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→‎चार वर्ण: लेख सम्पादित किया
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मनुष्य का स्वभाव भी जन्मजन्मांतर के कर्मों के प्रति उसके मन के सम्बन्ध के अनुसार बनता है । मनुष्य को जीवनयापन के लिए अनेक प्रकार के काम करने ही होते हैं।एक क्षण भी मनुष्य कर्म किए बिना रह नहीं सकता है। ये कर्म शारीरिक भी होते हैं और बौद्धिक भी।  
 
मनुष्य का स्वभाव भी जन्मजन्मांतर के कर्मों के प्रति उसके मन के सम्बन्ध के अनुसार बनता है । मनुष्य को जीवनयापन के लिए अनेक प्रकार के काम करने ही होते हैं।एक क्षण भी मनुष्य कर्म किए बिना रह नहीं सकता है। ये कर्म शारीरिक भी होते हैं और बौद्धिक भी।  
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''उदाहरण के लिए खाना, चलना, वस्त्र... का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्त्री''
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उदाहरण के लिए खाना, चलना, वस्त्र पहनना ये शारीरिक कर्म हैं परंतु अध्ययन करना, समस्या सुलझाना आदि बौद्धिक कर्म हैं। इन सब कर्मों के परिणाम होते हैं जिन्हें कर्मफल कहते हैं। कर्म किए तो कर्मफल होते ही हैं। अच्छे कर्मों के अच्छे फल होते हैं, बुरे कर्मों के बुरे फल । मनुष्य का मन ऐसा होता है कि उसे अच्छे फल तो चाहिए परंतु बुरे फल नहीं चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं होता । कर्मों के फल तो भुगतने ही होते हैं । इस जन्म में यदि भोग नहीं हो सका तो दूसरे जन्म में वे संचित कर्मों के रूप में साथ आते हैं । इन कर्मों के आधार पर वर्ण बनते हैं । कर्मों के साथ ही साथ मनुष्य को गुण भी स्वाभाविक रूप में ही मिलते हैं । गुण तीन हैं। वे हैं सत्त्व, रज और तम। इन गुणों के अनुसार वर्ण बनते हैं। गुण और कर्मों के अनुसार मनुष्य को वर्ण प्राप्त होते हैं।
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''पहनना ये शारीरिक कर्म हैं परंतु अध्ययन करना, समस्या... से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या YG''
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इसका अर्थ यह हुआ कि हर मनुष्य का अपना अपना वर्ण होता है। जितने मनुष्य उतने ही वर्ण होंगे । परन्तु हमारी पारम्परिक व्यवस्था में वर्ण कदाचित पहली बार गुणकर्म के आधार पर निश्चित हुए होंगे, बाद में कुल के आधार पर ही निश्चित होते रहे हैं। जिस वर्ण के मातापिता के घर जन्म हुआ है उन्हीं का वर्ण संतानों को भी प्राप्त होता है। अर्थात् स्वभाव के लिए वर्ण गुण और कर्म के आधार पर तय होते हैं, व्यवस्था के लिए वर्ण जन्म के आधार पर निश्चित होते रहे हैं।
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''सुलझाना आदि बौद्धिक कर्म हैं । इन सब कर्मों के परिणाम... स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शूद्र''
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पारम्परिक रूप में देखा जाय तो वर्णव्यवस्था विवाह, आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में स्थापित हुई है। वर्ण के अनुसार ही व्यवसाय करना है। वर्ण के अनुसार ही विवाह भी करना है और वर्ण के अनुसार ही आचार का पालन करना है। समाज को समृद्ध और सुरक्षित रखने के लिए इन तीन संदर्भो में वर्णव्यवस्था का पालन कड़ाई से करने का आग्रह किया जाता रहा है। फिर भी यह व्यवस्था विवाह के सम्बन्ध में कुछ लचीली भी दिखाई देती है परन्तु आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में जरा भी शिथिलता सहन नहीं करती है । उदाहरण के लिए अनुलोम विवाह के रूप में वर्णान्तर विवाह प्रचलित रहे हैं।
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''होते हैं जिन्हें कर्मफल कहते हैं । कर्म किए तो कर्मफल स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में''
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अनुलोम विवाह का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्त्री से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में वर्णव्यवस्था लचीली है। दो भिन्न भिन्न वर्गों के स्त्री और पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आग्रहपूर्वक निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो उसका वर्ण भी बदल जाता है। आचार छोड़ने की तनिक भी अनुमति नहीं है।
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''होते ही हैं अच्छे कर्मों के अच्छे फल होते हैं, बुरे कर्मों... वर्णव्यवस्था लचीली है । दो भिन्न भिन्न वर्णों के स्त्री और''
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जो विचारधारा समाज को जीवमान इकाई मानती है और समाज तथा व्यक्ति के बीच अंग और अंगी का सम्बन्ध बताती है वहाँ समाज अंगी होता है और व्यक्ति अंग होता है। व्यक्ति समाज की शाश्वतता, सुस्थिति और सुदृढ़ता के लिए अपने आपको सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ समायोजित करेगा व्यक्ति अपना जीवन समाज की सेवा के लिए समर्पित करेगा और अपने आपको धन्य मानेगा। ऐसे समाज में ही वर्णव्यवस्था का प्रयोजन रहता है। जिस समाज में व्यक्ति को ही स्वतंत्र और सर्वोपरि मानता है और समाज को केवल करार की व्यवस्था ही माना जाता है वहाँ वर्णव्यवस्था का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आज भारत में वर्णव्यवस्था की जो उपेक्षा, तिरस्कार और दुरवस्था दिखाई देती है वह व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना के कारण ही है । भारतीय समाज को एक बार निश्चित हो जाने की आवश्यकता है कि उसे करार वाली जीवनव्यवस्था चाहिए कि कुटुंबभावना वाली। यदि हम कुटुंबभावना वाली समाजव्यवस्था को चाहते हैं तो हमें वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना होगा।
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''के बुरे फल । मनुष्य का मन ऐसा होता है कि उसे अच्छे... पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे''
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यहाँ ऐसी समाजव्यवस्था चाहिए, अनेक प्रकार से वह लाभदायी है, ऐसा मानकर ही सारे विषयों का ऊहापोह किया गया है यह स्पष्ट है।
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''फल तो चाहिए परंतु बुरे फल नहीं चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं... वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं । ध्यान देने योग्य''
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वर्ण चार हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
 
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''होता । कर्मों के फल तो भुगतने ही होते हैं । इस जन्म में... बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आपग्रहपूर्वक''
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''यदि भोग नहीं हो सका तो दूसरे जन्म में वे संचित कर्मों के... निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो''
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''रूप में साथ आते हैं । इन कर्मों के आधार पर वर्ण बनते... उसका वर्ण भी बदल जाता है । आचार छोड़ने की तनिक''
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''हैं। कर्मों के साथ ही साथ मनुष्य को गुण भी स्वाभाविक... भी अनुमति नहीं है ।''
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''रूप में ही मिलते हैं। गुण तीन हैं । हि सत्त्त, रज और जो विचारधारा समाज को जीवमान इकाई मानती है''
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''तम । इन गुणों के अनुसार वर्ण बनते हैं। गुण और कर्मों. और समाज तथा व्यक्ति के बीच अंग और अंगी का''
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''के अनुसार मनुष्य को वर्ण प्राप्त होते हैं । सम्बन्ध बताती है वहाँ समाज अंगी होता है और व्यक्ति''
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''इसका अर्थ यह हुआ कि हर मनुष्य का अपना- अंग होता है | व्यक्ति समाज की शाश्वतता, सुस्थिति और''
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''अपना वर्ण होता है । जितने मनुष्य उतने ही वर्ण होंगे । सुदृढ़ता के लिए अपने आपको सामाजिक व्यवस्थाओं के''
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''परन्तु हमारी पारम्परिक व्यवस्था में वर्ण कदाचित पहली . साथ समायोजित करेगा । व्यक्ति अपना जीवन समाज की''
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''बार गुणकर्म के आधार पर निश्चित हुए होंगे, बाद में कुल. सेवा के लिए समर्पित करेगा और अपने आपको धन्य''
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''के आधार पर ही निश्चित होते रहे हैं। जिस वर्ण के. मानेगा । ऐसे समाज में ही वर्णव्यवस्था का प्रयोजन रहता''
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''मातापिता के घर जन्म हुआ है उन्हीं का वर्ण संतानों को. है। जिस समाज में व्यक्ति को ही स्वतंत्र और सर्वोपरि''
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''भी प्राप्त होता है । अर्थात्‌ स्वभाव के लिए वर्ण गुण और मानता है और समाज को केवल करार की व्यवस्था ही''
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''कर्म के आधार पर तय होते हैं, व्यवस्था के लिए वर्ण जन्म... माना जाता है वहाँ वर्णव्यवस्था का कोई प्रयोजन नहीं रह''
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''के आधार पर निश्चित होते रहे हैं । जाता । आज भारत में वर्णव्यवस्था की जो उपेक्षा,''
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''पारम्परिक रूप में देखा जाय तो वर्णव्यवस्था विवाह, तिरस्कार और दुरवस्था दिखाई देती है वह व्यक्तिकेन्द्री''
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''आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में स्थापित हुई है । वर्ण. समाजरचना के कारण ही है । भारतीय समाज को एक बार''
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''के अनुसार ही व्यवसाय करना है । वर्ण के अनुसार ही. निश्चित हो जाने की आवश्यकता है कि उसे करार वाली''
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''विवाह भी करना है और वर्ण के अनुसार ही आचार का... जीवनव्यवस्था चाहिए कि कुटुंबभावना वाली। यदि हम''
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''पालन करना है । समाज को समृद्ध और सुरक्षित रखने के . कुटुंबभावना वाली समाजव्यवस्था को चाहते हैं तो हमें''
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''लिए इन तीन संदर्भों में वर्णव्यवस्था का पालन कड़ाई से. वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना होगा ।''
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''करने का आग्रह किया जाता रहा है । फिर भी यह व्यवस्था''
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''आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में जरा भी शिथिलता''
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''सहन नहीं करती है । उदाहरण के लिए अनुलोम विवाह के''
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''रूप में वर्णान्‍्तर विवाह प्रचलित रहे हैं । अनुलोम विवाह''
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''यहाँ ऐसी समाजव्यवस्था चाहिए, अनेक प्रकार से''
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''वह लाभदायी है, ऐसा मानकर ही सारे विषयों का ऊहापोह''
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''किया गया है यह स्पष्ट है ।''
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''वर्ण चार हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूटर ''
      
== ब्राह्मण वर्ण ==
 
== ब्राह्मण वर्ण ==

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