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अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात् नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है । ये सब भी अपने आपमें सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं । उनके साथ जब शुभ और पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना जुडती हैं तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं, अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं । संस्कृति के मूल तत्त्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं । अतः पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढि के तहत सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है । इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है।
 
अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात् नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है । ये सब भी अपने आपमें सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं । उनके साथ जब शुभ और पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना जुडती हैं तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं, अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं । संस्कृति के मूल तत्त्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं । अतः पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढि के तहत सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है । इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है।
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साथ ही शरीर के अंगउपांगों से होने वाले सभी छोटे छोटे काम उत्तम और सही पद्धति से करने की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिये कागज चिपकाने
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साथ ही शरीर के अंगउपांगों से होने वाले सभी छोटे छोटे काम उत्तम और सही पद्धति से करने की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिये कागज चिपकाने का, कपडे की तह करने का, बस्ते में सामान जमाने का, कपडे पहनने का काम भी उत्तम पद्धति से करने का अभ्यास बनाना चाहिये ।
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दूसरी आवश्यकता मनोभावों को शुद्ध करने की होती है ।
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विद्यालय में समाजसेवा के कार्य भी सांस्कृतिक कार्यक्रम ही कहे जाने चाहिये । समाजप्रबोधन हेतु प्रभातफेरी, ग्रन्थों की शोभायात्रा और पूजन, यज्ञ, जन्मदिनोत्सव, कृष्णजन्माष्टमी जैसे उत्सव, मेले सत्संग आदि सब सांस्कृतिक कार्यक्रम ही हैं । विद्यालय में मन्दिर, पुस्तकालय, कक्षाकक्ष, प्रवेशद्वार आदि का सुशोभन भी सांस्कृतिक गतिविधि ही कहा जायेगा । अतिथियों का मन्त्रोच्चार सहित स्वागत पुष्पार्पण आदि भी सांस्कृतिक कार्य ही है।
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परन्तु पुष्पगुच्छ अर्पण यदि प्लास्टिक के या सुगन्धरहित फूलों का है तो वह सांस्कृतिक नहीं है, मन्त्रोच्चार यदि अशुद्ध और बेसूरे हैं तो वे सांस्कृतिक नहीं है, रंगोली यदि सुरुचिपूर्ण और कलात्मक नहीं है तो वह सांस्कृतिक नहीं है । सामान्य वेशभूषा भी यदि शालीन नहीं है तो वह सांस्कृतिक नहीं है ।।
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सम्पूर्ण विद्यालय परिसर यदि स्वच्छ, सुशोभित, शान्त सौहार्दपूर्ण, स्वागतोत्सुक है तो वह सांस्कृतिक है । यही संस्कारक्षम वातावरण है ।
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संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व के सारे निम्न स्तर के, निकृष्ट दर्जे के तत्त्वों को दूर कर उसे शिष्ट, सभ्य, शुद्ध, उच्च, उत्कृष्ट बनाती है । यही उसका विकास है । शिक्षा के इस प्रकार का विकास अपेक्षित है । यह विकास शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी स्तरों पर होता है । ऐसा विकास सिद्ध होता है इसलिये धर्म और संस्कृति को साथ साथ बोलने का प्रचलन है ।
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विद्यालय के सांस्कृतिक स्वरूप की संकल्पना को ही प्रथम सुसंस्कृत बनाने की आवश्यकता है । मनोयोग से __इन बातों का चिन्तन करने से यह किया जा सकता है, __ सतही बातचीत या विचार से यह नहीं होता है ।
    
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