Bharatiya Kala Vidya (भारतीय कला विद्या)

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कला भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण भाग हुआ करता है। शिक्षामें कलाओंकी शिक्षा महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो मानव जीवन को सुन्दर, प्राञ्जल एवं परिष्कृत बनाने में सर्वाधिक सहायक हैं। कला एक विशेष साधना है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी उपलब्धियों को सुन्दरतम रूप में दूसरों तक सम्प्रेषित कर सकने में समर्थ होता है। कलाओंके ज्ञान होने मात्र से ही मानव अनुशासित जीवन जीने में अपनी भूमिका निभा पाता है। विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में गुरुकुल में इनका ज्ञान प्राप्त करते हैं। इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला कहा जाता है।

परिचय॥ Introduction

भारतवर्ष ने हमेशा ज्ञान को बहुत महत्व दिया है। प्राचीन काल में भारतीय शिक्षाका क्षेत्र बहुत विस्तृत था। कलाओंमें शिक्षा भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है कलाओं के सम्बन्ध में रामायण, महाभारत, पुराण नीतिग्रन्थ आदि में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। भारतके ज्ञान परंपरा की बात करते हुए कपिल कपूर कहते हैं- ''भारत की ज्ञान परंपरा गंगा नदी के प्रवाह की तरह प्राचीन और अबाधित है''।[1]शुक्राचार्यजी के नीतिसार नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के तीसरे प्रकरण में सुन्दर प्रकार से सीमित शब्दों में विवरण प्राप्त होता है। उनके अनुसार कलाऍं अनन्त हैं उन सभी का परिगणनन भी क्लिष्ट है परन्तु उनमें 64 कलाऍं प्रमुख हैं। सभी मनुष्योंका स्वभाव एकसा नहीं होता, किसी की प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है, उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है।

प्राचीन भारतके शिक्षा पाठ्यक्रमकी परंपरा हमेशा 18 प्रमुख विद्याओं (ज्ञान के विषयों) और 64 कलाओं की बात करती है। ज्ञान और क्रिया के संगम के विना शिक्षा अपूर्ण मानी जाती रही है। ज्ञान एवं कला के प्रचार में गुरुकुलों की भूमिका प्रधान रही है एवं ऋषी महर्षि सन्न्यासी आदि भ्रमणशील रहकर के ज्ञान एवं कला का प्रचार-प्रसार किया करते रहे हैं। गुरुकुल में अध्ययनरत शिक्षार्थियों की मानसिकता उसके परिवार से न बंधकर एक बृहद् कुल की भावना से जुडी हुई होती है जिसके द्वारा वह कला-कौशल लोकोपयोगी सिद्ध हुआ करता है।


महर्षि भर्तृहरि ने मनुष्य के गोपनीय धन में विद्या का प्रमुख स्थान दिया है-

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् ॥

कला की परिभाषा॥ Definition of Kala

जीवन में आनन्द का संचार कर मानवीय जीवन को उन्नत बनाती है। मानव जीवन में हुये परिवर्तन एवं विकास के मूल कारण को ही भारतीय विचारकों ने जिस अभिधान से पुकारा है, वह 'कला' है। आचार्यजनों ने कला की परिभाषा इस प्रकार की है-

कम् आनन्दं लाति इति कला।(समी० शा०)[2]

कं संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है आनन्द और प्रकाश और ला धातु का अर्थ है लाना। अतः वह क्रिया या शक्ति जो आनन्द और प्रकाश लाती हो उसे कला कहा गया है।

कला किसी भी देश की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं शिल्पशास्त्रीय उपलब्धियों का प्रतीक होती है। भारतीय चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में कलासाधन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसका इतिहास भी अत्यन्त समृद्ध रहा है।

विद्या के अट्ठारह प्रकार॥ Kinds of 18 Vidhyas

अपौरुषेय वैदिक शब्द राशि से प्रारंभ होकर प्रस्तुत काल पर्यन्त संस्कृत वाङ्मय की परम्परा पाश्चात्य दृष्टिकोण से भी विश्व की प्राचीनतम परम्परा मानी जाती है। विद्या की उपयोगिता जीवन में पग-पग पर अनुभूत की जाती है इसके विना जीवन किसी काम का नहीं रह पाता है, यह सर्व मान्य सिद्धान्त है। विद्या शब्द की निष्पत्ति विद् धातु में क्यप् और टाप् प्रत्यय के योग से विद्या शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ ज्ञान, अवगम और शिक्षा माना जाता है।भारतीय विद्याओं में अष्टादश विद्याओं का नाम ग्रन्थों में प्राप्त होता है। प्राचीन भारत में विद्या का जो रूप था वह अत्यन्त सारगर्भित और व्यापक था। अष्टादश विद्याओं में सम्मिलित हैं-

अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।।(याज्ञवल्क्य स्मृति) आयुर्वेदो   धनुर्वेदो  गांधर्वश्चैव    ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः।। (ऋग् ०भा०भूमि०)[3](विष्णु पुराण)

इन सभी विद्याओं का पावर हाउस वेद है। वेद चार हैं इनके नाम इस प्रकार हैं-

  • चतुर्वेदाः- ये 1.ऋग्वेद, 2.यजुर्वेद, 3.सामवेद और 4.अथर्ववेद चार वेद होते हैं। सभी वेदों के दो भाग मुख्य रूप से बताये गए हैं। ''मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद नामधेयम् '' अर्थात् मन्त्र(संहिता) और ब्राह्मण वेद हैं।
  1. मन्त्र- संहिता भाग में मन्त्रों का संग्रह है। सभी वेदों की पृथक् - पृथक् संहिताऍं हैं जो आज भी उपलब्ध हैं। इन संहिताओं की कण्ठस्थीकरण की परम्परा हमारे संस्कृत वाङ्मय में पहले से ही रही है। इसको (संहिता) को कण्ठस्थ करने वाला विद्वान् ही नहीं ब्रह्मवेत्ता तथा ब्रह्मज्ञान की क्षमता रखने वाला समझा जाता है।
  2. ब्राह्मण- ब्राह्मण वेद का वह भाग है जिसमें मन्त्रों की व्याख्या (भाष्य) है। इसमें मानव जीवन के लोक-परलोक दोनों को प्रशस्त करने के मार्ग बताए गये हैं। इसके अन्तर्गत आरण्यक, उपनिषद् , वेदाङ्ग तथा स्मृति सभी आते हैं।

(१)आरण्यक-अरण्य का अर्थ है जंगल (वन) अभिप्राय यह है कि ऋषियों ने घोर जंगलों में रहकर, कन्द मूल फल का आहार कर जिस ज्ञान को दिया उसे आरण्यक नाम से कहा गया ।

(२)उपनिषद्-उप= ऋषियों ने परम्परागत - समीपे अर्थात् गुरु के समीप बैठकर शिष्यों को ज्ञान दिया उसका नाम उपनिषद् है।

  • षड्वेदाङ्गानि--वेदों के रहस्यों को जानने के लिए पृथक्-पृथक् शास्त्र बनाए गये उनका नाम वेदाङ्ग हैं । ये छह प्रकार के हैं । निम्नलिखित श्लोक से वेदाङ्गों का नाम स्पष्ट हो जायेगा । संस्कृत वाङ्मय में 'ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च ॥ इस श्रुति वाक्य से धर्म सहित षड् दर्शनों का अध्ययन और इनका ज्ञान प्राणीमात्र को आवश्यक है । इन षडङ्गों को वेदाङ्ग भी कहते हैं- भास्कराचार्य जी ने इस प्रकार कहा है-

शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं-निरुक्तं च कल्पः करी। या तु शिक्षाऽस्य वेदस्य सा नासिका पाद पद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधः॥

अर्थ- शिक्षा, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, कल्प और निरुक्त ये वेद के छः अङ्ग होते हैं।

शिक्षा- शिक्षा वेद का घ्राण है। जिसमें मन्त्र के स्वर मात्रा और उच्चारण का विवेचन किया जाता है । इस समय निम्नलिखित शिक्षाएँ उपलब्ध है-

  1. ऋग्वेद की पाणिनीय शिक्षा।
  2. कृष्ण यजुर्वेद की व्यास शिक्षा।
  3. शुक्ल यजुर्वेद के २५ शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध है।
  4. सामवेद की गौतमी, लोमशी तथा नारदीय शिक्षा।
  5. अथर्ववेद की माण्डूकी शिक्षा।

कल्प-कल्प वह शास्त्र है जिसमें यज्ञों की विनियोग विधि का वर्णन किया गया है। कल्प वेद भगवान् का हस्त (हाथ) कहा गया है।

निरुक्त-निरुक्त वेद का श्रवण (कान) है । जिसमें वेदार्थ (वेद का अर्थ) निर्वचन किया जाता है । यही वेदों का विश्वकोष भी है। वर्तमान समय में एक मात्र यास्काचार्य का निरुक्त उपलब्ध है। जिसकी अनेक व्याख्याएँ हैं। दूसरा कश्यप शाकमणि का निरुक्त है जो आजकल उपलब्ध नहीं है।

छन्द - गायत्री इत्यादि छन्द वेदों के पाद हैं । गति साधक होने के कारण पाद कहलाते हैं। इस समय कुछ गार्ग्यादि छन्द ग्रन्थ निम्न हैं—

  1. उपनिदान सूत्र
  2. पिङ्गल सूत्र
  3. वृत्तरत्नाकर
  4. श्रुतबोध

ये छन्द शास्त्र के ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं।

व्याकरण– वेद का मुख व्याकरण है । व्याकरण की महत्ता विशेष है । इसलिये कहा गया है कि-

रक्षार्थं हि वेदानामध्येयं व्याकरणम्॥

व्याकरण का प्रयोजन- १. वेद रक्षा, २. उहा, ३. आगम, ४. लाघव, ५. सन्देह और ६. निवृत्ति है । ज्योतिष – वेद यज्ञकर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं । यज्ञ-यागादि काल के अधीन है । अच्छे समय (मुहूर्त्त) में यज्ञ करने से अभीष्ट सिद्धि शीघ्र होती है। भास्कराचार्य जी ने कहा है-

वेदास्तावद् यज्ञकर्म प्रवृत्ताः यज्ञाः प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण। शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्यात् वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥

इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र वेदाङ्ग है। इसमें किसी भी आचार्य या विद्वान् का मतभेद नहीं है । परन्तु वेद, पुराण, आगम, स्मृति, धर्मशास्त्र आदि के अध्ययन से वेदाङ्ग की सत्यता स्वयं सिद्ध है । ज्योतिष के महत्व को प्रतिपादित करते हुए बहुत आचार्यों ने इसकी महिमा का वर्णन किया है जैसे-

यथा शिखा मयूराणां नगानां मणयो यथा। तथा वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि तिष्ठति॥

सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्धत्रयात्मकं। वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम्॥

विनैदखिलं श्रौत स्मार्तकर्म न सिध्यति। तस्माज्जगत् हिताय ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥

चत्वारः उपवेदः

  • चत्वारः उपवेदः - ये आयुर्वेद (चिकित्सा), धनुर्वेद (हथियार), गंधर्ववेद (संगीत) और शिल्पशास्त्र (वास्तुकला) चार उपवेद होते हैं।

आयुर्वेद- इस उपवेद में चिकित्साशास्त्र आता है। जिसे आधुनिक भाषा में मेडिकल साइन्स के नाम से व्यवहृत है । चिकित्सा प्रद्धति को विस्तार हेतु इस आयुर्वेद का विस्तार कई भागों में किया गया है।

धनुर्वेद- प्राचीनकाल में युद्ध कौशल का वर्णन इतिहासों में उपलब्ध है । इन युद्धों में दिव्यास्त्र, क्षेप्यास्त्र तथा ब्रह्मास्त्रादि का प्रयोग किया जाता था । परन्तु इन अस्त्रों के बनाने वाले अभियन्ता प्रसिद्ध वैज्ञानिक और प्रद्योगिकी शास्त्र के निष्णात विद्वान् होते थे।

गंधर्ववेद- इस उपवेद के अन्तर्गत संगीत शास्त्र आता है जिसके द्वारा मनुष्य से लेकर परमब्रह्म परमात्मा तक वशीकरण करने की प्रक्रिया है । संगीत के द्वारा जिसके अन्तर्गत गायन, वादन और नृत्य है । इन कलाओं से पशु और पक्षियों को भी अपने वश में करने की प्रक्रिया सर्वविदित है।

स्थापत्यवेद- इसके अन्तर्गत वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला इत्यादि आते हैं प्राचीनकाल में विश्वकर्मा और मय दोनों वास्तु विदों की ख्याति इतिहास में प्रसिद्ध ही है।

  • चत्वारि उपाङ्गानि- पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र ये चार उपाङ्ग होते हैं।

यद्यपि समग्र कला आदि के स्रोत अष्टादश विद्याऐं ही हैं। जहां तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।

वेदों में कलाऐं॥ Arts in Vedas

वेद भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के मूल स्रोत हैं। भारतीयों के लिये जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त षोडश संस्कार आदि समस्त क्रिया कर्म वेद बोधित आचरण के अनुकूल हुआ करते हैं। विश्व के आद्यतम ग्रन्थ ऋग्वेद में 'शिल्प' और 'कला' शब्द के प्रयोग के साथ ही शिल्पों के वे सन्दर्भ भी हैं जिन्होंने मानव जीवन को 'सुपेशस्' (सुन्दर), छन्दोमय और अमृत के योग्य बनाया। अतः ऋग्वेद भारतीय शिल्प कलाओं का प्रथम वाचिक साक्ष्य है।

कलाओं के भेद ॥ Difference of Arts

भारतीय संस्कृत वाग्मय में 64 कलाओं के नाम के आधार पर कुछ लोग यह सोचते हैं कि भारत में कला के 64 भेद किये गए हैं। वस्तुतः ये भावना भ्रम में डालने वाली है। कलाओं का 64 वर्गीकरण न होकर परिगणन किया गया है। भारतीय कलाओं की गणना में 64 ही नहीं 16, 32, 84, 86, 100 आदि कई संख्याओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं।

कलाओं का प्रयोजन॥ Purpose of arts

भारतीय कलाकार की यह विशेषता है कि वह केवल शारीरिक अनुरंजन को ही कला का विषय न मानकर सांस्कृतिक मानसिक और बौद्धिक विकास का ध्यान रखकर कला का सृजन करते हैं।

कला शब्द साहित्य और जनजीवन से अभेद सम्बन्ध रखता है। इसकी प्राचीनता ऐतिहासिकता निर्विवाद हैं, प्राचीन काल में कला का मुख्य तात्पर्य तत्ववाद था।

कला का महत्त्व॥ Importance of art

कला का यह उद्देश्य माना जाता है कि उससे ज्ञान में वृद्धि, सदाचार में प्रवृत्ति एवं जीविकोपार्जन में सहायता मिले। प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय कला का प्रयोग दैनिक जीवन में कितना व्याप्त रहा है। श्री कृष्णचन्द्र जी को सभी कलाओं की शिक्षा दी गई थी एवं वे सभी कलाओं में प्रवीण थे जैसा कि श्री मद्भागवत जी में भी कहा गया है-

अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः।(भाग०महापु०)[4]

केवल चौंसठ दिन रात में ही संयम शिरोमणि दोनों भाइयों ने गुरूजी के एक बार कहने मात्र से चौंसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।

  • यह सृष्टि ब्रह्म की कला है।
  • महादेव शिव नृत्य-शिरोमणि 'नटराज' हैं।
  • वीणावादिनी सरस्वती ललित कलाओं की अधिष्ठात्री देवी है।
  • वेणु की मधुर तान से जगत् को रस-विभोर करने वाले श्री कृष्ण जी सर्वश्रेष्ठ 'वंशी-वादक'है।

अर्जुन नृत्य कला नल भीम आदि पाक कला में निपुण थे। परशुराम द्रोणाचार्य आदि धनुर्वेद में कुशल थे। इससे ज्ञात होता है कि गुरुकुलों में सभी को प्रायः सभी कलाओं की शिक्षा दी जाती रही होगी। परन्तु सभी का स्वभाव साम्य नहीं होता जैसा कि देखा भी जाता है किसी कि प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है। [5]

राजर्षि भर्तृहरिने ने भी कलाओं का जीवन में महत्त्व बतलाते हुए कहा है कि -

साहित्य सङ्गीत कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ विषाणहीनः। (नीतिश० श्लो०१२)[6]

अर्थात् जिस व्यक्ति में कोई कला नहीं है, वह व्यक्ति निश्चित ही पशुरूप है। पशुओं में भी सींग और पूँछ से हीन अर्थात् विकृत एवं अपूर्ण पशुतुल्य कहा गया है।

प्रभुभिः पूज्यते लोके कलैव न कुलीनता। कलावान् मान्यते मूर्ध्नि सत्सु देवेषु शम्भुना॥(सुभा० भाण्डा०)[7]

अर्थात् संसार में ज्ञानी लोग कला का ही आदर करते हैं, कुलीनता की नहीं। जैसा कि अनेक देवताओं के होते हुए भी भगवान् शंकर कलावान् चन्द्रमा को ही शिर पर धारण करते हैं।

बौद्ध ग्रन्थ- ललितविस्तर में 64 कलाओंकी सूची एक सूची प्राप्त होती है। कहा जाता है कि बोधिसत्व को गोपा से विवाह करने के लिये कलाओं के ज्ञान की परीक्षा देनी पडी थी।[8]

वंशागत कला॥ Traditional Arts

वंशागत कला के सीखने में अल्प प्रयत्न के द्वारा भी सुगमता पूर्वक पारंगत हुआ जा सकता है। बालकपन से ही उसके वंश-परम्पराकी कलाके संस्कार उसके अन्दर पूर्व से ही जो समाहित रहते हैं गुरुकुल आदि में विद्या अध्ययन करते समय उन कलाओं में उसे शीघ्र ही नैपुण्य प्राप्त हो जाता है एवं गुरुजन आदि भी तदनुकूल कला का ज्ञान भी प्रदत्त करते हैं। सभी विद्याओं में सामन्य प्रवेश उचित है किन्तु वंशागत कला में अरुचि दिखा कर अन्य ओर प्रयत्न करना यह अनुचित पद्धति है। जैसाकि महाभारत आदि में धनुर्धरों के पुत्रों का धनुर्विद्या में निपुण होना एवं यह वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है एक लकडी का कार्य करने वाले का पुत्र जितने जल्दी पिता के कार्य में दक्षता प्राप्त कर सकता है उतना अन्य जन नहीं। वर्तमान शिक्षा पद्धति से लोगों को वंशागत कला के कार्यों के प्रति घृणा तथा अरुचि उत्पन्न होती जा रही है जिसके द्वारा पिता दादाजी आदि के पैतृक व्यवसाय नष्ट हो रहे हैं। जैसाकि शुक्राचार्य जी लिखते हैं—

यां यां कलां समाश्रित्य निपुणो यो हि मानवः। नैपुण्यकरणे सम्यक् तां तां कुर्यात् स एव हि॥(शु० नीति.4.4.100)[9]

जो मानव जिस-जिस कला में निपुण हैं उन्हैं अपनी उसी नैपुण्य युक्त कला में अभ्यास करने से दक्षता प्राप्त होती है।

जीवन में कला का औचित्य॥ Justification of art in life

संसार की सम्पूर्ण सभ्यताओं का आधार मनुष्य की सुख पाने की अभिलाषा है। मनुष्य की अभिलाषाओं का न तो कभी अंत ही है और न उसकी सुख की लालसा ही समाप्त होती है। कला कार्य करने की वह शैली है जिसमें हमें सुख या आनन्द मिलता है। कला के नाम से ललितकलाओं, संगीतकला, चित्रकला और काव्य कलाऐं आदि ये सब जीवन जीने की कला के अन्तर्गत हैं। जीवन जीने की कला में निपुण होना। इसमें यह सब कलाऐं योगदान देती हैं जैसे चित्रकला का ज्ञान हमें प्रत्येक कार्य को सुन्दरता पूर्वक करना सिखाता आदि इसी प्रकार प्रत्येक कला का जीवन जीने में कुछ न कुछ औचित्य अवश्य है। इसीलिये भारतीय जीवन विधान में कलाओं को आत्मसात करने के संस्कार बाल्यकाल से ही प्रदत्त किये जाते हैं।

कला एवं समाज ॥ Art and Society

मनुश्य

कलाकारों का महत्व॥ Importance of Artists

अर्थोपार्जन क्षेत्र में कला॥

कलाओं की प्राचीनता॥ Antiquity of Arts

समस्त कलाऐं संस्कृतशास्त्र में प्रारंभ से ही व्याप्त हैं किन्तु वर्तमान में उन्हैं नवीन एवं पाश्चात्य देशों से आविर्भाव हुआ है इस प्रकार माना जाता है। इस प्रकार की मान्यता के पीछे मुख्य हेतु है परम्परा से प्राप्त होने वाले ज्ञान का अभाव होना। कुछ कलाओं को उदाहृत किया जाता है जैसे कि-

ललितविस्तर में कही गयी विडिम्बित कला वर्तमान में Miniature अथवा Mimicry के नाम से जानी जाति है एवं शुक्रनीतिसार में वर्णित अनेकवाद्यविकृतौ तद्वादने ज्ञानम् ये कला वर्तमान में Orchestra के नाम से व्याप्त है। इसीप्रकार कामसूत्र में नेपाथ्ययोगाः कला अन्तर्गत वधूनेपथ्यं एवं शुक्रनीतिसार में वर्णित स्त्रीपुंसोः वस्त्रालंकारसन्धानम् कला वर्तमान में Beauty parlor के नाम से व्यवसाय के रूप में देखी जा सकती है।

शुक्रनीतिसार में वर्णित कञ्चुकादीनां सीवने विज्ञानम् कला Ladies tailor इस नाम से कार्यकरने वालों के द्वारा व्यवहार में प्रचलित है एवं कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम् कला Imitation Jewelry कर्म में प्रयुक्त है। वात्स्यायनसूत्र उक्त विशेषकच्छेद्यम् कला body designing by Tattoes निर्माण के रूप में विश्व में व्याप्त है। क्रीडाओं (खेलों) में भी वाजिवाह्यालिक्रीडा Polo इस नाम से व्याप्त है। धरणीपात-भासुर-मारादियुद्धानि कला Freestyle wrestling कलाऐं इस प्रकार के रूपों में परिवर्तित होकर संसार में अर्थोपार्जन (रुपया एकत्रित करना) के साधन रूप में प्रयुक्त हैं।[10]

उद्धरण॥ References

  1. Kapoor Kapil and Singh Avadhesh Kumar, Bharat's Knowledge Systems, Vol.1, NewDelhi: D.K.Printworld, Pg.no.11
  2. श्री सीताराम चतुर्वेदी,समीक्षा शास्त्र, इलाहाबादः साधना सदन,सन् १९६६ पृ०२०६।
  3. पं० श्री जगन्नाथ पाठक,ऋग्वेदभाष्य भूमिका(हिन्दी व्यख्यायुक्त),सन् २०१५,वाराणसी चौखम्बा विद्याभवन पृ० ५३।
  4. श्री मद्भागवत महापुराण, (द्वितीय खण्ड) हिन्दी टीका सहित,स्कन्ध १०,अध्याय ४५ , श्लोक ३६, हनुमान प्रसाद् पोद्दार,गोरखपुर गीता प्रेस सन् १९९७ पृ०४१२।
  5. पं०श्री दुर्गादत्त जी त्रिपाठी, प्राचीन शिक्षा में चौंसठ कलाऐं, शिक्षांक, सन् १९८८, गोरखपुर गीताप्रेस पृ०१२९।
  6. भर्तृहरि, नीति शतक, श्लोक १२, मथुराः हरिदास एण्ड कम्पनी लिमिटेड सन् १९४९ (पृ०३४)।
  7. नारायणराम आचार्य, सुभाषित रत्न भाण्डागारम, गुण प्रशंसा प्रकरण, श्लोक १९, सन् १९५२ (पृ०८१)।
  8. ललितविस्तर, शान्तिभिक्षु शास्त्री, शिल्पसन्दर्शन परिवर्त, सन् १९८४, लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पृ० २८२।
  9. श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः,अध्याय०४ प्रकरण०४ श्लोक०१००, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् पृ०३६९।
  10. आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड, भूमिका, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० १७।