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प्राचीन शिक्षा-पद्धति के मूल तत्त्व
 
प्राचीन शिक्षा-पद्धति के मूल तत्त्व
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श्री अरविंद ने प्राचीन धार्मिक शिक्षा-पद्धति के मूलाधारों की खोज का प्रयास शुरू किया । इस खोज के परिणामस्वरूप उन्होंने पाया कि केवल जानकारी देना शिक्षा का मुख्य अथवा प्रथम लक्ष्य नहीं है । उनके मतानुसार “जो शिक्षा केवल जानकारी देने तक अपने को सीमित रखती है वह सिक्षा कहलाने योग्य नहीं है ।' उन्होंने कहा कि 'हिंदू धारणा के अनुसार समस्त ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है । शिक्षा का काम यह है कि वह ज्ञान को बाहर से ठूसने के बजाय अंदर से ज्ञान के जागरण की स्थिति उत्पन्न at | और इसका उपाय है - ज्ञान को आच्छादित करनेवाले तमोभाव का क्रमशः शमन करते हुए सतोगुण का उद्रेक करते जाना । सत्य का उद्रेक करने के लिए आवृत्ति, मनन और तत््व-चर्चा की त्रिविध प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए । इसकी चरम परिणति योग-शक्ति में होती है। यह योग-शक्ति ही अध्यात्म का दूसरा नाम है। पार्थिव शरीर को इस शक्ति का उपयुक्त आधार ब्रह्मचर्य के पालन से ही बनाया जा सकता है। इसीलिए प्राचीन शिक्षा-पद्धति में ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया गया था । ब्रह्मचर्य के पालन से ही उस ऊर्जा का जागरण संभव है जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की सब आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है । ब्रह्मचर्य-पालन के फलस्वरूप मनुष्य शरीर के भीतर जो ऊर्जा उत्पन्न होती थी वह समस्त शारीरिक कर्मों को पूरा करके मस्तिष्क और आत्मा के उन्नयन में लग जाती थी । श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्रह्मचर्य और सात्तविक विकास में से ही भारत के मस्तिष्क का गठन हुआ है, जो योग-साधना के द्वारा पूर्णता को पा सका । उन्होंने कहा कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली में एक साथ अनेक विषयों की जानकारी को छात्र के मस्तिष्क में दूसने का प्रयास नहीं किया जाता था अपितु एक ही विषय को एक बार पुख्ता ढंग से पढ़ाया जाता था, जिसके फलस्वरूप छात्र की जानकारी का क्षेत्र सीमित रहते हुए भी उसकी नींव गहरी व मजबूत होती थी और उसकी स्मरण- शक्ति दृढ़ होती थी । उन्होंने कहा कि इन्हीं मुख्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांती के आधार पर प्राचीन धार्मिक मनीषा ने अपनी शिक्षा-प्रणाली का ढाँचा खड़ा किया था । बाहर से जानकारी ढूसने के बजाय छात्र की आंतरिक शक्तियों का जागरण ही इस शिक्षा-प्रणाली का मुख्य लक्ष्य था ।
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श्री अरविंद ने प्राचीन धार्मिक शिक्षा-पद्धति के मूलाधारों की खोज का प्रयास आरम्भ किया । इस खोज के परिणामस्वरूप उन्होंने पाया कि केवल जानकारी देना शिक्षा का मुख्य अथवा प्रथम लक्ष्य नहीं है । उनके मतानुसार “जो शिक्षा केवल जानकारी देने तक अपने को सीमित रखती है वह सिक्षा कहलाने योग्य नहीं है ।' उन्होंने कहा कि 'हिंदू धारणा के अनुसार समस्त ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है । शिक्षा का काम यह है कि वह ज्ञान को बाहर से ठूसने के बजाय अंदर से ज्ञान के जागरण की स्थिति उत्पन्न at | और इसका उपाय है - ज्ञान को आच्छादित करनेवाले तमोभाव का क्रमशः शमन करते हुए सतोगुण का उद्रेक करते जाना । सत्य का उद्रेक करने के लिए आवृत्ति, मनन और तत््व-चर्चा की त्रिविध प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए । इसकी चरम परिणति योग-शक्ति में होती है। यह योग-शक्ति ही अध्यात्म का दूसरा नाम है। पार्थिव शरीर को इस शक्ति का उपयुक्त आधार ब्रह्मचर्य के पालन से ही बनाया जा सकता है। इसीलिए प्राचीन शिक्षा-पद्धति में ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया गया था । ब्रह्मचर्य के पालन से ही उस ऊर्जा का जागरण संभव है जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की सब आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है । ब्रह्मचर्य-पालन के फलस्वरूप मनुष्य शरीर के भीतर जो ऊर्जा उत्पन्न होती थी वह समस्त शारीरिक कर्मों को पूरा करके मस्तिष्क और आत्मा के उन्नयन में लग जाती थी । श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्रह्मचर्य और सात्तविक विकास में से ही भारत के मस्तिष्क का गठन हुआ है, जो योग-साधना के द्वारा पूर्णता को पा सका । उन्होंने कहा कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली में एक साथ अनेक विषयों की जानकारी को छात्र के मस्तिष्क में दूसने का प्रयास नहीं किया जाता था अपितु एक ही विषय को एक बार पुख्ता ढंग से पढ़ाया जाता था, जिसके फलस्वरूप छात्र की जानकारी का क्षेत्र सीमित रहते हुए भी उसकी नींव गहरी व मजबूत होती थी और उसकी स्मरण- शक्ति दृढ़ होती थी । उन्होंने कहा कि इन्हीं मुख्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांती के आधार पर प्राचीन धार्मिक मनीषा ने अपनी शिक्षा-प्रणाली का ढाँचा खड़ा किया था । बाहर से जानकारी ढूसने के बजाय छात्र की आंतरिक शक्तियों का जागरण ही इस शिक्षा-प्रणाली का मुख्य लक्ष्य था ।
    
==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
 
==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
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==== आधुनिक विज्ञान बनाम राष्ट्रीय शिक्षा ====
 
==== आधुनिक विज्ञान बनाम राष्ट्रीय शिक्षा ====
इन तर्कों की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्री अरविंद ने लिखा कि “राष्ट्रीय शिक्षा के विरुद्ध यह तर्क-वितर्क इस निर्जीव शैक्षिक धारणा में से शुरू होता है कि शिक्षा का एकमात्र अथवा मुख्य उद्देस्य कुछ विषयों को पढ़ाना एवं इस या उस प्रकार की जानकारी प्रदान करना भर है । लेकिन विभिन्न प्रकार के जानकारियाँ प्राप्त करना शिक्षा के उद्देश्य एवं आवश्यकताओं में से केवल एक है और वह भी केंद्रीय नहीं । शिक्षा का केंद्रीय उद्देश्य है मानव मन और आत्मा को शक्तिशाली बनाना । मैं अपने शब्दों में कहना चाहूँ तो वह उद्देश्य है ज्ञान, चरित्र और संस्कृति : तीनों का प्रबोधन ।'
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इन तर्कों की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्री अरविंद ने लिखा कि “राष्ट्रीय शिक्षा के विरुद्ध यह तर्क-वितर्क इस निर्जीव शैक्षिक धारणा में से आरम्भ होता है कि शिक्षा का एकमात्र अथवा मुख्य उद्देस्य कुछ विषयों को पढ़ाना एवं इस या उस प्रकार की जानकारी प्रदान करना भर है । लेकिन विभिन्न प्रकार के जानकारियाँ प्राप्त करना शिक्षा के उद्देश्य एवं आवश्यकताओं में से केवल एक है और वह भी केंद्रीय नहीं । शिक्षा का केंद्रीय उद्देश्य है मानव मन और आत्मा को शक्तिशाली बनाना । मैं अपने शब्दों में कहना चाहूँ तो वह उद्देश्य है ज्ञान, चरित्र और संस्कृति : तीनों का प्रबोधन ।'
    
उन्होंने कहा कि हमारे सामने मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि पश्चिम के विज्ञान को लें या नहीं अथवा कौन सा विज्ञान हम सीखें, बल्कि यह है कि हम इस विज्ञान का क्या उपयोग करेंगे और कैसे उसका नाता मानव मन की अन्य शक्तियों के साथ जोड़े सकेंगे, कैसे आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान का संबंध उस ज्ञान के साथ जोड़ सकेंगे, जिसका हमारी बुद्धि और स्वभाव के अधिक प्रकाशदायक एवं शक्तिदायक अंशों से अंतरंग संबंध है । और यही धार्मिक मानस का विशेष गठन, उसकी मनोवैज्ञानिक परंपरा, उसकी आनुवंशिक क्षमता, रुझान और ज्ञान ऐसे सांस्कृतिक तत्त्व प्रस्तुत कर देते हैं जिनका अत्यधिक महत्त्व है ।
 
उन्होंने कहा कि हमारे सामने मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि पश्चिम के विज्ञान को लें या नहीं अथवा कौन सा विज्ञान हम सीखें, बल्कि यह है कि हम इस विज्ञान का क्या उपयोग करेंगे और कैसे उसका नाता मानव मन की अन्य शक्तियों के साथ जोड़े सकेंगे, कैसे आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान का संबंध उस ज्ञान के साथ जोड़ सकेंगे, जिसका हमारी बुद्धि और स्वभाव के अधिक प्रकाशदायक एवं शक्तिदायक अंशों से अंतरंग संबंध है । और यही धार्मिक मानस का विशेष गठन, उसकी मनोवैज्ञानिक परंपरा, उसकी आनुवंशिक क्षमता, रुझान और ज्ञान ऐसे सांस्कृतिक तत्त्व प्रस्तुत कर देते हैं जिनका अत्यधिक महत्त्व है ।
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अब प्रश्न है कि इसे राष्ट्रीय एवं राष्ट्रनिर्माणकारी कैसे बनाया जाए ? राष्ट्रीय शिक्षा किसे कहते हैं ? या उलटकर पूछो तो अराष्ट्रीय शिक्षा कैसी होती है ? इससे भी आगे बढ़कर पूछा जा सकता है कि किस प्रकार की शिक्षा हमें अपनी राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के लिए सक्षम और कटिबद्ध बना सकती है ? किस प्रकार की शिक्षा हो, जो केवल राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि राष्ट्रनिर्मात्री भी हो ?
 
अब प्रश्न है कि इसे राष्ट्रीय एवं राष्ट्रनिर्माणकारी कैसे बनाया जाए ? राष्ट्रीय शिक्षा किसे कहते हैं ? या उलटकर पूछो तो अराष्ट्रीय शिक्षा कैसी होती है ? इससे भी आगे बढ़कर पूछा जा सकता है कि किस प्रकार की शिक्षा हमें अपनी राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के लिए सक्षम और कटिबद्ध बना सकती है ? किस प्रकार की शिक्षा हो, जो केवल राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि राष्ट्रनिर्मात्री भी हो ?
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शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से शुरू होता है ।
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शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से आरम्भ होता है ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही शुरू होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । फिर भी “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; धार्मिक काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । फिर भी किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से धार्मिक बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान्‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी धार्मिक बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही आरम्भ होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । फिर भी “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; धार्मिक काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । फिर भी किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से धार्मिक बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान्‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी धार्मिक बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
    
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
 
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
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शांति निकेतन का दैनिक जीवन बड़ा मोहक और शिक्षाप्रद था । छात्र सूर्योदय से बहुत पहले ही उठ जाते थे और भजन गाते हुए आश्रम की प्रभात-फेरी करते थे । निस्तब्ध वायुमंडल में उनकी सरस ध्वनियाँ ऐसा भक्तिभाव जाग्रत करती थीं कि उससे आत्मा को बड़ी शांति मिलती थी । कुछ समय के बाद प्रत्येक छात्र अपनाअपना आसन लेकर मैदान में बैठकर मनन करता था । फिर विद्यालय का कार्य आरंभ होने पर सब छात्र एवं अध्यापक वृक्षों की छाया में सामूहिक प्रार्थना करते थे । फिर साढ़े दस या ग्यारह बजे तक पढ़ाई होती थी । मुक्त गान या वृक्षों के नीचे आठ- आठ, दस-दस छात्र शिक्षक को घेरकर बैठ जाते और उससे प्रश्न पूछते । इससे प्रत्येक वर्ग के अध्यापन में पर्याप्त सजीवता और सक्रियता बनी रहती । बालक नंगे पैर घूमघूमकर अथवा वृक्षों पर बैठकर पढ़ते थे । प्रातःरकालीन अध्ययन समाप्त कर छात्र नहातेधोते और भोजन करते थे ।  
 
शांति निकेतन का दैनिक जीवन बड़ा मोहक और शिक्षाप्रद था । छात्र सूर्योदय से बहुत पहले ही उठ जाते थे और भजन गाते हुए आश्रम की प्रभात-फेरी करते थे । निस्तब्ध वायुमंडल में उनकी सरस ध्वनियाँ ऐसा भक्तिभाव जाग्रत करती थीं कि उससे आत्मा को बड़ी शांति मिलती थी । कुछ समय के बाद प्रत्येक छात्र अपनाअपना आसन लेकर मैदान में बैठकर मनन करता था । फिर विद्यालय का कार्य आरंभ होने पर सब छात्र एवं अध्यापक वृक्षों की छाया में सामूहिक प्रार्थना करते थे । फिर साढ़े दस या ग्यारह बजे तक पढ़ाई होती थी । मुक्त गान या वृक्षों के नीचे आठ- आठ, दस-दस छात्र शिक्षक को घेरकर बैठ जाते और उससे प्रश्न पूछते । इससे प्रत्येक वर्ग के अध्यापन में पर्याप्त सजीवता और सक्रियता बनी रहती । बालक नंगे पैर घूमघूमकर अथवा वृक्षों पर बैठकर पढ़ते थे । प्रातःरकालीन अध्ययन समाप्त कर छात्र नहातेधोते और भोजन करते थे ।  
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अपराह्व दो बजे से फिर पढ़ाई शुरू होती; किंतु अब हस्तकला, कताई-बुनाई, काष्ठकला, चित्रांकन, संगीत आदि का कार्य कराया जाता था । इस समय पुस्तकीय कार्य बहुत कम होता था । चार बजे तक कक्षाएँ समाप्त हो जातीं और बालक खेल के मैदान की ओर दौड़ पड़ते । कुछ खेतों व वनों में कार्य करने चले जाते तो कुछ ग्रामसेवा के लिए निकल जाते । वे औषधियाँ भी वितरित करते थे । सूर्यास्त होते ही सब लौट आते और कुछ क्षणों के लिए मौन मनन करते । रात्रि में विनोद गोष्ठियाँ होतीं, जिनमें गुरुदेव कहानियाँ सुनाते, गीत गाते, नाटक और सम्मेलन होते । नौ बजे रात्रि में भजन मंडली फिर घुमती और तदनंतर सब शयन करने चले जाते ।
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अपराह्व दो बजे से फिर पढ़ाई आरम्भ होती; किंतु अब हस्तकला, कताई-बुनाई, काष्ठकला, चित्रांकन, संगीत आदि का कार्य कराया जाता था । इस समय पुस्तकीय कार्य बहुत कम होता था । चार बजे तक कक्षाएँ समाप्त हो जातीं और बालक खेल के मैदान की ओर दौड़ पड़ते । कुछ खेतों व वनों में कार्य करने चले जाते तो कुछ ग्रामसेवा के लिए निकल जाते । वे औषधियाँ भी वितरित करते थे । सूर्यास्त होते ही सब लौट आते और कुछ क्षणों के लिए मौन मनन करते । रात्रि में विनोद गोष्ठियाँ होतीं, जिनमें गुरुदेव कहानियाँ सुनाते, गीत गाते, नाटक और सम्मेलन होते । नौ बजे रात्रि में भजन मंडली फिर घुमती और तदनंतर सब शयन करने चले जाते ।
    
सारा वातावरण रवींद्र संगीत से गूँजा करता था और क्रियाशीलता, स्वतंत्रता तथा आनंद से ओतप्रोत रहता था । पियर्सन ने अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए लिखा है 'इस वातावरण में आत्मनुभूति संभव है यहाँ मानव अपने को समस्त विश्व के ऊपर पाता है । यहाँ मानव की व्यथित आत्मा को शांति प्राप्त होती है ।' परंतु शांति निकेतन की आर्थिक कठिनाइयाँ कवि के लिए सदैव चिंता का विषय बनी रहीं । जब कभी उसमें निर्जीव पदार्थों के अधिक मात्रा में संकलित होने पर उन्हें विचारअवरुद्ध होने की आशंका हुई तो उन्होंने परिवर्तन करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई ।
 
सारा वातावरण रवींद्र संगीत से गूँजा करता था और क्रियाशीलता, स्वतंत्रता तथा आनंद से ओतप्रोत रहता था । पियर्सन ने अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए लिखा है 'इस वातावरण में आत्मनुभूति संभव है यहाँ मानव अपने को समस्त विश्व के ऊपर पाता है । यहाँ मानव की व्यथित आत्मा को शांति प्राप्त होती है ।' परंतु शांति निकेतन की आर्थिक कठिनाइयाँ कवि के लिए सदैव चिंता का विषय बनी रहीं । जब कभी उसमें निर्जीव पदार्थों के अधिक मात्रा में संकलित होने पर उन्हें विचारअवरुद्ध होने की आशंका हुई तो उन्होंने परिवर्तन करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई ।

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