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==== व्यक्ति, राष्ट्र और मानव जाति ====
 
==== व्यक्ति, राष्ट्र और मानव जाति ====
राष्ट्रीय शिक्षा के विरोधियों का तीसरा तर्क यह है कि “मानव मन सब जगह एक ही है और उसे हर जगह एक जैसी मशीन में से गुजारकर एक जैसा ही गढ़ा जा सकता है ।' इस तर्क को धराशायी करते हुए श्री अरविंद ने कहा कि “यह तर्क बुद्दि का पुराना और घिसा-पिटा अंधविश्वास है, जिसे तिलांजलि देने का अब समय आ गया है । मानव जाति के समष्टित मन और आत्मा के अंदर अनंत विभिन्ननाओं को लिये हुए असंख्य व्यक्तिगत मन और आत्मा भी होते हैं । हम आत्माओं के कुछ सामान्य लक्षण होते हैं और कुछ विशिष्ट । इन दोनों के बीच एक मध्यवर्ती सत्ता होती है, जिसे कहते हैं राष्ट्रीय मानस या जन-चेतना । और अगर शिक्षा को मशीन निर्मित साँचा बनने के बजाय मानवीय मन और चेतना की शक्तियों के जीवंत प्रबोधन की प्रक्रिया बनना है तो इसे इन तीनों सत्ताओं का ख्याल रखना होगा ।'
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राष्ट्रीय शिक्षा के विरोधियों का तीसरा तर्क यह है कि “मानव मन सब जगह एक ही है और उसे हर जगह एक जैसी मशीन में से गुजारकर एक जैसा ही गढ़ा जा सकता है ।' इस तर्क को धराशायी करते हुए श्री अरविंद ने कहा कि “यह तर्क बुद्दि का पुराना और घिसा-पिटा अंधविश्वास है, जिसे तिलांजलि देने का अब समय आ गया है । मानव जाति के समष्टित मन और आत्मा के अंदर अनंत विभिन्ननाओं को लिये हुए असंख्य व्यक्तिगत मन और आत्मा भी होते हैं । हम आत्माओं के कुछ सामान्य लक्षण होते हैं और कुछ विशिष्ट । इन दोनों के मध्य एक मध्यवर्ती सत्ता होती है, जिसे कहते हैं राष्ट्रीय मानस या जन-चेतना । और अगर शिक्षा को मशीन निर्मित साँचा बनने के बजाय मानवीय मन और चेतना की शक्तियों के जीवंत प्रबोधन की प्रक्रिया बनना है तो इसे इन तीनों सत्ताओं का ख्याल रखना होगा ।'
    
इस कथन को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा में तीनों बातों का ध्यान रखना पड़ता है - (१) मनुष्य-व्यक्ति रूप में अपनी सामान्यता व अनोखेपन के साथ, (२) राष्ट्र या समाज और (३) समस्त मानव जाति । इससे सहज निष्कर्ष निकलता है कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा उसे ही कहा जा सकता है जो व्यक्ति के रूप में मनुष्य कि इस प्रकार सहायता दे कि उसके भीतर विद्यमान क्षमता एवं प्रतिभा को पूरे लाभकारी ढंग से बाहर प्रगट होने का अवसर मिले और जो मानव जीवन के पूर्ण उद्देश्य व संभावनाओं की प्राप्ति की सिद्धता प्रदान करे । साथ ही जो शिक्षा मनुष्य को अपने समाज के, जिसका कि वह अंग है, जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ और उससे भी आगे बढ़कर संपूर्ण मानव जाति, जिसकी वह स्वयं एक इकाई है और उसका राष्ट्र या समाज जिसका सजीव, पृथक किंतु अविच्छेद्‌ सदस्य है, वे समग्र महानू जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ सम्यक्‌ संबंध स्थापित करने में सहायक हो।
 
इस कथन को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा में तीनों बातों का ध्यान रखना पड़ता है - (१) मनुष्य-व्यक्ति रूप में अपनी सामान्यता व अनोखेपन के साथ, (२) राष्ट्र या समाज और (३) समस्त मानव जाति । इससे सहज निष्कर्ष निकलता है कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा उसे ही कहा जा सकता है जो व्यक्ति के रूप में मनुष्य कि इस प्रकार सहायता दे कि उसके भीतर विद्यमान क्षमता एवं प्रतिभा को पूरे लाभकारी ढंग से बाहर प्रगट होने का अवसर मिले और जो मानव जीवन के पूर्ण उद्देश्य व संभावनाओं की प्राप्ति की सिद्धता प्रदान करे । साथ ही जो शिक्षा मनुष्य को अपने समाज के, जिसका कि वह अंग है, जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ और उससे भी आगे बढ़कर संपूर्ण मानव जाति, जिसकी वह स्वयं एक इकाई है और उसका राष्ट्र या समाज जिसका सजीव, पृथक किंतु अविच्छेद्‌ सदस्य है, वे समग्र महानू जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ सम्यक्‌ संबंध स्थापित करने में सहायक हो।
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राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
 
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
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राष्ट्रीय शिक्षा की पहली और सर्वोपरि व्याख्या है कि वह राष्ट्रीय आदर्शों का ज्ञान व संस्कार देनेवाली शिक्षा है । परंतु हमें याद रखना चाहिए कि शिक्षा का अंतिम उद्देश्य “सहानुभूति एवं विवेकबुद्धि का उदात्तीकरण' है । विदेशी प्रणालियों के द्वारा इस लक्ष्य पर पहुंचना प्रायः संभव नहीं होता । अधिकतम लोगों के उदृत्तीकरण के कार्य को सरल और प्रभावकारी ढंग से संपन्न करने के लिए आवश्यक है कि सुपरिचित आदर्शों और रूपकों का सहारा लिया जाए । प्रत्येक छात्र की शिक्षा को एक सतत प्रक्रिया के रूप में आयोजित करना होगा, ताकि उसकी बाल्यावस्था के अनुभवों एवं बाद के अनुभवों के बीच भारी दूरी न दिखाई दे। ऐसी दूरी से विचारों में संभ्रम पैदा होता है और यह वैचारिक भटकाव एक प्रकार से शैक्षिक प्रलय है । अतः राष्ट्रीय शिक्षा का तानाबाना परिचित परिवेश के आधार पर ही बुना जाना चाहिए। आदर्शों को सदैव हमारे अपने
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राष्ट्रीय शिक्षा की पहली और सर्वोपरि व्याख्या है कि वह राष्ट्रीय आदर्शों का ज्ञान व संस्कार देनेवाली शिक्षा है । परंतु हमें याद रखना चाहिए कि शिक्षा का अंतिम उद्देश्य “सहानुभूति एवं विवेकबुद्धि का उदात्तीकरण' है । विदेशी प्रणालियों के द्वारा इस लक्ष्य पर पहुंचना प्रायः संभव नहीं होता । अधिकतम लोगों के उदृत्तीकरण के कार्य को सरल और प्रभावकारी ढंग से संपन्न करने के लिए आवश्यक है कि सुपरिचित आदर्शों और रूपकों का सहारा लिया जाए । प्रत्येक छात्र की शिक्षा को एक सतत प्रक्रिया के रूप में आयोजित करना होगा, ताकि उसकी बाल्यावस्था के अनुभवों एवं बाद के अनुभवों के मध्य भारी दूरी न दिखाई दे। ऐसी दूरी से विचारों में संभ्रम पैदा होता है और यह वैचारिक भटकाव एक प्रकार से शैक्षिक प्रलय है । अतः राष्ट्रीय शिक्षा का तानाबाना परिचित परिवेश के आधार पर ही बुना जाना चाहिए। आदर्शों को सदैव हमारे अपने
    
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गांधीवादी दर्शन का व्यावहारिक पक्ष
 
गांधीवादी दर्शन का व्यावहारिक पक्ष
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गांधी-दर्सन का एक मूल सिद्धांत है - कर्मयोग तथा अनासक्ति योग । गीता के निष्काम कर्मयोग का प्रभाव गांधीवाद पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । ईश्वर की प्राप्ति या आत्मानुभूति को गांधीवाद में प्रमुख स्थान मिला है । सत्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा का मार्ग अपनाना ही गांधीवाद है । गांधीवाद में साध्य और साधन दोनों की पवित्रता पर बल दिया गया है । व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य स्थापित करना गांधीवाद की अपनी विशेषता है । सत्य के लिए आग्रह करना आवश्यक है । सत्याग्रह आत्मबलयुक्त वीर पुरुषों का गुण है । अहिंसा और सत्याग्रह कायरों के वश की बात नहीं है । बेसिक शिक्षा गांधीवादी दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है । गांदीवाद जिस शोषणहीन, वर्गहीन, जातिहीन समाज की कल्पना करता है, उसके प्राप्त करने के लिए बेसिक शिक्षा आवश्यक शर्त है ।
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गांधी-दर्सन का एक मूल सिद्धांत है - कर्मयोग तथा अनासक्ति योग । गीता के निष्काम कर्मयोग का प्रभाव गांधीवाद पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । ईश्वर की प्राप्ति या आत्मानुभूति को गांधीवाद में प्रमुख स्थान मिला है । सत्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा का मार्ग अपनाना ही गांधीवाद है । गांधीवाद में साध्य और साधन दोनों की पवित्रता पर बल दिया गया है । व्यक्ति और समाज के मध्य सामंजस्य स्थापित करना गांधीवाद की अपनी विशेषता है । सत्य के लिए आग्रह करना आवश्यक है । सत्याग्रह आत्मबलयुक्त वीर पुरुषों का गुण है । अहिंसा और सत्याग्रह कायरों के वश की बात नहीं है । बेसिक शिक्षा गांधीवादी दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है । गांदीवाद जिस शोषणहीन, वर्गहीन, जातिहीन समाज की कल्पना करता है, उसके प्राप्त करने के लिए बेसिक शिक्षा आवश्यक शर्त है ।
    
अनिवार्यता एवं माध्यम का प्रश्न
 
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