Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎शूद्रवर्ण: लेख सम्पादित किया
Line 40: Line 40:  
वर्तमान में क्षत्रिय वर्ण की प्रतिष्ठा वैश्यों से कम हो गई है। शस्त्र धारण करना, दुर्बल की, विशेष रूप से गाय, ब्राह्मण और स्त्री की रक्षा करना, दुष्ट को दण्ड देना, युद्ध में पराक्रम करना, शासन करना, देश की रक्षा हेतु युद्ध करना क्षत्रिय के काम हैं । आज शासन क्षत्रिय के हाथ से चला गया। लोकतान्त्रिक शासन पद्धति में अब कोई परम्परागत राजा नहीं रहा है । चुनाव के माध्यम से अब सरकार बनती है। इसलिये क्षत्रिय के एक काम का तो अन्त हो गया।
 
वर्तमान में क्षत्रिय वर्ण की प्रतिष्ठा वैश्यों से कम हो गई है। शस्त्र धारण करना, दुर्बल की, विशेष रूप से गाय, ब्राह्मण और स्त्री की रक्षा करना, दुष्ट को दण्ड देना, युद्ध में पराक्रम करना, शासन करना, देश की रक्षा हेतु युद्ध करना क्षत्रिय के काम हैं । आज शासन क्षत्रिय के हाथ से चला गया। लोकतान्त्रिक शासन पद्धति में अब कोई परम्परागत राजा नहीं रहा है । चुनाव के माध्यम से अब सरकार बनती है। इसलिये क्षत्रिय के एक काम का तो अन्त हो गया।
   −
अब सभी वर्णों की नई खासियत को लेकर वे नौकरी करने लगे हैं। इसका अर्थ है वे भी शद्र में परिवर्तित हो रहे हैं। सेना में भर्ती होने वालों में भी क्षत्रियों का ही बहुमत है, ऐसा कह नहीं सकते। बड़े बड़े राजमहल अब होटलों में परिवर्तित हो गये हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वे अब व्यापार करने लगे हैं । अर्थात्‌ वे वैश्य वर्ण में परिवर्तित हो रहे हैं। गोब्राह्मण प्रतिपालक का दायित्व तो वे कब के छोड़ चुके हैं। शस्त्र धारण करना भी छूट गया है।
+
अब सभी वर्णों की नई खासियत को लेकर वे नौकरी करने लगे हैं। इसका अर्थ है वे भी शूद्र में परिवर्तित हो रहे हैं। सेना में भर्ती होने वालों में भी क्षत्रियों का ही बहुमत है, ऐसा कह नहीं सकते। बड़े बड़े राजमहल अब होटलों में परिवर्तित हो गये हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वे अब व्यापार करने लगे हैं । अर्थात्‌ वे वैश्य वर्ण में परिवर्तित हो रहे हैं। गोब्राह्मण प्रतिपालक का दायित्व तो वे कब के छोड़ चुके हैं। शस्त्र धारण करना भी छूट गया है।
    
क्षत्रिय वर्ण के पतन और विघटन के कारण अब समाज का पराक्रम नष्ट हो गया है । कानून भी सर्वसामान्य प्रजा को शस्त्र रखने की और चलाने की अनुमति नहीं देता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में शस्त्रविद्या सिखाई नहीं जाती है। ऐसी अवस्था में शासन करने की वृत्ति दादागिरी करने में भी बदल जाती है । विजयी होने का दृढ़ निर्धार, वचनपालन, स्त्री दाक्षिण्य आदि क्षत्रिय के दुर्लभ गुण होते हैं । आज वे वास्तव में दुर्लभ बन गये हैं ।
 
क्षत्रिय वर्ण के पतन और विघटन के कारण अब समाज का पराक्रम नष्ट हो गया है । कानून भी सर्वसामान्य प्रजा को शस्त्र रखने की और चलाने की अनुमति नहीं देता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में शस्त्रविद्या सिखाई नहीं जाती है। ऐसी अवस्था में शासन करने की वृत्ति दादागिरी करने में भी बदल जाती है । विजयी होने का दृढ़ निर्धार, वचनपालन, स्त्री दाक्षिण्य आदि क्षत्रिय के दुर्लभ गुण होते हैं । आज वे वास्तव में दुर्लभ बन गये हैं ।
Line 61: Line 61:  
मनोरंजन उद्योग ने भी कहर मचा रखा है । संगीत, नृत्य, नाटक, फिल्में, धारावाहिक, अन्य रियालिटि शो आदि सब मनुष्य को बहकाने की स्पर्धा में उतरे हैं । मनुष्य शरीर की गरिमा, कला की पवित्रता, मन की स्वस्थता आदि सब दाँव पर लग गया है । दिन ब दिन कला का क्षेत्र घटिया से और घटिया हो रहा है । इसमें संस्कारों का क्षरण तेजी से होता है ।
 
मनोरंजन उद्योग ने भी कहर मचा रखा है । संगीत, नृत्य, नाटक, फिल्में, धारावाहिक, अन्य रियालिटि शो आदि सब मनुष्य को बहकाने की स्पर्धा में उतरे हैं । मनुष्य शरीर की गरिमा, कला की पवित्रता, मन की स्वस्थता आदि सब दाँव पर लग गया है । दिन ब दिन कला का क्षेत्र घटिया से और घटिया हो रहा है । इसमें संस्कारों का क्षरण तेजी से होता है ।
   −
आनन्द, प्रेम, सद्धाव, संस्कार, सेवा, परिचर्या, मार्गदर्शन, सहायता, शिक्षा, चिकित्सा, धर्म सब कुछ बिकाऊ बन गया है, या बिकाऊ बना दिया गया है। कलाकारों , शिक्षकों, धर्मगुरुओं, चिकित्सकों ने इसे बिकाऊ बना दिया है यह एक बात है और वैश्यों ने इसे बिकाऊ बना दिया है यह दूसरी बात है । इससे समाज का अधःपात न हो तो ही आश्चर्य है । मनुष्य स्वयं बिकाऊ बन गया है। अन्न, पानी, औषध, विद्या को बेचा जाना घोर सांस्कृतिक संकट है ।  
+
आनन्द, प्रेम, सद्धाव, संस्कार, सेवा, परिचर्या, मार्गदर्शन, सहायता, शिक्षा, चिकित्सा, धर्म सब कुछ बिकाऊ बन गया है, या बिकाऊ बना दिया गया है। कलाकारों , शिक्षकों, धर्मगुरुओं, चिकित्सकों ने इसे बिकाऊ बना दिया है यह एक बात है और वैश्यों ने इसे बिकाऊ बना दिया है यह दूसरी बात है । इससे समाज का अधःपात न हो तो ही आश्चर्य है । मनुष्य स्वयं बिकाऊ बन गया है। अन्न, पानी, औषध, विद्या को बेचा जाना घोर सांस्कृतिक संकट है । दान की प्रवृत्ति लाभ की गिनती कर के होना भी असंस्कारिता ही है । आर्थिक व्यवहार में अनीति करना कोई पाप नहीं है, किसीकी विवशता का लाभ उठाने में कुछ गलत नहीं है ऐसा कहना और करना भी अन्यायपूर्ण ही है। परन्तु यह सब नि:संकोच होता है।
   −
''दान की प्रवृत्ति लाभ आज जिस प्रकार वैश्य वर्ण का बोलबाला है उसी''
+
समाज की उपयोगिता को देखकर उत्पादन होना चाहिये यह रीत है, परन्तु अब केवल कम मेहनत से, कम लागत से, कम समय में अधिक से अधिक अर्थार्जन हो इस प्रकार से उत्पादन किया जाता है और विज्ञापन के माध्यम से कृत्रिम रूप से माँग बढाई जाती है । यह समाज के साथ किया हुआ अन्याय है।
   −
''की मी, कर के होना भी असंस्कारिता ही है आर्थिक... प्रकार शूद्र वर्ण का अलग प्रकार से बोलबाला है । शूद्र का''
+
सारी पृथ्वी को और जीवन की सारी गतिविधियों को बाजार के रूप में देखो यह आज के वैश्यों का एकमेव सूत्र बन गया है। सभी बातों का बाजारीकरण कर दिया जाता है। भारत में सभी बातों का आधार परिवारभावना है, परन्तु अब परिवार भी बाजार की तरह चलते हैं उधार लेना, कमाई से अधिक खर्चा करने के लिये प्रेरित करना, अनावश्यक वस्तुओं से भरे हुए घर को प्रतिष्ठा का विषय बनाना आदि सब आर्थिक क्षेत्र के अनिष्ट ही हैं।
   −
''व्यवहार में अनीति करना कोई पाप नहीं है, किसीकी . काम है परिचर्या करना । परिचर्या का अर्थ है किसीकी''
+
व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को परवाने, विदेशी कर्जा, विदेश व्यापार ये सब देश की समृद्धि का विचार करने पर बहुत भीषण संकट के रूप में ही दिखाई पड़ते हैं । फिर इसमें भी अनेक प्रकार की रिश्वतों का दौर चलता है। आर्थिक क्षेत्र के भ्रष्टाचारों से दुनिया बुरी तरह से त्रस्त हो गई है। परन्तु लोग उसे स्वीकार करके चलते हैं और भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार कहते हैं । समाज में अब ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं है, वैश्य श्रेष्ठ है यह प्रस्थापित हो गया है और वैश्यों ने इसे स्वीकार कर लिया है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो समाज अब धर्माधिष्ठित नहीं है परन्तु अर्थाधिष्ठित बन गया है।
   −
''विवशता का लाभ उठाने में कुछ गलत नहीं है ऐसा कहना''
+
आज वैश्य वर्ण की यह स्थिति है।
 
  −
''और करना भी अन्यायपूर्ण ही है। परन्तु यह सब''
      
== शूद्रवर्ण ==
 
== शूद्रवर्ण ==
''अंगसेवा करना । किसीका सिर दृबाना, पैर दबाना, मालिश''
+
आज जिस प्रकार वैश्य वर्ण का बोलबाला है उसी प्रकार शूद्र वर्ण का अलग प्रकार से बोलबाला है । शूद्र का काम है परिचर्या करना । परिचर्या का अर्थ है किसीकी अंगसेवा करना । किसी का सिर दबाना, पैर दबाना, मालिश करना, नहलाना आदि कार्य परिचर्या कहे जाते हैं। उसी के आधार पर कपड़े धोना, बाल काटना आदि भी परिचर्या के काम हैं। आगे चलकर सारा कारीगर वर्ग शूद्र वर्ण में समाविष्ट है। एक परिभाषा ऐसी भी दी जाती है कि जो सजीव से दूसरा सजीव निर्माण करता है वह तो वैश्य है परन्तु निर्जीव से निर्जीव वस्तु का उत्पादन करता है वह शूद्र है। इस अर्थ में कृषक वैश्य है परन्तु बढ़ई या लोहार शूद्र है। इस प्रकार बहुत बड़ा समाज आज शूद्र वर्ण का ही है ।
 
  −
''कोच करना, नहलाना आदि कार्य परिचर्या कहे जाते हैं । उसीके''
  −
 
  −
''निः होता है । आधार पर कपड़े धोना, बाल काटना आदि भी परिचर्या के''
  −
 
  −
''समाज की उपयोगिता को देखकर उत्पादन होना. काम हैं। आगे चलकर सारा कारीगर वर्ग ag at i''
  −
 
  −
''चाहिये यह रीत है, परन्तु अब केवल कम मेहनत से, कम. समाविष्ट है। एक परिभाषा ऐसी भी दी जाती है कि जो''
  −
 
  −
''लागत से, कम समय में अधिक से अधिक अधथर्जिन हो इस. सजीव से दूसरा सजीव निर्माण करता है वह तो वैश्य है''
  −
 
  −
''प्रकार से उत्पादन किया जाता है और विज्ञापन के माध्यम परन्तु निर्जीव से निर्जीव वस्तु का उत्पादन करता है वह शद्र''
  −
 
  −
''से कृत्रिम रूप से माँग बढ़ाई जाती है । यह समाज के साथ. है| इस अर्थ में कृषक वैश्य है परन्तु बढ़इ या लोहार श्र''
  −
 
  −
''किया हुआ अन्याय है । AR है । इस प्रकार बहुत बड़ा समाज आज शद्र वर्ण का ही है ।''
  −
 
  −
''सारी geal को और जीवन की सारी गतिविधियों को We वस्तुओं का सृजन करता है। वैश्य उसकी''
  −
 
  −
''बाजार के रूप में देखो यह आज के वैश्यों का एकमेव सूत्र. व्यवस्था करता हैं । दोनों मिलकर समाज को समृद्ध बनाते''
  −
 
  −
''बन गया है । सभी बातों का बाजारीकरण कर दिया जाता हैं। इस दृष्टि से शद्र वर्ण का महत्त्त अत्यधिक है । कोई''
  −
 
  −
''है। भारत में सभी बातों का आधार परिवार्भावना है, भी समाज शद्र वर्ण के बिना जी ही नहीं सकता । फिर भी''
  −
 
  −
''परन्तु अब परिवार भी बाजार की तरह चलते हैं । ag asf को नीचा मानना यह अत्यन्त बेतुकी बात है । पर''
  −
 
  −
''उधार लेना, कमाई से अधिक खर्चा करने के लिये. हमारे समाज ने ऐसा किया और शूद्र वर्ण को बहुत''
  −
 
  −
''प्रेरित करना, अनावश्यक वस्तुओं से भरे हुए घर को प्रतिष्ठा अपमानित किया । इसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं ।''
  −
 
  −
''का विषय बनाना आदि सब आर्थिक क्षेत्र के अनिष्ट ही हैं ans फिर उसमें अस्पृश्यता का प्रश्न जोड़ दिया । इससे तो''
  −
 
  −
''व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश, SQ  झ्रामला बहुत उलझ गया । इसकी चर्चा पूर्व में हुई है''
  −
 
  −
''कम्पनियों को परवाने, विदेशी कर्जा, विदेश व्यापार ये सब इसलिये अभी पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है ।''
  −
 
  −
''देश की समृद्धि का विचार करने पर बहुत भीषण संकट के भले ही अपने आपको ब्राह्मण कहें और शद्र न कहें''
  −
 
  −
''रूप में ही दिखाई पड़ते हैं । फिर इसमें भी अनेक प्रकार की. तो भी ब्राह्मणों ने अपने आपको शद्र ही बना दिया है ।''
  −
 
  −
''रिश्वतों का दौर चलता है । -''
  −
 
  −
''आर्थिक क्षेत्र के भ्रष्टाचारों से दुनिया बुरी तरह से''
  −
 
  −
''त्रस्त हो गई है । परन्तु लोग उसे स्वीकार करके चलते हैं''
  −
 
  −
''आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है । आज ब्राह्मण भी''
  −
 
  −
''आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार''
  −
 
  −
''शूद्र जैसा है ।''
  −
 
  −
''और भ्रष्टाचार को ही शिशटचार कहते हैं | आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़''
  −
 
  −
''समाज में अब ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं है, वैश्य श्रेष्ठ है यह दिया है।''
  −
 
  −
''प्रस्थापित हो गया है और वैश्यों ने इसे स्वीकार कर लिया मान्यता ऐसी है कि शद्र गरीब, दलित और शोषित''
  −
 
  −
''है । इसे दूसरे शब्दों में कहें तो समाज अब धर्माधिष्टित नहीं ही होते हैं । वास्तविकता इससे भिन्न है । शद्र कारीगर होते''
  −
 
  −
''है परन्तु अर्थाधिष्ठित बन गया है | हैं। वे वस्तुओं का सृजन करते हैं । कारीगर हमेशा समृद्ध''
  −
 
  −
''आज वैश्य वर्ण की यह स्थिति है । ही होता है । कारीगरों से ही समाज समृद्ध बनता है ।''
  −
 
  −
''इतिहास में प्रमाण मिलते हैं कि भारत कारीगरी के कि चेष्टा करता है । इस अनुचित''
  −
 
  −
''क्षेत्र में विश्व में अन्य साधारण स्थान रखता था । लोहे का व्यवहार को ठीक करने के लिए ब्राह्मण की शिक्षा''
  −
 
  −
''निर्माण हो या सिमेण्ट का, वस्त्र का निर्माण हो या आभूषणों का प्रथम आयाम आचार का होना चाहिए । आचार''
  −
 
  −
''का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों की शुद्धता और पवित्रता पहली बात है । आहार''
  −
 
  −
''ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था । यह प्रतिष्ठा शूद्रों विहार की शुद्धता और पवित्रता अपेक्षित है । शुद्धता''
  −
 
  −
''के कारण ही थी । परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते sk wert Ft व्याख्या करने की. बहुत''
  −
 
  −
''कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आवश्यकता नहीं है क्योंकि साधारण रूप से वह''
  −
 
  −
''आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा सबकी जानकारी में होती है ।''
  −
 
  −
''जाता है । इन्होंने भी आर्थिक सुरक्षा की लालच में इसको... २... आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता हेतु संयम''
  −
 
  −
''स्वीकार कर लिया है । परन्तु यह शब्दावली ही बड़ी गड़बड़ और तपश्चर्या की आवश्यकता होती है । वह ब्राह्मण''
  −
 
  −
''है । भारत में वर्णों को लेकर कभी अगड़ा या पिछड़ा जैसा ही नहीं जो इन दोनों को नहीं अपनाता है । अत: ये''
  −
 
  −
''वर्गीकरण नहीं हुआ है, न अवर्ण और सवर्ण का | दोनों उसकी शिक्षा के प्रमुख अंग हैं ।''
  −
 
  −
''नीतिनिर्धारकों की उलटी समझ ने ये शब्द प्रयुक्त किये और ३. शास्त्रों का अध्ययन करना ब्राह्मण का सामाजिक''
  −
 
  −
''निर््थक और अनर्थक विखवाद और विवाद खड़े कर दिये । दायित्व है । शास्त्रों की रक्षा करना उसका ज्ञानात्मक''
  −
 
  −
''सभी वर्णों का अपना अपना दायित्व होता है और उसके दायित्व है । अध्ययन का शास्त्र कहता है कि बुद्धि''
  −
 
  −
''अनुसार इसका महत्त्व भी होता है । जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण कि शुद्धता, पवित्रता, तेजस्विता के लिए आहार-''
  −
 
  −
''ज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है उसी प्रकार शद्र वर्ण भौतिक विहार की शुद्धता आवश्यक होती है । शास्त्रों का''
  −
 
  −
''उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत है । जिस प्रकार ज्ञान के बिना अध्ययन करने हेतु शिशु अवस्था, बाल अवस्था''
  −
 
  −
''नहीं चलता उसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के बिना भी नहीं और किशोर अवस्था की जो अध्ययन पद्धति है उसे''
  −
 
  −
''चलता है । दोनों अनिवार्य हैं । दोनों का समान महत्त्व है । अपनाते हुए शाख्रग्रंथों का अध्ययन करना है।''
  −
 
  −
''एक समृद्धि का क्षेत्र है, दूसरा संस्कृति का । समृद्धि और तात्पर्य यह है कि व्यवहार की शिक्षा तो उसे प्राप्त''
  −
 
  −
''संस्कृति साथ ही साथ रहने चाहिये । तभी अच्छा करनी ही है ।''
  −
 
  −
''समाजजीवन सम्भव है । इस तथ्य को भूलने और भुलाने के... ४... शास्त्रीय अध्ययन हेतु आवश्यक आचारों की शिक्षा''
  −
 
  −
''कारण बहुत अनर्थ हुआ है । हमें अब इस अनर्थ को समाप्त उसे घर में ही प्राप्त होनी चाहिए क्योंकि वह घर में''
  −
 
  −
''कर पुन: सुस्थिति लाने का प्रयास करना चाहिये । ही प्राप्त हो सकती है । शास्त्रों की शिक्षा उसे गुरुकुल''
  −
 
  −
''बर्णानुसारी शिक्षा व्यवस्था में प्राप्त हो सकती है । गुरुकुल यदि आवासीय है तो''
  −
 
  −
''वह गुरुगृहवास है इसलिए आचार की शिक्षा उसे''
  −
 
  −
''ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा वहाँ भी प्राप्त हो सकती है ।''
  −
 
  −
''ब्राह्मण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं ... ५... ब्राह्मण को पौरोहित्य करना होता है । इसलिए मंत्रों''
  −
 
  −
''१... ब्राह्मण को सर्वप्रथम निश्चित कर लेना चाहिए कि उसे का उच्चारण और गान, यज्ञ की विधि, संस्कारों की''
  −
 
  −
''ब्राह्मण रहना है कि नहीं क्योंकि ब्राह्मण के आचारों विधि, विभिन्न पूजाओं की विधि उसे सीखनी है |''
  −
 
  −
''का पालन सरल नहीं है। इस बात का उल्लेख संस्कारों के सारे कर्मकांड आज की तरह समाज में''
  −
 
  −
''इसलिए करना उचित है क्योंकि आज ब्राह्मण बिना बिना समझे किए जाते हैं ऐसी स्थिति न रहे इस दृष्टि''
  −
 
  −
''आचार का पालन किए ही अपने आपको श्रेष्ठ बताने से उसे अध्ययन करना है और पौरोहित्य करना है ।''
  −
 
  −
दे
     −
शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ उसे अध्यापन भी करना है इसलिए अध्यापन शास्त्र की शिक्षा भी उसे प्राप्त करनी चाहिए पारम्परिक रूप में उसे अध्यापन या पौरोहित्य को अथर्जिन का विषय नहीं बनाना है । यह केवल प्राचीन काल में ही सम्भव था ऐसा नहीं है आज के समय में भी उसे सम्भव बनाना है । सादगी, संयम
+
शूद्र वस्तुओं का सृजन करता है। वैश्य उसकी व्यवस्था करता है। दोनों मिलकर समाज को समृद्ध बनाते हैं । इस दृष्टि से शूद्र वर्ण का महत्त्व अत्यधिक है । कोई भी समाज शूद्र वर्ण के बिना जी ही नहीं सकता फिर भी शूद्र वर्ण को नीचा मानना यह अत्यन्त बेतुकी बात है । पर हमारे समाज ने ऐसा किया और शूद्र वर्ण को बहुत अपमानित किया। इसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं। हमने फिर उसमें अस्पृश्यता का प्रश्न जोड़ दिया। इससे तो मामला बहुत उलझ गया इसकी चर्चा पूर्व में हुई है इसलिये अभी पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है।
   −
और तपश्चर्या विवशता नहीं है, चरित्र का उन्नयन है, यह विश्वास समाज में जागृत करना और प्रतिष्ठित करना उसका काम है । इसके लिए समाज पर भरोसा
+
भले ही अपने आपको ब्राह्मण कहें और शूद्र न कहें तो भी ब्राह्मणों ने अपने आपको शुद्र ही बना दिया है। आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है। आज ब्राह्मण भी आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार शूद्र जैसा है। _आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। मान्यता ऐसी है कि शूद्र गरीब, दलित और शोषित ही होते हैं । वास्तविकता इससे भिन्न है । शूद्र कारीगर होते हैं । वे वस्तुओं का सृजन करते हैं। कारीगर हमेशा समृद्ध ही होता है । कारीगरों से ही समाज समृद्ध बनता है।
   −
रखने की आवश्यकता होती है।
+
इतिहास में प्रमाण मिलते हैं कि भारत कारीगरी के क्षेत्र में विश्व में अनन्य साधारण स्थान रखता था । लोहे का निर्माण हो या सिमेण्ट का, वस्त्र का निर्माण हो या आभूषणों का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था। यह प्रतिष्ठा शूद्रों के कारण ही थी। परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। इन्होंने भी आर्थिक सुरक्षा की लालच में इसको स्वीकार कर लिया है । परन्तु यह शब्दावली ही बड़ी गड़बड़ है। भारत में वर्गों को लेकर कभी अगड़ा या पिछड़ा जैसा वर्गीकरण नहीं हुआ है, न अवर्ण और सवर्ण का । नीतिनिर्धारकों की उलटी समझ ने ये शब्द प्रयुक्त किये और निरर्थक और अनर्थक विखवाद और विवाद खड़े कर दिये । सभी वर्गों का अपना अपना दायित्व होता है और उसके अनुसार इसका महत्त्व भी होता है । जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण ज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है उसी प्रकार शूद्र वर्ण भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत है। जिस प्रकार ज्ञान के बिना नहीं चलता उसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के बिना भी नहीं चलता है। दोनों अनिवार्य हैं। दोनों का समान महत्त्व है। एक समृद्धि का क्षेत्र है, दूसरा संस्कृति का । समृद्धि और संस्कृति साथ ही साथ रहने चाहिये। तभी अच्छा समाजजीवन सम्भव है । इस तथ्य को भूलने और भुलाने के कारण बहुत अनर्थ हुआ है । हमें अब इस अनर्थ को समाप्त कर पुन: सुस्थिति लाने का प्रयास करना चाहिये ।
   −
शास्त्रों को युगानुकूल बनाने हेतु व्यावहारिक अनुसन्धान करना उसका काम है । यह भी उसकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है । वर्तमान सन्दर्भ में इसे उच्च शिक्षा कहते हैं । उच्च शिक्षा के दो प्रमुख आयाम तत्त्वचिन्तन और अनुसन्धान हैं । आज ये दोनों बातें कोई भी करता है। केवल ब्राह्मण ही करे इस बात का सार्वत्रिक विरोध होगा । हम कह सकते हैं कि जो भी आचार विचार में, आहार विहार में शुद्धता और पवित्रता रख सकता है, संयम और सादगी अपना सकता है, तपश्चर्या कर सकता है, विद्याप्रीति, ज्ञाननिष्ठा और ज्ञान कि श्रेष्ठता और पवित्रता हेतु कष्ट सह सकता है और अपने निर्वाह के लिए समाज पर भरोसा कर सकता है वही उच्च शिक्षा का अधिकारी है । वह किसी भी वर्ण में जन्मा हो तो भी ब्राह्मण ही है। आज शिक्षाक्षेत्र में ऐसे लोग ही नहीं हैं यही समाज कि दुर्गति का कारण है । स्वाभाविक है कि ऐसे लोग संख्या में कम ही होंगे परन्तु कम संख्या में भी उनका होना अनिवार्य है । अपने आपको ब्राह्मण कहलाने वाले लोगों को सही अर्थ में ब्राह्मण बनना चाहिए |
+
== '''वर्णानुसारी शिक्षा व्यवस्था''' ==
   −
ब्राह्मण को युद्ध नहीं करना है, युद्ध का शास्त्र जानना है, व्यापार नहीं करना है, व्यापार का शास्त्र जानना है, राज्य नहीं करना है, राज्य का शास्त्र जानना है और योद्धा, व्यापारी तथा राजा का मार्गदर्शन करना है। इसी प्रकार आवश्यकता के अनुसार नए व्यवहारशास्त्रों की रचना भी करना है। युग के अनुसार शास्त्रों का नया नया अर्थघटन भी करना है । ऐसा करने हेतु जो निःस्वार्थ बुद्धि चाहिए उसकी शिक्षा ब्राह्मण के लिए आवश्यक है ।
+
=== ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा ===
 +
ब्राह्मण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं:
 +
# ब्राह्मण को सर्वप्रथम निश्चित कर लेना चाहिए कि उसे ब्राह्मण रहना है कि नहीं क्योंकि ब्राह्मण के आचारों का पालन सरल नहीं है। इस बात का उल्लेख इसलिए करना उचित है क्योंकि आज ब्राह्मण बिना आचार का पालन किए ही अपने आपको श्रेष्ठ बताने की चेष्टा करता है । इस अनुचित व्यवहार को ठीक करने के लिए ब्राह्मण की शिक्षा का प्रथम आयाम आचार का होना चाहिए । आचार की शुद्धता और पवित्रता पहली बात है। आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता अपेक्षित है। शुद्धता और पवित्रता की व्याख्या करने की बहुत आवश्यकता नहीं है क्योंकि साधारण रूप से वह सबकी जानकारी में होती है।
 +
# आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता हेतु संयम और तपश्चर्या की आवश्यकता होती है । वह ब्राह्मण ही नहीं जो इन दोनों को नहीं अपनाता है । अत: ये दोनों उसकी शिक्षा के प्रमुख अंग हैं।
 +
# शास्त्रों का अध्ययन करना ब्राह्मण का सामाजिक दायित्व है । शास्त्रों की रक्षा करना उसका ज्ञानात्मक दायित्व है । अध्ययन का शास्त्र कहता है कि बुद्धि कि शुद्धता, पवित्रता, तेजस्विता के लिए आहारविहार की शुद्धता आवश्यक होती है। शास्त्रों का अध्ययन करने हेतु शिशु अवस्था, बाल अवस्था और किशोर अवस्था की जो अध्ययन पद्धति है उसे अपनाते हुए शास्त्रग्रंथों का अध्ययन करना है। तात्पर्य यह है कि व्यवहार की शिक्षा तो उसे प्राप्त करनी ही है।
 +
# शास्त्रीय अध्ययन हेतु आवश्यक आचारों की शिक्षा उसे घर में ही प्राप्त होनी चाहिए क्योंकि वह घर में ही प्राप्त हो सकती है । शास्त्रों की शिक्षा उसे गुरुकुल में प्राप्त हो सकती है । गुरुकुल यदि आवासीय है तो वह गुरुगृहवास है इसलिए आचार की शिक्षा उसे वहाँ भी प्राप्त हो सकती है।
 +
# ब्राह्मण को पौरोहित्य करना होता है । इसलिए मंत्रों का उच्चारण और गान, यज्ञ की विधि, संस्कारों की विधि, विभिन्न पूजाओं की विधि उसे सीखनी है। संस्कारों के सारे कर्मकांड आज की तरह समाज में बिना समझे किए जाते हैं ऐसी स्थिति न रहे इस दृष्टि से उसे अध्ययन करना है और पौरोहित्य करना है।
 +
# शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ उसे अध्यापन भी करना है इसलिए अध्यापन शास्त्र की शिक्षा भी उसे प्राप्त करनी चाहिए । पारम्परिक रूप में उसे अध्यापन या पौरोहित्य को अथर्जिन का विषय नहीं बनाना है । यह केवल प्राचीन काल में ही सम्भव था ऐसा नहीं है । आज के समय में भी उसे सम्भव बनाना है । सादगी, संयम और तपश्चर्या विवशता नहीं है, चरित्र का उन्नयन है, यह विश्वास समाज में जागृत करना और प्रतिष्ठित करना उसका काम है । इसके लिए समाज पर भरोसा रखने की आवश्यकता होती है।
 +
# शास्त्रों को युगानुकूल बनाने हेतु व्यावहारिक अनुसन्धान करना उसका काम है । यह भी उसकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है।
 +
# वर्तमान सन्दर्भ में इसे उच्च शिक्षा कहते हैं । उच्च शिक्षा के दो प्रमुख आयाम तत्त्वचिन्तन और अनुसन्धान हैं । आज ये दोनों बातें कोई भी करता है। केवल ब्राह्मण ही करे इस बात का सार्वत्रिक विरोध होगा । हम कह सकते हैं कि जो भी आचार विचार में, आहार विहार में शुद्धता और पवित्रता रख सकता है, संयम और सादगी अपना सकता है, तपश्चर्या कर सकता है, विद्याप्रीति, ज्ञाननिष्ठा और ज्ञान कि श्रेष्ठता और पवित्रता हेतु कष्ट सह सकता है और अपने निर्वाह के लिए समाज पर भरोसा कर सकता है वही उच्च शिक्षा का अधिकारी है । वह किसी भी वर्ण में जन्मा हो तो भी ब्राह्मण ही है। आज शिक्षाक्षेत्र में ऐसे लोग ही नहीं हैं यही समाज कि दुर्गति का कारण है । स्वाभाविक है कि ऐसे लोग संख्या में कम ही होंगे परन्तु कम संख्या में भी उनका होना अनिवार्य है । अपने आपको ब्राह्मण कहलाने वाले लोगों को सही अर्थ में ब्राह्मण बनना चाहिए |
 +
# ब्राह्मण को युद्ध नहीं करना है, युद्ध का शास्त्र जानना है, व्यापार नहीं करना है, व्यापार का शास्त्र जानना है, राज्य नहीं करना है, राज्य का शास्त्र जानना है और योद्धा, व्यापारी तथा राजा का मार्गदर्शन करना है। इसी प्रकार आवश्यकता के अनुसार नए व्यवहारशास्त्रों की रचना भी करना है। युग के अनुसार शास्त्रों का नया नया अर्थघटन भी करना है । ऐसा करने हेतु जो निःस्वार्थ बुद्धि चाहिए उसकी शिक्षा ब्राह्मण के लिए आवश्यक है ।
    
=== क्षत्रिय वर्ण की शिक्षा ===
 
=== क्षत्रिय वर्ण की शिक्षा ===

Navigation menu