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पुस्तक-कॉपी और कपड़े।
 
पुस्तक-कॉपी और कपड़े।
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हम बैठे हैं इनको पकड़े।
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बिन पैसे के है सब आधा,
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करो जतन पायो ज्यादा।
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समय बना है मूल्यवान,
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इसका रखो सदा ध्यान ।
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शब्द के तीर कभी मत छोडो,
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मीठा बोलो शहद घोलो।
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अवसर कभी न जाने दो,
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जीवन में खुशियाँ आने दो।
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ये हैं जीवन का आधार,
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इन्हें बचाओ बेड़ा पार ।
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=== स्वायत्तता और अर्थक्षेत्र का प्रबोधन ===
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==== '''अर्थनिष्ठ नहीं, धर्मनिष्ठ समाजव्यवस्था''' ====
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अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था में अर्थ का स्थान सर्वोपरि होगा । यह तो बिना कहे समज में आनी चाहिये ऐसी बात है। अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था केवल भौतिक समृद्धि की ही प्रतिष्ठा करती है ऐसा नहीं है या समाज की भौतिक समृद्धि में ही वृद्धि करती है ऐसा नहीं है । भौतिक समृद्धि में सही अर्थ में वृद्धि तो जब धर्म के अविरोधि अर्थक्षेत्र होता है तब होती है। अर्थनिष्ठ समाज व्यवस्था में व्यक्ति समृद्ध होते हैं और समाज दरिद्र होता है यह एक बात है परन्तु इससे भी अधिक अनिष्ट यह है कि सारी व्यवस्था बाजार बन जाती है और सारी अच्छी बातें बिकाऊ बन जाती हैं। जिस प्रकार यान्त्रिक शिक्षाव्यवस्था में सबकुछ अंकों में रूपान्तरित कर ही मूल्यांकन होता है उस प्रकार अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था में सबकुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है ।
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भारत में धर्मनिष्ठ समाज व्यवस्था थी तब भूमि धन थी, गाय धन थी, हाथी, अश्व आदि पशु भी धन थे, विद्या भी धन थी और सन्तोष भी धन ही था किसान के बेटे भी उसके लिये धन ही थे । परन्तु इनका मूल्य सिक्कों में नहीं आँका जाता था। उस समय की अर्थव्यवस्था अलग मानकों पर आधारित थी। आज समाजव्यवस्था अर्थनिष्ठ बन जाने के कारण पुरस्कार भी पैसे में दिया जाता है और नुकसान भरपाई भी पैसे से ही की जाती है। विवाहविच्छेद की नुकसानभरपाई भी पैसे से होती है और दुर्घटना में मृत्यु की भी पैसे से । परीक्षा में प्रथम क्रमांक प्राप्त करने पर पैसे अथवा पैसे से खरीदी जाने वाली वस्तु मिलती है और अच्छा गाने वाले को भी पैसे से नवाजा जाता है । मन्दिर में दर्शन और प्रसाद भी पैसे से मिलते हैं और पूजा करने का भाग्य भी पैसे से प्राप्त होता है। विद्यालयों में प्रवेश भी पैसे से मिलता है और अधिक पैसा कमाकर देने वाले विषयों का शुल्क अधिक होता है।
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संक्षेप में अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था में बाजार का ही साम्राज्य होता है।
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अर्थ की इस प्रतिष्ठा को जब तक धराशायी नहीं करेंगे और उसे धर्म के शरण में नहीं लायेंगे तब तक शिक्षा भी अर्थनिरपेक्ष नहीं बन सकती।
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अर्थ की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद उसे समझाना बहुत कठिन बात है। सुभाषित कहता है, 'अर्थातुराणां न गुरुन बन्धुः' अर्थात् जिसके मनमस्तिष्क पर अर्थ सवार हो गया है वह उसके लिये न कोई गुरु है न कोई स्वजन फिर अर्थ को वश में कैसे किया जा सकता है ? जीवननिर्वाह के लिये अर्थ तो चाहिये । उसके लिये बेचने के लिये बिना । विद्या के कुछ है ही नहीं तो क्या करेंगे ? बेचने के लिये बुद्धि ही है तो क्या करेंगे?
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==== '''ईश्वरप्रदत्त सम्पत्ति का बिकाऊ होना''' ====
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मनुष्य की व्यक्तिगत रूप से ईश्वरप्रदत्त सम्पत्ति कौनसी है ? प्रथम तो शरीर है । फिर मन है, बुद्धि है, अहंकार है। ये सब किस प्रकार बिकाऊ होते हैं ।
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शरीर से श्रम किया जाता है, श्रम कर अनेक वस्तुयें बनाई जाती हैं । शरीर श्रम से ही कारीगरी की वस्तुओं का
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उत्पादन होता है, खेती होती है। शरीर के बल से कश्ती लडी जाती है। विविध प्रकार के खेल होते हैं, व्यायामहोता है । सुन्दर शरीर से विज्ञापन किये जा सकते हैं, देह बेचा जा सकता है । देह मजदूरी के लिये और कामपूर्ति के लिये बेचा जा सकता है।
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मन किस प्रकार बेचा जा सकता है ? किसी का गुलाम बनकर मन बेचा जा सकता है।
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बुद्धि से ज्ञान ग्रहण किया जाता है, कल्पना की जा सकती है, कठिनाइयों से मार्ग निकाला जा सकता है, व्यवस्थायें बनाई जा सकती हैं, शास्त्र रचे जा सकते हैं, अनुसन्धान किया जा सकता है।
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सुसंस्कृत समाज में इनमें से क्या बेचने की अनुमति है ? इनमें से लगभग कुछ भी नहीं ।
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आज केवल कामपूर्ति हेतु देह बेचने को अच्छा नहीं माना जाता है, मनुष्य को बेचना कानून से ही निषिद्ध है, शेष तो सब कुछ बेचा जाता है।
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बुद्धि को बेचना जरा भी अच्छा नहीं है परन्तु आज तो वह बडी सहजता से बेची जाती है और बेचने वालों को बुद्दिजीवी कहा जाता है। दो वर्ग हो गये हैं - श्रमजीवी
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और बुद्धिजीवी । तीसरा एक वर्ग है जिसे भले ही न कहा जाता हो तो भी वह देहजीवी है। इनमें सबसे कम अच्छा श्रमजीवी को माना जाना चाहिये और सबसे घटिया बुद्धिजीवी को । भारत में सुसंस्कृत समाज के जीवननिर्वाह के लिये आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करने की और करवाने की पद्धतियाँ ही अलग थीं। मनुष्य, मनुष्य का अस्तित्व, मनुष्य का गौरव, मनुष्य की सुरक्षा मनुष्य की स्वतन्त्रता सब से अधिक मूल्यवान मानी जाती थी और इनको बनाये रखने हेतु सारी व्यवस्थायें बनी थीं। समाज स्वतन्त्र था, गौरवान्वित था, सुसंस्कृत था और समृद्ध था ।
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आज अर्थनिष्ठा के कारण इन सभी मूल्यवान तत्त्वों का नाश हो गया है।
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==== '''अर्थनिरपेक्ष कैसे बनना''' ====
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इस स्थिति में अर्थनिरपेक्ष कैसे बना जा सकता है ? कुछ इन बातों पर विचार किया जा सकता है...
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* बुद्धि नहीं बेचने का निश्चय कौन कर सकता है, बेचने वाला कि खरीदनेवाला ?
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* देह को नहीं बेचने का निश्चय जिसका देह है वही कर सकता है, देह को खरीदने वाला नहीं।
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* परन्तु बुद्धि और देह कौन सी मजबूरी में बेचे जाते हैं इसका विचार भी तो करने की आवश्यकता है।
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* बुद्धि और देह बेचने वालों को प्रतिष्ठा किसने प्रदान की है ?
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* क्या समाज धुरीणों को यह मान्य है ? क्या धर्माचार्यों को यह मान्य है?
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यदि मान्य नहीं तो इस प्रवृत्ति को रोकने के लिये हम क्या कर रहे हैं ? क्या कर सकते हैं । इस विषय पर गम्भीर विचार करना चाहिये।
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हमारे दृष्टा ऋषि इस तत्त्व को समझते थे इसलिये उन्होंने मनुष्य की ईश्वर प्रदत्त सम्पत्ति को बाजारू पदार्थ बनाने का निषेध कर दिया था। इस कारण से ही समाज समृद्ध और सुसंस्कृत था।
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==== '''परिवर्तन के बिन्दु''' ====
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महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को भारतीय जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
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१. मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये।
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
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