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==== देशभक्ति नहीं तो संस्कृति नहीं ====
 
==== देशभक्ति नहीं तो संस्कृति नहीं ====
ऐसा ही दूसरा विषय हमारी संस्कृति को छोड़ने का है । हमें संस्कृत नहीं आती । हम अपने देवीदेवताओं की पूजा करने का अर्थ नहीं जानते । पर्यावरण को हम देवता नहीं मानते । अन्न, जल और विद्या को हम पवित्र नहीं मानते । हम अपने शास्त्रों को जानते ही नहीं है तो मानने का तो प्रश्न ही नहीं है। हम अमेरिका का आधिपत्य स्वीकार कर चुके हैं। हम सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश
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ऐसा ही दूसरा विषय हमारी संस्कृति को छोड़ने का है । हमें संस्कृत नहीं आती । हम अपने देवीदेवताओं की पूजा करने का अर्थ नहीं जानते । पर्यावरण को हम देवता नहीं मानते । अन्न, जल और विद्या को हम पवित्र नहीं मानते । हम अपने शास्त्रों को जानते ही नहीं है तो मानने का तो प्रश्न ही नहीं है। हम अमेरिका का आधिपत्य स्वीकार कर चुके हैं। हम सार्वभौम प्रजासत्तात्मक देश क्‍या होता है यह समझने का प्रयास नहीं करते । हम विदेशी वेशभूषा अपना चुके हैं । घरों में डाइनिंग टेबल आ ही गये हैं। समारोहों में खडे खडे, जूते पहनकर भोजन करते ही हैं । हम जन्मदिन केक काटकर, मोमबत्ती बुझाकर मनाने लगे हैं, हम १ जनवरी को नूतनवर्ष मनाते हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को राष्ट्रीय शक संवत्‌ शुरू होता है यह हम जानते ही नहीं । ऐसे तो सैंकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
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क्‍या होता है यह समझने का प्रयास नहीं करते । हम
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हम एक ही सन्तान को जन्म देने की मानसिकता बना चुके हैं। हम जनसंख्या की समस्या का बहाना बनाते हैं परन्तु एक ही सन्तान होने की चाह क्यों है और वह कितनी उचित है इसका विचार नहीं करते ।  
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विदेशी वेशभूषा अपना चुके हैं । घरों में डाइनिंग टेबल
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भारत चिरंजीवी देश है, विश्व में सबसे अधिक आयु वाला देश है । यह चिरंजीविता भारत को अपनी परम्परा के कारण प्राप्त हुई है । ज्ञान, संस्कार, कौशल एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने की विचारपूर्वक व्यवस्था करने के कारण परम्परा निर्माण हुई है । परम्परा दो प्रकार की है। एक है वंशपरंपरा अर्थात्‌ पितापुत्र परम्परा और दूसरी है गुरुशिष्य परंपरा । एक का केन्द्र घर है और दूसरी का है विद्यालय । परम्परा निभाना पिता और शिक्षक का सांस्कृतिक कर्तव्य है । अतः पिता को अच्छे पुत्र चाहिये और गुरु को अच्छे शिष्य । पिता परिवार बनाता है और गुरु गुरुकुल । परिवार समृद्ध और सुसंस्कृत हो इस दृष्टि से एक ही सन्तान अपर्याप्त है । एक ही सन्तान से परिवार भी पूरा बनता नहीं और परिवारभावना का विकास भी होता नहीं । हम बहुत छोटी आयु से छोटा परिवार सुखी परिवार का सूत्र सिखाकर अपने परिवार को छोटा बना ही चुके हैं । इससे कितनी बडी सांस्कृतिक हानि हुई है इसका अनुभव होना प्रारम्भ हो गया है । अभी भी यह अनुभव पूर्ण रूप से नहीं हुआ है यह भी सत्य है । इस स्थिति में एक ही सन्तान को जन्म देना “मूले कुठाराघातः' अर्थात्‌ जडें काटना ही है । जाने अनजाने यह देशद्रोह है। इससे बचने की आवश्यकता है। विद्यालय ने इसकी योजना करनी चाहिये ।
 
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आ ही गये हैं। समारोहों में खडे खडे, जूते पहनकर
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भोजन करते ही हैं । हम जन्मदिन केक काटकर, मोमबत्ती
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बुझाकर मनाने लगे हैं, हम १ जनवरी को नूतनवर्ष मनाते
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हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को राष्ट्रीय शक संवत्‌ शुरू होता है
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यह हम जानते ही नहीं । ऐसे तो सैंकड़ों उदाहरण दिये जा
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सकते हैं ।
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हम एक ही सन्तान को जन्म देने की मानसिकता
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बना चुके हैं। हम जनसंख्या की समस्या का बहाना
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बनाते हैं परन्तु एक ही सन्तान होने की चाह क्यों है और
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वह कितनी उचित है इसका विचार नहीं करते ।
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भारत चिरंजीवी देश है, विश्व में सबसे अधिक आयु
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वाला देश है । यह चिरंजीविता भारत को अपनी परम्परा
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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के कारण प्राप्त हुई है । ज्ञान, संस्कार, कौशल एक पीढ़ी
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से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने की विचारपूर्वक
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व्यवस्था करने के कारण परम्परा निर्माण हुई है । परम्परा
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दो प्रकार की है। एक है वंशपरंपरा अर्थात्‌ पितापुत्र
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परम्परा और दूसरी है गुरुशिष्य परंपरा । एक का केन्द्र घर
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है और दूसरी का है विद्यालय । परम्परा निभाना पिता
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और शिक्षक का सांस्कृतिक कर्तव्य है । अतः पिता को
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अच्छे पुत्र चाहिये और गुरु को अच्छे शिष्य । पिता
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परिवार बनाता है और गुरु गुरुकुल । परिवार समृद्ध और
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सुसंस्कृत हो इस दृष्टि से एक ही सन्तान अपर्याप्त है ।
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एक ही सन्तान से परिवार भी पूरा बनता नहीं और
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अपने परिवार को छोटा बना ही चुके हैं । इससे कितनी
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बडी सांस्कृतिक हानि हुई है इसका अनुभव होना प्रारम्भ
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है यह भी सत्य है । इस स्थिति में एक ही सन्तान को
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जन्म देना “मूले कुठाराघातः' अर्थात्‌ जडें काटना ही है ।
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जाने अनजाने यह देशद्रोह है। इससे बचने की
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आवश्यकता है। विद्यालय ने इसकी योजना करनी
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इस प्रकार ज्ञान, भावना और क्रिया के तीनों
 
इस प्रकार ज्ञान, भावना और क्रिया के तीनों
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