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२... हमारे देश के पूर्वजों के कर्तृत्व, गुण और पराक्रमों से प्रेरणा प्राप्त करने हेतु गीतों, नाटकों एवं कथाओं के कार्यक्रम हो सकते हैं ।  
 
२... हमारे देश के पूर्वजों के कर्तृत्व, गुण और पराक्रमों से प्रेरणा प्राप्त करने हेतु गीतों, नाटकों एवं कथाओं के कार्यक्रम हो सकते हैं ।  
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मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते
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3.  भारतमाता पूजन, मातृभूमि वंदन जैसे कार्यक्रमों का आयोजन हो सकता है। 
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हैं। इन आफक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का
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4.  देशदर्शन का कार्यक्रम शैक्षिक भ्रमण के अंतर्गत हो सकता है। 
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देशभक्ति की भावना काम प्रजा का है, सरकार या सैन्य का नहीं । इस
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5. हमारे द्वादश ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्तिपीठ, चार धाम आदि एक और मुग़ल विषय का अंग है तो दूसरी और तीर्थयात्रा के केंद्र है। इनके अतिरिक्त देशभर में असंख्य मंदिर है और हजारों वर्षों से लोगो के श्रद्धा केंद्र बने हुए है। इन सब के साथ विद्यार्थी श्रद्धा से जुड़ें ऐसा आयोजन करना चाहिए। विद्यार्थियों की श्रद्धा ज्ञानात्मक होनी चाहिए यह विशेषता है। 
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दृष्टि से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने
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६.. विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी.का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये । 
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का काम विद्यालयों का है ।
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७. मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा.करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता.है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है। यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है । परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते हैं। इन आक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का काम प्रजा का है, सर्कार या सैन्य का नहीं।  इस दृष्टी से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने का काम विद्यालयों का है। 
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८... देश मेरे लिये नहीं, मैं देश के लिये हूँ यह भाव
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८... देश मेरे लिये नहीं, मैं देश के लिये हूँ यह भाव स्थायी बनना चाहिये ।
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स्थायी बनना चाहिये ।
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९. स्वतन्त्रता की चाह जगनी चाहिये, हमारा देश स्वतन्त्र रहना चाहिये ऐसा समस्त प्रजा को लगना चाहिये । देश की स्वतन्त्रता भूमि और संस्कृति दोनों की स्वतन्त्रता है । दोनों के प्रति गौरव और श्रद्धा होनी चाहिये और स्वतन्त्रता हेतु त्याग, बलिदान, समर्पण, निष्ठा आदि सब कुछ होना चाहिये ।  
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९. स्वतन्त्रता की चाह जगनी चाहिये, हमारा देश
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विभिन्न विषयों की शिक्षा ऐसा भाव जगाने हेतु भी होना चाहिए। 
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स्वतन्त्र रहना चाहिये ऐसा समस्त प्रजा को लगना
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==== कृतिशील देशभक्ति ====
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ज्ञान और भावना जब तक कृति में परिणत नहीं होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है । केवल जानना और मानना कभी भी पर्याप्त नहीं होता, करना अत्यन्त आवश्यक होता है। अतः कृतिशील देशभक्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है ।
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चाहिये । देश की स्वतन्त्रता भूमि और संस्कृति दोनों
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कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये...
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की स्वतन्त्रता है । दोनों के प्रति गौरव और श्रद्धा
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1. हम हमेशा स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे  ऐसा विद्यार्थियों का निश्चय बनना चाहिये । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि कम होकर देश गरीब बनता है । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि काम होकर देश गरीब बनता है।  विदेशी वास्तु कैसी भी आकर्षक हो, हमें मोहित नहीं होना चाहिए, कितनी भि सस्ती हो हमें अपने स्वार्थ का विचार नहीं करना चाहिए।  विदेशी वास्तु कितनी भी दुर्लभहो, हमें सय्यम करना चाहिए।  एक तर्क ऐसा हो सकता है कि हमारे देश में देशविदेश की मूल्यवान वस्तुएं आती ही थी। ईरान के गलीचे, बसरा के और लंका के मोती, अरबस्तान के घोडे बहुत प्रसिद्ध थे। और हम उन्हें  खरीदते ही थे । फिर स्वदेशी वस्तुओं का ही आग्रह क्यों ?
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होनी चाहिये और स्वतन्त्रता हेतु त्याग, बलिदान,
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एक बात स्मरण में रखनी चाहिये कि हमारा विदेश व्यापार यदि अधिक हो तो हम भी बाहर से वस्तुयें ला सकते हैं। इस बात का भी स्मरण रहे कि सतन्रहवीं शताब्दी में सबसे अधिक विश्वव्यापार भारत का था । भारत की बराबरी करने वाला केवल चीन ही था। सोलहवी  शताब्दी में सात समन्दर में भारत के जहाजों की ख्याति थी । भारत के व्यापारी विश्वभर में व्यापार करते थे । ऐसे समय में दुर्लभ वस्तुयें भारत में भी आ सकती हैं। परन्तु यह दुर्लभ वस्तुओं का ही मामला है । साबुन, दन्तमंजन, रोज पहनने के वस्त्र आदि विदेशी होने में गौरव तो है ही नहीं, बुद्धिमानी भी नहीं है । यह तो अविचार, मिथ्या विचार अथवा स्वार्थी विचार है ।
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समर्पण, निष्ठा आदि सब कुछ होना चाहिये ।
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२. आजकल विदेश पढने और नौकरी करने जाने का प्रचलन बहुत बढ़ा है । विदेश में कमाई अधिक होती है ऐसा कहा जाता है । विदेश में पढ़ाई अच्छी होती है ऐसा भी कहा जाता है। विदेश की पढ़ाई की प्रतिष्ठा अधिक होती है ऐसा भी कहा जाता है । कई महानुभाव विदेशी नागरिकता भी ले लेते हैं।
 
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३... भारत माता पूजन, मातृभूमि वन्दन जैसे कार्यक्रमों विभिन्न विषयों की शिक्षा ऐसा भाव जगाने हेतु भी
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का आयोजन हो सकता है । होनी चाहिये ।
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¥. देशदर्शन का कार्यक्रम शैक्षिक भ्रमण के अन्तर्गत हो
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सकता है । कृतिशील देशभक्ति
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५... हमारे ट्वाद्श ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्तिपीठ, चार ज्ञान और भावना जब तक कृति में परिणत नहीं
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धाम आदि एक ओर भूगोल विषय का अंग हैं तो... होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है । केवल जानना
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दूसरी ओर तीर्थयात्रा के केन्द्र हैं। इनके अतिरिक्त... और मानना कभी भी पर्याप्त नहीं होता, करना अत्यन्त
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देशभर में असंख्य मन्दिर हैं जो तीर्थ हैं और हजारों. आवश्यक होता है। अतः कृतिशील देशभक्ति अत्यन्त
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वर्षों से लोगों के श्रद्धा केन्द्र बने हुए हैं। इन. महत्त्वपूर्ण विषय है ।
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सबके साथ विद्यार्थी श्रद्धा से जुड़े ऐसा आयोजन कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये...
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करना चाहिये । विद्यार्थियों की श्रद्धा ज्ञानात्मक होनी १, हम हमेशा स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे
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चाहिये यह विशेषता है । ऐसा विद्यार्थियों का निश्चय बनना चाहिये । विदेशी वस्तु
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६.. विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी... खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश
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का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम. की समृद्धि कम होकर देश गरीब बनता है । विदेशी वस्तु
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सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये । कैसी भी आकर्षक हो, हमें मोहित नहीं होना चाहिये,
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७. मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा. कितनी भी सस्ती हो हमें अपने स्वार्थ का विचार नहीं
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करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो... करना चाहिये । विदेशी वस्तु कितनी ही दुर्लभहो, हमें
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आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा... संयम करना चाहिये । एक तर्क ऐसा हो सकता है कि
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असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता... हमारे देश में देशविदेश की मूल्यवान वस्तुर्यें आती ही
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है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है।. थी । इरान के गलीचे, बसरा के और लंका के मोती,
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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अरबस्तान के घोडे बहुत प्रसिद्ध थे। और हम we
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खरीदते ही थे । फिर स्वदेशी वस्तुओं का ही आग्रह
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क्यों ?
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एक बात स्मरण में रखनी चाहिये कि हमारा विदेश
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व्यापार यदि अधिक हो तो हम भी बाहर से वस्तुयें ला
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सकते हैं। इस बात का भी स्मरण रहे कि सतन्रहवीं
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शताब्दी में सबसे अधिक विश्वव्यापार भारत का था ।
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भारत की बराबरी करने वाला केवल चीन ही था।
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acted शताब्दी में सात समन्दर में भारत के जहाजों की
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ख्याति थी । भारत के व्यापारी विश्वभर में व्यापार करते
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थे । ऐसे समय में दुर्लभ वस्तुयें भारत में भी आ सकती
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हैं। परन्तु यह दुर्लभ वस्तुओं का ही मामला है । साबुन,
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दन्तमंजन, रोज पहनने के वस्त्र आदि विदेशी होने में गौरव
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तो है ही नहीं, बुद्धिमानी भी नहीं है । यह तो अविचार,
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मिथ्या विचार अथवा स्वार्थी विचार है ।
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२. आजकल विदेश पढने और नौकरी करने जाने
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का प्रचलन बहुत बढ़ा है । विदेश में कमाई अधिक होती
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है ऐसा कहा जाता है । विदेश में पढ़ाई अच्छी होती है
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ऐसा भी कहा जाता है। विदेश की पढ़ाई की प्रतिष्ठा
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अधिक होती है ऐसा भी कहा जाता है । कई महानुभाव
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विदेशी नागरिकता भी ले लेते हैं।
      
क्या यह सही है ? जरा विश्लेषणपूर्वक विचार करें ।
 
क्या यह सही है ? जरा विश्लेषणपूर्वक विचार करें ।
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लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में नौकरी या
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लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में नौकरी या व्यापार करने के लिये क्यों जाते हैं ? अधिक पैसा मिलता है इसलिये । परन्तु अधिक पैसा प्राप्त करने हेतु अपना परिवार और अपना देश छोड़ना पड़ता है इसका दुःख क्यों नहीं होता ? विदेश जानेवाले अनेक युवकों के मातापिता देश में वृद्धावस्था में अकेले हो जाते हैं और दुःख में रहते हैं । वृद्धावस्था में पैसे के सहारे, पराये लोगों के सहारे तो नहीं रहा जा सकता । यह क्या विचारणीय विषय नहीं है ?  
 
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व्यापार करने के लिये क्यों जाते हैं ? अधिक पैसा मिलता है
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इसलिये । परन्तु अधिक पैसा प्राप्त करने हेतु अपना परिवार
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और अपना देश छोड़ना पड़ता है इसका दुःख क्यों नहीं
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होता ? विदेश जानेवाले अनेक युवकों के मातापिता देश में
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वृद्धावस्था में अकेले हो जाते हैं और दुःख में रहते हैं ।
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वृद्धावस्था में पैसे के सहारे, पराये लोगों के सहारे तो नहीं रहा
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जा सकता । यह क्या विचारणीय विषय नहीं है ?
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जिस देश की जलवायु और संस्कृति ने पोषण
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किया, जिस देश के अध्यापकों ने ज्ञान दिया, जिस देश
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के लोगों ने कर के रूप में पढ़ाई हेतु पैसा दिया उस देश
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का हमारे ज्ञान पर, कर्तृत्व पर, बुद्धि पर क्या प्रथम
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अधिकार नहीं है ? उसे छोड़कर अन्य देश को लाभ
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'ढी9
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पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञान का उपयोग
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करना क्या उचित है ? यह तो निरास्वार्थ है । अपने
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मातापिता के बल पर बडा होने के बाद अन्य मातापिता
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के पुत्र हो जाने के बराबर है ।
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विदेशी पदवियों की अधिक प्रतिष्ठा है यह तो हमारे
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लिये और भी लज्जाजनक बात बननी चाहिये । भारत तो
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हमेशा से ज्ञान का उपासक देश रहा है, faa से भारत
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में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वान आते थे, भारत से ऋषि,
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व्यापारी, कारीगर विश्व को ज्ञान और संस्कार देने के लिये
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जाते थे । आज अचानक क्या हो गया कि हम पिछड़
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गये ? यह तो हमारे लिये चुनौती का विषय बनना
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चाहिये । हमारे ज्ञान, संस्कार और कर्ृत्व से पुनः हमारे
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देश को वही स्वाभाविक विश्वगुरु का स्थान प्राप्त होना
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चाहिये । विद्वत्ता के, संस्कार के, संस्कृति के मानक
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स्थापित करना हमारा काम है। इस काम में हमारा
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योगदान नहीं हुआ तो फिर देशभक्ति कहाँ रही ? ज्ञानक्षेत्र,
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अर्थक्षेत्र और संस्कृति के क्षेत्र में हम अपने देश के काम
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में नहीं आ सके तो यह तो कृतघ्नता ही है । और विदेशी
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नागरिकता स्वीकार करने की बात तो तर्क से परे हैं ।
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सांस्कृतिक कारणों से हमारे पूर्वज विश्वभर में गये
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हैं। विश्व का एक भी देश ऐसा नहीं है जहाँ हमारे ऋषि,
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वैज्ञानिक, व्यापारी या कारीगर न गये हों । परन्तु उनका
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उद्देश्य उन लोगों का भला करने का था । “कृण्वन्तो
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विश्वमार्यम ही उनका सूत्र था। आज भी यदि
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विश्वकल्याण की भावना से ही हम विदेशों में जाते हैं या
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शुद्ध जिज्ञासा से ही अध्ययन हेतु जाते हैं तो वह प्रशंसा
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के पात्र है, परन्तु ऐसी स्थिति है उस विषय में सन्देह ही
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है।
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३. कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो
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कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का
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समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें
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हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पहना और
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USM चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों
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चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को
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इतना महत्त्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के
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प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही
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wat te जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो
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चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या
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हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के
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विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और
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भारतीय भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ?
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इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें
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स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त
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और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं ।
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हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं
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इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में
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नहीं आता ।
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देशभक्ति नहीं तो संस्कृति नहीं
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जिस देश की जलवायु और संस्कृति ने पोषण किया, जिस देश के अध्यापकों ने ज्ञान दिया, जिस देश के लोगों ने कर के रूप में पढ़ाई हेतु पैसा दिया उस देश का हमारे ज्ञान पर, कर्तृत्व पर, बुद्धि पर क्या प्रथम अधिकार नहीं है ? उसे छोड़कर अन्य देश को लाभ पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञान का उपयोग करना क्या उचित है ? यह तो निरास्वार्थ है । अपने मातापिता के बल पर बडा होने के बाद अन्य मातापिता के पुत्र हो जाने के बराबर है ।
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ऐसा ही दूसरा विषय हमारी संस्कृति को छोड़ने का
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विदेशी पदवियों की अधिक प्रतिष्ठा है यह तो हमारे लिये और भी लज्जाजनक बात बननी चाहिये । भारत तो
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है । हमें संस्कृत नहीं आती । हम अपने देवीदेवताओं की
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हमेशा से ज्ञान का उपासक देश रहा है, विश्वभर से भारत में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वान आते थे, भारत से ऋषि, व्यापारी, कारीगर विश्व को ज्ञान और संस्कार देने के लिये जाते थे आज अचानक क्या हो गया कि हम पिछड़ गये ? यह तो हमारे लिये चुनौती का विषय बनना चाहिये । हमारे ज्ञान, संस्कार और कर्ृत्व से पुनः हमारे देश को वही स्वाभाविक विश्वगुरु का स्थान प्राप्त होना चाहिये । विद्वत्ता के, संस्कार के, संस्कृति के मानक स्थापित करना हमारा काम है। इस काम में हमारा योगदान नहीं हुआ तो फिर देशभक्ति कहाँ रही ? ज्ञानक्षेत्र, अर्थक्षेत्र और संस्कृति के क्षेत्र में हम अपने देश के काम में नहीं आ सके तो यह तो कृतघ्नता ही है । और विदेशी नागरिकता स्वीकार करने की बात तो तर्क से परे हैं ।
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पूजा करने का अर्थ नहीं जानते पर्यावरण को हम देवता
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सांस्कृतिक कारणों से हमारे पूर्वज विश्वभर में गये हैं। विश्व का एक भी देश ऐसा नहीं है जहाँ हमारे ऋषि, वैज्ञानिक, व्यापारी या कारीगर न गये हों । परन्तु उनका उद्देश्य उन लोगों का भला करने का था “कृण्वन्तो विश्वमार्यम ही उनका सूत्र था। आज भी यदि विश्वकल्याण की भावना से ही हम विदेशों में जाते हैं या शुद्ध जिज्ञासा से ही अध्ययन हेतु जाते हैं तो वह प्रशंसा के पात्र है, परन्तु ऐसी स्थिति है उस विषय में सन्देह ही है।
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नहीं मानते अन्न, जल और विद्या को हम पवित्र नहीं
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३. कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का समय आया है जरा इन बातों का विचार करें ...
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मानते । हम अपने शास्त्रों को जानते ही नहीं है तो मानने
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हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढना और पढ़ाना चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को इतना महत्त्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही क्यों रोब जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और भारतीय भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ?
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का तो प्रश्न ही नहीं है। हम अमेरिका का आधिपत्य
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इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में नहीं आता ।
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स्वीकार कर चुके हैं। हम सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश
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==== देशभक्ति नहीं तो संस्कृति नहीं ====
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ऐसा ही दूसरा विषय हमारी संस्कृति को छोड़ने का है । हमें संस्कृत नहीं आती । हम अपने देवीदेवताओं की पूजा करने का अर्थ नहीं जानते । पर्यावरण को हम देवता नहीं मानते । अन्न, जल और विद्या को हम पवित्र नहीं मानते । हम अपने शास्त्रों को जानते ही नहीं है तो मानने का तो प्रश्न ही नहीं है। हम अमेरिका का आधिपत्य स्वीकार कर चुके हैं। हम सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश
    
क्‍या होता है यह समझने का प्रयास नहीं करते । हम
 
क्‍या होता है यह समझने का प्रयास नहीं करते । हम
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