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आचार और विचार प्रक्रिया आध्यात्मिक बनाने के बाद इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना चाहिए । केवल शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा । आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, कर्मकाण्ड आदि विषयों में तुलनात्मक अध्ययन करना, देशविदेशों में इन सब क्षेत्रों में क्या चल रहा है इसका आकलन करना, इनको लेकर क्या समस्या है यह पहचानना, उन समस्याओं का निराकरण कैसे हो सकता है इसका ज्ञानात्मक विचार करना इन विषयों के अंतर्गत ही आता है । उदाहरण के लिए इस दुनिया में सहअस्तित्वमें मानने वाले, इसका आग्रहपूर्वक पुरस्कार करने वाले और कट्टरता से नहीं मानने वाले समुदाय है । संचार माध्यमों के कारण छोटे हुए विश्व में इन परस्पर विरोधी समुदायों का क्या होगा ? ये एकदूसरे के साथ कैसे पेश आयेंगे ? उन्होंने कैसे पेश आना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए । वर्तमान में विश्वसंस्कृति, विश्वधर्म, विश्वनागरिकता की बात की जाती है । यह क्या है? भारतीय अध्यात्मसंकल्पना के अनुसार इसका क्या तात्पर्य है इसे भी समझना चाहिए ।
 
आचार और विचार प्रक्रिया आध्यात्मिक बनाने के बाद इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना चाहिए । केवल शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा । आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, कर्मकाण्ड आदि विषयों में तुलनात्मक अध्ययन करना, देशविदेशों में इन सब क्षेत्रों में क्या चल रहा है इसका आकलन करना, इनको लेकर क्या समस्या है यह पहचानना, उन समस्याओं का निराकरण कैसे हो सकता है इसका ज्ञानात्मक विचार करना इन विषयों के अंतर्गत ही आता है । उदाहरण के लिए इस दुनिया में सहअस्तित्वमें मानने वाले, इसका आग्रहपूर्वक पुरस्कार करने वाले और कट्टरता से नहीं मानने वाले समुदाय है । संचार माध्यमों के कारण छोटे हुए विश्व में इन परस्पर विरोधी समुदायों का क्या होगा ? ये एकदूसरे के साथ कैसे पेश आयेंगे ? उन्होंने कैसे पेश आना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए । वर्तमान में विश्वसंस्कृति, विश्वधर्म, विश्वनागरिकता की बात की जाती है । यह क्या है? भारतीय अध्यात्मसंकल्पना के अनुसार इसका क्या तात्पर्य है इसे भी समझना चाहिए ।
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संक्षेप में ये ऐसे मूल विषय हैं जिनकी हमने घोर उपेक्षा की है और अन्यों ने गलत समझा है । आज भी पाश्चात्य विद्वान हमारे शास्त्र ग्रंथों का अर्थ प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं । हमारे विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल उन्हें अधिकृत मान भी लेते हैं । मेक्समूलर के समय से शुरू हुई यह परंपरा आज
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संक्षेप में ये ऐसे मूल विषय हैं जिनकी हमने घोर उपेक्षा की है और अन्यों ने गलत समझा है । आज भी पाश्चात्य विद्वान हमारे शास्त्र ग्रंथों का अर्थ प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं । हमारे विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल उन्हें अधिकृत मान भी लेते हैं । मेक्समूलर के समय से शुरू हुई यह परंपरा आज भी कायम है । हमें इससे मुक्त होने के लिए अध्ययन करने की आवश्यकता है । भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है, भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशक है इस बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझना इस विषय के अध्ययन का मूल काम है ।
 
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भी कायम है । हमें इससे मुक्त होने के लिए अध्ययन करने की आवश्यकता है । भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है, भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशक है इस बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझना इस विषय के अध्ययन का मूल काम है ।
      
== समाजशास्त्र ==
 
== समाजशास्त्र ==
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शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन करना हमारे लिये इतिहास है । भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है। भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें इतिहास मान रहा है परन्तु विद्वतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं ।
 
शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन करना हमारे लिये इतिहास है । भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है। भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें इतिहास मान रहा है परन्तु विद्वतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं ।
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इतिहास की भारतीय परिभाषा है{{Citation needed}} <blockquote>धर्मार्थिकाममो क्षाणाम्‌ उपदेशसमन्वितम्‌ ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।</blockquote>अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों
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इतिहास की भारतीय परिभाषा है{{Citation needed}} <blockquote>धर्मार्थिकाममो क्षाणाम्‌ उपदेशसमन्वितम्‌ ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।</blockquote>अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो कथा के रूप में बताया गया है वह इतिहास है । इतिहास पढ़ने का प्रयोजन स्पष्ट है । वह मनुष्य को सही जीवन जीने का मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए । इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का महत्त्व है । वह रोचक ढंग से बताया हुआ होना चाहिए । उदाहरण के लिये{{Citation needed}} “रामादिवत् वर्तितव्यं तु रावणादीवत्" अर्थात राम आदि की तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण आदि की तरह नहीं ऐसा उपदेश ही इतिहास का लक्ष्य है ।
 
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का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो
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कथा के रूप में बताया गया है वह इतिहास है ।
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इतिहास पढ़ने का प्रयोजन स्पष्ट है । वह मनुष्य को
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सही जीवन जीने का मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए ।
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इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का महत्त्व है ।
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वह रोचक ढंग से बताया हुआ होना चाहिए ।
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उदाहरण के लिये “रामादिवद्ट्तितव्यम्‌ रावणादीवत्‌'
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अर्थात राम आदि कि तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण
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आदि की तरह नहीं ऐसा उपदेश ही इतिहास का लक्ष्य है ।
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इसलिये सांस्कृतिक इतिहास राजाओं का नहीं अपितु
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संस्कृति का इतिहास है ।
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सांस्कृतिक परम्परा का निरूपण करना इतिहास का
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मुख्य लक्ष्य है। इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार के विषय
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उसमें आना अपेक्षित है ...
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धर्म की रक्षा हेतु किए गये कार्य जिनमें युद्ध,
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ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में किए गये सृजन एवं अनुसन्धान,
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यज्ञकार्य, उत्सव आदि का समावेश होता है । उदाहरण के
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लिये कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेद्कालीन दाशराज्ञ युद्ध,
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रामायण का युद्ध, श्रीमद्धगवद्दीता का
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उपदेश, भगवान शंकराचार्य का शाख््रार्थ, महाराणा प्रताप,
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गुरु गोविंदर्सिह और शिवाजी महाराज के धर्मरक्षा के प्रयास,
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अठारहवीं शताब्दी का गोरक्षा आंदोलन ऐतिहासिक
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घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं ।
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साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्र की
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उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के आविष्कार, शास्त्रों
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और ज्ञानपरंपरा के महत्त्वपूर्ण आयाम आदि भी इतिहास का
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विषय बन सकते हैं ।
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भारत ने विदेशों पर किया हुआ सांस्कृतिक विजय
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इतिहास का महत्त्वपूर्ण विषय है । उसी प्रकार विश्व का
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सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का
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स्थान एवं मानवता की प्रगति में भारत की भूमिका भी
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इतिहास का विषय बनता है ।
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देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शनि वाले सभी तत्त्व
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इतिहास के अध्ययन के विषय हैं । उदाहरण के लिये राज्यों
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की, भाषाओं की, तापमान की, खानपान की, रूपरंग की
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भिन्नता होने पर भी भारत सांस्कृतिक दृष्टि से हमेशा के
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लिये एक राष्ट्र रहा है इस बात पर सर्वाधिक बल देना
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आवश्यक है ।
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संक्षेप में राजाओं और राजकुलों का नहीं अपितु राष्ट्र
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का, संस्कृति का, समाज का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास
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है।
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इसलिये सांस्कृतिक इतिहास राजाओं का नहीं अपितु संस्कृति का इतिहास है । सांस्कृतिक परम्परा का निरूपण करना इतिहास का मुख्य लक्ष्य है। इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार के विषय उसमें आना अपेक्षित है ...
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अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी पाश्चात्य
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धर्म की रक्षा हेतु किए गये कार्य जिनमें युद्ध, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में किए गये सृजन एवं अनुसन्धान, यज्ञकार्य, उत्सव आदि का समावेश होता है । उदाहरण के लिये कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेद्कालीन दाशराज्ञ युद्ध, रामायण का युद्ध, श्रीमद्धगवद्दीता का उपदेश, भगवान शंकराचार्य का शास्त्रार्थ, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंदसिंह और शिवाजी महाराज के धर्मरक्षा के प्रयास, अठारहवीं शताब्दी का गोरक्षा आंदोलन ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं ।
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विद्वानों की इतिहासदृष्टि का गहरा साया पड़ा हुआ है।
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साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्र की उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के आविष्कार, शास्त्रों और ज्ञानपरंपरा के महत्त्वपूर्ण आयाम आदि भी इतिहास का विषय बन सकते हैं । भारत द्वारा विदेशों पर किया हुआ सांस्कृतिक विजय इतिहास का महत्त्वपूर्ण विषय है । उसी प्रकार विश्व का सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का स्थान एवं मानवता की प्रगति में भारत की भूमिका भी इतिहास का विषय बनता है । देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शाने वाले सभी तत्त्व इतिहास के अध्ययन के विषय हैं । उदाहरण के लिये राज्यों की, भाषाओं की, तापमान की, खानपान की, रूपरंग की भिन्नता होने पर भी भारत सांस्कृतिक दृष्टि से हमेशा के लिये एक राष्ट्र रहा है इस बात पर सर्वाधिक बल देना आवश्यक है । संक्षेप में राजाओं और राजकुलों का नहीं अपितु राष्ट्र का, संस्कृति का, समाज का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास है।
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समयनिर्धारण एक ऐसी समस्या बनाई गई है जिसके आधार
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अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी पाश्चात्य विद्वानों की इतिहासदृष्टि का गहरा साया पड़ा हुआ है। समयनिर्धारण एक ऐसी समस्या बनाई गई है जिसके आधार पर किसी भी बात को नकारा जा सकता है । वही मूलगत दोष है कि भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर सही बताने के प्रयास करना ही विद्वतक्षेत्र अपना पुरुषार्थ का विषय मानता है। इससे उबरना होगा । अपने आपको या अन्य किसीको नकारने के स्थान पर अपना स्वयं के लिये और दूसरों का दूसरों के लिये स्वीकार करना ही उचित रहेगा।
 
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पर किसी भी बात को नकारा जा सकता है । वही मूलगत
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दोष है कि भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर
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सही बताने के प्रयास करना ही विद्वतक्षेत्र अपना पुरुषार्थ का
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विषय मानता है। इससे उबरना होगा । अपने आपको या
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अन्य किसीको नकारने के स्थान पर अपना स्वयं के लिये
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और दूसरों का दूसरों के लिये स्वीकार करना ही उचित
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रहेगा।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
      
== विज्ञान ==
 
== विज्ञान ==
आज का युग विज्ञान और वैज्ञानिकता का है ऐसा
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इस विषय पर [[Dharmik Scientific Temperament and Modern Science (धार्मिक शोध दृष्टि एवं आधुनिक विज्ञान)|यह लेख]] भी देखें।
 
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बहुत उत्साह से कहा जाता है ।आज के युग का देवता ही
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विज्ञान है । बुद्धिमान और श्रेष्ठ लोग ही विज्ञान पढ़ते हैं
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ऐसी हवा है । इस संदर्भ में सांस्कृतिक दृष्टि से कुछ बातें
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विचारणीय हैं ।
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आज जिसे विज्ञान कहा जा रहा है वह भौतिक
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विज्ञान है। भारतीय संकल्पना के अनुसार केवल
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अन्ननरसमय और प्राणमय जगत को ही विज्ञान नाम दिया
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जाता है । यह एक अधूरी और अनुचित संकल्पना है ।
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वास्तव में विज्ञान का दायरा भौतिक विज्ञान से लेकर
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आत्मविज्ञान तक का है जिसमें मनोविज्ञान का भी समावेश
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हो जाता है ।
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०... वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि
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का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें
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तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ
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व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह
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वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की
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प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता
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है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की
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आवश्यकता है ।
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आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो
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सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का
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भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है,
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ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी
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निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता
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है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है
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और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती
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@ । इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति
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विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत
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मूलगामी परिवर्तन है ।
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फिर भी भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा
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बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है । अन्य सभी आयामों को
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बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ
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बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को
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अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए ।
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इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के
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समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना
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चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं
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हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है । उसके निकष
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अध्यात्म में ही हैं । यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी ।
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०... भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का
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आधार देना चाहिए । ऐसा करने से हमारे भौतिक
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विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है ।
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उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की
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संकल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण
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जुड़ जाएँगे । जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा ।
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प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही
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पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान,
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वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का. स्वरूप बदल
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जाएगा ।
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मन और मानसिक प्रक्रियाओं का भौतिक जगत पर
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क्या प्रभाव होता है इसका अध्ययन किए बिना
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भौतिक विज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन अधूरा ही
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रहेगा । उदाहरण के लिए अब इस तथ्य का स्वीकार
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होने लगा है कि जितने भी रोग होते हैं उनका उद्म
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मन में होता है और वे प्रकट शरीर में होते हैं । अत:
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उनका उपचार भी मन को ध्यान में लिए बिना नहीं
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हो सकता है ऐसा कहना वैज्ञानिक कथन ही होगा ।
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यदि इस विचार को प्रतिष्ठित किया तो चिकित्साशास्त्र
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का स्वरूप बहुत भारी मात्रा में बदल जाएगा ।
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मनुष्य के शरीर कि प्रक्रियाओं को चक्र प्रभावित
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करते हैं । ये प्राण के क्षेत्र हैं, केवल शरीर के नहीं ।
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साथ ही मानसिक प्रक्रियाओं का इन पर बहुत प्रभाव
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है । इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए ।
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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साथ ही भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की क्या
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उपलब्धि रही है इसका इतिहास तो वर्तमान संदर्भ
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ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का हिस्सा होना ही
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आज का युग विज्ञान और वैज्ञानिकता का है ऐसा बहुत उत्साह से कहा जाता है। आज के युग का देवता ही विज्ञान है। बुद्धिमान और श्रेष्ठ लोग ही विज्ञान पढ़ते हैं ऐसी हवा है । इस संदर्भ में सांस्कृतिक दृष्टि से कुछ बातें विचारणीय हैं । आज जिसे विज्ञान कहा जा रहा है वह भौतिक विज्ञान है। यह एक अधूरी और अनुचित संकल्पना है। भारतीय संकल्पना के अनुसार केवल अन्ननरसमय और प्राणमय जगत को ही विज्ञान नाम दिया जाता है ।
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चाहिए । कारण यह है कि आज भारत में और विश्व
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वास्तव में विज्ञान का दायरा भौतिक विज्ञान से लेकर आत्मविज्ञान तक का है जिसमें मनोविज्ञान का भी समावेश हो जाता है ।
 
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* वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की आवश्यकता है ।
में ऐसी समझ बनी है कि विज्ञान और वैज्ञानिक
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* आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती है। इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत मूलगामी परिवर्तन है ।
 
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* फिर भी भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है। अन्य सभी आयामों को बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए । इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है। उसके निकष अध्यात्म में ही हैं। यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी।
दृष्टिकोण पाश्चात्य जगत का ही विषय है, भारत तो
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* भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का आधार देना चाहिए। ऐसा करने से हमारे भौतिक विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है । उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की कल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण जुड़ जाएँगे। जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा।
 
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* प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का स्वरूप बदल जाएगा ।
ध्यान, भक्ति, भावना, कल्पना आदि की दुनिया में
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* मन और मानसिक प्रक्रियाओं का भौतिक जगत पर क्या प्रभाव होता है इसका अध्ययन किए बिना भौतिक विज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन अधूरा ही रहेगा । उदाहरण के लिए अब इस तथ्य का स्वीकार होने लगा है कि जितने भी रोग होते हैं उनका उद्गम मन में होता है और वे प्रकट शरीर में होते हैं । अत: उनका उपचार भी मन को ध्यान में लिए बिना नहीं हो सकता है ऐसा कहना वैज्ञानिक कथन ही होगा । यदि इस विचार को प्रतिष्ठित किया तो चिकित्साशास्त्र का स्वरूप बहुत भारी मात्रा में बदल जाएगा।
 
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* मनुष्य के शरीर की प्रक्रियाओं को चक्र प्रभावित करते हैं। ये प्राण के क्षेत्र हैं, केवल शरीर के नहीं । साथ ही मानसिक प्रक्रियाओं का इन पर बहुत प्रभाव है । इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए। साथ ही भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की क्या उपलब्धि रही है इसका इतिहास तो वर्तमान संदर्भ ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का हिस्सा होना ही चाहिए। कारण यह है कि आज भारत में और विश्व में ऐसी समझ बनी है कि विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पाश्चात्य जगत का ही विषय है, भारत तो ध्यान, भक्ति, भावना, कल्पना आदि की दुनिया में ही विहार करता है। भारत में साहित्य और कला की तो उपासना हो सकती है, विज्ञाननिष्ठा नहीं। इस भ्रांति को दूर करने हेतु पुरुषार्थ करने की महती आवश्यकता है।
ही विहार करता है । भारत में साहित्य और कला की
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* साथ ही भारत की विज्ञान के अध्ययन और अनुसन्धान की पद्धतियाँ क्या रही होंगी इसका भी अनुसन्धान आवश्यक है । उदाहरण के लिए आज के चिकित्साविज्ञान का विकास नहीं हुआ था तब भी भारत में शल्यचिकित्सा होती थी । दूसरा उदाहरण देखें तो मनुष्य के शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं यह हमारे ऋषियों ने कैसे जाना होगा यह विषय ज्ञातव्य है। इस प्रकार विज्ञान, वैज्ञानिकता और वैज्ञानिक पद्धतियों के बारे में नए से अनुसन्धान होने की आवश्यकता है ।
 
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तो उपासना हो सकती है, विज्ञाननिष्ठा नहीं । इस
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भ्रांति को दूर करने हेतु पुरुषार्थ करने की महती
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आवश्यकता है ।
      
== तंत्रज्ञान ==
 
== तंत्रज्ञान ==
विज्ञान की ही तरह तंत्रज्ञान का भूत भी हमारे
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[[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|इस लेख]] को भी देखें।
 
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मस्तिष्क पर सवार हो गया है। यंत्रों के नए नए
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आविष्कारों में ही हमारे सारे पुरुषार्थ की परिसीमा हमें
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लगती है । परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इस संदर्भ में कुछ इस
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प्रकार विचार करने की आवश्यकता है ।
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तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान के साथ
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जुड़ा हुआ नहीं । भौतिक विज्ञान का संबंध केवल
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यंत्र बनाने की पद्धति और वह काम कैसे करता है
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यह जानने के जितना सीमित है । यंत्रों का क्या
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करना यह तय करने का काम समाजशाख््र का है ।
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आज जिस टेकनोलोजी से हम प्रभावित हुए हैं वह है
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यंत्रों का प्रयोग करने का शास्त्र । इतिहास में देखें तो
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भारत में अद्भुत यंत्रसामग्री बनी है । इसकी जानकारी
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आज की दुनिया को देने की आवश्यकता है ।
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यंत्रों के उपयोग के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य
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बात यह है कि वह मनुष्य की सहायता के लिए होने
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चाहिए, मनुष्य के कष्ट कम करने के लिए होने
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चाहिए, मनुष्य का स्थान लेने वाले, उसकी काम
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करने की कुशलता कम करने वाले, उसका हुनर नष्ट
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साथ ही भारत की विज्ञान के
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विज्ञान की ही तरह तंत्रज्ञान का भूत भी हमारे मस्तिष्क पर सवार हो गया है। यंत्रों के नए नए आविष्कारों में ही हमारे सारे पुरुषार्थ की परिसीमा हमें लगती है । परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इस संदर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करने की आवश्यकता है।
 
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* तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान के साथ जुड़ा हुआ नहीं । भौतिक विज्ञान का संबंध केवल यंत्र बनाने की पद्धति और वह काम कैसे करता है यह जानने के जितना सीमित है । यंत्रों का क्या करना यह तय करने का काम समाजशास्त्र का है।
अध्ययन और अनुसन्धान की पद्धतियाँ क्या रही
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* आज जिस टेकनोलोजी से हम प्रभावित हुए हैं वह है यंत्रों का प्रयोग करने का शास्त्र। इतिहास में देखें तो भारत में अद्भुत यंत्रसामग्री बनी है। इसकी जानकारी आज की दुनिया को देने की आवश्यकता है।
 
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* यंत्रों के उपयोग के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह मनुष्य की सहायता के लिए होने चाहिए, मनुष्य के कष्ट कम करने के लिए होने चाहिए, मनुष्य का स्थान लेने वाले, उसकी काम करने की कुशलता कम करने वाले, उसका हुनर नष्ट करने वाले और उसकी काम करने की वृत्ति क्षीण कर उसे आलसी और निकम्मा बना देने के लिए नहीं हैं। आज ऐसा ही हो रहा है यह एक भारी चुनौती हमारे सामने है।
होंगी इसका भी अनुसन्धान आवश्यक है । उदाहरण
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* साथ ही यंत्रों के आविष्कार ने पर्यावरण को नष्ट करने वाले राक्षस का काम किया है । मनुष्य का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी नष्ट होता जा रहा है। अर्थतन्त्र को भयंकर रूप से विनाशक बना दिया है।
 
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* अर्थात्‌ यंत्र निर्जीव है, वह यह सब नहीं कर सकता है । उसका उपयोग करने वाली बुद्धि का स्वामी मनुष्य है । उसे ही ठीक करने की आवश्यकता है । इसीलिए  तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान का नहीं । मनुष्य की बुद्धि ठीक हो जाने के बाद जिस प्रकार की तकनीकी का विकास होगा उसके लिए भारत को नए से कुछ नहीं करना पड़ेगा क्योंकि इस क्षेत्र का भारत का इतिहास समृद्ध है ।
के लिए आज के चिकित्साविज्ञान का विकास नहीं
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हुआ था तब भी भारत में शल्यचिकित्सा होती थी ।
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दूसरा उदाहरण देखें तो मनुष्य के शरीर में बहत्तर
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हजार नाड़ियाँ हैं यह हमारे ऋषियों ने कैसे जाना
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होगा यह विषय ज्ञातव्य है
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इस प्रकार विज्ञान, वैज्ञानिकता और वैज्ञानिक
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पद्धतियों के बारे में नए से अनुसन्धान होने की
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आवश्यकता है ।
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करने वाले और उसकी काम करने की वृत्ति क्षीण
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कर उसे आलसी और निकम्मा बना देने के लिए नहीं
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हैं। आज ऐसा ही हो रहा है यह एक भारी चुनौती
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हमारे सामने है ।
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साथ ही यंत्रों के आविष्कार ने पर्यावरण को नष्ट
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करने वाले राक्षस का काम किया है । मनुष्य का
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शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी नष्ट होता जा
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रहा है । अर्थतन्त्र को भयंकर रूप से विनाशक बना
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दिया है ।
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अर्थात्‌ यंत्र निर्जीव है, वह यह सब नहीं कर सकता
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है । उसका उपयोग करने वाली बुद्धि का स्वामी
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मनुष्य है । उसे ही ठीक करने की आवश्यकता है ।
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इसीलिए  तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान
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का नहीं ।
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मनुष्य की बुद्धि ठीक हो जाने के बाद जिस प्रकार
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की तकनीकी का विकास होगा उसके लिए भारत को
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नए से कुछ नहीं करना पड़ेगा क्योंकि इस क्षेत्र का
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भारत का इतिहास समृद्ध है ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
      
== भाषा ==
 
== भाषा ==
मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के
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मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है फिर भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है।
 
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समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं
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की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता
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है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब
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से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता
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से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है।
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इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के
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समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति
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के लिये निकटतम होती है।
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जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर
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उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा
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पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है;
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क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था
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में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे
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अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार
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इंट्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इंट्रियाँ, मन,
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बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं।
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उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में
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ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ
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सकता है फिर भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप
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से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक
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अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह
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ग्रहण बिना किसी गलती का होता है।
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इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध
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भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क
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मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम
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सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है
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भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम
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है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी
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भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी
    
अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं
 
अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं

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