चलाने का काम कौन करेगा आदि तय करना यह सामान्य लोगों का काम नहीं है।  
समाज के व्यवहार सुख शांति, समाधान से चलें, समाज और समाज के विभिन्न घटक जीवन के अपने अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अग्रसर हो सकें, समाज में अन्याय नहीं हों, सज्जनों को सुरक्षा मिले, दुष्टों को नियंत्रण में रखा जाये इसलिये शासन व्यवस्था होती है। यही शासन व्यवस्था के निर्माण का उद्देश्य होना चाहिये ऐसा सामान्य लोगों को लगता है। यह स्वाभाविक भी है। किंतु इस के लिये व्यवस्था कैसी हो, उस व्यवस्था को चलाने का काम कौन करेगा आदि तय करना यह सामान्य लोगों का काम नहीं है।
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वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र यह किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। आंतर्राष्ट्रीय स्तरपर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।
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वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।  
वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन - धन - उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूचि और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या भारतीय समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृध्दि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुध्दू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
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आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगों ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।  
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वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन-धन-उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूची और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या भारतीय समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृध्दि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुध्दू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
वांछनीय तो यह है कि मनुष्य केवल मन के या विचार के स्तर से भी आगे बढ कर बुध्दी के स्तर पर जिये और उस से भी आगे बढ कर ज्ञान के स्तर पर जिये। ऐसे विकास की दृष्टी से भी बौध्दिक स्तर पर वर्तमान लोकतंत्रात्मक शासन जैसी व्यवस्थाओं को परखना केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य भी है।
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हिंदू समाज को ऐसा बनाने में सबसे बडा कारण विपरीत शिक्षा है। विदेशी मुस्लिम शासन के काल में शासित होने के उपरांत भी हिंदू अपने को मुसलमान से श्रेष्ठ ही मानता रहा। किंतु अंग्रेजी शासन ने इस स्थिति को बदल दिया। विशेषत: अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय समाज को आत्मनिंदाग्रस्त बना दिया, इसे स्वत्वहीन बना दिया। पश्चिम का अंधा अनुगामी बना दिया।  
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आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगों ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।
स्वामी विवेकानंदजीने वर्तमान शिक्षा के बारे में कहा था - टुडेज एज्युकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इट इज टॉट हाऊ टु थिंक। यानी वर्तमान शिक्षा पूरी गलत है। मन को ‘विचार कैसे किया जाता है’ यह सिखाये बिना ही जानकारी ठूँस ठूँस कर दिमाग में भर दी जाती है। लोकतंत्र के संबंध में उपर बताई वैचारिक धांधली का शायद यही कारण है।  
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- भारतीय मान्यता यह है की प्रजा ने किये पुण्यों का फल जैसे राजा को अनायास ही मिलता है, उसी प्रकार से प्रजा ने किये पापों का फल शासक को भुगतना पडता है।
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वांछनीय तो यह है कि मनुष्य केवल मन के या विचार के स्तर से भी आगे बढ कर बुद्धि के स्तर पर जिये और उस से भी आगे बढ कर ज्ञान के स्तर पर जिये। ऐसे विकास की दृष्टि से भी बौध्दिक स्तर पर वर्तमान लोकतंत्रात्मक शासन जैसी व्यवस्थाओं को परखना केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य भी है।  
- लोग धर्मशास्त्र के नियमों का अर्थात् धर्म का पालन करें यह सुनिश्चित करना शासन का पहला और सब से महत्वपूर्ण काम है। इस दृष्टि से राष्ट्र की सीमाओं के अंदर और बाहर के असहिष्णू और असामाजिक तत्वों को नियंत्रण में रखने का काम शासन का है।
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- शिक्षा क्षेत्र को अभय और सहायता देने की जिम्मेदारी शासन की है। किंतु शिक्षा क्षेत्र का नियंत्रण तो शिक्षक के अधीन ही रहेगा।  
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हिंदू समाज को ऐसा बनाने में सबसे बडा कारण विपरीत शिक्षा है। विदेशी मुस्लिम शासन के काल में शासित होने के उपरांत भी हिंदू अपने को मुसलमान से श्रेष्ठ ही मानता रहा। किंतु अंग्रेजी शासन ने इस स्थिति को बदल दिया। विशेषत: अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय समाज को आत्मनिंदाग्रस्त बना दिया, इसे स्वत्वहीन बना दिया। पश्चिम का अंधा अनुगामी बना दिया।
- शासन की भूमिका जनता के पिता जैसी होगी| अभिभावक जैसी होगी|
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प्रजासुखे सुखम् राज्ञ: प्रजानांच हिते हितम् |
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स्वामी विवेकानंदजीने वर्तमान शिक्षा के बारे में कहा था - टुडेज एज्युकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इट इज टॉट हाऊ टु थिंक (Today's education is all wrong. Mind is crammed with facts before it is taught how to think.)। यानी वर्तमान शिक्षा पूरी गलत है। मन को ‘विचार कैसे किया जाता है’ यह सिखाये बिना ही जानकारी ठूँस ठूँस कर दिमाग में भर दी जाती है। लोकतंत्र के संबंध में उपर बताई वैचारिक धांधली का शायद यही कारण है।
नात्मप्रियं हितं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं हितम् ||
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* भारतीय मान्यता यह है की प्रजा ने किये पुण्यों का फल जैसे राजा को अनायास ही मिलता है, उसी प्रकार से प्रजा ने किये पापों का फल शासक को भुगतना पडता है।  
- शासक बनने के लिये योग्यता : क्षात्रतेज और  ब्राह्मतेज। शास्त्रों का ज्ञाता होना आवश्यक।
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- अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँरहतीं हैं| झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
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* लोग धर्मशास्त्र के नियमों का अर्थात् धर्म का पालन करें यह सुनिश्चित करना शासन का पहला और सब से महत्वपूर्ण काम है। इस दृष्टि से राष्ट्र की सीमाओं के अंदर और बाहर के असहिष्णू और असामाजिक तत्वों को नियंत्रण में रखने का काम शासन का है।  
- लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
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* शिक्षा क्षेत्र को अभय और सहायता देने की जिम्मेदारी शासन की है। किंतु शिक्षा क्षेत्र का नियंत्रण तो शिक्षक के अधीन ही रहेगा।  
- भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुवे माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुवा है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।  
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* शासन की भूमिका जनता के पिता जैसी होगी। अभिभावक जैसी होगी।
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<blockquote>प्रजासुखे सुखम् राज्ञ: प्रजानांच हिते हितम्।<ref>कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रथम अधिकरण, अध्याय 18</ref></blockquote><blockquote>नात्मप्रियं हितं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं हितम् ।।</blockquote>
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=== शासक बनने के लिये योग्यता ===
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* क्षात्रतेज और  ब्राह्मतेज। शास्त्रों का ज्ञाता होना आवश्यक।  
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* अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँ रहतीं हैं। झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
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* लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
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* भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुवा है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।  
    
== राज्य की आवश्यकता - भारतीय दृष्टि ==
 
== राज्य की आवश्यकता - भारतीय दृष्टि ==
मनुष्य यह जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीता है उसे प्राणी कहते हैं| प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर कम करना| सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणीयों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
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मनुष्य यह जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीता है उसे प्राणी कहते हैं। प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर कम करना। सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणीयों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
 
किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे इस का प्रयास करता है। पशु जैसा ही अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं।  
 
किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे इस का प्रयास करता है। पशु जैसा ही अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं।  
स्वहित या स्वार्थ साधने के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक होती है| काम और मोह अनियंत्रित हो जाने के कारण मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता के लिए अन्यों के हित का हनन करने लग जाता है| इससे समाज नष्ट न हो इस हेतु से सदाचार सिखाया जाता है| सदाचार के लिए सहानुभूति आवश्यक होती है| सहानुभूति का अर्थ है अन्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करना| मनुष्य न केवल स्वतन्त्रता से और न ही केवल सदाचार से जी सकता है| इसलिए व्यवस्था की आवश्यकता होती है| इसलिए व्यवस्था यह धर्म अनुपालन का साधन है|
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स्वहित या स्वार्थ साधने के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक होती है। काम और मोह अनियंत्रित हो जाने के कारण मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता के लिए अन्यों के हित का हनन करने लग जाता है। इससे समाज नष्ट न हो इस हेतु से सदाचार सिखाया जाता है। सदाचार के लिए सहानुभूति आवश्यक होती है। सहानुभूति का अर्थ है अन्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करना। मनुष्य न केवल स्वतन्त्रता से और न ही केवल सदाचार से जी सकता है। इसलिए व्यवस्था की आवश्यकता होती है। इसलिए व्यवस्था यह धर्म अनुपालन का साधन है।
 
अराजक दूर करने के लिये 'राज्य' की आवश्यकता होती है। इस लिये राज्य व्यवस्था का कर्तव्य जनता में बढते काम और लोभ को नियंत्रण में रखने का होता है। जिन का काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे बलवान और स्वार्थी लोगों से सज्जन और दुर्बलों को बचाने का होता है।  
 
अराजक दूर करने के लिये 'राज्य' की आवश्यकता होती है। इस लिये राज्य व्यवस्था का कर्तव्य जनता में बढते काम और लोभ को नियंत्रण में रखने का होता है। जिन का काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे बलवान और स्वार्थी लोगों से सज्जन और दुर्बलों को बचाने का होता है।  
 
अराजक होने का प्रत्यक्ष में शासक होने या नहीं होने से संबंध नहीं है। अराजक होने का संबंध काम और मोह अनियंत्रित होने से है। एक समय था जब सभी लोग धर्माचरण करते थे। महाभारत में शांतिपर्व में बताया है -
 
अराजक होने का प्रत्यक्ष में शासक होने या नहीं होने से संबंध नहीं है। अराजक होने का संबंध काम और मोह अनियंत्रित होने से है। एक समय था जब सभी लोग धर्माचरण करते थे। महाभारत में शांतिपर्व में बताया है -
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२. राज्यो रक्षति रक्षित: : जब राजा प्रजा की रक्षा करता है तब प्रजा भी राज्य और राजा की रक्षा में कोई कसर नहीं रखती।
 
२. राज्यो रक्षति रक्षित: : जब राजा प्रजा की रक्षा करता है तब प्रजा भी राज्य और राजा की रक्षा में कोई कसर नहीं रखती।
 
३. मूलत: राजा की प्रजा इस शब्दावली से ही राजा और प्रजा के संबंध स्पष्ट हो जाते हैं। प्रजा का अर्थ ही 'संतान' होता है। राजा प्रजा का पालक है, पिता-स्वरूप है ऐसा यहाँ की प्रजा भी मानती थी और राजा भी मानते थे।
 
३. मूलत: राजा की प्रजा इस शब्दावली से ही राजा और प्रजा के संबंध स्पष्ट हो जाते हैं। प्रजा का अर्थ ही 'संतान' होता है। राजा प्रजा का पालक है, पिता-स्वरूप है ऐसा यहाँ की प्रजा भी मानती थी और राजा भी मानते थे।
४. जब तक प्रजा दु:खी है राजा को चैन की नींद सोने का अधिकार नहीं है । राजा का अपना कोई व्यक्ति जीवन नहीं होता। वह सदैव प्रजाराधन के लिये उपलब्ध हो यह आवश्यक माना गया है। सभी प्रकार के भोग उपलब्ध होते हुवे भी वह भोग लिप्त नहीं हो यह शासक से अपेक्षा होती है।
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४. जब तक प्रजा दु:खी है राजा को चैन की नींद सोने का अधिकार नहीं है । राजा का अपना कोई व्यक्ति जीवन नहीं होता। वह सदैव प्रजाराधन के लिये उपलब्ध हो यह आवश्यक माना गया है। सभी प्रकार के भोग उपलब्ध होते हुए भी वह भोग लिप्त नहीं हो यह शासक से अपेक्षा होती है।
 
५. किसी राजा के राज्य में यदि पाप होता है तो राजा भी उस पाप में हिस्सेदार बनता है अर्थात् उसका बुरा फल भी पाता है। इसी तरह यदि राजा कोई पाप करता है तो प्रजा को भी उस के फल भोगने पडते हैं। जैसे जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से कश्मीर के संबंध में जो पाप किया था उस के परिणाम ७० वर्षों के बाद भी जनता भुगत रही है।
 
५. किसी राजा के राज्य में यदि पाप होता है तो राजा भी उस पाप में हिस्सेदार बनता है अर्थात् उसका बुरा फल भी पाता है। इसी तरह यदि राजा कोई पाप करता है तो प्रजा को भी उस के फल भोगने पडते हैं। जैसे जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से कश्मीर के संबंध में जो पाप किया था उस के परिणाम ७० वर्षों के बाद भी जनता भुगत रही है।
 
६. राजा कालस्य कारणम् : जिस प्रकार का राजा होगा वैसी परिस्थितियाँ बनतीं जातीं हैं। अच्छे राजा के काल में प्रजा को सुख-शांति प्राप्त होगी और बुरे राजा के काल में प्रजा का सुख चैन छिन जायेगा।
 
६. राजा कालस्य कारणम् : जिस प्रकार का राजा होगा वैसी परिस्थितियाँ बनतीं जातीं हैं। अच्छे राजा के काल में प्रजा को सुख-शांति प्राप्त होगी और बुरे राजा के काल में प्रजा का सुख चैन छिन जायेगा।
 
७. महर्षि व्यास कहते हैं –
 
७. महर्षि व्यास कहते हैं –
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया | दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् || देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः, | आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ||
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आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् ।। देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः, आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ।।
भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं| विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन| विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना| राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है| शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है| विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है| विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है| देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना| इस दृष्टी से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना| बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना|
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भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं। विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन। विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना। राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है। शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है। विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है। विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है। देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना। इस दृष्टि से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना। बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना।
    
== लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें ==
 
== लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें ==
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३. मतदाता का 'मत' कई कारणों से प्रभावित होता है। चुनाव लड रहे हर प्रत्याशी की अंदर बाहर से जानकारी नहीं होने से, जिस पद के लिये चुनाव हो रहे हैं उस पद की जिम्मेदारियाँ क्या हैं इस की जानकारी नहीं होने से, और उपर्युक्त लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातों में से कुछ बातों के अनुपोस्थित होने से यह हो सकता है। एॅसी परिस्थिति में मतदाता ने किया मतदान सटीक नहीं रह सकता।
 
३. मतदाता का 'मत' कई कारणों से प्रभावित होता है। चुनाव लड रहे हर प्रत्याशी की अंदर बाहर से जानकारी नहीं होने से, जिस पद के लिये चुनाव हो रहे हैं उस पद की जिम्मेदारियाँ क्या हैं इस की जानकारी नहीं होने से, और उपर्युक्त लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातों में से कुछ बातों के अनुपोस्थित होने से यह हो सकता है। एॅसी परिस्थिति में मतदाता ने किया मतदान सटीक नहीं रह सकता।
 
४. जिस प्रकार से मतदाता की अर्हता महत्वपूर्ण है उसी प्रकार से प्रत्याशी की अर्हता तो उस से भी अधिक महत्व रखती है। किंतु इस विषय में भी जिस पद के लिये वह चुनाव लड रहा है उस दृष्टि से प्रत्याशी के संस्कार, लालन-पालन, उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण इन बातों की कोई शर्त नहीं होती।
 
४. जिस प्रकार से मतदाता की अर्हता महत्वपूर्ण है उसी प्रकार से प्रत्याशी की अर्हता तो उस से भी अधिक महत्व रखती है। किंतु इस विषय में भी जिस पद के लिये वह चुनाव लड रहा है उस दृष्टि से प्रत्याशी के संस्कार, लालन-पालन, उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण इन बातों की कोई शर्त नहीं होती।
५. मतदान कभी भी १०० प्रतिशत नहीं होता। जो होता है उसी में अधिकतम मत जिसे मिलते हैं वह चुनाव जीत जाता है। विभिन्न कारणों से कई बार मतदान ४० प्रतिशत से भी कम होता है। ऐसी स्थिति में या अधिक प्रत्याशी संख्या होने पर मात्र २० प्रतिशत मत पाने वाला प्रत्याशी भी चुनाव जीत जाता है। स्वाधीनता के बाद के चुनाव में काँग्रेस ने संसद और विधानसभा की मिलाकर देशभर में ७२ प्रतिशत बैठकें जीतीं थीं। किंतु कुल बालिग मतदान का प्रत्यक्ष पेटी में प्राप्त हुवा मतदान मात्र २३ प्रतिशत ही था। इस २३ प्रतिशत में भी काँग्रेस को केवल ४५ प्रतिशत मत ही प्राप्त हुवे थे। इसका अर्थ यह है कि कुल मतों में से केवल १०.३५ प्रतिशत मत पाने से काँग्रेस को पाशवी (ब्रूटल) बहुमत प्राप्त हो गया था।
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५. मतदान कभी भी १०० प्रतिशत नहीं होता। जो होता है उसी में अधिकतम मत जिसे मिलते हैं वह चुनाव जीत जाता है। विभिन्न कारणों से कई बार मतदान ४० प्रतिशत से भी कम होता है। ऐसी स्थिति में या अधिक प्रत्याशी संख्या होने पर मात्र २० प्रतिशत मत पाने वाला प्रत्याशी भी चुनाव जीत जाता है। स्वाधीनता के बाद के चुनाव में काँग्रेस ने संसद और विधानसभा की मिलाकर देशभर में ७२ प्रतिशत बैठकें जीतीं थीं। किंतु कुल बालिग मतदान का प्रत्यक्ष पेटी में प्राप्त हुवा मतदान मात्र २३ प्रतिशत ही था। इस २३ प्रतिशत में भी काँग्रेस को केवल ४५ प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए थे। इसका अर्थ यह है कि कुल मतों में से केवल १०.३५ प्रतिशत मत पाने से काँग्रेस को पाशवी (ब्रूटल) बहुमत प्राप्त हो गया था।
 
६. चुनाव का व्यय इतना अधिक होता है कि सामान्य माली हालत वाला व्यक्ति चुनाव लडने का व्यय वहन नहीं कर सकता। फिर वह विविध प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन की व्यवस्था करता है। जब चुन कर आ जाता है तो जिन से उसने धन लिया है वे अपने दिये धन से कई गुना लाभ उससे प्राप्त करते हैं। इस से भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है। कई बार तो लोग गुण्डों की मदद लेते हैं। विदेशी शक्तियों की मदद लेने वाले भी कई लोग होते हैं। ऐसे लोग चुन कर आने के बाद उन गुण्डों के लिये या विदेशी शक्तियों के लिये काम करते हैं।
 
६. चुनाव का व्यय इतना अधिक होता है कि सामान्य माली हालत वाला व्यक्ति चुनाव लडने का व्यय वहन नहीं कर सकता। फिर वह विविध प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन की व्यवस्था करता है। जब चुन कर आ जाता है तो जिन से उसने धन लिया है वे अपने दिये धन से कई गुना लाभ उससे प्राप्त करते हैं। इस से भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है। कई बार तो लोग गुण्डों की मदद लेते हैं। विदेशी शक्तियों की मदद लेने वाले भी कई लोग होते हैं। ऐसे लोग चुन कर आने के बाद उन गुण्डों के लिये या विदेशी शक्तियों के लिये काम करते हैं।
 
७. वास्तव में अल्पमत और बहुमत वाला लोकतंत्र तो सीधा ' सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यानी बलवानों को ही जीने का अधिकार है' इस सूत्र के आधार पर ही बनाया हुवा तंत्र है। जब आप बहुमत में आ जाते हैं यानी बलवान हो जाते हैं तब आप की इच्छा के अनुसार अल्पमत वालों को चलना पडेगा।
 
७. वास्तव में अल्पमत और बहुमत वाला लोकतंत्र तो सीधा ' सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यानी बलवानों को ही जीने का अधिकार है' इस सूत्र के आधार पर ही बनाया हुवा तंत्र है। जब आप बहुमत में आ जाते हैं यानी बलवान हो जाते हैं तब आप की इच्छा के अनुसार अल्पमत वालों को चलना पडेगा।
 
८. प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।  
 
८. प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।  
 
९. चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुध्दिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
 
९. चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुध्दिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
१०.कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी भारतीय मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है| ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था भारतीय राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अभारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
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१०.कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी भारतीय मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है। ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था भारतीय राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अभारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
    
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
 
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
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उपर्युक्त विवेचन से निम्न बातें ध्यान में आतीं हैं।
 
उपर्युक्त विवेचन से निम्न बातें ध्यान में आतीं हैं।
 
१.  हजारों लाखों वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो सोच और व्यवस्थाएँ निर्माण की थीं वह कालसिध्द हैं।
 
१.  हजारों लाखों वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो सोच और व्यवस्थाएँ निर्माण की थीं वह कालसिध्द हैं।
२.  अभारतीय समाजोंने पुरस्कृत की हुई और आग्रहपूर्वक लादी गई व्यवस्थाएँ तो उन के लिये भी हितकारी सिध्द नहीं हुईं हैं| तो  भारत के लिये हितकारी कैसे सिध्द होंगी।  
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२.  अभारतीय समाजोंने पुरस्कृत की हुई और आग्रहपूर्वक लादी गई व्यवस्थाएँ तो उन के लिये भी हितकारी सिध्द नहीं हुईं हैं। तो  भारत के लिये हितकारी कैसे सिध्द होंगी।  
३.  'धर्मराज्य' ही वास्तव में लोगों का, लोगों (चराचर के हित की चिंता करनेवालों) द्वारा चलाया गया, लोगों के ही नहीं तो चराचर के हित में काम करनेवाले शासन का श्रेष्ठ स्वरूप है। इसी को हम रामराज्य भी कहते हैं| रामराज्य का वर्णन आगे दे रहे हैं|
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३.  'धर्मराज्य' ही वास्तव में लोगों का, लोगों (चराचर के हित की चिंता करनेवालों) द्वारा चलाया गया, लोगों के ही नहीं तो चराचर के हित में काम करनेवाले शासन का श्रेष्ठ स्वरूप है। इसी को हम रामराज्य भी कहते हैं। रामराज्य का वर्णन आगे दे रहे हैं।
    
=== राम राज्य ===
 
=== राम राज्य ===
 
(तुलसीदास रचित रामचरित मानस - उत्तरकाण्ड में राम राज्य का वर्णन पृष्ठ २३,२४,२५)
 
(तुलसीदास रचित रामचरित मानस - उत्तरकाण्ड में राम राज्य का वर्णन पृष्ठ २३,२४,२५)
 
(गीता प्रेस गोरखपुर - टीकाकार हनुमानप्रसाद पोद्दार)
 
(गीता प्रेस गोरखपुर - टीकाकार हनुमानप्रसाद पोद्दार)
श्रीरामचन्द्रजीके राज्यपर प्रतिष्ठित होनेपर तीनों लोक हर्षित हो गये, उनके सारे शोक जाते रहे| कोई किसी से बैर नहीं करता| श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापसे सबकी विषमता (आतंरिक भेदभाव) मिट गयी| सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल; धर्म में तत्पर हुए सदा वेदमार्गपर चलते हैं और सुख पाते हैं| उन्हें न किसी बात का भय होता है और न कोई रोग ही सताता है|
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श्रीरामचन्द्रजीके राज्यपर प्रतिष्ठित होनेपर तीनों लोक हर्षित हो गये, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से बैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापसे सबकी विषमता (आतंरिक भेदभाव) मिट गयी। सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल; धर्म में तत्पर हुए सदा वेदमार्गपर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय होता है और न कोई रोग ही सताता है।
रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते| सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं| धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगतमें परिपूर्ण हो रहा है; स्वप्नमें भी कहीं पाप नहीं है| पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परमगति (मोक्ष) के अधिकारी हैं|
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रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगतमें परिपूर्ण हो रहा है; स्वप्नमें भी कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परमगति (मोक्ष) के अधिकारी हैं।
छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है| सभीके शरीर सुन्दर और निरोग हैं| न कोई दरिद्र है, न कोई दु:खी है और न कोई दीन ही है| न कोई मुर्ख है न शुभ लक्षणों से हीन ही है| सभी दम्भरहित हैं, धर्मंपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं| पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान हैं| सभी गुणों का आदर करनेवाले और पंडित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं| सभी कृतज्ञ (दुसरे के उपकारों को माननेवाले) हैं, कपट चतुराई (धूर्तता) किसीमें नहीं है|
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छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभीके शरीर सुन्दर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न कोई दु:खी है और न कोई दीन ही है। न कोई मुर्ख है न शुभ लक्षणों से हीन ही है। सभी दम्भरहित हैं, धर्मंपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करनेवाले और पंडित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दुसरे के उपकारों को माननेवाले) हैं, कपट चतुराई (धूर्तता) किसीमें नहीं है।
(काकभुशुंडीजी कहते हैं- हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिए!) श्रीराम के राज्यमें जड़, चेतन सारे जगतमें काल, कर्म, स्वभाव और गुणोंसे उत्पन्न हुए दुःख: किसीको भी नहीं होते (अर्थात् इनके बंधनमें कोई नहीं है)| अयोध्यामें हरी रघुनाथजी सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली पृथ्वीके एकमात्र राजा हैं| जिनके एक-एक रोममें अनेकों ब्रह्माण्ड हैं, उनके लिये सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है|
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(काकभुशुंडीजी कहते हैं- हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिए!) श्रीराम के राज्यमें जड़, चेतन सारे जगतमें काल, कर्म, स्वभाव और गुणोंसे उत्पन्न हुए दुःख: किसीको भी नहीं होते (अर्थात् इनके बंधनमें कोई नहीं है)अयोध्यामें हरी रघुनाथजी सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली पृथ्वीके एकमात्र राजा हैं। जिनके एक-एक रोममें अनेकों ब्रह्माण्ड हैं, उनके लिये सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है।
रामराज्य की सुखासम्पत्ति का वर्णन शेषजी और सरस्वतीजी भी नहीं कर सकते| सभी नर नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और ब्राह्मण के चरणों के सेवक हैं| सभी पुरुष एकपत्निव्रती हैं| इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन, वचन और कर्मसे पतिका हित करनेवाली हैं|
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रामराज्य की सुखासम्पत्ति का वर्णन शेषजी और सरस्वतीजी भी नहीं कर सकते। सभी नर नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और ब्राह्मण के चरणों के सेवक हैं। सभी पुरुष एकपत्निव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन, वचन और कर्मसे पतिका हित करनेवाली हैं।
श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें कोई शत्रु है ही नहीं इसलिये ‘जीतो’ शब्द केवल मन को जितने के लिये ही कहा जाता है| कोई अपराध करता ही नहीं है| इसलिये किसी को दण्ड नहीं दिया जाता| दण्ड शब्द का उपयोग तो केवल संन्यासियों के हाथ में रहनेवाले दण्डों के लिये ही रह गया है| सभी अनुकुल होने के कारण भेदभाव का विषय ही नहीं है| इसलिए ‘भेद’ शब्द केवल ताल-सुरों के भेदके सन्दर्भ में ही काम में आता है|
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श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें कोई शत्रु है ही नहीं इसलिये ‘जीतो’ शब्द केवल मन को जितने के लिये ही कहा जाता है। कोई अपराध करता ही नहीं है। इसलिये किसी को दण्ड नहीं दिया जाता। दण्ड शब्द का उपयोग तो केवल संन्यासियों के हाथ में रहनेवाले दण्डों के लिये ही रह गया है। सभी अनुकुल होने के कारण भेदभाव का विषय ही नहीं है। इसलिए ‘भेद’ शब्द केवल ताल-सुरों के भेदके सन्दर्भ में ही काम में आता है।
वनोंमें वृक्ष सदा फुलते और फलते हैं| हाथी और सिंह बैर भुलाकर एक साथ रहते हैं| पक्षी और पशु सभीने स्वाभाविक बैर भुलाकर आपसमें प्रेम बढा लिया है| पक्षी कुजते हैं, भांति-भांति के पशुओंके समूह वनमें निर्भय विचरते और आनंद करते हैं| शीतल, मंद, सुगन्धित पवन चलता रहता है| भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते जाते हैं| बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु टपका देते हैं| गौएँ मनचाहा दूध देतीं हैं| धरती सदा खेती से भरी रहती है| त्रेता में सत्ययुग की स्थिति हो जाती है|
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वनोंमें वृक्ष सदा फुलते और फलते हैं। हाथी और सिंह बैर भुलाकर एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशु सभीने स्वाभाविक बैर भुलाकर आपसमें प्रेम बढा लिया है। पक्षी कुजते हैं, भांति-भांति के पशुओंके समूह वनमें निर्भय विचरते और आनंद करते हैं। शीतल, मंद, सुगन्धित पवन चलता रहता है। भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते जाते हैं। बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु टपका देते हैं। गौएँ मनचाहा दूध देतीं हैं। धरती सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुग की स्थिति हो जाती है।
समस्त जगतके आत्मा भगवानको जगतका राजा जानकर पर्वतोंने अनेक प्रकारकी मणियोंकी खान प्रकट करे दी| सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं हैं| समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं| वे लहरोंके द्वारा किनारोंपर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं| सब तालाब कमलोंसे परिपूर्ण हैं| दसों दिशाओं के प्रदेश अत्यंत प्रसन्न हैं| चन्द्रमा अपनी अमृतमयी किरणोंसे पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं| सूर्य उतना ही तपते हैं जितनी आवश्यकता होती है और मेघ माँगनेसे जहाँ जितना चाहिये उतना ही जल देते हैं|
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समस्त जगतके आत्मा भगवानको जगतका राजा जानकर पर्वतोंने अनेक प्रकारकी मणियोंकी खान प्रकट करे दी। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं हैं। समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरोंके द्वारा किनारोंपर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं। सब तालाब कमलोंसे परिपूर्ण हैं। दसों दिशाओं के प्रदेश अत्यंत प्रसन्न हैं। चन्द्रमा अपनी अमृतमयी किरणोंसे पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं। सूर्य उतना ही तपते हैं जितनी आवश्यकता होती है और मेघ माँगनेसे जहाँ जितना चाहिये उतना ही जल देते हैं।
    
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