Line 416: |
Line 416: |
| मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है फिर भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है। | | मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है फिर भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है। |
| | | |
− | भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी | + | भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये उनकी भाषा भी नहीं होती। |
| | | |
− | अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं
| + | आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने। लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही उसकी परिभाषा बनी है। |
| | | |
− | कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती
| + | भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिछ्ठाना, हँसना, तरह तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण रूप से उच्चारण सीखता जाता है। |
| | | |
− | है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है।
| + | ''स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व.. वाक् और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार'' |
| | | |
− | मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये
| + | ''और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता. एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और'' |
| | | |
− | उनकी भाषा भी नहीं होती।
| + | ''है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका... परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर'' |
| | | |
− | 3.
| + | ''नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह... एकदूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह'' |
| | | |
− | आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक
| + | ''सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है। हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए'' |
| | | |
− | और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक | + | ''शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही'' |
| | | |
− | ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों
| + | ''शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य'' |
| | | |
− | को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके
| + | ''भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, .. यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और'' |
| | | |
− | अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने
| + | ''अर्थात् आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है।... अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना'' |
| | | |
− | जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने।
| + | ''उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नाद्स्वरूप है ऐसा उसका... होगा।'' |
| | | |
− | लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो
| + | ''अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण'' |
| | | |
− | नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से
| + | ''करने लगी वैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। 9:'' |
| | | |
− | होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही
| + | ''सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है 35। इसलिये वह भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना'' |
| | | |
− | उसकी परिभाषा बनी है।
| + | ''भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के... होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस'' |
| | | |
− | रे,
| + | ''विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस. किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ'' |
| | | |
− | भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह
| + | ''सम्बन्ध का कभी विच्छेद् नहीं हो सकता। एक बात... है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश।'' |
| | | |
− | भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु
| + | ''समझने योग्य है कि 3 अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि... इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश'' |
| | | |
− | बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण
| + | ''नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप... सूक्ष्मतम है अर्थात् व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को'' |
| | | |
− | करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह
| + | ''उसमें से निःसृत हुए हैं। भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है'' |
| | | |
− | भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप
| + | ''इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति'' |
| | | |
− | संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है।
| + | ''दे करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है।'' |
| | | |
− | शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र
| + | ''व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके... भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है'' |
| | | |
− | पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना
| + | ''दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्के के दो पहलू जैसे जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात् नाश नहीं होता।'' |
| | | |
− | सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका
| + | ''हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं... अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की'' |
| | | |
− | अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिछ्ठाना, हँसना, तरह
| + | ''शब्द और अर्थ। शब्द है वाकू अर्थात् वाणी अर्थात् ध्वनि... लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए'' |
| | | |
− | तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व
| + | ''और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन. उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का'' |
| | | |
− | तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण
| + | ''में विचार, भावनायें, इच्छायें, अपेक्षायें, deh, AAA, सम्बन्ध वाकू नाम की कर्मेन्ट्रिय से है। ध्वनि शब्द है'' |
| | | |
− | रूप से उच्चारण सीखता जाता है। | + | ''संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप... इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्ट्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और'' |
| | | |
− | ............. page-293 ............. | + | ''प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ. वागीन्ट्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और'' |
| | | |
− | पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
| + | ''अर्थात् अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह... बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध'' |
| | | |
− | स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व.. वाक् और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार
| + | ''दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के... से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।'' |
| | | |
− | और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता. एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और
| + | ''&,'' |
| | | |
− | है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका... परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर | + | ''सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा'' |
| | | |
− | नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह... एकदूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह
| + | ''वागर्थाविव सम्पूक्ती वागर्थप्रतिपत्तये । मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम'' |
| | | |
− | सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है। हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए
| + | ''जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी ।। (रघुवंश १-१) बनती है।'' |
| | | |
− | शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही
| + | ''अर्थात् वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण'' |
| | | |
− | शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य
| + | ''२७७'' |
− | | |
− | भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, .. यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और
| |
− | | |
− | अर्थात् आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है।... अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना
| |
− | | |
− | उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नाद्स्वरूप है ऐसा उसका... होगा।
| |
− | | |
− | अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण
| |
− | | |
− | करने लगी वैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। 9:
| |
− | | |
− | सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है 35। इसलिये वह भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना
| |
− | | |
− | भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के... होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस
| |
− | | |
− | विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस. किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ
| |
− | | |
− | सम्बन्ध का कभी विच्छेद् नहीं हो सकता। एक बात... है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश।
| |
− | | |
− | समझने योग्य है कि 3 अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि... इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश
| |
− | | |
− | नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप... सूक्ष्मतम है अर्थात् व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को
| |
− | | |
− | उसमें से निःसृत हुए हैं। भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है
| |
− | | |
− | इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति
| |
− | | |
− | दे करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है।
| |
− | | |
− | व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके... भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है
| |
− | | |
− | दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्के के दो पहलू जैसे जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात् नाश नहीं होता।
| |
− | | |
− | हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं... अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की
| |
− | | |
− | शब्द और अर्थ। शब्द है वाकू अर्थात् वाणी अर्थात् ध्वनि... लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए
| |
− | | |
− | और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन. उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का
| |
− | | |
− | में विचार, भावनायें, इच्छायें, अपेक्षायें, deh, AAA, सम्बन्ध वाकू नाम की कर्मेन्ट्रिय से है। ध्वनि शब्द है
| |
− | | |
− | संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप... इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्ट्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और
| |
− | | |
− | प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ. वागीन्ट्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और
| |
− | | |
− | अर्थात् अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह... बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध
| |
− | | |
− | दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के... से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।
| |
− | | |
− | &,
| |
− | | |
− | सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा
| |
− | | |
− | वागर्थाविव सम्पूक्ती वागर्थप्रतिपत्तये । मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम
| |
− | | |
− | जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी ।। (रघुवंश १-१) बनती है।
| |
− | | |
− | अर्थात् वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण
| |
− | | |
− | २७७ | |
| | | |
| ............. page-294 ............. | | ............. page-294 ............. |
| | | |
− | है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक | + | है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति, बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण अशुद्ध होता है। अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से भाषा प्रभावी बनती है। |
− | | |
− | होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति, | |
− | | |
− | बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त | |
− | | |
− | आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल | |
− | | |
− | होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट | |
− | | |
− | नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण | |
− | | |
− | अशुद्ध होता है। | |
− | | |
− | अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से | |
− | | |
− | भाषा प्रभावी बनती है। | |
− | | |
− | ८
| |
− | | |
− | ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के
| |
− | | |
− | भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के
| |
− | | |
− | साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है।
| |
− | | |
− | अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव
| |
− | | |
− | अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध
| |
− | | |
− | मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के
| |
− | | |
− | साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का
| |
− | | |
− | सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है,
| |
− | | |
− | अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ
| |
− | | |
− | सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है
| |
− | | |
− | यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म
| |
− | | |
− | बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न
| |
− | | |
− | बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर
| |
− | | |
− | शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं।
| |
− | | |
− | इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं,
| |
− | | |
− | भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का
| |
− | | |
− | सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही
| |
− | | |
− | वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी
| |
− | | |
− | सम्बन्ध बनाता है।
| |
− | | |
− | 8.
| |
− | | |
− | भाषा की मूल इकाई अक्षर है परन्तु इसकी व्याप्ति
| |
− | | |
− | सम्पूर्ण जीवन है। सम्पूर्ण जीवनरूपी भवन की एक एक ईट
| |
− | | |
− | अक्षर है। इस अक्षर के भिन्न भिन्न पदार्थों के साथ जुड़ने के
| |
− | | |
− | २७८
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| |
− | | |
− | कारण अनेक रूप बनते हैं। इसलिये अक्षरों के उच्चारण का
| |
− | | |
− | बहुत बड़ा शास्त्र बना है। उस शास्त्र को शिक्षा कहा गया
| |
− | | |
− | है। आज हम अंग्रेजी शब्द एज्यूकेशन को शिक्षा कहते हैं
| |
− | | |
− | उस अर्थ में यह शिक्षा नहीं है। वेद के जो छः अंग हैं उनमें
| |
− | | |
− | एक अंग शिक्षा है। वह उच्चारणशास्त्र है। अनेक विद्वानों
| |
− | | |
− | के शिक्षाग्रन्थ उपलब्ध हैं यथा पाणिनीय शिक्षा,
| |
− | | |
− | याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि। इन ग्रन्थों में अक्षर के विभिन्न रूप
| |
− | | |
− | और उनके उच्चारण की पद्धति का विस्तारपूर्वक निरूपण
| |
− | | |
− | किया गया है।
| |
− | | |
− | Ro.
| |
− | | |
− | जिस प्रकार अव्यक्त ब्रह्म व्यक्त रूप धारण करता है
| |
− | | |
− | तब वह अनेक रूपों से युक्त विश्वरूप धारण करता है, उसी
| |
− | | |
− | प्रकार शब्द भी अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण करता है। यह
| |
− | | |
− | एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के चार चरण हैं। अक्षर के या
| |
− | | |
− | वाकू के, या शब्द के, या वाणी के चार रूप हैं। परा,
| |
− | | |
− | पश्यन्ति, मध्यमा और dat! परावाणी का ब्रह्मरूप है।
| |
− | | |
− | इस स्तर पर वह नादब्रह्म है। पश्यन्ति वाणी का मूल
| |
− | | |
− | व्यक्तरूप है जिसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। इस
| |
− | | |
− | स्तर पर शब्द संकल्पना का रूप धारण करता है। तीसरा
| |
− | | |
− | मध्यमा वाणी का भाव रूप है। इसका सम्बन्ध अनाहत
| |
− | | |
− | चक्र से है जो हृदयस्थान भी है। चौथा वैखरी रूप पूर्ण
| |
− | | |
− | व्यक्त रूप है। यह श्रवणेन्द्रिय को सुनाई देता है। वेद का
| |
− | | |
− | अंग शिक्षा परा वाणी को वैखरी तक लाने की प्रक्रिया
| |
− | | |
− | सिखाने वाला शास्त्र है।
| |
− | | |
− | भाषा के चार कौशल गिनाये जाते हैं। ये हैं श्रवण,
| |
− | | |
− | भाषण, पठन और लेखन। इनमें मूल श्रवण और भाषण हैं।
| |
− | | |
− | पठन और लेखन वाचिक स्वरूप का वर्ण रूप में रूपान्तरण
| |
− | | |
− | है। श्रवण दूसरे के भाषण का अनुसरण करता है और पठन
| |
− | | |
− | दूसरे के लेखन का अनुसरण करता है। अतः: भाषा कभी भी
| |
− | | |
− | अकेले में नहीं सीखी जाती, दो मिलकर ही सीखी जाती है।
| |
− | | |
− | अत: भाषा सीखने में सिखाने वाले की भूमिका बहुत
| |
− | | |
− | महत्त्वपूर्ण रहती है।
| |
− | | |
− | ............. page-295 .............
| |
− | | |
− | पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
| |
− | | |
− | श्श्,
| |
− | | |
− | भाषा का दूसरा अंग है पद । पद को शब्द भी कहा
| |
− | | |
− | जाता है। यहाँ शब्द का अर्थ केवल ध्वनि नहीं है, ध्वनि के
| |
− | | |
− | उपरान्त कुछ और भी है। ध्वनिरूप अक्षरों के साथ जब
| |
− | | |
− | जीवन में व्याप्त अर्थ जुड़ता है तब वह ध्वनिसमूह पद
| |
− | | |
− | बनता है। पदों की रचना का भी एक बहुत विस्तृत शास्त्र
| |
− | | |
− | है। पदों की स्वना को व्युत्पत्ति कहते हैं और व्युत्पत्ति के
| |
− | | |
− | शास्त्र को निरूक्त कहते हैं। पद एक व्यवस्था तो है परन्तु
| |
− | | |
− | वह अनुरणन, आकार, क्रिया आदि अनेक बातों से सम्बन्ध
| |
− | | |
− | रखने वाली व्यवस्था है। वह कृत्रिम व्यवस्था नहीं है। एक
| |
− | | |
− | दो उदाहरण सहायक होंगे। 'हृदय' पद तीन क्रियाओं का
| |
− | | |
− | वाचक है। आहरति अर्थात् लाता है का “ह', ददाति अर्थात
| |
− | | |
− | देता है का 'द' और यमयति अर्थात् नियमन करता है का
| |
− | | |
− | <nowiki>*</nowiki>य' ऐसे तीन अक्षरों से हृदय पद बना है। ये तीनों हृदय के
| |
− | | |
− | कार्य हैं। इस प्रकार पदों की निश्चिति भी जीवन के साथ
| |
− | | |
− | सम्बन्ध जोड़कर होती है।
| |
− | | |
− | 82.
| |
− | | |
− | पदों को जोड़ जोड़ कर वाक्य बनता है। कहने का
| |
− | | |
− | आशय व्यक्त करने के लिये जो व्यवस्था की गई है वह
| |
− | | |
− | व्याकरण कहलाती है। व्याकरणशास्त्र भी बहुत विस्तृत
| |
− | | |
− | शास्त्र है। इस शास्त्र की मूल इकाई वाक्य है। अनेक
| |
− | | |
− | ara से फिर अनुच्छेद बनता है। अनुच्छेदों की स्वना
| |
− | | |
− | आशय को ध्यान में रखकर ही होती है।
| |
− | | |
− | भाषा का व्याकरण भी शिशु अवस्था में ही अवगत
| |
− | | |
− | हो जाता है। उसका रूप क्रियात्मक होता है, शास्त्रीय नहीं।
| |
− | | |
− | भाषा प्रयोग के समय अंगविन्यास भी महत्त्वपूर्ण है।
| |
− | | |
− | अंगविन्यास भी शिशु अधिकांश देखकर और कुछ मात्रा में
| |
− | | |
− | बोलने की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में सीख लेता है।
| |
− | | |
− | जब तक भाषा का अनुभव जीवनक्रम के साथ
| |
− | | |
− | स्वाभाविक रूप में जुड़ा रहता है तब तक सीखना अनायास
| |
− | | |
− | होता है, अर्थात् आवश्यकता के अनुसार भाषा अवगत
| |
− | | |
− | होती रहती है। परन्तु जब औपचारिक शिक्षा शुरू होती है
| |
− | | |
− | भाषा की शिक्षा कुछ मात्रा में कृत्रिम होती जाती है।
| |
− | | |
− | २७९
| |
− | | |
− | जीवन के समस्त पहलुओं को शब्दों में व्यक्त करने
| |
− | | |
− | का साधन भाषा है। जीवन में घटनायें होती हैं, स्थितियाँ
| |
− | | |
− | होती हैं, सजीव निर्जीव पदार्थ होते हैं, व्यवस्थायें होती हैं,
| |
− | | |
− | मनोभाव होते हैं, संवेग और आवेग होते हैं, विचार होते
| |
− | | |
− | हैं, संस्कार होते हैं। इस सूचि को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न
| |
− | | |
− | भिन्न पद्धति से बना सकते हैं। संक्षेप में यह ऐसा सबकुछ है
| |
− | | |
− | जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिगत जीवन में
| |
− | | |
− | होता है। भाषा इन सभी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। इस
| |
− | | |
− | प्रकार भाषा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है।
| |
− | | |
− | RY.
| |
− | | |
− | देखा तो यह गया है कि जीवन का अनुभव जितना
| |
− | | |
− | व्यापक और गहरा होता है, अर्थ का बोध उतनी ही मात्रा
| |
− | | |
− | में गहरा होता है । भाषा अपने आप उसे व्यक्त करने योग्य
| |
− | | |
− | हो जाती है। महाराष्ट्र की बहिणाबाई और सन्त कबीर जैसे
| |
− | | |
− | कवि अशिक्षित थे परन्तु उनकी भाषा उनके अनुभव को
| |
− | | |
− | व्यक्त करने में समर्थ थी। तात्पर्य यह है कि भाषा जीवन के
| |
− | | |
− | बोध का अनुसरण करती है, शब्द रूप साधन की समृद्धि
| |
− | | |
− | का नहीं। बिना अनुभव के अलंकूृत शब्द निररर्थकता का
| |
− | | |
− | आभास करवाते ही हैं।
| |
− | | |
− | gu,
| |
− | | |
− | जितने भी प्रकार के अभिव्यक्ति के माध्यम हैं उनमें
| |
− | | |
− | भाषा श्रेष्ठतम है। उदाहरण के लिये चित्र, संगीत, अभिनय
| |
− | | |
− | आदि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं परन्तु भाषा उन सबसे श्रेष्ठ
| |
| | | |
− | है। कारण यह है कि वह नादबव्रह्म का आविष्कार है, अपने | + | ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है। अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है, अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं। इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध बनाता है। |
| | | |
− | भौतिक स्वरूप में भी वह सूक्ष्मतम है और उसमें अनंत
| + | भाषा की मूल इकाई अक्षर है परन्तु इसकी व्याप्ति सम्पूर्ण जीवन है। सम्पूर्ण जीवनरूपी भवन की एक एक ईंट अक्षर है। इस अक्षर के भिन्न भिन्न पदार्थों के साथ जुड़ने के कारण अनेक रूप बनते हैं। इसलिये अक्षरों के उच्चारण का बहुत बड़ा शास्त्र बना है। उस शास्त्र को शिक्षा कहा गया है। आज हम अंग्रेजी शब्द एज्यूकेशन को शिक्षा कहते हैं उस अर्थ में यह शिक्षा नहीं है। वेद के जो छः अंग हैं उनमें एक अंग शिक्षा है। वह उच्चारणशास्त्र है। अनेक विद्वानों के शिक्षाग्रन्थ उपलब्ध हैं यथा पाणिनीय शिक्षा, याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि। इन ग्रन्थों में अक्षर के विभिन्न रूप और उनके उच्चारण की पद्धति का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है। |
| | | |
− | सृजनशीलता है। समाधि अवस्था के अनुभव की
| + | जिस प्रकार अव्यक्त ब्रह्म व्यक्त रूप धारण करता है तब वह अनेक रूपों से युक्त विश्वरूप धारण करता है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण करता है। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के चार चरण हैं। अक्षर के या वाकू के, या शब्द के, या वाणी के चार रूप हैं। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। परा वाणी का ब्रह्मरूप है। इस स्तर पर वह नादब्रह्म है। पश्यन्ति वाणी का मूल व्यक्त रूप है जिसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। इस स्तर पर शब्द संकल्पना का रूप धारण करता है। तीसरा मध्यमा वाणी का भाव रूप है। इसका सम्बन्ध अनाहत चक्र से है जो हृदयस्थान भी है। चौथा वैखरी रूप पूर्ण व्यक्त रूप है। यह श्रवणेन्द्रिय को सुनाई देता है। वेद का अंग शिक्षा परा वाणी को वैखरी तक लाने की प्रक्रिया सिखाने वाला शास्त्र है। |
| | | |
− | अभिव्यक्ति के समय वह मंत्र रूप में प्रकट होती है।
| + | भाषा के चार कौशल गिनाये जाते हैं। ये हैं श्रवण, भाषण, पठन और लेखन। इनमें मूल श्रवण और भाषण हैं। पठन और लेखन वाचिक स्वरूप का वर्ण रूप में रूपान्तरण है। श्रवण दूसरे के भाषण का अनुसरण करता है और पठन दूसरे के लेखन का अनुसरण करता है। अतः: भाषा कभी भी अकेले में नहीं सीखी जाती, दो मिलकर ही सीखी जाती है। अत: भाषा सीखने में सिखाने वाले की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है। |
| | | |
− | श्दद्,
| + | भाषा का दूसरा अंग है पद । पद को शब्द भी कहा जाता है। यहाँ शब्द का अर्थ केवल ध्वनि नहीं है, ध्वनि के उपरान्त कुछ और भी है। ध्वनिरूप अक्षरों के साथ जब जीवन में व्याप्त अर्थ जुड़ता है तब वह ध्वनिसमूह पद बनता है। पदों की रचना का भी एक बहुत विस्तृत शास्त्र है। पदों की स्वना को व्युत्पत्ति कहते हैं और व्युत्पत्ति के शास्त्र को निरूक्त कहते हैं। पद एक व्यवस्था तो है परन्तु वह अनुरणन, आकार, क्रिया आदि अनेक बातों से सम्बन्ध रखने वाली व्यवस्था है। वह कृत्रिम व्यवस्था नहीं है। एक दो उदाहरण सहायक होंगे। 'हृदय' पद तीन क्रियाओं का वाचक है। आहरति अर्थात् लाता है का "ह", ददाति अर्थात देता है का "द" और यमयति अर्थात् नियमन करता है का "य" ऐसे तीन अक्षरों से हृदय पद बना है। ये तीनों हृदय के कार्य हैं। इस प्रकार पदों की निश्चिति भी जीवन के साथ सम्बन्ध जोड़कर होती है। |
| | | |
− | इतनी विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा के साथ
| + | पदों को जोड़ जोड़ कर वाक्य बनता है। कहने का आशय व्यक्त करने के लिये जो व्यवस्था की गई है वह व्याकरण कहलाती है। व्याकरणशास्त्र भी बहुत विस्तृत शास्त्र है। इस शास्त्र की मूल इकाई वाक्य है। अनेक वाक्यों से फिर अनुच्छेद बनता है। अनुच्छेदों की रचना आशय को ध्यान में रखकर ही होती है। भाषा का व्याकरण भी शिशु अवस्था में ही अवगत हो जाता है। उसका रूप क्रियात्मक होता है, शास्त्रीय नहीं। भाषा प्रयोग के समय अंगविन्यास भी महत्त्वपूर्ण है। अंगविन्यास भी शिशु अधिकांश देखकर और कुछ मात्रा में बोलने की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में सीख लेता है। जब तक भाषा का अनुभव जीवनक्रम के साथ स्वाभाविक रूप में जुड़ा रहता है तब तक सीखना अनायास होता है, अर्थात् आवश्यकता के अनुसार भाषा अवगत होती रहती है। परन्तु जब औपचारिक शिक्षा शुरू होती है भाषा की शिक्षा कुछ मात्रा में कृत्रिम होती जाती है। |
| | | |
− | उच्चारणशास्त्र, _ व्युत्पत्तिशास्त्र, _ व्याकरणशास्त्र और
| + | जीवन के समस्त पहलुओं को शब्दों में व्यक्त करने का साधन भाषा है। जीवन में घटनायें होती हैं, स्थितियाँ होती हैं, सजीव निर्जीव पदार्थ होते हैं, व्यवस्थायें होती हैं, मनोभाव होते हैं, संवेग और आवेग होते हैं, विचार होते हैं, संस्कार होते हैं। इस सूचि को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न भिन्न पद्धति से बना सकते हैं। संक्षेप में यह ऐसा सबकुछ है जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिगत जीवन में होता है। भाषा इन सभी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। इस प्रकार भाषा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। |
| | | |
− | अलंकारशास्त्र जुड़ हुए हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द और
| + | देखा तो यह गया है कि जीवन का अनुभव जितना व्यापक और गहरा होता है, अर्थ का बोध उतनी ही मात्रा में गहरा होता है । भाषा अपने आप उसे व्यक्त करने योग्य हो जाती है। महाराष्ट्र की बहिणाबाई और सन्त कबीर जैसे कवि अशिक्षित थे परन्तु उनकी भाषा उनके अनुभव को व्यक्त करने में समर्थ थी। तात्पर्य यह है कि भाषा जीवन के बोध का अनुसरण करती है, शब्द रूप साधन की समृद्धि का नहीं। बिना अनुभव के अलंकूृत शब्द निररर्थकता का आभास करवाते ही हैं। |
| | | |
− | ............. page-296 .............
| + | जितने भी प्रकार के अभिव्यक्ति के माध्यम हैं उनमें भाषा श्रेष्ठतम है। उदाहरण के लिये चित्र, संगीत, अभिनय आदि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं परन्तु भाषा उन सबसे श्रेष्ठ है। कारण यह है कि वह नादबव्रह्म का आविष्कार है, अपने भौतिक स्वरूप में भी वह सूक्ष्मतम है और उसमें अनंत सृजनशीलता है। समाधि अवस्था के अनुभव की अभिव्यक्ति के समय वह मंत्र रूप में प्रकट होती है। |
| | | |
− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| + | इतनी विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा के साथ उच्चारणशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, व्याकरणशास्त्र और अलंकारशास्त्र जुड़े हुए हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द और अलंकार |
| | | |
− | अलंकार तथा उनके विनियोग के... भाषा के पठन पाठन में इन बातों की ओर ध्यान देना
| + | ''तथा उनके विनियोग के... भाषा के पठन पाठन में इन बातों की ओर ध्यान देना'' |
| | | |
− | कारण निष्पन्न होने वाली शैली अलंकारशास्त्र का विषय है।... आवश्यक है। | + | ''कारण निष्पन्न होने वाली शैली अलंकारशास्त्र का विषय है।... आवश्यक है।'' |
| | | |
− | सन्धि उच्चारणशास्त्र का अंग है, समास शब्दरचना से | + | ''सन्धि उच्चारणशास्त्र का अंग है, समास शब्दरचना से'' |
| | | |
− | सम्बन्धित विषय है, पदलालित्य, अर्थगौरव भी शैली के ही ८, | + | ''सम्बन्धित विषय है, पदलालित्य, अर्थगौरव भी शैली के ही ८,'' |
| | | |
− | अंग हैं। दुन्यवी सन्दर्भ में व्यापक वाचन शब्दसंपत्ति बढ़ाने में | + | ''अंग हैं। दुन्यवी सन्दर्भ में व्यापक वाचन शब्दसंपत्ति बढ़ाने में'' |
| | | |
− | उपयोगी है, व्याकरण का अध्ययन शुद्ध भाषा के लिये | + | ''उपयोगी है, व्याकरण का अध्ययन शुद्ध भाषा के लिये'' |
| | | |
− | उपयोगी है, अलंकारशास्त्र का अध्ययन शैली का विकास | + | ''उपयोगी है, अलंकारशास्त्र का अध्ययन शैली का विकास'' |
| | | |
− | शुद्ध भाषा, मधुर भाषा, ललित भाषा, प्रभावी. करने में उपयोगी होता है, व्याकरण ak fen a | + | ''शुद्ध भाषा, मधुर भाषा, ललित भाषा, प्रभावी. करने में उपयोगी होता है, व्याकरण ak fen a'' |
| | | |
− | भाषा, सार्थक भाषा, भावपूर्ण भाषा आदि भाषा को... अध्ययन शुद्धता और अर्थवाहिता हेतु उपयोगी है, काव्य | + | ''भाषा, सार्थक भाषा, भावपूर्ण भाषा आदि भाषा को... अध्ययन शुद्धता और अर्थवाहिता हेतु उपयोगी है, काव्य'' |
| | | |
− | शोभायमान बनाने वाले पहलू हैं। बुद्धि, मन, चित्त आदि... का अध्ययन सृजनशीलता के लिये उपयोगी है। परन्तु यदि | + | ''शोभायमान बनाने वाले पहलू हैं। बुद्धि, मन, चित्त आदि... का अध्ययन सृजनशीलता के लिये उपयोगी है। परन्तु यदि'' |
| | | |
− | अन्तःकरण और हृदय भाषा को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण. जीवन के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं है तो यह सारा | + | ''अन्तःकरण और हृदय भाषा को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण. जीवन के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं है तो यह सारा'' |
| | | |
− | Ro. | + | ''Ro.'' |
| | | |
− | योगदान देते हैं। अध्ययन बिना एक के शून्य जैसा है। | + | ''योगदान देते हैं। अध्ययन बिना एक के शून्य जैसा है।'' |
| | | |
− | संगीत भाषा की मधुरता के लिये अत्यन्त भाषा सिखाने के लिये मूल से प्रारम्भ करना चाहिये। | + | ''संगीत भाषा की मधुरता के लिये अत्यन्त भाषा सिखाने के लिये मूल से प्रारम्भ करना चाहिये।'' |
| | | |
− | उपकारक है। सीधा व्याकरण पढ़ना या केवल चार कौशलों पर ध्यान | + | ''उपकारक है। सीधा व्याकरण पढ़ना या केवल चार कौशलों पर ध्यान'' |
| | | |
− | जीवन का घनिष्ठतम अनुभव भाषा को समृद्ध बनाता... केन्द्रित करना या प्रश्नोत्तर के स्वाध्याय करवाना बहुत | + | ''जीवन का घनिष्ठतम अनुभव भाषा को समृद्ध बनाता... केन्द्रित करना या प्रश्नोत्तर के स्वाध्याय करवाना बहुत'' |
| | | |
− | है। ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता, मन की शान्ति, बुद्धि की... सार्थक सिद्ध नहीं होता है। भाषा सभी आधारभूत विषयों | + | ''है। ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता, मन की शान्ति, बुद्धि की... सार्थक सिद्ध नहीं होता है। भाषा सभी आधारभूत विषयों'' |
| | | |
− | तेजस्विता और चित्तशुद्धि जीवन के घनिष्ठतम अनुभव हेतु. का आधारभूत विषय है। उसका महत्त्व समझकर उसके | + | ''तेजस्विता और चित्तशुद्धि जीवन के घनिष्ठतम अनुभव हेतु. का आधारभूत विषय है। उसका महत्त्व समझकर उसके'' |
| | | |
− | आवश्यक हैं। जीवन में रुचि होना भाषा को सार्थक बनाता... अध्ययन अध्यापन की योजना करनी चाहिये। | + | ''आवश्यक हैं। जीवन में रुचि होना भाषा को सार्थक बनाता... अध्ययन अध्यापन की योजना करनी चाहिये।'' |
| | | |
− | है। पंचमहाभूतों के साथ आत्मीयता, वनस्पति और | + | ''है। पंचमहाभूतों के साथ आत्मीयता, वनस्पति और'' |
| | | |
− | प्राणिजगत के प्रति स्नेह और मनुष्यों के प्रति सद्भाव १९. | + | ''प्राणिजगत के प्रति स्नेह और मनुष्यों के प्रति सद्भाव १९.'' |
| | | |
− | जीवन का सार्थक अनुभव प्रदान करते हैं। भाषा इसका सृष्टि की अनन्त असीम विविधताओं को मनुष्य | + | ''जीवन का सार्थक अनुभव प्रदान करते हैं। भाषा इसका सृष्टि की अनन्त असीम विविधताओं को मनुष्य'' |
| | | |
− | अनुसरण करती है। व्यावहारिक प्रयोजन के लिये व्यवस्था में बाँधता है। ऐसा | + | ''अनुसरण करती है। व्यावहारिक प्रयोजन के लिये व्यवस्था में बाँधता है। ऐसा'' |
| | | |
− | भाषा सीखने का अर्थ है ये सारी बातें सीखना। भाषा... करते समय वह मूल के साथ कितना निष्ठावान रहता है | + | ''भाषा सीखने का अर्थ है ये सारी बातें सीखना। भाषा... करते समय वह मूल के साथ कितना निष्ठावान रहता है'' |
| | | |
− | केवल श्रवण, भाषण, पठन और लेखन के ale dH उसके ऊपर उस व्यवस्था की शुद्धि का आधार होता है। | + | ''केवल श्रवण, भाषण, पठन और लेखन के ale dH उसके ऊपर उस व्यवस्था की शुद्धि का आधार होता है।'' |
| | | |
− | सीमित नहीं है। शुद्ध, मधुर, प्राणवान और अर्थपूर्ण अतः व्यवस्था बनाते समय इस मूल को समझना अनिवार्य | + | ''सीमित नहीं है। शुद्ध, मधुर, प्राणवान और अर्थपूर्ण अतः व्यवस्था बनाते समय इस मूल को समझना अनिवार्य'' |
| | | |
− | उच्चारण, शास्त्रशुद्ध व्याकरण, आशय के अनुरूप शैली. रूप से आवश्यक होता है। भाषा के सम्बन्ध में भी यही | + | ''उच्चारण, शास्त्रशुद्ध व्याकरण, आशय के अनुरूप शैली. रूप से आवश्यक होता है। भाषा के सम्बन्ध में भी यही'' |
| | | |
− | और परावाणी से अनुस्यूत वैखरी भाषाप्रभुत्व के लक्षण हैं। . सत्य है। | + | ''और परावाणी से अनुस्यूत वैखरी भाषाप्रभुत्व के लक्षण हैं। . सत्य है।'' |
| | | |
− | == उपसंहार == | + | == ''उपसंहार'' == |
− | यहाँ कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है। हर विषय के बारे में इस प्रकार से विचार करना | + | ''यहाँ कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है। हर विषय के बारे में इस प्रकार से विचार करना'' |
| | | |
− | चाहिए । भारतीय ज्ञानधारा को परिष्कृत कर विश्वकल्याण हेतु उसे पुनर्प्रवाहित करने हेतु भारतीय ज्ञानक्षेत्र को महती | + | ''चाहिए । भारतीय ज्ञानधारा को परिष्कृत कर विश्वकल्याण हेतु उसे पुनर्प्रवाहित करने हेतु भारतीय ज्ञानक्षेत्र को महती'' |
| | | |
− | ज्ञानसाधना करने की आवश्यकता है इतना ही कहना प्राप्त है । | + | ''ज्ञानसाधना करने की आवश्यकता है इतना ही कहना प्राप्त है ।'' |
| | | |
− | २८० | + | ''२८०'' |
| | | |
| ==References== | | ==References== |