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संस्कृति का अर्थ होता है ‘सम्यक् कृति' अर्थात् अच्छी तरह से की हुई कृति । जिसमें अव्यवस्था, न हो, अनौचित्य न हो, कुरूपता न हो, अशुद्धि न हो, जो सबका कल्याण करने वाली , सुख देने वाली, आनन्द देने वाली, सुन्दर, सुशोभित सही कृति है वह संस्कृति है । इस रूप में वह जीवनशैली है । वह व्यक्तिगत नहीं अपितु समस्त प्रजा की अर्थात् राष्ट्र की जीवनशैली है ।
 
संस्कृति का अर्थ होता है ‘सम्यक् कृति' अर्थात् अच्छी तरह से की हुई कृति । जिसमें अव्यवस्था, न हो, अनौचित्य न हो, कुरूपता न हो, अशुद्धि न हो, जो सबका कल्याण करने वाली , सुख देने वाली, आनन्द देने वाली, सुन्दर, सुशोभित सही कृति है वह संस्कृति है । इस रूप में वह जीवनशैली है । वह व्यक्तिगत नहीं अपितु समस्त प्रजा की अर्थात् राष्ट्र की जीवनशैली है ।
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संस्कृति के दो आयाम हैं । एक तो वह धर्म का
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संस्कृति के दो आयाम हैं । एक तो वह धर्म का कृतिरूप है । वह धर्म की प्रणाली है । तभी वह सबका भला करने वाली, सबका कल्याण करनेवाली बनती है । दूसरी ओर वह सुन्दर है । अतः संस्कृति में कल्याणकारी और सुन्दर ऐसे दोनों रूप प्रकट होते हैं।
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जीवन के हर व्यावहारिक आविष्कार में यह स्वरूप प्रकट होता है । भोजन स्वादिष्ट, हृद्य, सात्त्विक और पौष्टिक होता है. अकेला स्वादिष्ट या अकेला सात्त्विक नहीं, वस्त्र और अलंकार शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं साथ ही शोभा भी बढाते हैं और दृष्टि को आनन्द का
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अनुभव भी करवाते हैं; नृत्य, गीत-संगीत, आनन्द भी देते हैं और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं । श्रेय और प्रेय को एकदूसरे में ओतप्रोत बनाने की यह भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि है जो बर्तन साफ करने के, पानी भरने के, मिट्टी कूटने के, भूमि जोतने के, कपडा बुनने के, लकडी काटने के कामों में सुन्दरता, आनन्द, मुक्ति की साधना और लोककल्याण के सभी आयामों को एकत्र गूंथती है । यह समग्रता का दर्शन है ।
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अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात् नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है । ये सब भी अपने आपमें सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं । उनके साथ जब शुभ और पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना जुडती हैं तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं, अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं । संस्कृति के मूल तत्त्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं । अतः पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढि के तहत सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है । इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है।
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साथ ही शरीर के अंगउपांगों से होने वाले सभी छोटे छोटे काम उत्तम और सही पद्धति से करने की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिये कागज चिपकाने
    
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