Difference between revisions of "64 Kalas of ancient India (प्राचीन भारत में चौंसठ कलाऍं)"

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कला भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण भाग हुआ करता है। शिक्षामें कलाओंकी शिक्षा महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो मानव जीवन को सुन्दर, प्राञ्जल एवं परिष्कृत बनाने में सर्वाधिक सहायक हैं। कला एक विशेष साधना है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी उपलब्धियों को सुन्दरतम रूप में दूसरों तक सम्प्रेषित कर सकने में समर्थ होता है। कलाओंके ज्ञान होने मात्र से ही मानव अनुशासित जीवन जीने में अपनी भूमिका निभा पाता है। विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में गुरुकुल में इनका ज्ञान प्राप्त करते हैं। इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला कहा जाता है।
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[[Bharatiya Kala Vidya (भारतीय कला विद्या)]]
  
== परिचय॥ Introduction ==
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कला प्राचीन भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण अंग हुआ करता था। मानव जीवन को सुन्दर एवं परिष्कृत बनाने में कला का विशेष योगदान है। इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला भी कहा जाता है।
भारतवर्ष ने हमेशा ज्ञान को बहुत महत्व दिया है। प्राचीन काल में भारतीय शिक्षाका क्षेत्र बहुत विस्तृत था। कलाओंमें शिक्षा भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है कलाओं के सम्बन्ध में रामायण, महाभारत, पुराण नीतिग्रन्थ आदि में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। भारतके ज्ञान परंपरा की बात करते हुए कपिल कपूर कहते हैं- <nowiki>''</nowiki>भारत की ज्ञान परंपरा गंगा नदी के प्रवाह की तरह प्राचीन और अबाधित है<nowiki>''</nowiki>।<ref>Kapoor Kapil and Singh Avadhesh Kumar, Bharat's Knowledge Systems, Vol.1, NewDelhi: D.K.Printworld, Pg.no.11</ref>
 
  
शुक्राचार्यजी के नीतिसार नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के तीसरे प्रकरण में सुन्दर प्रकार से सीमित शब्दों में विवरण प्राप्त होता है। उनके अनुसार कलाऍं अनन्त हैं उन सभी का परिगणनन भी क्लिष्ट है परन्तु उनमें 64 कलाऍं प्रमुख हैं। सभी मनुष्योंका स्वभाव एकसा नहीं होता, किसी की प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है, उसी में अभ्यास करने से कुशलता प्राप्त होती है। शुक्राचार्य जी लिखते हैं—<blockquote>यां यां कलां समाश्रित्य निपुणो यो हि मानवः। नैपुण्यकरणे सम्यक् तां तां कुर्यात् स एव हि॥</blockquote>प्राचीन भारतके शिक्षा पाठ्यक्रमकी परंपरा हमेशा 18 प्रमुख विद्याओं (ज्ञान के विषयों) और 64 कलाओं की बात करती है। ज्ञान और क्रिया के संगम के विना शिक्षा अपूर्ण मानी जाती रही है। ज्ञान एवं कला के प्रचार में गुरुकुलों की भूमिका प्रधान रही है एवं ऋषी महर्षि सन्न्यासी आदि भ्रमणशील रहकर के ज्ञान एवं कला का प्रचार-प्रसार किया करते रहे हैं। गुरुकुल में अध्ययनरत शिक्षार्थियों की मानसिकता उसके परिवार से न बंधकर एक बृहद् कुल की भावना से जुडी हुई होती है जिसके द्वारा वह ज्ञान एवं कला लोकोपयोगी सिद्ध हुआ करता है।  
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== कला के प्रकार॥ Kinds of Kalas ==
 
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प्राचिन साहित्य में पूर्णावतार परमात्मा को 64 कलाओं से युक्त कहा गया है। वात्स्यायन सूत्र एवं शुक्र नीति में कला के 64 प्रकारों का विवेचन है तथा ललित-विस्तर इसके 86 प्रभेदों का निरूपण करता है। जैन एवं बौद्ध परंपरा के ग्रन्थों में चौंसठ कलाओं की सूची मिलती है। जैन आचार्य शेखरसूरि के प्रबन्धकोष में इसके 72 प्रकारों का विश्लेषण है।जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 64 कलाओं की गणना के संबंध में  भिन्नताएं हैं। इन कलाओं का उल्लेख इन ग्रन्थोंमें प्राप्त होता है -
दर्शन का शाब्दिक अर्थ है "एक दृष्टिकोण" जो ज्ञान की ओर ले जाता है। जब यह ज्ञान, एक विशेष डोमेन के बारे में एकत्र किया जाता है, तो इसे चिंतन के उद्देश्यों के लिए व्यवस्थित और व्यवस्थित किया जाता है। चिंतनम् ​​(प्रतिबिंब) और अध्ययन (अध्यापनम् | शिक्षाशास्त्र) यह विद्या (विद्या | अनुशासन) की स्थिति प्राप्त करता है।  
 
 
 
ज्ञान से संबंधित सभी चर्चाओं में तीन शब्द दिखाई देते हैं।
 
 
 
* दर्शनम् ॥ Darshana
 
 
 
* ज्ञानम् ॥ Jnana
 
 
 
* विद्या ॥ Vidya
 
 
 
गुरुकुलों में अध्ययन करने वाले शिक्षार्थियों में उच्च नैतिकता एवं जैसा कि पुराण महाभारत आदि में गुरु वसिष्ठ शुक्राचार्य द्रोण आदि के परम्परा में कला एवं ज्ञान आचरणीय  योग्यता रखती थी।
 
 
 
== विद्या के अट्ठारह प्रकार॥ Kinds of 18 Vidhyas ==
 
अष्टादश विद्याओं में शामिल हैं- <blockquote>अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।।
 
 
 
आयुर्वेदो   धनुर्वेदो  गांधर्वश्चैव    ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः।।</blockquote>
 
* '''चतुर्वेदाः'''- ये ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चार वेद होते हैं।
 
 
 
* '''चत्वारः उपवेदः''' - ये आयुर्वेद (चिकित्सा), धनुर्वेद (हथियार), गंधर्ववेद (संगीत) और शिल्पशास्त्र (वास्तुकला) चार उपवेद होते हैं।
 
* '''चत्वारि उपाङ्गानि-''' पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र ये चार उपाङ्ग होते हैं।
 
 
 
* '''षड्वेदाङ्गानि-''' शिक्षा (ध्वन्यात्मकता), व्याकरण, छंद (परिमाण), ज्योतिष (खगोल विज्ञान), कल्प (अनुष्ठान) और निरुक्त (व्युत्पत्ति) ये छः अङ्ग होते हैं।
 
 
 
जहाँ तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।
 
 
 
== कला के चौंसठ प्रकार॥ Kinds of 64 Kalas ==
 
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 64 कलाओं की गणना के संबंध में  भिन्नताएं हैं। इन कलाओं का उल्लेख इन ग्रन्थोंमें प्राप्त होता है -
 
  
 
* शैवतन्त्रम् ॥ Shaivatantra
 
* शैवतन्त्रम् ॥ Shaivatantra
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* शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra
 
* शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra
  
इनमें से कुछ ग्रंथों में 64 कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-
+
इनमें से कुछ ग्रंथों में वर्णित कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-
  
 
{| class="wikitable"
 
{| class="wikitable"
|+चौंसठ कलाऍं॥ Chatusshashti Kala (64 Arts)
+
|+कलाऍं ॥ Kala (Arts)
 
!क्र.सं.
 
!क्र.सं.
!शैवतन्त्रम्<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%AD Vachaspatyam]</ref><ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%83 Shabdakalpadruma]</ref><ref>Srimad Bhagavata Mahapurana (Part II), English redition: C.L.Goswami, Gorakhpur: Gita Press, Fourth Edition (1997), Pg.no.294 (annotation)</ref>
+
!ललितविस्तर <ref>आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३१/३३।</ref>
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!प्रबन्धकोश<ref>आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३६/३७।</ref>
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!शैवतन्त्रम्<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%AD Vachaspatyam]</ref><ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%83 Shabdakalpadruma]</ref><ref name=":0">श्री मद्भागवत महापुराण, (द्वितीय खण्ड) हिन्दी टीका सहित,स्कन्ध १०,अध्याय  ४५ , श्लोक ३६, हनुमान प्रसाद् पोद्दार,गोरखपुर गीता प्रेस सन् १९९७ पृ०४१२।</ref>
 
!शुक्रनीतिसारः<ref>श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् ।</ref><ref>B.D.Basu, The Sacred Books of the Hindus, Vol XIII [https://archive.org/details/Sukra_Niti The Sukraniti], Allahabad: The Panini Office, Bhuvaneshwari Asrama, 1914. Pg.no.157</ref>
 
!शुक्रनीतिसारः<ref>श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् ।</ref><ref>B.D.Basu, The Sacred Books of the Hindus, Vol XIII [https://archive.org/details/Sukra_Niti The Sukraniti], Allahabad: The Panini Office, Bhuvaneshwari Asrama, 1914. Pg.no.157</ref>
 
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|गीतम् ॥ गानविद्या
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|लङ्घितम्-कूदना।
|हावभावादिसंयुक्तं नर्त्तनम् - हावभाव के साथ नाचना
+
|लिखितम्
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|गीतम् - गानविद्या।
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|हावभावादिसंयुक्तं नर्त्तनम् - हावभाव के साथ नाचना।
 
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|वाद्यम् भिन्न-भिन्न प्रकार के बाजे बजाना
+
|प्राक्चलितम्-उछलना।
|अनेकवाद्यविकृतौ तद्वादने ज्ञानम्-आरकेस्ट्रा में अनेक प्रकार के बाजे बजा लेना
+
|गणितम्
 +
|वाद्यम् - भिन्न-भिन्न प्रकार के बाजे बजाना।
 +
|अनेकवाद्यविकृतौ तद्वादने ज्ञानम्- आरकेस्ट्रा में अनेक प्रकार के बाजे बजा लेना।
 
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|नृत्यम् ॥ नाचना
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|लिपिमुद्रागणनासंख्यासालम्भधनुर्वेदाः- लेखनकला, हाथकी उंगलियों से भिन्न-भिन्न आकृतियों को बनाना, गिनना, संख्याओं की गिनती, कुश्ती, धनुषविद्या।
|स्त्रीपुंसोः वस्त्रालंकारसन्धानम्-स्त्री और पुरुषों को वस्त्र - अलंकार पहनाने की कला
+
|गीतम्
 +
|नृत्यम् - नाचना।
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|स्त्रीपुंसोः वस्त्रालंकारसन्धानम्- स्त्री और पुरुषों को वस्त्र - अलंकार पहनाने की कला।
 
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|आलेख्यम् ॥ चित्रकारी
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|जवितम् - दौड़ना।
|अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्-पत्थर, काठ आदि पर भिन्न-भिन्न आकृतियों का निर्माण ।
+
|नृत्यम्
 +
|आलेख्यम् - चित्रकारी।
 +
|अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्- पत्थर, काठ आदि पर भिन्न-भिन्न आकृतियों का निर्माण ।
 
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|विशेषकच्छेद्यम् तिलकरचना, पत्रावलीरचना के साँचे बनाना
+
|प्लवितम् - पानी में डुबकी लगाना ।
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|पठितम्
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|विशेषकच्छेद्यम् - तिलकरचना, पत्रावलीरचना के साँचे बनाना।
 
|शय्यास्तरणसंयोगपुष्पादिग्रथनम् - फूल का हार गूंथना और शय्या सजाना।  
 
|शय्यास्तरणसंयोगपुष्पादिग्रथनम् - फूल का हार गूंथना और शय्या सजाना।  
 
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|तण्डुलकुसुमयलिविकाराः पूजा के लिये अक्षत एवं पुष्पों को सजाना
+
|तरणम् -तैरना।
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|वाद्यम्
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|तण्डुलकुसुमयलिविकाराः - पूजा के लिये अक्षत एवं पुष्पों को सजाना।
 
|द्यूताद्यनेकक्रीडाभी रञ्जनम् - जुआ इत्यादि से मनोरंजन करना
 
|द्यूताद्यनेकक्रीडाभी रञ्जनम् - जुआ इत्यादि से मनोरंजन करना
 
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|पुष्पास्तरणम् ॥ पुष्पसज्जा
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|इष्वस्त्रम् -तीर चलाना।
|अनेकासनसन्धानै रमतेर्ज्ञानम्-कामशास्त्रीय आसनों आदि का ज्ञान
+
|व्याकरणम्
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|पुष्पास्तरणम् - पुष्पसज्जा।
 +
|अनेकासनसन्धानै रमतेर्ज्ञानम्- कामशास्त्रीय आसनों आदि का ज्ञान।
 
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|दशनवसनाङ्गरागाः दाँत-वस्त्र एवं शरीर के अंगों को रंगना
+
|हस्तिग्रीवा- हाथी की सवारी करना।
|मकरन्दासवादीनां मद्यादीनां कृतिः - भिन्न-भिन्न भाँति के शराब बनाना
+
|छन्दः
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|दशनवसनाङ्गरागाः - दाँत-वस्त्र एवं शरीर के अंगों को रंगना।
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|मकरन्दासवादीनां मद्यादीनां कृतिः - भिन्न-भिन्न भाँति के शराब बनाना।
 
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|मणिभूमिकाकर्म भूमि को मणियों से सजाना
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|रथः- रथ से सम्बद्ध ज्ञान।
|शल्यगूढाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्-शरीर में घुसे हुए शल्य को शस्त्रों की सहायता से निकालना, जर्राही
+
|ज्योतिषम्
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|मणिभूमिकाकर्म - भूमि को मणियों से सजाना।
 +
|शल्यगूढाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्- शरीर में घुसे हुए शल्य को शस्त्रों की सहायता से निकालना, जर्राही।
 
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|10
|शयनरचनम् शय्या की रचना
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|धनुष्कलाप-धनुष-सम्बन्धी विज्ञान।
|हीनाद्रिरससंयोगान्नादिसम्पाचनम्-नाना रसों का भोजन बनाना ।
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|शिक्षा
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|शयनरचनम् - शय्या की रचना।
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|हीनाद्रिरससंयोगान्नादिसम्पाचनम्- नाना रसों का भोजन बनाना ।
 
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|11
 
|11
|उदकवाद्यम् जल पर हाथ से इस प्रकार आघात करना कि मृदङ्ग आदि वाद्यों के समान ध्वनि उत्पन्न हो
+
|अश्व पृष्ठम्- घोड़े की सवार।
 +
|निरुक्तम्
 +
|उदकवाद्यम् - जल पर हाथ से इस प्रकार आघात करना कि मृदङ्ग आदि वाद्यों के समान ध्वनि उत्पन्न हो।
 
|वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- पेड़-पौधों की देखभाल, रोपाई, सिंचाई का ज्ञान ।
 
|वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- पेड़-पौधों की देखभाल, रोपाई, सिंचाई का ज्ञान ।
 
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|12
 
|12
|उदकाघातः जलक्रीड़ा के समय कलात्मक ढंग से छींटे मारना या जल को उछालना
+
|स्थैर्यम् - स्थिरता।
|पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्-पत्थर और धातुओं को गलाना तथा भस्म बनाना ।
+
|कात्यायनम्
 +
|उदकाघातः - जलक्रीड़ा के समय कलात्मक ढंग से छींटे मारना या जल को उछालना।
 +
|पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्- पत्थर और धातुओं को गलाना तथा भस्म बनाना ।
 
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|13
 
|13
|चित्रायोगाः औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग
+
|स्थाम- बल।
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|निघण्टुः
 +
|चित्रायोगाः - औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग।
 
|यावदिक्षुविकाराणां कृतिज्ञानम्-फल के रस से मिश्री, चीनी आदि भिन्न-भिन्न चीजें बनाना।
 
|यावदिक्षुविकाराणां कृतिज्ञानम्-फल के रस से मिश्री, चीनी आदि भिन्न-भिन्न चीजें बनाना।
 
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|14
 
|14
|माल्यग्रथनविकल्पाः औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग
+
|सुशौर्यम् -साहस।
|धात्वोषधीनां संयोगक्रियाज्ञानम्-धातु और औषधों के संयोग से रसायनों का बनाना।
+
|पत्रच्छेद्यम्
 +
|माल्यग्रथनविकल्पाः - औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग।
 +
|धात्वोषधीनां संयोगक्रियाज्ञानम्- धातु और औषधों के संयोग से रसायनों का बनाना।
 
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|15
 
|15
|शेखरकापीडयोजनम् ॥ शेखरक और आपीड (शिर पर धारण किये जाने वाले पुष्पाभरण) की योजना
+
|बाहुव्यायाम-बाहु का व्यायाम।
|धातुसाङ्कर्यपार्थक्यकरणम्-धातुओं के मिलाने और अलग करने की विद्या । के नये संयोग बनाना
+
|नखच्छेद्यम्
 +
|शेखरकापीडयोजनम् - शेखरक और आपीड (शिर पर धारण किये जाने वाले पुष्पाभरण) की योजना।
 +
|धातुसाङ्कर्यपार्थक्यकरणम्-धातुओं के मिलाने और अलग करने की विद्या ।
 
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|16
 
|16
|नेपथ्ययोगाः ॥ वेश-भूषा धारण की कला
+
|अङ्कुशग्रहपाशग्रहाः - अंकुश और पाश, इन दोनों हथियारों का ग्रहण करना।
|धात्वादीनां संयोगापूर्वविज्ञानम्-धातुओं के नये संयोग बनाना ।
+
|रत्नपरीक्षा
 +
|नेपाथ्ययोगाः - वेश-भूषा धारण की कला।
 +
|धात्वादीनां संयोगापूर्वविज्ञानम्- धातुओं के नये संयोग बनाना ।
 
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|17
 
|17
|कर्णपत्रभङ्गाः हाथीदाँत के पत्तरों आदि से कर्णाभूषण की रचना
+
|उद्याननिर्माणम्-ऊँची वस्तु को फाँदकर और दो ऊँची वस्तु के बीच से कूदकर पार जाना।
|क्षारनिष्कासनज्ञानम्-खार बनाना ।
+
|आयुधाभ्यासः
 +
|कर्णपत्रभङ्गाः - हाथीदाँत के पत्तरों आदि से कर्णाभूषण की रचना।
 +
|क्षारनिष्कासनज्ञानम्- खार बनाना ।
 
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|18
 
|18
|गन्धयुक्तिः सुगंध की योजना
+
|अपयानम्-पीछे की ओर से निकलना।
|पदादिन्यासतः शस्त्रसन्धाननिक्षेपः-पैर ठीक करके धनुष चढ़ाना और बाण फेंकना।  
+
|गजारोहणम्
 +
|गन्धयुक्तिः - सुगंध की योजना।
 +
|पदादिन्यासतः शस्त्रसन्धाननिक्षेपः- पैर ठीक करके धनुष चढ़ाना और बाण फेंकना।
 
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|19
 
|19
|भूषणयोजनम् आभूषण निर्माण की कला
+
|मुष्टिबन्ध-मुट्ठी और घूसे की कला।
|सन्ध्याघाताकृष्टिभेदैः मल्लयुद्धम्-तरह-तरह के दाँव-पेंच के साथ कुश्ती लड़ना ।
+
|तुरगारोहणम्
 +
|भूषणयोजनम् - आभूषण निर्माण की कला।
 +
|सन्ध्याघाताकृष्टिभेदैः मल्लयुद्धम्- तरह-तरह के दाँव-पेंच के साथ कुश्ती लड़ना ।
 
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|20
 
|20
|ऐन्द्रजालम् ॥ इन्द्रजाल या जादू का खेल
+
|शिखाबन्ध- शिखा बाँधना।
|अभिलक्षिते देशे यन्त्राद्यस्त्रनिपातनम्-शस्त्रों को निशाने पर फेंकना ।
+
|तपःशिक्षा
 +
|ऐन्द्रजालम् - इन्द्रजाल या जादू का खेल।
 +
|अभिलक्षिते देशे यन्त्राद्यस्त्रनिपातनम्- शस्त्रों को निशाने पर फेंकना ।
 
|-
 
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|21
 
|21
|कौचुमारयोगाः कुचुमारतंत्र में बताये गये वाजीकरण आदि प्रयोग
+
|छेद्यम्- भिन्न-भिन्न सुन्दर आकृतियों को काटकर बनाना।
|वाद्यसंकेततो व्यूहरचनादि-बाजे के संकेत से सेना की व्यूह रचना।
+
|मन्त्रवादः
 +
|कौचुमारयोगाः - कुचुमारतंत्र में बताये गये वाजीकरण आदि प्रयोग।
 +
|वाद्यसंकेततो व्यूहरचनादि - बाजे के संकेत से सेना की व्यूह रचना।
 
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|22
 
|22
|हस्तलाघवम् हाथ की सफाई
+
|भेद्यम् - छेदना।
|गजाश्वरथगत्या तु युद्धसंयोजनम्-हाथी, घोड़े या रथ से युद्ध करना ।
+
|यन्त्रवादः
 +
|हस्तलाघवम् - हाथ की सफाई।
 +
|गजाश्वरथगत्या तु युद्धसंयोजनम्- हाथी, घोड़े या रथ से युद्ध करना ।
 
|-
 
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|23
 
|23
|विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया ॥ नाना प्रकार के व्यंजन, यूष-सूप आदि बनाने की कला ।
+
|तरणम् -नाव खेना या जहाज चलाना या तैरना।
|विविधासनमुद्राभिः देवतातोषणम्-विभिन्न आसनों तथा मुद्राओं के द्वारा देवता को प्रसन्न करना।
+
|रसवादः
 +
|विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया - नाना प्रकार के व्यंजन, यूष-सूप आदि बनाने की कला ।
 +
|विविधासनमुद्राभिः देवतातोषणम्- विभिन्न आसनों तथा मुद्राओं के द्वारा देवता को प्रसन्न करना।
 
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|24
 
|24
|पानकरसरागासवयोजनम् प्रपाणक, आराव आदि पेय बनाने की कला
+
|स्फालनम् -(कन्दुक आदि को) उछालनेका कौशल।
|सारथ्यम् रथ हाँकना, वाहन चलाना।
+
|स्वन्यवादः
 +
|पानकरसरागासवयोजनम् - प्रपाणक, आराव आदि पेय बनाने की कला।
 +
|सारथ्यम् - रथ हाँकना, वाहन चलाना।
  
 
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|25
 
|25
|[[Textile Technology (तन्तुकार्यम्)|सूचीवापकर्म]] ॥ वस्त्ररचना एवं कढ़ाई का शिल्प
+
|अक्षुण्णवेधित्वम् -भाले से लक्ष्यबेथ करना।
 +
|रसायनम्
 +
|[[Textile Technology (तन्तुकार्यम्)|सूचीवापकर्म]] - वस्त्ररचना एवं कढ़ाई का शिल्प।
 
|गजाश्वादे: गतिशिक्षा- हाथी-घोड़ों आदि की चाल सिखाना।
 
|गजाश्वादे: गतिशिक्षा- हाथी-घोड़ों आदि की चाल सिखाना।
 
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|26
 
|26
|सूत्रक्रीडा हाथ के सूत्र (धागा आदि) से नानाप्रकार की आकृतियॉं बुनना
+
|मर्मवेधित्वम् -मर्मस्थल का बेधना।
|मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुभाण्डादिसत्क्रिया-मिट्टी, लकड़ी पत्थर और धातु के बर्तन बनाना
+
|विज्ञानम्
 +
|सूत्रक्रीडा - हाथ के सूत्र (धागा आदि) से नानाप्रकार की आकृतियॉं बुनना।
 +
|मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुभाण्डादिसत्क्रिया -मिट्टी, लकड़ी पत्थर और धातु के बर्तन बनाना  
 
|-
 
|-
 
|27
 
|27
|वीणाडमरुकवाद्यानि वीणा, डमरु आदि बजाना
+
|शब्दवेधित्वम् - शब्दबेधी बाण चलाना।
 +
|तर्कवादः
 +
|वीणाडमरुकवाद्यानि - वीणा, डमरु आदि बजाना।
 
|चित्राद्यालेखनम् - चित्र बनाना।
 
|चित्राद्यालेखनम् - चित्र बनाना।
  
 
|-
 
|-
 
|28
 
|28
|प्रहेलिका पहेलियाँ बुझाना
+
|दृढप्रहारित्वम् मुष्टिप्रहार करना।
|तटाकवापीप्रसादसमभूमिक्रिया-कुँआ, पोखरे खोदना तथा जमीन बराबर करना
+
|सिद्धान्तः
 +
|प्रहेलिका - पहेलियाँ बुझाना।
 +
|तटाकवापीप्रसादसमभूमिक्रिया - कुँआ, पोखरे खोदना तथा जमीन बराबर करना।
 
|-
 
|-
 
|29
 
|29
|प्रतिमा* ॥ अंत्याक्षरी
+
|अक्षक्रीडा-पाशा फेंकना।
|घट्याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः - वाद्य - यन्त्र तथा पनचक्की जैसी मशीनों का बनाना ।
+
|विषवादः
 +
|प्रतिमा* - अंत्याक्षरी।
 +
|घट्याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः - वाद्य - यन्त्र तथा पनचक्की जैसी मशीनों का बनाना।
 
|-
 
|-
 
|30
 
|30
|दुर्वाचकयोगाः कठिन उच्चारण और गूढ अर्थों वाले श्लोकों की रचना
+
|काव्यव्याकरणम्-काव्य की व्याख्या करना।
|हीनमध्यादिसंयोगवर्णाद्यै रंजनम् - रंगों के भिन्न-भिन्न मिश्रणों से चित्र रँगना
+
|गारुडम्
 +
|दुर्वाचकयोगाः - कठिन उच्चारण और गूढ अर्थों वाले श्लोकों की रचना।
 +
|हीनमध्यादिसंयोगवर्णाद्यै रंजनम् - रंगों के भिन्न-भिन्न मिश्रणों से चित्र रँगना।
 
|-
 
|-
 
|31
 
|31
|पुस्तकवाचनम् पुस्तक बाँचने का शिल्प
+
|ग्रन्थरचितम्- ग्रन्थ - रचना।
|जलवाटवग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया- जल, वायु, अग्नि को साथ मिलाकर और अलग-अलग रखकर कार्य करना, इन्हें बाँधना ।
+
|शाकुनम्
 +
|पुस्तकवाचनम् - पुस्तक बाँचने का शिल्प।
 +
|जलवाटवग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया - जल, वायु, अग्नि को साथ मिलाकर और अलग-अलग रखकर कार्य करना, इन्हें बाँधना।
 
|-
 
|-
 
|32
 
|32
|नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  नाट्य एवं कथा-काव्यों का रसास्वादन
+
|रूपम् - रूप निर्माण कला ( लकड़ी-सोना इत्यादि में आकृति बनाना )।
 +
|वैद्यकम्
 +
|नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  - नाट्य एवं कथा-काव्यों का रसास्वादन।
 
|नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम् - नौका, रथ आदि सवारियों का बनाना।
 
|नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम् - नौका, रथ आदि सवारियों का बनाना।
 
|-
 
|-
 
|33
 
|33
|काव्यसमस्यापूरणम् ॥ समस्यापूर्ति
+
|रूपकर्म- चित्रकारी।
|सूत्रादिरज्जुकरणविज्ञानम्- सूत और रस्सी बनाने का ज्ञान ।
+
|आचार्यविद्या
 +
|काव्यसमस्यापूरणम् - समस्यापूर्ति।
 +
|सूत्रादिरज्जुकरणविज्ञानम्- सूत और रस्सी बनाने का ज्ञान।
 
|-
 
|-
 
|34
 
|34
|पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः बेंत ओर बाँस का शिल्प
+
|अधीतम् -अध्ययन करना।
|अनेकतन्तुसंयोगैः पटबन्धः- सूत से कपड़ा बुनना ।
+
|आगमः
 +
|पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः - बेंत ओर बाँस का शिल्प।
 +
|अनेकतन्तुसंयोगैः पटबन्धः- सूत से कपड़ा बुनना।
 
|-
 
|-
 
|35
 
|35
|तक्षकर्माणि नक्काशी का काम
+
|अग्निकर्म-आग पैदा करना ।
|रत्नानां वेधादिसदसद्ज्ञानम् रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना- छेदना आदि।
+
|प्रासादलक्षणम्
 +
|तक्षकर्माणि - नक्काशी का काम।
 +
|रत्नानां वेधादिसदसद्ज्ञानम् - रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना- छेदना आदि।
 
|-
 
|-
 
|36
 
|36
|तक्षणम् ॥ काष्ठकर्म
+
|वीणा- वीणा बजाना ।
 +
|सामुद्रिकम्
 +
|तक्षणम् - काष्ठकर्म।
 
|स्वर्णादीनान्तु याथार्थ्यविज्ञानम् - सोने आदि के जाँचने का ज्ञान।
 
|स्वर्णादीनान्तु याथार्थ्यविज्ञानम् - सोने आदि के जाँचने का ज्ञान।
 
|-
 
|-
 
|37
 
|37
|वास्तुविद्या स्थापत्य शिल्प
+
|वाद्यनृत्यम् -नाचना और बाजा बजाना ।
 +
|स्मृतिः
 +
|वास्तुविद्या - स्थापत्य शिल्प
 
|कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम् - बनावटी सोना, रत्न (इमिटेशन) आदि बनाना।
 
|कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम् - बनावटी सोना, रत्न (इमिटेशन) आदि बनाना।
 
|-
 
|-
 
|38
 
|38
|रूप्यरत्नपरीक्षा  चाँदी-सोना आदि धातुओं तथा रत्नों की परीक्षा
+
|गीतपठिम् -गाना और कविता- पाठ करना।
 +
|पुराणम्
 +
|रूप्यरत्नपरीक्षा  - चाँदी-सोना आदि धातुओं तथा रत्नों की परीक्षा।
 
|स्वर्णाद्यलंकारकृतिः - सोने आदि का गहना बनाना।
 
|स्वर्णाद्यलंकारकृतिः - सोने आदि का गहना बनाना।
 
|-
 
|-
 
|39
 
|39
|धातुवादः  धातु-शोधन, मिश्रण आदि
+
|आख्यातम् -कहानी सुनाना।
 +
|इतिहासः
 +
|धातुवादः - धातु-शोधन, मिश्रण आदि।
 
|लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा देना, पानी चढ़ाना।
 
|लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा देना, पानी चढ़ाना।
 
|-
 
|-
 
|40
 
|40
|मणिरागाकरज्ञानम् ॥ मणियों को रंगना एवं उनके आकर का ज्ञान
+
|हास्यम् -मजाक करना।
 +
|वेदः
 +
|मणिरागाकरज्ञानम् - मणियों को रंगना एवं उनके आकर का ज्ञान।
 
|चर्मणां मार्दवादिक्रियाज्ञानम् चमड़े को नर्म बनाना।
 
|चर्मणां मार्दवादिक्रियाज्ञानम् चमड़े को नर्म बनाना।
 
|-
 
|-
 
|41
 
|41
|वृक्षायुर्वेदयोगाः वृक्षों के दीर्घायुष्य का शिल्प एवं उपवन लगाने की कला
+
|लास्यम् -सुकुमार नृत्य ।
 +
|विधिः
 +
|वृक्षायुर्वेदयोगाः - वृक्षों के दीर्घायुष्य का शिल्प एवं उपवन लगाने की कला।
 
|पशुचर्माङ्गनिर्हारज्ञानम्-पशु के शरीर से चमड़ा, मांस आदि को अलग कर सकना।  
 
|पशुचर्माङ्गनिर्हारज्ञानम्-पशु के शरीर से चमड़ा, मांस आदि को अलग कर सकना।  
 
|-
 
|-
 
|42
 
|42
|मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः मेष आदि पशु पक्षियों को लड़ाना
+
|नाट्यम् -नाटक, अनुकरण नृत्य ।
 +
|विद्यानुवादः
 +
|मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः - मेष आदि पशु पक्षियों को लड़ाना।
 
|दुग्धदोहादिघृतान्तं विज्ञानम् - दूध दुहना और उससे घी आदि निकालना।
 
|दुग्धदोहादिघृतान्तं विज्ञानम् - दूध दुहना और उससे घी आदि निकालना।
 
|-
 
|-
 
|43
 
|43
|शुकसारिकाप्रलापनम्  तोता-मैना आदि को बोलना सिखाना
+
|विडिम्बितम् - दूसरे का व्यंगात्मक अनुकरण, कैरिकेचर, मिमिक्री।
 +
|दर्शनसंस्कारः
 +
|शुकसारिकाप्रलापनम्  - तोता-मैना आदि को बोलना सिखाना।
 
|कञ्चुकादीनां सीवने विज्ञानम् - चोली आदि का सीना ।
 
|कञ्चुकादीनां सीवने विज्ञानम् - चोली आदि का सीना ।
 
|-
 
|-
 
|44
 
|44
|उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम् ॥ शरीर दबाने, सिर पर तेल लगाने आदि की
+
|माल्यग्रन्थनम्-माला गूंथना।
|जले बाह्वादिभिस्तरणम् हाथ की सहायता से तैरना।
+
|खेचरीकला
 +
|उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम् - शरीर दबाने, सिर पर तेल लगाने आदि की कला।
 +
|जले बाह्वादिभिस्तरणम् हाथ की सहायता से तैरना।
 
|-
 
|-
 
|45
 
|45
|अक्षरमुष्टिकाकथनम् संकेत भाषा का ज्ञान
+
|संवाहितम्-शरीर की मालिश।
 +
|भ्रामरीकला
 +
|अक्षरमुष्टिकाकथनम् - संकेत भाषा का ज्ञान।
 
|गृहभाण्डादेर्मार्जने विज्ञानम् - घर तथा घर के बर्तनों को साफ करने में निपुणता।  
 
|गृहभाण्डादेर्मार्जने विज्ञानम् - घर तथा घर के बर्तनों को साफ करने में निपुणता।  
 
|-
 
|-
 
|46
 
|46
|म्लेच्छितकविकल्पाः गुप्तभाषा का ज्ञान
+
|मणिरागः- कपड़ा रँगना
|वस्त्रसंमार्जनम् - कपड़ा साफ करना
+
|इन्द्रजालम्
 +
|म्लेच्छितकविकल्पाः - गुप्तभाषा का ज्ञान।
 +
|वस्त्रसंमार्जनम् - कपड़ा साफ करना।
 
|-
 
|-
 
|47
 
|47
|देशभाषाज्ञानम्  लोकभाषाओं का ज्ञान
+
|वस्त्ररागः-बहुमूल्य पत्थरों को रँगना।
 +
|पातालसिद्धिः
 +
|देशभाषाज्ञानम्  - लोकभाषाओं का ज्ञान।
 
|क्षुरकर्म - हजामत बनाना ।
 
|क्षुरकर्म - हजामत बनाना ।
 
|-
 
|-
 
|48
 
|48
|पुष्पशकटिका॥ पुष्पों से गाड़ी आदि बनाना या सजाना
+
|मायाकृतम्-इन्द्रजाल।
 +
|धूर्तशम्बलम्
 +
|पुष्पशकटिका- पुष्पों से गाड़ी आदि बनाना या सजाना।
 
|तिलमांसादिस्नेहानां निष्कासने कृतिः-तिल और मांस आदि से तेल निकालना।
 
|तिलमांसादिस्नेहानां निष्कासने कृतिः-तिल और मांस आदि से तेल निकालना।
 
|-
 
|-
 
|49
 
|49
|निमित्तज्ञानम् शकुन ज्ञानम्
+
|स्वप्नाध्यायः-सपनों का अर्थ लगाना।
 +
|गन्धवादः
 +
|निमित्तज्ञानम् - शकुन ज्ञानम्
 
|सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्-खेत जोतना, निराना आदि।
 
|सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्-खेत जोतना, निराना आदि।
 
|-
 
|-
 
|50
 
|50
|यन्त्रमातृका यंत्ररचना का शिल्प
+
|शकुनिरुतम् - पक्षी की बोली समझना।
 +
|वृक्षचिकित्सा
 +
|यन्त्रमातृका - यंत्ररचना का शिल्प।
 
|वृक्षाद्यारोहणे ज्ञानम् - वृक्ष आदि पर चढ़ना।
 
|वृक्षाद्यारोहणे ज्ञानम् - वृक्ष आदि पर चढ़ना।
 
|-
 
|-
 
|51
 
|51
|धारणमातृका स्मरणशक्ति बढ़ाने की कला
+
|स्त्रीलक्षणम् -स्त्री का लक्षण जानना।
 +
|कृत्रिममणिकर्म
 +
|धारणमातृका - स्मरणशक्ति बढ़ाने की कला।
 
|मनोनुकूलसेवायाः कृतिज्ञानम् - अनुकूल सेवा द्वारा दूसरों को प्रसन्न करना ।
 
|मनोनुकूलसेवायाः कृतिज्ञानम् - अनुकूल सेवा द्वारा दूसरों को प्रसन्न करना ।
 
|-
 
|-
 
|52
 
|52
|सम्पाठ्यम् काव्यपाठ की कला
+
|पुरुषलक्षणम्-पुरुष का लक्षण जानना।
 +
|सर्वकरणी
 +
|सम्पाठ्यम् - काव्यपाठ की कला।
 
|वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम् -बाँस, नरकट आदि से बर्तन आदि बना लेना।
 
|वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम् -बाँस, नरकट आदि से बर्तन आदि बना लेना।
 
|-
 
|-
 
|53
 
|53
|मानसीकाव्यक्रिया ॥ मौखिक काव्यरचना
+
|अश्वलक्षणम् - घोड़े का लक्षण जानना।
|काचपात्रादिकरणविज्ञानम् - शीशे का बर्तन आदि बनाना
+
|वश्यकर्म
 +
|मानसीकाव्यक्रिया - मौखिक काव्यरचना।
 +
|काचपात्रादिकरणविज्ञानम् - शीशे का बर्तन आदि बनाना।
 
|-
 
|-
 
|54
 
|54
|अभिधानकोष ॥ शब्दकोष
+
|हस्तिलक्षणम् - हाथी का लक्षण जानना।
|लोहाभिसारशस्त्राकृतिज्ञानम्-धातुओं से हथियार बनाना।
+
|पणकर्म
 +
|अभिधानकोष - शब्दकोष।
 +
|जलानां संसेचनं संहरणम् - जल लाना और सींचना।
 
|-
 
|-
 
|55
 
|55
|छ्न्दोज्ञानम् छन्द का ज्ञान
+
|गोलक्षणम् गाय, बैल का लक्षण जानना।
|गजाश्ववृषभोष्ट्राणां पल्याणादिक्रिया - हाथी, घोड़ा, बैल, ऊँट आदि का जीन, चारजामाओं का हौदा बनाना ।
+
|सूचित्रकर्म
 +
|छ्न्दोज्ञानम् - छन्द का ज्ञान।
 +
|लोहाभिसारशस्त्राकृतिज्ञानम्-धातुओं से हथियार बनाना।
 
|-
 
|-
 
|56
 
|56
|क्रियाकल्पः ॥ काव्यालंकार का ज्ञान
+
|अजलक्षणम् - बकरा, बकरी का लक्षण जानना।
|शिशोस्संरक्षणे धारणे क्रीडने ज्ञानम्-बच्चों को पालना और खेलाना।
+
|काष्ठघटन कर्म
 +
|क्रियाकल्पः - काव्यालंकार का ज्ञान।
 +
|गजाश्ववृषभोष्ट्राणां पल्याणादिक्रिया - हाथी, घोड़ा, बैल, ऊँट आदि का जीन, चारजामाओं का हौदा बनाना।
 
|-
 
|-
 
|57
 
|57
|छलितकयोगाः छलने का कौशल
+
|मिश्रितलक्षणम् - मिलावट पहचानने की या भिन्न-भिन्न जन्तुओं को पहचानने की कला।
|अपराधिजनेषु युक्तताडनज्ञानम्-अपराधियों को ढंग से दण्ड देना।
+
|पाषाणकर्म
 +
|छलितकयोगाः - छलने का कौशल।
 +
|शिशोस्संरक्षणे धारणे क्रीडने ज्ञानम्-बच्चों को पालना और खेलाना।
 
|-
 
|-
 
|58
 
|58
|वस्त्रगोपनानि असुंदर को छिपाते हुये वस्त्रधारण का कौशल
+
|कैटभेश्वरलक्षणम् - लिपि विशेष।
|नानादेशीयवर्णानां सुसम्यग्लेखने ज्ञानम्-भिन्न-भिन्न देशीय लिपियों का लिखना।
+
|लेपकर्म
 +
|वस्त्रगोपनानि - असुंदर को छिपाते हुये वस्त्रधारण का कौशल।
 +
|अपराधिजनेषु युक्तताडनज्ञानम्-अपराधियों को ढंग से दण्ड देना।
 
|-
 
|-
 
|59
 
|59
|द्यूतविशेषः ॥ द्यूतक्रीडा
+
|निघण्टु- कोष।
|ताम्बूलरक्षादिकृतिविज्ञानम्-पान को रखने, बीड़ा बनाने की विधि।
+
|चर्मकर्म
 +
|द्यूतविशेषः - द्यूतक्रीडा।
 +
|नानादेशीयवर्णानां सुसम्यग्लेखने ज्ञानम्-भिन्न-भिन्न देशीय लिपियों का लिखना।
 
|-
 
|-
 
|60
 
|60
|आकर्षक्रीडा ॥ पासे का खेल
+
|निगमः-श्रुति।
|आदानम् - कलामर्मज्ञता।
+
|यन्त्रकरसवती
 +
|आकर्षक्रीडा - पासे का खेल।
 +
|ताम्बूलरक्षादिकृतिविज्ञानम्-पान को रखने, बीड़ा बनाने की विधि।
 
|-
 
|-
 
|61
 
|61
|बालकक्रीडनकानि बच्चों की विभिन्न क्रीडाओं का ज्ञान
+
|पुराणम्-पुराण।
|आशुकारित्वम् - शीघ्र काम कर सकना ।
+
|काव्यम्
 +
|बालकक्रीडनकानि - बच्चों की विभिन्न क्रीडाओं का ज्ञान।
 +
|आदानम् - कलामर्मज्ञता।
 
|-
 
|-
 
|62
 
|62
|वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् विनय सिखाने वाली विद्याओं का ज्ञान
+
|इतिहासः-इतिहास।
|प्रतिदानम् - कलाओं को सिखा सकना ।
+
|अलंकारः
 +
|वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् - विनय सिखाने वाली विद्याओं का ज्ञान।
 +
|आशुकारित्वम् - शीघ्र काम कर सकना ।
 
|-
 
|-
 
|63
 
|63
|वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् विजय दिलाने वाली विद्याओं का ज्ञान
+
|वेदः - वेद।
|
+
|हसितम्
 +
|वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् - विजय दिलाने वाली विद्याओं का ज्ञान।
 +
|प्रतिदानम् - कलाओं को सिखा सकना ।
 
|-
 
|-
 
|64
 
|64
|व्यायामिकीनां नांविद्यानां ज्ञानम्  व्यायामविद्या का ज्ञान
+
|व्याकरणम्-व्याकरण।
 +
|संस्कृतम्
 +
|व्यायामिकीनां नांविद्यानां ज्ञानम्  - व्यायामविद्या का ज्ञान।
 
|चिरक्रिया - देर-देर से काम करना।
 
|चिरक्रिया - देर-देर से काम करना।
 +
|-
 +
|65
 +
|निरुक्तम् - निरुक्त ।
 +
|प्राकृतम्
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|66
 +
|शिक्षा - उच्चारणविज्ञान।
 +
|पैशाचिकम्
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|67
 +
|छन्दः- छन्द।
 +
|अपभ्रंशम्
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|68
 +
|यज्ञकल्पः-यज्ञ-विधि।
 +
|कपटम्
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|69
 +
|ज्योतिः-ज्योतिष।
 +
|देशभाषा
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|70
 +
|सांख्यम्-सांख्यदर्शन।
 +
|धातुकर्म
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|71
 +
|योगः-योगदर्शन।
 +
|प्रयोगोपायः
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|72
 +
|क्रियाकल्पकः काव्य और अलंकार ।
 +
|केवलिविधिः
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|73
 +
|वैशेषिकम् - वैशेषिक दर्शन।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|74
 +
|वेशिकम् - ‘कामसूत्र' के अनुसार वेशिक विज्ञान का प्रकरण (दत्तक नामकने पाटलिपुत्र की वेश्याओं के अनुरोध से प्रणीत किया था)।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|75
 +
|अर्थविद्या - राजनीति और अर्थशास्त्र।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|76
 +
|बार्हस्पत्यम् -लोकायत मत।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|77
 +
|आश्चर्यम्
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|78
 +
|आसुरम्-असुर-सम्बन्धी विद्या।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|79
 +
|मृगपक्षिरुतम् -पशुपक्षी की बोली समझना।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|80
 +
|हेतुविद्या -न्याय दर्शन।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|81
 +
|जतुयन्त्रम् -लाख के यन्त्र बनाना।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|82
 +
|मधूच्छिष्टकृतम् -मोम का काम ।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|83
 +
|सूचीकर्म-सुई के काम।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|84
 +
|विदलकर्म-दलों या हिस्सों को अलग कर देने का कौशल।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|85
 +
|पत्रच्छेद्यम् - पत्तियों को काट-छाँटकर विभिन्न आकृतियाँ बनाना।
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|86
 +
|गन्धयुक्तिः - कई द्रव्यों के मिश्रण से सुगन्धि तैयार करना।
 +
|
 +
|
 +
|
 
|}
 
|}
<nowiki>*</nowiki>The शब्दकल्पद्रुमः ॥ Shabdakalpadruma mentions प्रतिमाला ॥ Pratimala (Capping verses) instead of प्रतिमा ॥ Pratima (Sculpture)
+
<nowiki>*</nowiki> शब्दकल्पद्रुम में प्रतिमाला के स्थान में प्रतिमा (मूर्तिकला) का उल्लेख है।
  
== वंशागत कला॥ Traditional Arts ==
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== कलाओं का वर्गीकरण॥ Classification of Arts ==
वंशागत कला के सीखने में कितनी सुगमता होती है, यह प्रत्यक्ष है। एक बढ़ई का लड़का बढ़ईगिरी जितनी शीघ्रता और सुगमता के साथ सीखकर उसमें निपुण हो सकता है, उतना दूसरा नहीं, क्योंकि वंश-परम्परा और बालकपन से ही उसके उस कला के योग्य संस्कार बन जाने हैं। इन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर प्राचीन शिक्षा क्रम की रचना हुई थी। उसमें आजकल की सी धाँधली न थी, जिसका दुष्परिणाम आज सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है। प्राय: सभी विषयों में चञ्चुप्रवेश और किसी एक विषय की, जिसमें प्रवृत्ति हो, योग्यता प्राप्त करने से ही पूर्व शिक्षा और यथोचित ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। आज पाश्चात्य विद्वान् भी प्रचलित शिक्षा-पद्धति की अनेक त्रुटियों का अनुभव कर रहे हैं; परंतु हम उस दूषित पद्धति की नकल करने की ही धुन में लगे हुए हैं। वर्तमान शिक्षा से लोगों को अपने वंशागत कार्यों से घृणा तथा अरुचि होती चली जा रही है और वे अपने बाप-दादा के व्यवसायों को बड़ी तेज़ीसे छोड़ते चले जा रहे हैं। शिक्षित युवक ऑफिस में छोटी-छोटी नौकरियों के लिये दर-दर दौड़ते हैं, अपमान सहते हैं, दूसरों की ठोकर खाते हैं और जीवन से निराश होकर कई तो आत्मघात कर बैठते हैं। यदि यही क्रम जारी रहा तो पूरा विनाश सामने है। क्या ही अच्छा होता, यदि हमारे शिक्षा-आयोजकों का ध्यान एक बार हमारी प्राचीन शिक्षा-पद्धति की ओर भी जाता।
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कलाओं के वर्गीकरण की प्रवृत्ति आधुनिक है। संस्कृत वाङ्मय में कलाओं का परिगणन हुआ है न कि वर्गीकरण। ललितकला शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कालिदास साहित्य में हुआ है किन्तु कलाओं का वर्गीकरण उनका अभिप्राय नहीं है। शुक्रनीति में भी कलाओं के वर्गीकरण का प्रयास किञ्चित् परिलक्षित है। यहां स्रोत की दृष्टि से कलाओं के चार वर्ग कहे गये हैं-
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# '''गान्धर्ववेदोक्त कला=''' नृत्य, वाद्य, वस्त्रालंकार, संधान, पुष्पग्रथन, शयन-रचना, द्यूत-क्रीडा, रतिज्ञान आदि सात कलाऐं इस वर्ग में आती हैं।
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# '''आयुर्वेदोक्त कला=''' आसव-मद्य आदि बनाने की कला, शल्य-क्रिया की कला, पाककला, धातुवाद, क्षार-निष्कासन आदि दस कलाऐं इस श्रेणी में परिगणित होती है।
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# '''धनुर्वेदोक्त कला=''' शस्त्रसन्धान, मल्लयुद्ध, यन्त्रादि, संचालन, अस्त्रसंचालन, व्यूहरचना आदि पॉंच धनुर्वेदोक्त कलाऐं हैं।
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# '''विविध =''' मृत्तिका- काष्ठ-पाषाण और धातु से भाण्डरचना, चित्रादि आलेखन, तडाग-वापी-प्रासाद आदि की रचना पृथक-पृथक् कलाऐं हैं।
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=== शिल्प एवं कला॥ Crafts & Arts ===
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यह वर्गीकरण उपजीव्य स्रोत की दृष्टि से है। शिल्प और कला का भेद यहां नहीं है। वस्तुतः प्राचीन  वाङ्ममय में जिस व्यापक अर्थ में शिल्प शिल्प शब्द का प्रयोग हुआ करता था उस अर्थ में वर्तमान युग में कला शब्द का प्रयोग होता है। तथा शिल्प कला का विशेषण बन गया है। आधुनिक विचारकों ने कला को मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त किया है-
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# '''ललित कलाऐं'''  = इसके अन्तर्गत वास्तु, मूर्ति, चित्र, संगीत और काव्य को रखा गया है। यद्यपि अधिकांश विद्वान् काव्य को कला मानने के पक्ष में नहीं हैं। इसे चारुशिल्प भी कहा गया है। यह कलाकार की महान् साधना, अंतःप्रज्ञा और अभ्यास से प्रसूत होती है। सौंदर्य, रस और आनन्द की सृष्टि ही इसका मूल लक्ष्य है।
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# '''शिल्प कलाऐं''' = दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को सुन्दर ढंग से पूर्ण करने के लिये जो कौशल विकसित हुए हैं जैसे- पुष्पसज्जा, गन्धयुक्ति, वृक्षायुर्वेद, तक्षण कर्म आदि उन्हैं इस वर्ग में रखा गया है। इसे कारुशिल्प या उपयोगी कलाऐं भी कहा गया है।
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विद्याओं के साथ ही इन कलाओं का अध्ययन भी भारतीय सुबुद्ध नागरिक क्योंकि कला जीवन जीने की कला है तथा प्रेममय दाम्पत्य जीवन, सुखी परिवार और सुन्दर समाज की आधार शिला है। संस्कृत वाङ्ममय में निबद्ध कलाऐं पुरातन भारतीय जीवन, सभ्यता, संस्कृति धर्म और दर्शन को समझने तथा वर्तमान जीवन शैली को सँवारने की दृष्टि देती है।
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[[Introduction to Bharatiya Kalas - Part 1 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय)]] and [[Introduction to Bharatiya Kalas - Part 2 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय)]]
  
 
== निष्कर्ष॥ Discussion ==
 
== निष्कर्ष॥ Discussion ==
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प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति के चार प्रमुख कर्तव्यों को सुगम बनाना था। धर्म (धार्मिकता), अर्थ (आजीविका), काम (पारिवारिक जीवन) और मोक्ष (शाश्वत शांति की प्राप्ति) परंपरा 18 प्रमुख विद्याओं (सैद्धांतिक विषयों), और 64 कलाओं (व्यावसायिक विषयों / शिल्प) की बात करती है। इन "कलाओं" का लोगों के दैनिक जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है और अधिकांश यह ध्यान रखना प्रमुख है कि ये कला अभी भी आजीविका के महत्वपूर्ण साधन हैं। इन कलाओं का सामान्य जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
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यह भी महत्वपूर्ण है कि भारत की परंपरा में "कला" और "शिल्प" के बीच कोई विरोध नहीं है। शिल्पकारों के लिए शिल्प उनकी आजीविका ही नहीं उनकी पूजा भी है। ये शिल्प सिखाया गया था, अभी भी सिखाया जाता है, एक शिक्षक द्वारा अपने शिष्यों को, एक शिल्प सीखने के लिए शिक्षक को काम पर देखने की आवश्यकता होती है, शिक्षक द्वारा सौंपे गए अजीब, छोटे काम और फिर लंबे अभ्यास से शुरू करना, अपने आपमें बहुत अनुभव के बाद ही शिक्षार्थी अपनी कला को परिष्कृत करता है और फिर स्वयं को स्थापित कर सकता है।
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यह हम आज भी भरत के नृत्य, संगीत और यहां तक ​​कि वाहन-मरम्मत में भी देख सकते हैं। यही एक कारण है कि शिल्पकार को साधक के रूप में उच्च सम्मान दिया जाता है।एक भक्त जिसका मन बड़ी श्रद्धा से अपनी वस्तु के प्रति आसक्त हो जाता है। उनका प्रशिक्षण तप (तपः) का एक रूप है, एक समर्पण और उन्हें प्राप्त करने वाला प्राथमिक गुण एकाग्रता है। भारत की परंपरा शिल्प के लिए भी ग्रंथों से भरी हुई है, जो व्यावहारिक अनुशासन हैं। प्रत्येक अनुशासन में स्कूल हैं; प्रत्येक स्कूल में विचारक और ग्रंथ होते हैं।वस्तुतः ग्रन्थ तीन प्रकार के होते हैं - प्राथमिक ग्रंथ (शास्त्र) जो मूलभूत सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं, समग्र ग्रंथ (उस अनुशासन में सभी विद्यालयों का संग्रह) और टिप्पणी / प्रदर्शनी ये तीन प्रकार के ग्रंथ अधिकांश विषयों में उपलब्ध हैं - इस तरह ज्ञान को व्यवस्थित और शिक्षाशास्त्र के उद्देश्यों के लिए प्रस्तुत किया जाता है। किन्तु शिल्प के मामले में यह सच है जैसे विद्या के मामले में यह सच है कि ज्ञान गुरु में रहता है। यह भारत की परंपरा में गुरुओं से जुड़ी महान श्रद्धा का मूल है क्योंकि वे ज्ञान के दिए गए क्षेत्र में स्रोत और अंतिम अधिकार हैं।
  
 
== उद्धरण॥ References ==
 
== उद्धरण॥ References ==

Revision as of 16:23, 11 October 2022

Bharatiya Kala Vidya (भारतीय कला विद्या)

कला प्राचीन भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण अंग हुआ करता था। मानव जीवन को सुन्दर एवं परिष्कृत बनाने में कला का विशेष योगदान है। इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला भी कहा जाता है।

कला के प्रकार॥ Kinds of Kalas

प्राचिन साहित्य में पूर्णावतार परमात्मा को 64 कलाओं से युक्त कहा गया है। वात्स्यायन सूत्र एवं शुक्र नीति में कला के 64 प्रकारों का विवेचन है तथा ललित-विस्तर इसके 86 प्रभेदों का निरूपण करता है। जैन एवं बौद्ध परंपरा के ग्रन्थों में चौंसठ कलाओं की सूची मिलती है। जैन आचार्य शेखरसूरि के प्रबन्धकोष में इसके 72 प्रकारों का विश्लेषण है।जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 64 कलाओं की गणना के संबंध में भिन्नताएं हैं। इन कलाओं का उल्लेख इन ग्रन्थोंमें प्राप्त होता है -

  • शैवतन्त्रम् ॥ Shaivatantra
  • महाभारतम् (व्यास महर्षि )॥ Mahabharata by Vyasa Maharshi
  • कामसूत्रम् (वात्स्यायन)॥ Kamasutra by Vatsyayana
  • नाट्यशास्त्रम् (भरतमुनि)॥ Natya Shastra by Bharatamuni
  • भगवतपुराणम् (टिप्पणी)॥ Bhagavata Purana (Commentary)
  • शुक्रनीतिः (शुक्राचार्य)॥ Shukraneeti by Shukracharya
  • शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra

इनमें से कुछ ग्रंथों में वर्णित कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-

कलाऍं ॥ Kala (Arts)
क्र.सं. ललितविस्तर [1] प्रबन्धकोश[2] शैवतन्त्रम्[3][4][5] शुक्रनीतिसारः[6][7]
1 लङ्घितम्-कूदना। लिखितम् गीतम् - गानविद्या। हावभावादिसंयुक्तं नर्त्तनम् - हावभाव के साथ नाचना।
2 प्राक्चलितम्-उछलना। गणितम् वाद्यम् - भिन्न-भिन्न प्रकार के बाजे बजाना। अनेकवाद्यविकृतौ तद्वादने ज्ञानम्- आरकेस्ट्रा में अनेक प्रकार के बाजे बजा लेना।
3 लिपिमुद्रागणनासंख्यासालम्भधनुर्वेदाः- लेखनकला, हाथकी उंगलियों से भिन्न-भिन्न आकृतियों को बनाना, गिनना, संख्याओं की गिनती, कुश्ती, धनुषविद्या। गीतम् नृत्यम् - नाचना। स्त्रीपुंसोः वस्त्रालंकारसन्धानम्- स्त्री और पुरुषों को वस्त्र - अलंकार पहनाने की कला।
4 जवितम् - दौड़ना। नृत्यम् आलेख्यम् - चित्रकारी। अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्- पत्थर, काठ आदि पर भिन्न-भिन्न आकृतियों का निर्माण ।
5 प्लवितम् - पानी में डुबकी लगाना । पठितम् विशेषकच्छेद्यम् - तिलकरचना, पत्रावलीरचना के साँचे बनाना। शय्यास्तरणसंयोगपुष्पादिग्रथनम् - फूल का हार गूंथना और शय्या सजाना।
6 तरणम् -तैरना। वाद्यम् तण्डुलकुसुमयलिविकाराः - पूजा के लिये अक्षत एवं पुष्पों को सजाना। द्यूताद्यनेकक्रीडाभी रञ्जनम् - जुआ इत्यादि से मनोरंजन करना
7 इष्वस्त्रम् -तीर चलाना। व्याकरणम् पुष्पास्तरणम् - पुष्पसज्जा। अनेकासनसन्धानै रमतेर्ज्ञानम्- कामशास्त्रीय आसनों आदि का ज्ञान।
8 हस्तिग्रीवा- हाथी की सवारी करना। छन्दः दशनवसनाङ्गरागाः - दाँत-वस्त्र एवं शरीर के अंगों को रंगना। मकरन्दासवादीनां मद्यादीनां कृतिः - भिन्न-भिन्न भाँति के शराब बनाना।
9 रथः- रथ से सम्बद्ध ज्ञान। ज्योतिषम् मणिभूमिकाकर्म - भूमि को मणियों से सजाना। शल्यगूढाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्- शरीर में घुसे हुए शल्य को शस्त्रों की सहायता से निकालना, जर्राही।
10 धनुष्कलाप-धनुष-सम्बन्धी विज्ञान। शिक्षा शयनरचनम् - शय्या की रचना। हीनाद्रिरससंयोगान्नादिसम्पाचनम्- नाना रसों का भोजन बनाना ।
11 अश्व पृष्ठम्- घोड़े की सवार। निरुक्तम् उदकवाद्यम् - जल पर हाथ से इस प्रकार आघात करना कि मृदङ्ग आदि वाद्यों के समान ध्वनि उत्पन्न हो। वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- पेड़-पौधों की देखभाल, रोपाई, सिंचाई का ज्ञान ।
12 स्थैर्यम् - स्थिरता। कात्यायनम् उदकाघातः - जलक्रीड़ा के समय कलात्मक ढंग से छींटे मारना या जल को उछालना। पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्- पत्थर और धातुओं को गलाना तथा भस्म बनाना ।
13 स्थाम- बल। निघण्टुः चित्रायोगाः - औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग। यावदिक्षुविकाराणां कृतिज्ञानम्-फल के रस से मिश्री, चीनी आदि भिन्न-भिन्न चीजें बनाना।
14 सुशौर्यम् -साहस। पत्रच्छेद्यम् माल्यग्रथनविकल्पाः - औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग। धात्वोषधीनां संयोगक्रियाज्ञानम्- धातु और औषधों के संयोग से रसायनों का बनाना।
15 बाहुव्यायाम-बाहु का व्यायाम। नखच्छेद्यम् शेखरकापीडयोजनम् - शेखरक और आपीड (शिर पर धारण किये जाने वाले पुष्पाभरण) की योजना। धातुसाङ्कर्यपार्थक्यकरणम्-धातुओं के मिलाने और अलग करने की विद्या ।
16 अङ्कुशग्रहपाशग्रहाः - अंकुश और पाश, इन दोनों हथियारों का ग्रहण करना। रत्नपरीक्षा नेपाथ्ययोगाः - वेश-भूषा धारण की कला। धात्वादीनां संयोगापूर्वविज्ञानम्- धातुओं के नये संयोग बनाना ।
17 उद्याननिर्माणम्-ऊँची वस्तु को फाँदकर और दो ऊँची वस्तु के बीच से कूदकर पार जाना। आयुधाभ्यासः कर्णपत्रभङ्गाः - हाथीदाँत के पत्तरों आदि से कर्णाभूषण की रचना। क्षारनिष्कासनज्ञानम्- खार बनाना ।
18 अपयानम्-पीछे की ओर से निकलना। गजारोहणम् गन्धयुक्तिः - सुगंध की योजना। पदादिन्यासतः शस्त्रसन्धाननिक्षेपः- पैर ठीक करके धनुष चढ़ाना और बाण फेंकना।
19 मुष्टिबन्ध-मुट्ठी और घूसे की कला। तुरगारोहणम् भूषणयोजनम् - आभूषण निर्माण की कला। सन्ध्याघाताकृष्टिभेदैः मल्लयुद्धम्- तरह-तरह के दाँव-पेंच के साथ कुश्ती लड़ना ।
20 शिखाबन्ध- शिखा बाँधना। तपःशिक्षा ऐन्द्रजालम् - इन्द्रजाल या जादू का खेल। अभिलक्षिते देशे यन्त्राद्यस्त्रनिपातनम्- शस्त्रों को निशाने पर फेंकना ।
21 छेद्यम्- भिन्न-भिन्न सुन्दर आकृतियों को काटकर बनाना। मन्त्रवादः कौचुमारयोगाः - कुचुमारतंत्र में बताये गये वाजीकरण आदि प्रयोग। वाद्यसंकेततो व्यूहरचनादि - बाजे के संकेत से सेना की व्यूह रचना।
22 भेद्यम् - छेदना। यन्त्रवादः हस्तलाघवम् - हाथ की सफाई। गजाश्वरथगत्या तु युद्धसंयोजनम्- हाथी, घोड़े या रथ से युद्ध करना ।
23 तरणम् -नाव खेना या जहाज चलाना या तैरना। रसवादः विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया - नाना प्रकार के व्यंजन, यूष-सूप आदि बनाने की कला । विविधासनमुद्राभिः देवतातोषणम्- विभिन्न आसनों तथा मुद्राओं के द्वारा देवता को प्रसन्न करना।
24 स्फालनम् -(कन्दुक आदि को) उछालनेका कौशल। स्वन्यवादः पानकरसरागासवयोजनम् - प्रपाणक, आराव आदि पेय बनाने की कला। सारथ्यम् - रथ हाँकना, वाहन चलाना।
25 अक्षुण्णवेधित्वम् -भाले से लक्ष्यबेथ करना। रसायनम् सूचीवापकर्म - वस्त्ररचना एवं कढ़ाई का शिल्प। गजाश्वादे: गतिशिक्षा- हाथी-घोड़ों आदि की चाल सिखाना।
26 मर्मवेधित्वम् -मर्मस्थल का बेधना। विज्ञानम् सूत्रक्रीडा - हाथ के सूत्र (धागा आदि) से नानाप्रकार की आकृतियॉं बुनना। मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुभाण्डादिसत्क्रिया -मिट्टी, लकड़ी पत्थर और धातु के बर्तन बनाना
27 शब्दवेधित्वम् - शब्दबेधी बाण चलाना। तर्कवादः वीणाडमरुकवाद्यानि - वीणा, डमरु आदि बजाना। चित्राद्यालेखनम् - चित्र बनाना।
28 दृढप्रहारित्वम् मुष्टिप्रहार करना। सिद्धान्तः प्रहेलिका - पहेलियाँ बुझाना। तटाकवापीप्रसादसमभूमिक्रिया - कुँआ, पोखरे खोदना तथा जमीन बराबर करना।
29 अक्षक्रीडा-पाशा फेंकना। विषवादः प्रतिमा* - अंत्याक्षरी। घट्याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः - वाद्य - यन्त्र तथा पनचक्की जैसी मशीनों का बनाना।
30 काव्यव्याकरणम्-काव्य की व्याख्या करना। गारुडम् दुर्वाचकयोगाः - कठिन उच्चारण और गूढ अर्थों वाले श्लोकों की रचना। हीनमध्यादिसंयोगवर्णाद्यै रंजनम् - रंगों के भिन्न-भिन्न मिश्रणों से चित्र रँगना।
31 ग्रन्थरचितम्- ग्रन्थ - रचना। शाकुनम् पुस्तकवाचनम् - पुस्तक बाँचने का शिल्प। जलवाटवग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया - जल, वायु, अग्नि को साथ मिलाकर और अलग-अलग रखकर कार्य करना, इन्हें बाँधना।
32 रूपम् - रूप निर्माण कला ( लकड़ी-सोना इत्यादि में आकृति बनाना )। वैद्यकम् नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  - नाट्य एवं कथा-काव्यों का रसास्वादन। नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम् - नौका, रथ आदि सवारियों का बनाना।
33 रूपकर्म- चित्रकारी। आचार्यविद्या काव्यसमस्यापूरणम् - समस्यापूर्ति। सूत्रादिरज्जुकरणविज्ञानम्- सूत और रस्सी बनाने का ज्ञान।
34 अधीतम् -अध्ययन करना। आगमः पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः - बेंत ओर बाँस का शिल्प। अनेकतन्तुसंयोगैः पटबन्धः- सूत से कपड़ा बुनना।
35 अग्निकर्म-आग पैदा करना । प्रासादलक्षणम् तक्षकर्माणि - नक्काशी का काम। रत्नानां वेधादिसदसद्ज्ञानम् - रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना- छेदना आदि।
36 वीणा- वीणा बजाना । सामुद्रिकम् तक्षणम् - काष्ठकर्म। स्वर्णादीनान्तु याथार्थ्यविज्ञानम् - सोने आदि के जाँचने का ज्ञान।
37 वाद्यनृत्यम् -नाचना और बाजा बजाना । स्मृतिः वास्तुविद्या - स्थापत्य शिल्प कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम् - बनावटी सोना, रत्न (इमिटेशन) आदि बनाना।
38 गीतपठिम् -गाना और कविता- पाठ करना। पुराणम् रूप्यरत्नपरीक्षा  - चाँदी-सोना आदि धातुओं तथा रत्नों की परीक्षा। स्वर्णाद्यलंकारकृतिः - सोने आदि का गहना बनाना।
39 आख्यातम् -कहानी सुनाना। इतिहासः धातुवादः - धातु-शोधन, मिश्रण आदि। लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा देना, पानी चढ़ाना।
40 हास्यम् -मजाक करना। वेदः मणिरागाकरज्ञानम् - मणियों को रंगना एवं उनके आकर का ज्ञान। चर्मणां मार्दवादिक्रियाज्ञानम् चमड़े को नर्म बनाना।
41 लास्यम् -सुकुमार नृत्य । विधिः वृक्षायुर्वेदयोगाः - वृक्षों के दीर्घायुष्य का शिल्प एवं उपवन लगाने की कला। पशुचर्माङ्गनिर्हारज्ञानम्-पशु के शरीर से चमड़ा, मांस आदि को अलग कर सकना।
42 नाट्यम् -नाटक, अनुकरण नृत्य । विद्यानुवादः मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः - मेष आदि पशु पक्षियों को लड़ाना। दुग्धदोहादिघृतान्तं विज्ञानम् - दूध दुहना और उससे घी आदि निकालना।
43 विडिम्बितम् - दूसरे का व्यंगात्मक अनुकरण, कैरिकेचर, मिमिक्री। दर्शनसंस्कारः शुकसारिकाप्रलापनम्  - तोता-मैना आदि को बोलना सिखाना। कञ्चुकादीनां सीवने विज्ञानम् - चोली आदि का सीना ।
44 माल्यग्रन्थनम्-माला गूंथना। खेचरीकला उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम् - शरीर दबाने, सिर पर तेल लगाने आदि की कला। जले बाह्वादिभिस्तरणम् हाथ की सहायता से तैरना।
45 संवाहितम्-शरीर की मालिश। भ्रामरीकला अक्षरमुष्टिकाकथनम् - संकेत भाषा का ज्ञान। गृहभाण्डादेर्मार्जने विज्ञानम् - घर तथा घर के बर्तनों को साफ करने में निपुणता।
46 मणिरागः- कपड़ा रँगना इन्द्रजालम् म्लेच्छितकविकल्पाः - गुप्तभाषा का ज्ञान। वस्त्रसंमार्जनम् - कपड़ा साफ करना।
47 वस्त्ररागः-बहुमूल्य पत्थरों को रँगना। पातालसिद्धिः देशभाषाज्ञानम्  - लोकभाषाओं का ज्ञान। क्षुरकर्म - हजामत बनाना ।
48 मायाकृतम्-इन्द्रजाल। धूर्तशम्बलम् पुष्पशकटिका- पुष्पों से गाड़ी आदि बनाना या सजाना। तिलमांसादिस्नेहानां निष्कासने कृतिः-तिल और मांस आदि से तेल निकालना।
49 स्वप्नाध्यायः-सपनों का अर्थ लगाना। गन्धवादः निमित्तज्ञानम् - शकुन ज्ञानम् । सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्-खेत जोतना, निराना आदि।
50 शकुनिरुतम् - पक्षी की बोली समझना। वृक्षचिकित्सा यन्त्रमातृका - यंत्ररचना का शिल्प। वृक्षाद्यारोहणे ज्ञानम् - वृक्ष आदि पर चढ़ना।
51 स्त्रीलक्षणम् -स्त्री का लक्षण जानना। कृत्रिममणिकर्म धारणमातृका - स्मरणशक्ति बढ़ाने की कला। मनोनुकूलसेवायाः कृतिज्ञानम् - अनुकूल सेवा द्वारा दूसरों को प्रसन्न करना ।
52 पुरुषलक्षणम्-पुरुष का लक्षण जानना। सर्वकरणी सम्पाठ्यम् - काव्यपाठ की कला। वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम् -बाँस, नरकट आदि से बर्तन आदि बना लेना।
53 अश्वलक्षणम् - घोड़े का लक्षण जानना। वश्यकर्म मानसीकाव्यक्रिया - मौखिक काव्यरचना। काचपात्रादिकरणविज्ञानम् - शीशे का बर्तन आदि बनाना।
54 हस्तिलक्षणम् - हाथी का लक्षण जानना। पणकर्म अभिधानकोष - शब्दकोष। जलानां संसेचनं संहरणम् - जल लाना और सींचना।
55 गोलक्षणम् गाय, बैल का लक्षण जानना। सूचित्रकर्म छ्न्दोज्ञानम् - छन्द का ज्ञान। लोहाभिसारशस्त्राकृतिज्ञानम्-धातुओं से हथियार बनाना।
56 अजलक्षणम् - बकरा, बकरी का लक्षण जानना। काष्ठघटन कर्म क्रियाकल्पः - काव्यालंकार का ज्ञान। गजाश्ववृषभोष्ट्राणां पल्याणादिक्रिया - हाथी, घोड़ा, बैल, ऊँट आदि का जीन, चारजामाओं का हौदा बनाना।
57 मिश्रितलक्षणम् - मिलावट पहचानने की या भिन्न-भिन्न जन्तुओं को पहचानने की कला। पाषाणकर्म छलितकयोगाः - छलने का कौशल। शिशोस्संरक्षणे धारणे क्रीडने ज्ञानम्-बच्चों को पालना और खेलाना।
58 कैटभेश्वरलक्षणम् - लिपि विशेष। लेपकर्म वस्त्रगोपनानि - असुंदर को छिपाते हुये वस्त्रधारण का कौशल। अपराधिजनेषु युक्तताडनज्ञानम्-अपराधियों को ढंग से दण्ड देना।
59 निघण्टु- कोष। चर्मकर्म द्यूतविशेषः - द्यूतक्रीडा। नानादेशीयवर्णानां सुसम्यग्लेखने ज्ञानम्-भिन्न-भिन्न देशीय लिपियों का लिखना।
60 निगमः-श्रुति। यन्त्रकरसवती आकर्षक्रीडा - पासे का खेल। ताम्बूलरक्षादिकृतिविज्ञानम्-पान को रखने, बीड़ा बनाने की विधि।
61 पुराणम्-पुराण। काव्यम् बालकक्रीडनकानि - बच्चों की विभिन्न क्रीडाओं का ज्ञान। आदानम् - कलामर्मज्ञता।
62 इतिहासः-इतिहास। अलंकारः वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् - विनय सिखाने वाली विद्याओं का ज्ञान। आशुकारित्वम् - शीघ्र काम कर सकना ।
63 वेदः - वेद। हसितम् वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् - विजय दिलाने वाली विद्याओं का ज्ञान। प्रतिदानम् - कलाओं को सिखा सकना ।
64 व्याकरणम्-व्याकरण। संस्कृतम् व्यायामिकीनां नांविद्यानां ज्ञानम्  - व्यायामविद्या का ज्ञान। चिरक्रिया - देर-देर से काम करना।
65 निरुक्तम् - निरुक्त । प्राकृतम्
66 शिक्षा - उच्चारणविज्ञान। पैशाचिकम्
67 छन्दः- छन्द। अपभ्रंशम्
68 यज्ञकल्पः-यज्ञ-विधि। कपटम्
69 ज्योतिः-ज्योतिष। देशभाषा
70 सांख्यम्-सांख्यदर्शन। धातुकर्म
71 योगः-योगदर्शन। प्रयोगोपायः
72 क्रियाकल्पकः काव्य और अलंकार । केवलिविधिः
73 वैशेषिकम् - वैशेषिक दर्शन।
74 वेशिकम् - ‘कामसूत्र' के अनुसार वेशिक विज्ञान का प्रकरण (दत्तक नामकने पाटलिपुत्र की वेश्याओं के अनुरोध से प्रणीत किया था)।
75 अर्थविद्या - राजनीति और अर्थशास्त्र।
76 बार्हस्पत्यम् -लोकायत मत।
77 आश्चर्यम्
78 आसुरम्-असुर-सम्बन्धी विद्या।
79 मृगपक्षिरुतम् -पशुपक्षी की बोली समझना।
80 हेतुविद्या -न्याय दर्शन।
81 जतुयन्त्रम् -लाख के यन्त्र बनाना।
82 मधूच्छिष्टकृतम् -मोम का काम ।
83 सूचीकर्म-सुई के काम।
84 विदलकर्म-दलों या हिस्सों को अलग कर देने का कौशल।
85 पत्रच्छेद्यम् - पत्तियों को काट-छाँटकर विभिन्न आकृतियाँ बनाना।
86 गन्धयुक्तिः - कई द्रव्यों के मिश्रण से सुगन्धि तैयार करना।

* शब्दकल्पद्रुम में प्रतिमाला के स्थान में प्रतिमा (मूर्तिकला) का उल्लेख है।

कलाओं का वर्गीकरण॥ Classification of Arts

कलाओं के वर्गीकरण की प्रवृत्ति आधुनिक है। संस्कृत वाङ्मय में कलाओं का परिगणन हुआ है न कि वर्गीकरण। ललितकला शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कालिदास साहित्य में हुआ है किन्तु कलाओं का वर्गीकरण उनका अभिप्राय नहीं है। शुक्रनीति में भी कलाओं के वर्गीकरण का प्रयास किञ्चित् परिलक्षित है। यहां स्रोत की दृष्टि से कलाओं के चार वर्ग कहे गये हैं-

  1. गान्धर्ववेदोक्त कला= नृत्य, वाद्य, वस्त्रालंकार, संधान, पुष्पग्रथन, शयन-रचना, द्यूत-क्रीडा, रतिज्ञान आदि सात कलाऐं इस वर्ग में आती हैं।
  2. आयुर्वेदोक्त कला= आसव-मद्य आदि बनाने की कला, शल्य-क्रिया की कला, पाककला, धातुवाद, क्षार-निष्कासन आदि दस कलाऐं इस श्रेणी में परिगणित होती है।
  3. धनुर्वेदोक्त कला= शस्त्रसन्धान, मल्लयुद्ध, यन्त्रादि, संचालन, अस्त्रसंचालन, व्यूहरचना आदि पॉंच धनुर्वेदोक्त कलाऐं हैं।
  4. विविध = मृत्तिका- काष्ठ-पाषाण और धातु से भाण्डरचना, चित्रादि आलेखन, तडाग-वापी-प्रासाद आदि की रचना पृथक-पृथक् कलाऐं हैं।

शिल्प एवं कला॥ Crafts & Arts

यह वर्गीकरण उपजीव्य स्रोत की दृष्टि से है। शिल्प और कला का भेद यहां नहीं है। वस्तुतः प्राचीन वाङ्ममय में जिस व्यापक अर्थ में शिल्प शिल्प शब्द का प्रयोग हुआ करता था उस अर्थ में वर्तमान युग में कला शब्द का प्रयोग होता है। तथा शिल्प कला का विशेषण बन गया है। आधुनिक विचारकों ने कला को मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त किया है-

  1. ललित कलाऐं = इसके अन्तर्गत वास्तु, मूर्ति, चित्र, संगीत और काव्य को रखा गया है। यद्यपि अधिकांश विद्वान् काव्य को कला मानने के पक्ष में नहीं हैं। इसे चारुशिल्प भी कहा गया है। यह कलाकार की महान् साधना, अंतःप्रज्ञा और अभ्यास से प्रसूत होती है। सौंदर्य, रस और आनन्द की सृष्टि ही इसका मूल लक्ष्य है।
  2. शिल्प कलाऐं = दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को सुन्दर ढंग से पूर्ण करने के लिये जो कौशल विकसित हुए हैं जैसे- पुष्पसज्जा, गन्धयुक्ति, वृक्षायुर्वेद, तक्षण कर्म आदि उन्हैं इस वर्ग में रखा गया है। इसे कारुशिल्प या उपयोगी कलाऐं भी कहा गया है।

विद्याओं के साथ ही इन कलाओं का अध्ययन भी भारतीय सुबुद्ध नागरिक क्योंकि कला जीवन जीने की कला है तथा प्रेममय दाम्पत्य जीवन, सुखी परिवार और सुन्दर समाज की आधार शिला है। संस्कृत वाङ्ममय में निबद्ध कलाऐं पुरातन भारतीय जीवन, सभ्यता, संस्कृति धर्म और दर्शन को समझने तथा वर्तमान जीवन शैली को सँवारने की दृष्टि देती है।

Introduction to Bharatiya Kalas - Part 1 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय) and Introduction to Bharatiya Kalas - Part 2 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय)

निष्कर्ष॥ Discussion

प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति के चार प्रमुख कर्तव्यों को सुगम बनाना था। धर्म (धार्मिकता), अर्थ (आजीविका), काम (पारिवारिक जीवन) और मोक्ष (शाश्वत शांति की प्राप्ति) परंपरा 18 प्रमुख विद्याओं (सैद्धांतिक विषयों), और 64 कलाओं (व्यावसायिक विषयों / शिल्प) की बात करती है। इन "कलाओं" का लोगों के दैनिक जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है और अधिकांश यह ध्यान रखना प्रमुख है कि ये कला अभी भी आजीविका के महत्वपूर्ण साधन हैं। इन कलाओं का सामान्य जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

यह भी महत्वपूर्ण है कि भारत की परंपरा में "कला" और "शिल्प" के बीच कोई विरोध नहीं है। शिल्पकारों के लिए शिल्प उनकी आजीविका ही नहीं उनकी पूजा भी है। ये शिल्प सिखाया गया था, अभी भी सिखाया जाता है, एक शिक्षक द्वारा अपने शिष्यों को, एक शिल्प सीखने के लिए शिक्षक को काम पर देखने की आवश्यकता होती है, शिक्षक द्वारा सौंपे गए अजीब, छोटे काम और फिर लंबे अभ्यास से शुरू करना, अपने आपमें बहुत अनुभव के बाद ही शिक्षार्थी अपनी कला को परिष्कृत करता है और फिर स्वयं को स्थापित कर सकता है।

यह हम आज भी भरत के नृत्य, संगीत और यहां तक ​​कि वाहन-मरम्मत में भी देख सकते हैं। यही एक कारण है कि शिल्पकार को साधक के रूप में उच्च सम्मान दिया जाता है।एक भक्त जिसका मन बड़ी श्रद्धा से अपनी वस्तु के प्रति आसक्त हो जाता है। उनका प्रशिक्षण तप (तपः) का एक रूप है, एक समर्पण और उन्हें प्राप्त करने वाला प्राथमिक गुण एकाग्रता है। भारत की परंपरा शिल्प के लिए भी ग्रंथों से भरी हुई है, जो व्यावहारिक अनुशासन हैं। प्रत्येक अनुशासन में स्कूल हैं; प्रत्येक स्कूल में विचारक और ग्रंथ होते हैं।वस्तुतः ग्रन्थ तीन प्रकार के होते हैं - प्राथमिक ग्रंथ (शास्त्र) जो मूलभूत सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं, समग्र ग्रंथ (उस अनुशासन में सभी विद्यालयों का संग्रह) और टिप्पणी / प्रदर्शनी ये तीन प्रकार के ग्रंथ अधिकांश विषयों में उपलब्ध हैं - इस तरह ज्ञान को व्यवस्थित और शिक्षाशास्त्र के उद्देश्यों के लिए प्रस्तुत किया जाता है। किन्तु शिल्प के मामले में यह सच है जैसे विद्या के मामले में यह सच है कि ज्ञान गुरु में रहता है। यह भारत की परंपरा में गुरुओं से जुड़ी महान श्रद्धा का मूल है क्योंकि वे ज्ञान के दिए गए क्षेत्र में स्रोत और अंतिम अधिकार हैं।

उद्धरण॥ References

  1. आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३१/३३।
  2. आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३६/३७।
  3. Vachaspatyam
  4. Shabdakalpadruma
  5. श्री मद्भागवत महापुराण, (द्वितीय खण्ड) हिन्दी टीका सहित,स्कन्ध १०,अध्याय ४५ , श्लोक ३६, हनुमान प्रसाद् पोद्दार,गोरखपुर गीता प्रेस सन् १९९७ पृ०४१२।
  6. श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् ।
  7. B.D.Basu, The Sacred Books of the Hindus, Vol XIII The Sukraniti, Allahabad: The Panini Office, Bhuvaneshwari Asrama, 1914. Pg.no.157